Book Title: Sambodhi 2018 Vol 41
Author(s): J B Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMBODHI Indological Research Journal of L.D.I.I. VOI. XLI 2018 EDITOR JITENDRA B. SHAH BARD L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMBODHI Indological Research Journal of L.D.I.I. VOI. XLI 2018 EDITOR JITENDRA B. SHAH ATH BE L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMBODHI VOI. XLI, 2018 ISSN 2249-6661 Editor Jitendra B. Shah Published by L. D. Institute of Indology Ahmedabad 380 009 (India) Phone : 26302463 Fax: 26307326 1.dindologyorg@gmail.com Price : Rs. 300/ Printed by Navprabhat Printing Press Ahmedabad M:9825598855 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय संबोधि के पाठकों एवं सुधीजनों को नववर्ष की वेला में अभिनंदन करते हुए ४१वें अंक को आपके करकमलों में देना मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी। इस अंक में संबोधि की परम्परानुसार अंग्रेजी, हिन्दी एवं गुजराती तीनों भाषाओं में उत्कृष्ट एवं मौलिक शोध लेख प्रस्तुत करने के प्रयास किये गये हैं। इस बार हम इसमें पर्शियन लिपि का भी उपयोग करना चाहते थे लेकिन तकनीकी कारणों से तत्तद् लेखकों की इच्छा पूर्ति नहीं कर सके है । प्रो. दीप्ति त्रिपाठी (निवर्तमान निदेशक, राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन, नई दिल्ली) ने ब्रिटिश कोलम्बिया यूनिवर्सीटी में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में अपने बीज रूप उद्बोधन में प्रारम्भ में ही संस्कृत और बाद में अंग्रेजी भाषा में उद्बोधन किया था जिसे इस अंक में यथावत् Reflections on Manuscriptology: Forays into Indian Paradigms of Knowledge Management शीर्षक के अन्तर्गत प्रस्तुत करने में हमें आनन्द की अनुभूति हो रही है । अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर ऐसे अवसर बहुत कम ही आते हैं जब देववाणी संस्कृत को ऐसा विशिष्ट सन्मान मिल पाया हो । डॉ. बलराम शुक्ल ने फारसी भाषा में लिखित जमी कृत यूसुफ जुलैक्खा का संस्कृतान्तरण बहुत सुंदर प्रस्तुत किया है । इस प्रकार के मौलिक लेख बहुत कम ही लिखे जाते हैं। डॉ. सुषीम दूबे ने अपने लेख में अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शैव एवं अन्य दर्शनों में चेतना का संक्षिप्त प्रारूप प्रस्तुत किया है । डॉ. चारुलता वर्मा द्वारा लिखित रामकथा के मुरारी संस्करण पर टिप्पण्यात्मक लेख पठनीय है । संस्कृत ग्रंथों में वृक्षों का विशद वर्णन प्रो. धनंजय वासुदेव द्विवेदी के लेख में मिलेगा । मेरे स्वयं द्वारा प्रस्तुत अहमदाबाद में जैन समाज की प्रगति का लेखा जोखा संभवतः अथ से अद्यावधि पर्यंत देने का प्रयास किया गया हिन्दी भाषा के लेखों में प्रो. धर्मचंद जैन ने वैशेषिक दर्शन में दुःख का स्वरूप तथा प्रो. पाहि कृत दुःख के वर्गीकरण की महत्ता बहुत अच्छी प्रकार से वर्णित की है। साध्वी श्री प्रियाशुभांजनाश्रीजी ने आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ का संक्षेप में उत्तम परिचय दिया है । डॉ. सुरेश्वर मेहेर ने Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि शीर्षक लेख में आलोचनात्मक टिप्पणी प्रस्तुत की है । अन्य दर्शनों के ज्ञान की आवश्यकता पर डॉ. वीरसागर जैन ने बल दिया है। प्रो. सत्यव्रत वर्मा ने लिङ्गपुराण में योगदर्शन प्रतिपादित किया है । डॉ. मोहित कुमार मिश्र ने संस्कृत तथा फारसी भाषा में क्रियापदों का साम्य वड़ी विद्वत्तापूर्ण एवं रोचक शैली में प्रस्तुत किया है । डॉ. हेमवतीनंदन शर्मा ने संस्कृत रचना – श्री दयानंदचरित महाकाव्य की समीक्षा लिखी है । इस अंक में चित्रकला से संबन्धित तीन लेख श्री ज्योति कुमावत, डॉ. रीतिका गर्ग तथा राजेन्द्र प्रसाद द्वारा तैयार किये गये हैं । साध्वी श्री प्रियाशुभांजनाजी ने आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ में मनोविज्ञान का निरूपण करने का भी सुंदर प्रयास किया गुजराती विभाग में प्रायः सभी लेख उत्कृष्ट ढंग से तैयार हुए हैं जिनका अन्य भाषाओं में अनुवाद अपेक्षित है । इस खंड में पं. सुखलालजी का "भारतीय तत्त्वज्ञान की रूपरेखा" भारतीय दर्शन के प्रत्येक जिज्ञासु हेतु अवश्यमेव पठनीय है । मुनि वैराग्यरतिविजयजी ने श्रुत साधना में साध्वीगणों के योगदान का संभवतः प्रथम बार उल्लेख किया है । प्रो. भाईलालभाई ने रघुविलास में निरुपित जीवन बोध प्रस्तुत किया है। प्रो. भगवान एस. चौधरी ने जैन संप्रदाय में स्तवनों के माहात्म्य पर सुंदर प्रकाश डाला है। अंतिम लेख श्री रमेशभाई ओझा द्वारा लिखित पूज्य मुनिजिनविजयजी के जीवन कवन का अत्यंत उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है । हमें विश्वास है कि संबोधि का यह अंक आपको रूचिकर तथा उपयोगि प्रतीत होगा । आपके अभिप्रायों की प्रतिक्षा रहेगी। 26 दिसम्बर 2018, अहमदाबाद जितेन्द्र बी. शाह Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CONTENTS English Section 1. Reflections on Manuscriptology : Forays into Indian Paradigms of Knowledge Management 2. Kathakautukam : Sanskrit rendering of Persian Yusuf-Zulaykha of Jami Dipti Tripathi Balram Shukla 11 3. Consciousness in Philosophy of Advaita, Viśistādvaita, Dvaita and Saivism with synoptic view of other philosophical traditions 4. A Note on Murāri's version of the Rāma-Story Sushim Dubey 27 Charulata Verma 36 5. Plant Propagation as described in Sanskrit Texts Dhananjay Vasudeo Dwivedi 6. The Jain in Ahmedabad Jitendra B. Shah धर्म चन्द जैन 79 हिन्दी विभाग 7. वैशेषिकदर्शन में दुःख का स्वरूप तथा प्रो. पाहिकृत दुःखवर्गीकरण की महत्ता 8. आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ : एक परिचय 9. ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना 86 साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री सुरेश्वर मेहेर वीरसागर जैन 91 10. अन्य दर्शनों के ज्ञान की आवश्यकता 104 11. लिङ्गपुराण का योगदर्शन सत्यव्रत वर्मा 109 12. संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य मोहित कुमार मिश्र 118 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 145 155 13. શ્રીયાનજ્વરિતમમહાવ્યમ્ : સમીક્ષા हेमवती नन्दन शर्मा 14. મુશ્વિની છે મુજને ગૌર રાજસ્થાન ज्योति कुमावत 15. કાંડા શૈતી મેં નાયિક-બે અંકના रीतिका गर्ग 16. તો ત્ની કે નયે મુહાવરે તે : यामिनी राय के चित्र राजेन्द्र प्रसाद 17. ભાવાર્ય હેમવંદ્રસૂરિ છૂત મવમવના ગ્રંથ ગૌર મનોવિજ્ઞાન સાધ્વીશ્રી પ્રિયાણુમાંગનાથી 163 169 ગુજરાતી વિભાગ પં. સુખલાલજી 177 મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી 188 ભાઈલાલભાઈ જી. પટેલ 206 18. ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની રૂપરેખા 19. શ્રુતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન 20. રઘુવિલાસમાં નિરૂપિત જીવનબોધ 21. જૈન સંપ્રદાયમાં “સ્તવન'નું માહાત્મ 22. પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ – ૩, જૂન ૧૯૭૬) ભગવાન એસ. ચૌધરી 212 રમેશ ઓઝા 217 217 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Statement about ownership and other particulars about Sambodhi, the Yearly Research Journal of the L. D. Institute of Indology, Ahmedabad to be published in the first issue every year after the last day of March. FORM IV (See Rule 8) Ahmedabad Yearly 1. Place of publication 2. Periodicity of its publication Printer's Name Nationality Address 4. Publisher's Name Nationality Address Indian Jitendra B. Shah Indian L. D. Institute of Indology, Ahmedabad - 380 009. Jitendra B. Shah Indian L. D. Institute of Indology, Ahmedabad - 380 009. 5. Editors' Names Nationality Address Nil 6. Name and addresses of Individuals who own the newspaper and partners or shareholders holding more than one-percent of the total Shares. I, Jitendra B. Shah, hereby declare that the particulars given above are true to the best of my knowledge and belief. Jitendra B. Shah Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reflections on Manuscriptology : Forays into Indian Paradigms of Knowledge Management Dipti Tripathi शोभनोऽयमवसरः सम्प्राप्तः वैंकूवरनगरे विश्वसंस्कृतसम्मेलनस्य अस्माकं सौभाग्येन । उक्तं हि सतां सद्भिः सङ्गः कथमपि पुण्येन भवति । मन्ये विदुषां सङ्गोऽपि महत्पुण्यस्येव प्रसादः । अद्य अत्र विदुषां समवायं दृष्ट्वा मोमुद्यते मे मनः । ईदृश एव समवाये भारतीयानां पाण्डुलिपीनां सम्बन्धे कांश्चन विचारबिन्दून् उपस्थापयन्ती महान्तं परितोषमनुभवामि ।। प्रथमं तावत् सम्मेलनस्य ब्रिटिशकोलम्बियाविश्वविद्यालयीयेभ्यः समायोजकेभ्यः हार्दिकमाभारं निवेदयामि यतस्तैः ईदृशोऽअवसरः मह्यं प्रदत्तः येनाहं स्वानुभवं स्वविचारांश्च विभिन्नेषु विषयेषु निष्णातविदुषां समक्षमुपस्थापयितुमत्र उपस्थितास्मि । ____ सुविदितमेव भवद्भिः यत् भारतीयानां पाण्डुलिपीनामितिहास: सुप्राचीनः सुविस्तृतश्च । ग्रन्थप्रेम प्रतिपादयन् एष श्लोकः शिष्टसमाजे तेषां माहात्म्यमपि रेखांकितं करोति - ग्रन्थाः ममाग्रतः सन्तु ग्रन्था मे सन्तु पृष्ठतः । ग्रन्थाः मे सर्वतः सन्तु ग्रन्थेष्वेव वसाम्यहम् । मृच्छकटिकनाटकस्य तृतीयोऽके वर्णिता चारुदत्तस्य वसन्तसेनायाश्च गृहे ग्रन्थशोभा । पुनश्च कादम्बर्या वृद्धद्रविडस्य सामग्रीषु आसीत् 'धूमरक्तालक्तकाक्षरतालपत्रकुहकतन्त्रमन्त्रपुस्तिका, हरितपत्रसांगारमषीमलिनशम्बूकवाहिना ।' लिखनविरागः पुस्तिकाशोधने उपेक्षाभावश्च मूर्खतापादकेषु अष्टसु कारणेषु कारणरूपेण परिगणितौ । कलौ युगे विष्णुः लेख्याक्षराणां देवतात्वेन सुपूजितः 'कलौ लिप्यक्षरे हरिः' । अन्येषु युगेषु अन्ये देवताः इति निष्कर्षः । एकस्मिन् स्थाने नारदेन बृहस्पतिना च उक्तं षट्सु मासेषु उच्चरिताः शब्दाः विस्मर्यन्ते । तेषां नाशः न स्यादिति लेखनाय ब्रह्मणा अक्षराणामाविष्कारः कृतः। अस्याः Keynote Address by Prof. Dipti Tripathi in the 17th World Sanskrit Conference held at the University of British Columbia Vancourer, Canada on 9th July, 2018 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dipti Tripathi SAMBODHI लिपे म ब्राह्मी इत्यासीत् । जैनपरम्परायां मन्यते प्रथमेन तीर्थंकरेण ऋषभदेवेन लोकानां हिताय अक्षराणमाविष्कारः कृतः । लिपेर्नाम च निजकन्यायाः नामसाम्येन ब्राह्मी इति कृतम् । एतेषु सर्वेषु प्रसंगेषु प्रतीयते यत् भारतवर्षे लेखनपरम्परा अतीव प्राचीना । यद्यपि कालस्य प्रभावेण अतिप्राचीनानी पुस्तकानी अद्य नोपलभ्यन्ते किन्तु अत्र अनुपलब्धिः अभावस्य प्रमाणं न । यतो हि अन्यानि बहूनि प्रमाणानि सन्ति यैः सम्यक् प्रतीयते यत् भारतवर्षे लेखनकर्म वैदिककालादेव आरब्धम् । पण्डितक्षेत्रेशचन्द्र चट्टोपाध्यायः 'Reference to writing in Rgveda'2 शीर्षके निबन्धे स्वमतमुपस्थापयति यत् ऋग्वेदस्य दशममण्डलस्य द्विसप्ततितमे सूक्ते चतुर्थे मन्त्रे यदुक्तं - उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचं उत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम् । उतो त्वस्मै तन्वं विसस्त्रे जायेव पत्ये उषती सुवासाः ॥ तत्र 'वाचः दर्शनम्' इत्युक्तिः लेखनक्रियां संकेतयति । आचार्यो ब्रजबिहारी चौबे 'Manuscriptology : Past and Present' शीर्षके निबन्धे स्थापयति सिन्दुसभ्यतायाः प्राप्तेषु वस्तुषु प्रमाणीभवति यत् तस्मिन् काले लेखनकला सुप्रचलिता आसीत् । ततः पूर्वं वैदिककालेऽपि कापि लिपि: प्रचलिता भवेदिति नास्त्यत्र सन्देहस्य अवकाशः । आचार्यः के० व्ही० शर्मा अपि 'Manuscripts of India' निबन्धे वैदिककाले लेखनकला प्रचलिता आसीदिति प्रतिपादयते । परवर्तिनि काले अनेकेषु काव्येषु पुस्तकानां उल्लेखो वर्तते । यथा हर्षचरिते बाणभट्टस्य मित्रेषु पुस्तकवाचकः सुदृष्टिः, लेखको गोविन्दकः, पुस्तकृत कुमारदत्तश्च परिगणिताः । तत्रैव राज्ञः हर्षस्य कृते । अन्येषां सर्वेषां वस्तूनां सह साधुः कुमारभास्करवर्मणा प्रेषितं 'स्थूलसूत्रनियन्त्रितपुस्तिकापुलकमपि' नयति। पुनश्च तत्रैव 'अगरुवल्कलकल्पितसंचयानि सुभाषितभाजिपुस्तकानि' अपि वर्णितानि । लोके प्रसिद्धानि वचनान्यपि मातृकाळां महत्त्वं संकेतयितुमलम् । यथा - सम्भूष्यं सदपत्यवत् परकराद्रक्ष्यं च सुक्षेत्रवत् संशोध्यं व्रणितांगवत् प्रतिदिनं वीक्ष्यं च सन्मित्रवत् । बध्यं वध्यवदश्लथं दृढगुणैः स्मर्यं हरेर्नामवत् नैवं सीदति पुस्तकं खलु कदाप्येतद्गुरूणां वचः ॥ अपि च पुस्तकानां रक्षणं कथं कार्यमिति अग्रिमे श्लोके सुष्ठ वर्णितम् – तैलाद्रक्षेज्जलाद्रक्षेद्रक्षेच्छिथिलबन्धनात् । मूर्खहस्ते न दातव्यमित्थं वदति पुस्तकम् ॥ ये ग्रन्थानां महत्त्वं नावगच्छन्ति तेषां हस्ते ग्रन्थः नैव दातव्यः यतो हि तेषां हस्ते ग्रन्थस्य नाशः अवश्यम्भावी । पुस्तकशब्दस्य प्रयोगः स्वकीये अर्थशास्त्रे चाणक्येन मातृकायै कृतः । परवर्तीयुगे अनेकेषु ग्रन्थेषु Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Reflections on Manuscriptology: मातृकामधिकृत्य सूचना उपलभ्यते । यथा योगिनीतन्त्रे नानाविद्या लेखनसामग्री वर्णिता । तत्र लेखनोपयोगिनां पत्राणां सूचि परिगणिता, तद्यथा - भूर्जे वा तेजपत्रे वा ताले वा ताडिपत्रके । अगुरुणापि देवेशि पुस्तकं कारयेत् प्रिये ॥ सम्भवे स्वर्णपत्रे च ताम्रपत्रे च शंकरि । अन्यवृक्षत्वचि देवि तथा केतकिपत्रके ॥ मार्तण्डपत्रे रौप्ये वा वटपत्रे वरानने ॥ लेखनी वंशताम्रसुवर्णादि निर्मिता स्यादिति वल्लालसेनः दानसागरनामके ग्रन्थे प्रतिपादयति । योगिनीतन्त्रेऽपि तृतीयभागे सप्तमे पटले नैकाः लेखन्यः वर्णिताः । वाराहीतन्त्रे पंचप्रकारकाः लिपयः परिगणिताः मुद्रालिपिः शिल्पलिपिलिपिर्लेखनीसम्भवा । गुण्डिकाघूणसम्भूता लिपयः पंचधा मताः ॥ खड्गमालातन्त्रेऽपि एतासु तिसृणामुल्लेखो वर्तते - लेखन्या लिखितं विप्रैर्मुद्राभिरंकितं च यत् । शिल्पादिनिर्मितं यच्च पाठ्यं धार्य च सर्वदा ॥ न केवल लेखनीगुणं, लेख्यपत्रगुणं, लिपिभेदाश्च वर्णिताः विविधेषु ग्रन्थेषु, अपितु लेखकः कीदृशो भवेदित्यपि विस्तरेण स्थापितं प्राचीनेषु ग्रन्थेषु । काव्यमीमांसायां राजशेखरः लेखकगुणान् विवृणोति 'संस्कारविशुद्धयर्थं सर्वभाषाकुशलः, शीघ्रवाक्, चार्वक्षर, इंगिताकारवेदी, नानालिपिज्ञः कविर्ताक्षणिकश्च लेखक: स्यात् ।। उक्तं च चाणक्यनीतिशास्त्रे - सकृदुक्तगृहीतार्थो लघुहस्तो जिताक्षरः । सर्वशास्त्रसमालोकी प्रकृष्टो नाम लेखकः ॥ अत्र ध्यातव्यं यत लेखकशब्दस्य प्रयोगो आधनिके काले भिन्ने अर्थे भवति संस्कृते तु लेखनकर्मणि प्रवृत्तः लेखक इत्यभिधीयते स्म । तत्रैव काव्यमीमांसायां प्रस्तावितं यन्नूतनायाः कृतेः अनेकाः प्रतिलिपयः कारयितव्याः येन कृतेर्लोपो न स्यात् । श्रूयते नैषधीयचरितस्य प्रतिलिपिः परीक्षणार्थ काश्मीरं प्रेषिता । राजशेखरेण ग्रन्थोच्छेदस्य कारणानि अपि परिगणितानि तद्यथा निक्षेपो विक्रयो दानं देशत्यगोऽल्पजीविता । त्रुटिका वह्निरम्भश्च प्रबन्धोच्छेदहेतवः ॥ दारिद्र्यं व्यसनासक्तिरवज्ञा मन्दभाग्यता । दुष्टे द्विष्टे च विश्वासः पंच काव्यमहापदः ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dipti Tripathi SAMBODHI कविना लेखनसामग्री सदा निजपार्श्वे रक्षणीया यतः लेखने कापि असुकरता न स्यात् । अत एव कबेः पार्श्वे 'संहटिका, सफलकखटिका समुद्गकः, सलेखनीमसीभाजनानि, ताडिपत्राणि, भूर्जत्वचो वा सलोहकण्टकानि तालदलानि, सुसम्मृष्टा भित्तयः सतत्सन्निहिताः स्युः । तद्धि काव्यविद्यायाः परिकरः इति आचार्याः । ललितविस्तरनामकस्य बौद्धग्रन्थस्य दशमे अध्याये चतुःषष्टिलिपीनां परिगणनं कृतम् । अस्य ग्रन्थस्य सम्पादकः संशोधकश्च वैद्योपाह्नः परशुरामशर्मा (P. L. Vaidya) मनुते यत् अस्य ग्रन्थस्य कालः ईस्वीयायाः प्रथमशताब्द्या आरभ्य तृतीयशताब्द्या मध्ये भवितुमर्हति । उत्तरवर्तिनी कालसीमामपि यदि वयं मन्यामहे तर्हि स्वीकरणीयं यत् तस्मिन् काले एताः लिपयः लोके प्रचलिताः आसन् । उक्तं च ललितविस्तरे 'अथ बोधिसत्त्वः विश्वामित्रमाचार्यमेवमाह कतमां मे भो उपाध्याय लिपि शिक्षापयासि, ब्राह्मीखरोष्ठीपुष्करसारिं, अंगलिपि, बंगलिपि, मगधलिपि, मंगल्यलिपि, अंगुलीयलिपि, शकारिलिपि, ब्रह्मवलिलिपि, पारुष्यलिपि, द्राविडलिपि, किरातलिपि, दाक्षिण्यलिपि, दाक्षिण्यलिपि, उग्रलिपि, संख्यालिपिम्, अनुलोपलिपि, अवमूर्धिलिपि, दरदलिपि, खाष्यलिपि, चीनलिपि, लूनलिपि, हूणलिपि, (अत्र अनेकाः अन्याः लिपयः परिगणय्य पृच्छति) आसां भो उपाध्याय चतुःषष्टीलिपीनां कतमां त्वं शिष्यापयिष्यसि ?' भारते वर्षे पाण्डुलिपीनां बाहुल्यस्य अन्यतमं कारणं विद्यादानस्य माहात्म्यस्वीकरणम् उक्तं च हयशीर्षपांचरात्रे - आकाशस्य यथा नान्तं सिद्धेरप्युपलक्ष्यते । एवं विद्याप्रदानस्य नान्तं सर्वगुणात्मकम् ॥ दानमयूखे10 नीलकण्ठेन उक्तं, कपीलादानसहस्रेण सम्यग्दत्तेन यत्फलम् । तत्फलं समवाप्नोति पुस्तकैकप्रदानतः ॥ एवं त्रिविधं विद्यादानम्, पुस्तकदानम् प्रतिमादानम् अध्यापनं चेति । अत्र भारतीयपरम्परायां पुस्तकानां महत्त्वं, तेषां संरक्षणं, लेखनसामग्री, लिपिबाहुल्यादि विषयान् अधिकृत्य भवतां समक्षं दिङ्मात्रनिदर्शनं कृतम् । इदानीमाङ्ग्लभाषामाश्रित्य आधुनिके युगे एतेषामावश्यकताम् उपयोगितां च विषयीकृत्य किमपि प्रस्तोतुमुत्सहे । It is estimated that India has around ten million Mss. This is perhaps the single largest collection in any one country and this number does not include Mss of Indian origin in the custody of institutions outside India. Manuscripts contain the cumulative knowledge, experience and practices of the people of India from an unspecified past which goes back several thousand years. This needs to be pointed out only to reiterate the vastness and the antiquity of the Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Reflections on Manuscriptology: knowledge systems of the country as captured in manuscripts. What is available in the form of Mss today, is only a fraction of what was once there. Historical, sociological, climatic and other factors have contributed to the depletion of a very vast and rich heritage. In the not very distant past, a major portion of India's Mss has been lost due to neglect by their custodians. Unfortunately, the situation remains unchanged and is a matter of grave concern for manuscriptologists, academicians, generalists alike. The reason for this concern lies in the purpose of manuscripts. Of ourse, Sanskritists need no introduction to the famous saying t h ay Haisha yada'. The underlying purpose of Manuscripts is to chronicle the society in which they are created. They are not only historical, geographical, sociological chronicles but are also chronicles of development of knowledge systems and are a tool of coming to grips with history of ideas. Which means that in order to understand the development of ideas and theories in a particular discipline or indeed the society at large, manuscripts are a potent instrument. Periodisation applied to content analysis in manuscripts can provide insight in these areas. Though periodisation is integral to manuscript studies it needs to be effectively applied to studying development of theories and ideas also. For this purpose, benchmarking has to be done at two levels 1) The time when the text was originally created and 2) the time of the copy that is available to us. In the first instance it helps in deciphering the development of a thought and in the second, one is able to look into the sustainability of that thought through different periods in history. It might also lead to finding out the causes of interpolations generally found in texts, which could be as simple as a scribe copying mindlessly, to a new idea having been developed in the intervening period between the original writing and the copy being created. Comparing different manuscripts in a subject belonging to different periods can also be helpful. The tradition of Indian knowledge systems has been preserved and propagated in two parallel streams, e.g. oral and written. We are all well aware of the rigour and scientific precision through which the Vedic texts have been preserved for the past more than five thousand years. I tend to agree with the date of the Rgveda as proposed by Lokmanya Balgangadhar Tilak in his acclaimed work Orion (1893). Besides the Vedas, there are the six Vedangas - shiksha, vyakarana, kalpa, nirukta, chhanda and jyotisha, other knowledge Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dipti Tripathi SAMBODHI systems also have their own oral traditions which is evident in the texts that have been handed down to us. Those who have studied in the traditional Gurukula system or who have studied under the tutelage of a traditional guru are aware that while explaining the text the guru passes on information which is not available in written tradition. He would have acquired it in turn from his guru. In the Shastric tradition when Poorvapaksha is presented many a time the source or origin of that principle is not mentioned. In such a situation, the oral tradition comes to the rescue of the student which is explained to him by his guru. For example, in Paramalaghumanjusha in the chapter Sphotavicarah the exposition begins with the question, 7 SerT: : i quif: paffa . . fcrifqul carureza: 111 Here, it is to be noted that the poorvapaksha has been given without mentioning the source unlike in other places where it has been mentioned na dilchat:12. The first poorvapaksha is the opinion of the Mimansakas that has been quoted and refuted. This fact is handed down through oral tradition and is explained as such. This is only an example of how the written text in Sanskrit has to depend extensively on the oral tradition for a proper understanding of the former. Both, the oral and the written traditions are mutually complementary and enrich each other. In fact, the Indian system of knowledge management has regularly used both in order to develop a robust knowledge base. Vedic references to writing and the fact that the Vedas were immaculately preserved in the oral tradition is a strong pointer in this direction. A lot of Indian knowledge system has been preserved because of the existence of the oral tradition. Therefore, in order to resurrect the knowledge base both, written texts in the form of manuscripts and the oral tradition have to be used as complementary systems. The methodology for so doing needs further attention. Historically, major manuscript repositories like that in Nalanda and Somnath, lost rich collections in their libraries when India was repeatedly invaded by marauding armed forces. It is said that the library at Nalanda kept burning for almost three months when it was set on fire. One can only try to imagine what must have been there once, in India, by way of written literature in all disciplines. This creates a strong sense of sadness at the irretrievable loss of a magnificent heritage. Before India gained independence in 1947, princely states in the country contributed significantly in preserving this tangible heritage. They took Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Reflections on Manuscriptology: pride and interest in acquiring and preserving Mss in whatever way they could, but after independence, the political scenario changed and the patronage, Mss had received from the princely states, in some cases, decreased considerably. Some of the collections were converted into oriental research institutes/ libraries, like the ones at Baroda, Mysore, Thiruvananthapuram, Thanjavoor, Varanasi, Darbhanga and so on. There is still a sizeable number of collections in the custody of their owners who were large and small princely states. Notable among these are the collections at Jodhpur, Udaipur, Kangra, Varanasi, Jammu and many more. Some of the oriental research institutes became part of neighbouring universities like the ones at Baroda, Tirupati, Thiruvananthapuram, Mysore, Darbhanga and Varansai. The likes of Government Oriental Research Inst at Hyderabad and Tanjavur library are directly controlled by the government. There are autonomous institutions also that have very significant and large collections of Mss like the Bhandarkar Oriental Research Institute at Pune and the Asiatic Society at Calcutta and Bombay to name only a few. Besides, several libraries in older universities such as Bombay, Calcutta, Patna, BHU, AMU, Kashmir University etc. have got a sizeable number of Mss in their collections. There are large collection of manuscripts in national and state museums, in different archives and also in very many private museums. Here, it is necessary to point out that these repositories are not the only collection of Mss in the country, a still undocumented and therefore, unconfirmed number is held in individual collections of traditional scholars. After the patronage from some of the princely states depleted the work of preservation, conservation and safe keeping of Mss was left in the hands of financially ill-equipped and man power wise untrained hands. The situation, even to this day, has not changed much. Therefore, there has been a steady decline in the number of referable Mss in the country. The kaleidoscope of Indian Mss is neither language specific nor script specific nor region specific. You can find manuscripts in well-known languages like Sanskrit and Persian and less known languages like Manipuri, Mizo and Tao. In fact, it only re-enforces my belief that any community that has got a script is bound to have Mss. Humankind is a social being. The desire to communicate and share thoughts and experiences is natural and inbuilt in the human psyche. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dipti Tripathi SAMBODHI Therefore, all those communities that have some sort of script or have access to script, are bound to have Mss. The content may vary from one group of people to another but the desire to express and communicate as also to preserve information regarding respective groups of people has led to documents being created. There is a general perception among people that in the Indian tradition spiritual discourse was given high importance and therefore, Sanskrit manuscripts have dominance of such texts. However, this is not the full truth because the subcontinent has a vast knowledge base and, texts dealing with diverse subjects such as Physics, Chemistry, Astronomy, Mathematics, Metallurgy, Ayurveda, Dhanurveda, Veterinary science, the Arts, Grammar and many more, are very much part of the heritage. One has to delve deep into this area to discover gems of knowledge that exist hidden in Mss. David Pingree's 'Census of Exact Sciences in India' is one catalogue which provides information regarding Mss on astronomy and mathematics. More recently, Anandashram Sanstha at Pune has prepared a catalogue of Mss on ancient Indian sciences other than mathematics and astronomy. This catalogue is based on information collected from more than 80 catalogues of Mss and covers almost all major Mss collections in the country. I would also like to draw the attention of this knowledgeable audience to Ayurveda, Siddha and Unnānī systems of medicine. These systems evolved and were developed in the country to prevent and cure ailments, in that order. I say this, because, these systems are based on the philosophy of 'prevention is better than cure'. However, if prevention for some reason, fails, there should be some mechanism of cure in place. Ayurveda as well as other Indian systems lay emphasis on leading a healthy life through practices that conform to living in harmony with nature. This is highly desirable for mankind as well as the environment and ecological system. Human beings, like all other creatures of the world, are a part of nature and therefore, if life is led in a way in which it does not go against nature one can be more healthy. These systems do not advocate synthetic chemical medicines. Instead, their preparations are made of natural ingredients. Just as there has been a surge in acknowledging the benefits of Yoga in living a healthy life similarly, if clues are taken from the traditional medical systems it may help in creating a more healthy life style for the humankind. Manuscripts are a critical medium for this kind of communication. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Reflections on Manuscriptology: Not only this, there are other areas also where the knowledge content of manuscripts can be harvested by careful research for application in the modern context. For example, in the field of water resource management in India. The indigenous tradition has used water resources according to availability through conservation processes and equitable distribution systems. In a desert state like Rajasthan man made lakes were created for conservation and effective utilisation of water. If clues are taken from traditional texts and are applied along with modern technology, perhaps there can be better water resource management. Let us also take the example of architecture in this context. High-rise buildings with closed door environments are not conducive to climatic conditions in India. These are totally dependent on electricity, to make them habitable. Therefore, on the one hand it is a drain on limited resources and on the other it does not create comfortable living or work space. India has got a long and rich tradition of architecture which is evident from what is left of by gone times. Texts, like Samarāngana Sūtradhāra and others are rich in source material for developing modern Indian architectural designs that would be more environment friendly. These are only some random examples that can be multiplied through careful research. My emphasis on the importance of scientific texts in Indian tradition, is concurrent with my realisation of the richness of literary traditions in the manuscript heritage. Much of this still awaits discovery and analysis. A programmed approach towards undertaking this effort will have rich rewards. In order to be able to harvest the rich legacy of Mss in India as elsewhere, there is a need to train young people in the science and arts of Mss and manuscriptology. Reading Mss requires a highly specialised form of training in specific languages, scripts, art of manuscript writing and interpreting the same. As we all know, style of expression changes with time and therefore, each era has a different style of expressing facts in different disciplines. In order to read a manuscript of mathematics in Sanskrit one would need to be trained v in the language, scripts of respective regions and eras but also in the style of presentation in the given period. It will be worth the time of all stake holders to develop a trained manpower base for harvesting the knowledge available in manuscripts. I would like to conclude by pointing out that in order to make manuscripts accessible to readers, editing and printing is a necessity which cannot be overemphasised. Editing manuscripts is an arduous task that requires Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 Dipti Tripathi SAMBODHI thorough knowledge of manuscripts and manuscriptology along with a deep rooted commitment to the work. Abhinavagupta in his introduction to Abhinavabharati has stated the principle followed by him in his tika which may also be used to sum up the ideal principles of editing a manuscript उपादेयस्य सम्पाठः तदन्यस्य प्रतीकनम् । स्फुटव्याख्या विरोधानां परिहारः संपूर्णता ॥ लक्ष्यानुसरणं श्लिष्टवक्तव्यांशविवेचनम् । संगतिः पौनरुक्त्यानां समाधानसमाकुलम् ॥13 The above goals of editing are very important but equal attention needs to be paid to the tools of editing only then, the said goals can be achieved. While, comparing the available copies of manuscript of a text is the standard procedure of preparing a critical edition, it may be worth while to also take the oral tradition of a discipline into consideration, even with the precaution of noting it as such. References : 1. मृच्छकटिकम्, तृतीयोऽकः, अष्टादशलोकस्य परस्तात् References to writing in Rgveda, K.C. Chattopadfhyaya, Poona Orientalia, Vol. V, p.49 3. Manuscriptology : Past and Present, B.B. Chaubey, Lectures on Manuscriptology, 2004. p.7 4. Manuscriptology of India, K.V. Sharma, New Lights on Manuscriptology, 2007, p. 2 &4 काव्यमीमांसा, दशमोऽध्यायः, पृ. ११० चाणक्यनीतिशास्त्रम्, १०२ काव्यमीमांसा, दशमोऽध्यायः, पृ. ११६-१७ तत्रैव, पृ. १११ ललितविस्तर, लिपिशालासंदर्शनपरिवर्तो दशमः, पृ. ८८ 10. दानमयूख, नीलकण्ठभट्ट, बॉम्बे १९२४, पृ. २७८ 11. परमलघुमंजूषा, बड़ौदा, १९६१, स्फोटविचार, ६६ 12. तत्रैव, पृ. ६७ अभिनवभारती, अभिनवगुप्त, दिल्ली, १९६०, कारिका ५-६, पृ. १० * * * Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kathākautukam : Sanskrit rendering of Persian Yusuf-Zulaykha of Jamii Balram Shukla Sanskrit translation of Persian works - The relationship of Persian and Sanskrit literary traditions has been noted by several scholars at cultural and linguistic planes. Comparative studies focussing on Avesta and Vedic texts suggest the springs of these great civilisations share common roots. Later on the political and geographical contingencies led to gradual drift causing gaps as well as misconceptions lining to these civilisations. Frequent interactions with alien cultures resulted in plurality and unique cultural transformation in India as well as in Iran. Particular religious conversion has played important role in subsequent socio-cultural development in these regions. As a consequence both the civilizations apparently assumed different forms on many counts. They seem to be drastically different from each other. Interestingly the intrinsic similarities between them cannot remain hidden from the eyes of a linguist or an anthropologist. We also witness prolific growth in number of translations of Sanskrit texts into Persian and vice-versa, which are helpful in identifying the underlying similarities between the two traditions. In the medieval period there was a flood of Persian translations in India. Persian speaking people had serious presence in the political arena in the region of south Asia. For the next 7 centuries, upcoming Muslim dynasties continued to expand their power and successfully established Persian language as the official and literary medium. However, these rulers simultaneously gave importance to the language and literature of the native people too, which included Sanskrit and other Indian languages. The Mughal emperor Akbar and prince Dara deserve special mention in this context. During the period between 13th to 19th century, around 300 books were authored in Persian relating to the Indian intellectual tradition (Truschke 2012). Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 Balram Shukla SAMBODHI Persian translation of Sanskrit texts suggest two things simultaneously; the richness of Sanskrit, as well as the appreciating perspective of the Persian scholars. In the present discussion the focus is on the other side of the coin. Here, we shall confine to a brief examination of the status of Sanskrit translations of Persian works. While surveying the literature translated from Sanskrit to Persian, we feel a little disheartened as there is paucity of such translations. It is important to identify causes leading to this neglect. In ancient India, abundance of original literature reached to such an extent that the lack of translated texts in Sanskrit was, in fact, a matter of pride. Both the originality and vastness of the scholarship that flourished here was quite amazing. In later centuries, however, the feeling of pride developed into a narcissistic feeling which led to self-centeredness it seems. The glory of liberation which was reflected in the guiding principle of आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वत:2 (Let the noble thoughts come to us from all over the world) changed into the thinking of - prestatzea HORIGHHA: 1 poi a afi fer yfi HanaT: 113 (Let people from all over the world learn from the Brahmins of this country.) Gradually this feeling aggravated to such a point of complacency that even crossing the sea was prohibited in the Dharmashastras. A great focus of the Indian scholarship turned towards the apprehension of F0590 FT 9744 (Lest we should be Mlechhas). Although one may come across various generous statements, though they are substantially less frequent than the former. For instance we find a statement in Varāha Mihir - FOTOETTE Plak prafud feetat i muna asfa yount for godarags (Yavanas are Mlechhas, in them this Jyotisha-Shastra is well established. If they are also venerated like sages, what about a Brahmin who knows astrology.) and 21977 419 47976 (The language of Yavanas is purifying.). Certainly it was an age of contraction of the Indian psyche, when it was advised that - न पठेद् यावनी भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि (One should not study a foreign language even if one's life is endangered). With this mindset the scarcity of translation was quite natural. Keeping the above mindset in view, one does not wonder when one finds that the first known Sanskrit translation of a Persian text was not done by an Indian, but by an Iranian scholar. It was a Zoroastrian priest named Nairyosangh of 14th century who undertook this type of work. He was one of the refugees who took shelter into India to flee from the atrocities of violence in Iran (Baghbidi 2012:1). Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Kathākautukam : Sanskrit rendering of Persian Yusuf-Zulaykha of Jami 13 Ti Śrīvara and his Kathākautukam (KK) – The second important translation of this type is perhaps the first effort to translate a literary text from Persian to Sanskrit. It is a Sanskrit translation of Nur-ul-Din Abd-ul-Rahman Mohammad Jami's (1414-1492 CE) book Yusuf Zulaykha (YZ) by Śrīvara. Śrīvara is said to have lived in the age of Kashmiri King Zain-ul-Abidin (1418-19, 1420-70) famous for religious tolerance unlike his father Sikandar Shah, who was an oppressor of Hindu population. Zain-ulAbidin's time is known for the translation movement in his court. He got imported the manuscript of Atharvaveda from Karnataka, which was lost during the reign of his predecessors. Ogura (2015) has collected the attestation of multiple sources about the translation of following Sanskrit works into Persian- (1) the Mahābhārata (2) the Kathāsaritsāgara by Somadeva, (3) the Daśāvatāra by Ksemendra, (4) the Rājatarañiņi (possibly only Kalhana's), (5) the Hāțakeæevarasamhitā, (6) the Prthvīrājavijaya by Jayānaka. Unfortunately, no manuscript relating to this translation movement has survived to date? The author of KK is said to be identical with the Śrīvara, the author of third Rajatarangini (the Jain-Rajtarangini) for two reasons-1- first, he remembers his Guru- Jonaka in the beginning of KK8. Scholars identify this Jonaka with Jonaraja, the author of 2nd Rajatarngini whose disciple Śrīvara authored the 3rd Rajataranginio. In a different place in KK, Srīvara mentions the name of his Guru as wellcach while eulogising him. In my view, this word is a Sanskritised form of जोनराज, as in the Prakrit languages ज्योत्स्रा changes to जोण्ह10 and the word GT is another variant of the same flu 2- Second, the author, in the beginning of KK, eulogises a Muslim King named Muhammad Shahi for his good governance and religious tolerance; especially prohibiting cow slaughter in Kashmir11. It is corroborated by many sources that this King is Zain-ulAbidin's successor Muhammad Shah (after Hassan Shah) who reigned over Kashmir 5 times following the excessive political upheavals of that time. Though, Sharma and Parab have cited the opinion of a scholar who raises doubts in oneness of Śrīvara. Majority of the scholars agrees about the identity of Śrīvara of KK with the Śrīvara of Rājataranginī. After his Guru - Jonaraja's death in 1459, Śrīvara assumed his role as Sanskrit historiographer. He maintained a close relationship with the Sultanate, being a teacher of Indian philosophy to Zain-ul-Abidin and later being employed in Hassan Shah's court as the director of the department of music. He was skilled in Persian12. If we take it as a fact then also one surprising Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 Balram Shukla SAMBODHI phenomenon grabs our attention and that is the simultaneity of the authors of original and translated texts. Jami who lived in modern day Afghanistan and Śrīvara in Kashmir in the same time frame13 it is unbelievable to suppose how speedily the YZ would have been circulated in that age of arduous transportation and communication. At least a reasonable time gap should be borne in mind while considering this incident viable. It seems that even those days the intellectual communication was quite intense. The Translation - Śrīvara has not translated each and every verse of the YZ in his KK. This also becomes clear when we compare the numbers of verses of both texts. YZ contains 4030 verses14 whereas in KK we find only 1238 verses used. One should not think by seeing mere numbers of the verses that KK is only one third of the YZ. We must bear in mind that Jami has used Hazaj metre with musaddas and mahzuf sub-types. Each verse of this type is constituted of 22 syllables and thus YZ in total contains 88660 syllables. KK, though, consisting of only 1238 verses reaches almost half of the Jami's work as total syllables used in his work, if we enumerate, are (1238 x 32 =) 39,616. The meter used in KK is Anușțubh which consists of 32 syllables. Śrīvara often adds some extra explanatory words while translating the verses of YZ. This is not because Śrīvara intentionally wants to deviate from the original. There is a technical cause behind it. He has been bound to do so because of the difference between Sanskrit and Persian meters used in both texts. In YZ the meter used is Hazaj Musaddas mahzūf or maksūr15 consisting of 11 syllables in each misr'a (line) and thus 22 syllables in a verse. Śrīvara has used Anustubh meter throughout the KK. Anustubh contains 32 syllables in its four feet 16. He generally tries to complete the translation of one Hazaj Musaddas Mahazuf into one Anustubh meter. Anustubh is certainly a longer meter containing 10 extra syllables. To fill this gap Śrīvara sometimes uses explanatory words and by doing so may seem to be deviating from the text too. An example of adding extra words to complete the verse is as follows - 'Wa'zan gul atra-parwar kun demāgham' (= and by this fragrance make my nose scented)= He translates this line as a pet loc priti ufura (= and by this pure fragrance make my body scented.) Here two words place and prri are not in the original. Śrīvara himself does not claim to have done a verbatim translation. He only promises to maintain the storyline of Jami's original work with sequence17. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Kathākautukam : Sanskrit rendering of Persian Yusuf-Zulaykha of Jami 15 Although, there are examples where he does not copy Jami's sequence and rearranges some episodes. For instance, the first appearance of Yusuf in KK is after all the three dreams of Zulaykha whereas in original, Yusuf is introduced before the appearance of Zulaykha. This change certainly makes the abridgment more compact. Śrīvara knows very well what to skip and what to describe in order to maintain a compact abridgment. He apparently skips episodes of YZ which he feels would not suit the sensibilities of a connoisseur of Sanskrit poetry and the things which may seem unfamiliar to the Indian psyche. For instance he skips the episode where Joseph, before accepting Zulaykha as his wife, converts her from a polytheist to a monotheist. It has been one of the aims of Muslim poets to propagate the Islamic version of monotheism through their literary works. A classical instance of this tendency is Nizami Ganjawi's Sikandarnama where Nizami describes Alexandar as an iconoclast and a propagator of monotheism (Tawhid). And, not to mention, this is totally not in accordance with history and Alexander had nothing to do with semetic version of monotheism. For a Hindu mind monism is a basic understanding and nothing is very distinguished about it. What is more attractive for them is pantheism (Ho Ciro 18). The oneness of the Supreme gets manifested into the variety of outwardly world. This is why Śrīvara skips all the instances of tawhid (Islamic version of monotheism) which come across in the YZ. Śrīvara never skips any important episode of the story without valid reason. He is specially careful in translating Jami's good sayings or hikmats (aphorisms) where we see that he translates the text without skipping a single verse. For instance, in the beginning of the episode of Yusuf's preaching to the noble lady of Egyptna tanhā işque az dīdār khīzad - Basā k, in daulat az guftār khīzad (Love blossoms, not only by meetings. Most often it actually takes shape when we talk to each other.) नोदेति रोगियो रागो दर्शनेनैव केवलम् ।। foto carvi ured jai tautaifa aparare il 87-8 Il etc. He goes on skipping passages to avoid repetition. For instance, to inform the fact that Aziz e Misr is impotent, Jami devotes more than 5 poetic verses, whereas Srivara concludes it just in half of an Anustubh - ख्यातः पुरुषरूपेण रहितस्तद्गुणैरयम् ॥७- ३७|| There are examples where Srivara expands the beautiful Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 Balram Shukla SAMBODHI Persian verse into more than one Sanskrit verses, e.g.- Kiśāndam tukhm-e-mehr āzār bardār - Niśāndam nakhle-khurmā khar bardār (1110) is explained in two Sanskrit verses – (KK 7/16-17) Śrīvara substitutes the monotheistic descriptions of Jami with the genesis as propounded in the Pratyabhijñ' Trika Philosophy, a local Shavite monistic school developed by Kashmiris themselves. (See Sharma and Parab 1/50-61). By doing so, Śrīvara wants to solve a perennial question - why is love pervasive all over the world ? He states that as Lord Siva owing to his love for Devi, the Goddess Sakti, could create this world, and Sakti herself, guided by the love, created the trinity; this is why there is love present throughout the universe, whether animate or inanimate because it has been very cause of creationचित्तासक्तिवशेनैव स स्वयं भगवान् शिवः । शक्त्यैव सह संगम्य सर्वमेतदवासृजत् ॥ १-५० ॥ रागेणैव तदा देवी त्रये सृष्ट्वात्ममायया । त्रीनेव पुरुषांल्लोके हेतुभूता स्वदेहतः ॥ १-६० ॥ तस्माद् रागमयं सर्वं चेतनाचेतनं जगत् । प्रतिभात्येव यत्तेन रहितं नैव गण्यते ॥ १- ६१ ॥ And he goes on describing the whole process of creation according to the Pratyabhijñā point of view. We need not mention that in the YZ there is no clue about this. There is another interesting example of converting Islamic idea into that of Hinduism. While translating the line - Zamīram rā sipās-andīše gardān - he renders S HI 774977antalar01. He converts sipaas= Thankings to Sevaa = service. Giving thanks to God claims an important place in Abrahmic religions. A Hindu mind is not very familiar to this. It is very interesting to note that while translating Śrīvara cleverly shuns the whole episode of praising the prophet Muhammad. He states that even if he is attentive to describe the greatness of the prophet he does not find himself capable for this work. And because of this his heart is full of doubts about the success. As the doubtfulness creates flaws he will not describe the prophet Mohammad but the King Mohammad Shahi as both bear same name. And after stating so he starts eulogising his patron king. Thus the whole episode of Naa't (Praising the Prophet) containing several hundred verses in YZ has been diminished to only 4 verses in KK. The most fascinating deviation we find in the KK is at the end of the story. In the YZ, Jami extends the story even after the marriage of Yusuf and Zulaykha, leading up to the demise of Yusuf and the ensuing death of Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Kathākautukam : Sanskrit rendering of Persian Yusuf-Zulaykha of Jami 17 Zulaykha. Jami ends with lamenting and cursing the crookedness of fate. Srīvara surprisingly does not copy this sequence. He concludes the main story with marriage of Yusuf and Zulaykha and informs that they led their remaining lives with amusing with evergreen love and playfulness; verily the bliss of being together is quite indescribable just as the pang of separation - नित्यनूतनप्रेमाहृदयौ दम्पती भृशम् । चक्रतुर्विविधाः क्रीडा नानोपवनभूमिषु ॥ यथा विरहजं दुःखं न कश्चिच्छक्तिमानभूत् । arti terini yei 72 neit: 1 KK 28-48, &o II This deviation is very much in accordance with the Indian literary tradition where a poetic piece ought to have a happy ending. Bharata, the supreme authority on Indian rhetorics, asserts that a drama (or generally any poetic genre) should not have a tragic end - सुश्लिष्टसन्धियोगं च सुप्रयोगं सुखाश्रयम् ॥ नाट्यशास्त्र ११- १२० ॥ Having a happy end is a distinctive feature of Indian drama and other literary forms which distinguishes it from Greek dramas and other literary traditions of other countries. It is inspired by the Indian thinking which tends to see the life emanating from bliss and merging into bliss that is Ānandaआनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । आनन्दे न जातानि जीवन्ति । आनन्दं Verruftrifagilfa20 (...it is the Bliss wherein all the creation merges and concludes). Jami's YZ is famous for its Sufi explanations. He has described his protagonist Yusuf as representing God and Zulaykha as representing a separated soul, who sets out to search Him and at last manages to find the same- Ze titlī tā be pīrī iśque warzīd – be śāhīta wazīrī iśque warzīd, (Zulaykha loved Yusuf in all his forms- from his childhood to old age, even when he was a captive or became a king.) This multi-layered explanation is a distinctive feature of entire Persian love poetry where the mundane love certainly beckons to the celestial one. In Sanskrit literature this tendency is totally absent. The nature of mundane love has been taken to be totally different from that of celestial love that is Bhakti. The first falls in the category of Rasa while the other one is mere a Bhāva. Srīvara too, abiding by the Sanskrit tradition of this dissection, has taken the story of Yusuf and Zulaykha only in the worldly sense. He apparently says it a story of Śrngāra Rasa (the erotic sentiment) - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 Balram Shukla SAMBODHI सर्वत्रायं क्रमः पूर्वं शृङ्गारससंयुताम् । This is why, at the end he adds another chapter related to Santa Rasa (the sentiment of neutrality) on his own and says that this Sānta Rasa is beneficial both in this world and the next अभिधाय कथामेतां शृङ्गाराद्विरसाङ्कित्ताम् । 378 and plaid milchgefenice: 11 84-8 11 It shows the nature of Sanskrit poetry where śrmgāra Rasa and śānta Rasa generally cannot be confused together. It can be said thus that, keeping the taste of the Sanskrit audience in mind, Srīvara has had to give up one layer of the meaning and has presented this story as single-layered. Changes in poetic symbols and images - Śrīvara tries to make his job rendering match with the taste of his Sanskrit knowing audiences. To accomplish this, he uses practices familiar to the Sanskrit poetic tradition. For instance, in the beginning of the K two verses in praise of noble men which is totally absent in Jami's YZ. One should know that it is the tradition of the Sanskrit poetry to commence the text with the praise of noble men and condemning bad ones21. To make the text familiar to the Indian audience, he changes Persian poetic symbols to that of Sanskrit throughout the translation. For instance, all the symbols like Saqi, Sharab, maikhana and similar things, which create a Persian environment into a poem, are intentionally avoided and only an explanatory kind of translation has been done in these contexts. One example will suffice. Let us see the following lines from the YZ - Nami yābam Sadāī zān tarāne - Dar in khumkhāne-e-Shīrīn foasane Tahi khum-ha rihā kardand o raftand-harifān bāde-hā khurdand O raftand Ke bāśad dar kafa-śd z'ān bāde jāmi-nabīnam pukhteī zīn bazm khāmi Ze Säf o durd pīś är ānce dārī-biyā sāquī, riha kun Śarmsārī. (YZ 10-13) Let us see its translation done by Śrīvaraस्थैर्यं हि जगतो नैव नश्यते वचनं विना । शंभुभक्तियुतं तच्चेच्छोभते साधुपूजितम् ॥ पुण्यं शास्त्रामृतं पीत्वा यातास्ते हि कवीश्वराः । निधाय विपुलां कीर्तिं सुस्थिरां भुवनत्रये ॥ नावशिष्टः कविः कश्चित् तेषां योद्यतनाद् भवेत् । क्षमः शिक्षयितुं स्वल्पकाव्यशक्तियुतान्स्वयम् ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Kathākautukam : Sanskrit rendering of Persian Yusuf-Zulaykha of Jami 19 तस्मादेह्यधुना कालगतिं वीक्ष्य शुभाशुभम्। काव्यं यद्यस्ति ते शक्तिर्विधातुं कुरु सत्वरम् ॥१/१०-१३॥ In the following lines, Jami has used various symbols relating to drinking and Śrīvara everywhere translated them to their real metaphoric meaning-e.g. tavern = the world, friends = poets, wine = poetry, Cup of wine = poetic talent, Saqi = the poet himself. Many poetic beliefs (Kāvyarūdhis) have been used everywhere in the KK which are known only to the Indian literature and it can be seen as a clear deviation from Jami. Such as follows बुद्धिहंसावली तद्वन्नूनं मानसमागता । Sometimes for the sake of using a more familiar substitute of the simile, Śrīvara finds quite new and hitherto unknown similes in Sanskrit world itselfKK-4-33 fuarit i calfschland Zulaykha is as much infatuating and enticing as the Maya of Vishnu. This also reminds us of the Durga Saptshati विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत्. Aziz of Misr was illuminating just like Indra with Vajra in his hand. While describing the natural beauty of a certain place, the poet everywhere delineates Indian flora and fauna to create indigenous milieu and thus totally deviates from Jami. Parallels between Hindu and Muslim mythologies - While describing the hierarchy of divine species, Srīvara has tried to show some parallelism between Hindu and Muslim mythologies (4-50/51). He compares Prophets with Sadhyas and Auliya with Siddhas. It would apparently be wrong since in Muslim mythological hierarchy prophets are greater than Auliya and thus they should be equated with Siddhas and not with the Saddhyas. Śrīvara is so fond of Indianizing the story that in one instance he surprisingly uses the address Bhārata22 (one related to the lineage of Bharata) for Yusuf, little realising that it will mar the geographical or ethinic synchronisation. Although at the end of each chronogram it is informed that Śrīvara was a great scholar of Islamic learning. But sometimes when he doesn't translate epithets such as Aziz e Misr23 and Khalil ul llah24 it makes us suspicious that he Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 Balram Shukla SAMBODHI would have confused these adjectives with proper names and used them as they were in the original. Reflection of Hindu Mythology and philosophy - Whenever there appears a context of God or divine being, Śrīvara always uses Indian concepts of Godhood and not those of Islamic formless Allāh. In many contexts it is apparently Siva of Savite school of Kashmir. The God who is prayed to by Zulaykha in the court of Yusuf is not Jami’s formless All'h but the Astamūrti Śiva (Śiva having eight cosmic forms) with all Puranic paraphernalia e.g. moon on head, wrapped with serpent and being Pasupati नमः शिवाय शुद्धाय प्रपन्नाभयदायिने । अष्टमेयानुभावाय पराय परमात्मने ॥ नमो नाथगतित्राणकर्त्रे सद्भयहारिणे । चन्द्रार्धमौलये देवदेवायोरगहारिणे ॥ दिगम्बराय नेत्रोद्भवह्निसूर्येन्दुवर्चसे । इत्यभिष्ट्रय भूपालपुत्री पशुपतिं विभुम् ॥ KK 14/ 40, 41, 42, 44 He has devoted the last chapter of the KK to eulogise Śiva and certainly not the one and formless God. Yusuf preaches to the noble woman of Egypt totally in Yagic way of concentrating the mind unlike Jami's YZ - ध्यायन्ति सततं शम्भुमनन्तं विश्वरूपिणम् । यदिदं दृश्यते सर्वं नानाकौतुकसंयुतम् ॥ And it is quite natural when, being enlightened by Yusuf's preaching she becomes Sannyāsinī performing all rituals of Indian Sannyāsa. Her penance was so rigorous that it took away even the power of Indra. It reminds us the Puranic nature of Indra where he fears from the penanace of ascetics ....विहायादाय काषायपट्टमेकं सुमध्यमा । भस्मभूषितसर्वाङ्गा बन्धुस्नेहविवर्जिता ॥ पवाजिनीव तपसे जगाम गहनं वनम् । कृच्छ्रातिकृच्छ्रधारार्कवर्तधूतमनोमलमला ॥ सा चकार तपो येन जहारेन्द्रबलं महत् ॥ In the same episode, the lady tells Yusuf that she knows about 1000 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Kathākautukam : Sanskrit rendering of Persian Yusuf-Zulaykha of Jami 21 births by the power of penance - GT HATE talfo faenre faferatiu: 1187–8811 In the framework of Abrahmic religions it is impossible to think of a single previous birth. Language and Stylistics The single edition the KK (that of Sharma and Parab) is so crude and badly edited that not much can be said about the stylistics of Śrīvara. The editor informs that this edition was based on single available manuscript and that too was extremely defective (Sharma and Parab: Introduction, p.3). KK is not an insipid verbatim translation of YZ, but an abridged poetic rendering in Sanskrit poetic style. Śrīvara's excellent poetic craft is everywhere visible in the text. He has accepted all the traditional figures of speech of the ornate style of Sanskrit poetry which makes a sanskritist feel at home. For instance, translating the following line of the YZ, Śrīvara utilises the competence of Sanskrit language in a way that makes his verse more valuable than the original itself bilī dārī ze gouhar ganj bar ganj – ze ganj e dil zabān rā kun guhar-sanj - तुलयन्वाक्यरत्नानि हृत्कोशान्मम भारतीम् । भवद्भक्तितुला देहे सुकर्णाान्विता भवेत् ॥ (शिवदत्त एवं परब १९०१: १/९) One can easily find various types of traditional figures of speech in the text such as- Ullekha (1/26-28), Anupr'sa (2/9), Utpreksā (2/13), Ślesa (2/ 22), Rūpaka (8/52), Yamaka (8/80) successfully applied, which prove Śrīvara an excellent poet of Sanskrit. One of the techniques used to endear his work to the Sanskrit audience is the use of phrases of the predecessors. No poet can give up his predecessors' impressions. In the KK too, we can see impressions of Kālidāsa and Bāņa etc अवाची दिशमाश्रित्य दिनेशोऽपि हतप्रभः । GIGIT per fafstat al doilarat Tera: II KK-1/26 11 The verse reminds us of Kalidasa's description of Raghu in 49th verse of 4th canto of the epic Raghuvamsa दिशि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि। तस्यामेव रघोः पाण्ड्याः प्रतापं न वेषेहिरे ॥ Another example is as follows - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Balram Shukla SAMBODHI तारहारावलिः कण्ठे कम्बुकण्ठ्या विराजते । Afani tagitaisi THT THERET: 11 KK-2/13 11 This verse reminds us of Bāņa describing the king Śūdraka in Kūdambari. See even the wordings are same..अपरशशिशङ्कया नक्षत्रमालया इव हारलतया कृतमुखपरिवेषम्.. (कादम्बरीकथामुखम् पृ०१८) By a minute perusal of the KK, we find so many un-Paninian i.e. grammatically wrong usages in the text. Some of them are as follows - 37f4flrat ( 31 HITRI )25, fuani (fuanit)26, faftrat (farsirat )27, fafaramit (faferrat)28, ufak (ufca )29, 311iegta ar ( 311 Taglia ar )30, Fiyat: (Fighet: )31, gedaan (Train )32, FHU ( HYTT )33, deri (8741VTT )34, ufuSH4R (uiuSri R )35, 3Fiola (34oft )36, con ( la 37, shch14: (chachta:), वराका (वराकी)38 | These numerous grammatical flaws are embarrassing and raise doubt if Śrīvara was fully acquainted with Sanskrit grammar. Some of these flaws may be construed as the discrepancies of ill editing, but not all of them. There are also at least two instances of metrical flaws in the KK. One of them is as follows - Śrīvara writes That To ufusa TRUT. In this line 'ta' has become long which is not desired in Upendravjrā meter39. Conclusion The translation of Śrīvara adds new dictions, phrases and similes to the Sanskrit language hitherto unknown to the tradition. It seems to be the most important contribution of Śrīvara to Sanskrit-e.g. he equates Buddhi with a key and mind to the treasure, anger to a stone etc. These are quite new similes and have been borrowed from the Persian environment. These new symbols may be seen as gains of translating Persian into Sanskrit. This is a natural way by which translation benefits the source and target languages. Sometimes this translation may or even odd strange to general Sanskrit reader and hence we think that in order to appreciate this work a special kind of audience is required- familiar with both Sanskrit and Persian languages and literatures. Unfortunately in India this kind of audience could never be created. Chronologically being very close to the original, Śrīvara's translation can be used as a tool to establish the best versions of the work. For example, the text published by Navalakishore Lucknow reads the following line as - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Kathākautukam : Sanskrit rendering of Persian Yusuf-Zulaykha of Jami 23 Harīfān bād-ha khurdand o raftand (=The friends experienced wind and went aways) whereas the Iranian text reads the same line as- Harīfān bādeha khurdand o raftand (= The friends consumed liquor and went away). Śrīvara explains it as- पुण्यं शास्त्रामृतं पीत्वा यातास्ते हि कवीश्वराः । We see the word bade has been translated as 3464 in KK and thus we can draw a result that the Iranian reading is more authentic, because it is corroborated by KK. He has been successful in rendering an abridged translation of the YZ which is easily discernible and understandable, and can be appreciated by a connoisseur of Sanskrit literature. Though, for this, he has/had to give up the Persian poem's multi-layered significance. The KK is the first Persian literary piece translated into Sanskrit. But on account of the reasons stated above neither was it able to set a literary trend of its own in the Sanskrit tradition, nor was it celebrated in the Sanskrit scholarly world; since no treatise on rhetorics cites a single line from the KK. This venture was not identified by the Sāstrakāras as a different genre of literary endeavour like Campū, which is a new type in Sanskrit poetics. And they never created an independent classification to put the KK and similar texts into. Perhaps the copious grammatical mistakes of Śrīvara would have diluted his importance in the eyes of Sanskrit scholars. Editors of the present text did not know the Persian language and because of this many discrepancies have crept into the text. This text even after 100 years of its publication still is in need of a critical edition, which would enhance its appreciation. References : 1. in two This is an enlarged version of the paper presented in The Third Perso-Indica Conference, Delhi University, 3-4 September 2015. The author is grateful to Professor Girishwar Misra, Thibaut d'Hubert, Satoshi Ogura and Arushi Bahuguna for their comments on an earlier draft of this paper Rgveda-1.89.1 Manusmrti -2.20 Mahābhāsya 1 Brhatsamhitā 2.30 Ganjiphākhelanam-28 (Giridhar Kavi) Ogura, Satoshi (2015) p.3 तस्मिन् मया पण्डितजोनकाख्यं नत्वा गुरुं पण्डितश्रीवरेण । 7. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Balram Shukla SAMBODHI 10. 13. 17. 18. 19. भूपालतुष्टौ सुरलोकवाण्यारम्भोऽध्वनाकारि मनोहरोऽयम् ॥ (Sharma and Parab 1/39-40) श्रीजोनराजविबुधः कुर्वन् राजतरङ्गिणीम्। सायकाग्निमिते वर्षे शिवसायुज्यमासदत् ॥ ६ ॥ शिष्योऽस्य जोनराजस्य सोऽहं श्रीवरपण्डितः । राजावलीग्रंथशेषापूरणकर्तुमुद्यतः ॥ ७॥ (जैनराजतरङ्गिणी) Haimasabdanusāsana-8.2.75 सूक्ष्मश्नस्हह्लक्ष्णक्षणां ग्रहः । प्रीत्यै तु गोसहस्रस्य येन धर्मपुरेण च । ज्ञात्वा पूर्वपदार्थक्यं वधाद् गावो विमोचिताः ॥ (शिवदत्त एवं परब १९०१: १/२१) Jain Rajatarangini 1.7.100-102, 2.242-243, 3.238; Ogura (2015, p. 8) The time of translation according to Srivara's information is 1451 CE, See Sharma and Parab, introduction, p1, but it is not apparently correct. Halabi (1391) p.75 Metrical scanning of this is as follows - मफाईलुन् मफाईलुन् मफाईल् या मफाईलुन् मफाईलुन् फऊलुन् श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् । द्विचतुष्पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥ वृत्तरत्नाकर Sharma and Parab - क्रमेण येन भेदार्थो मलाज्यामेन वर्णितः । तेनैव हि मया सोऽयं श्लोकेनाद्य निरूप्यते ॥१-३॥ छान्दोग्योपनिषद् ३.१४.१ तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् (तैत्तिरीयोपनिषद् २.६.१) - The Lord created the world and immersed Himself into it. तैत्तिरीयोपनिषत्, भृगुवल्ली, षष्ठोऽनुवाकः । खलादेर्वृत्तकीर्तनम्- साहित्यदर्पण ६.३३३. ततो जगाद शनकैरुत्तिष्ठोत्तिष्ठ भारत । भाग्यं ते फलितं साधो त्यज चिन्तां सुदुस्त्यजाम् ॥ KK 10/43 ॥ अजेजमेस्रनामायं लोके सत्यतया भवेत् ॥ ४-१२१ खलेलोलाहकस्यायं मनःसागरकौस्तुभः ।। ४-५८ According to Panini's rule सभासेऽनपूर्वे कत्वो ल्यप् (७.१.३७), कत्वा changes to ल्यप् when in a compound. Pānini's rule enjoins an obligatory 14 augmentation with the the dhatus of Bhū-class when they inflict with शत् suffix - शपश्यनोनित्यम् (७.१.८१) Like the previous example 37145cal, here also frall must change into 14 as it is happening to be in a compound. According to Pānini's rule the 7 particle is augmented only when the Anga ends in 'A' and the suffix शत् follows - अच्छीनद्योर्नुम् (७.१.८१). In the present example the Anga (Stem) would be face and hence not terminating in 'A'. In accordance with the 2 Sutras of Panini and the correct form would be गोपायितुम्. According to Pānini when 'n' sound is preceded by any short vowel and simultaneously 21. 24. 26. 27. 29. 30. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Kathakautukam : Sanskrit rendering of Persian Yusuf-Zulaykha of Jami 25 is followed by any kind of vowel short or long it necessarily gets duplicated- 5:41 हस्वादचि ङ्मो हुस्वादचि ङमुनित्यम् (८.३.३२) Pānini enjoins that the compound of 2 words and yet will always be ending in ‘a’37agkauge ja - (4.8.09) As the nominal stem ends in a suffix which is 't'-deleting - rifaiye s o T2 (8.3.23). it is necessary that in order to make a feminine form out of it the suffix shq (Where only remains) should be added by the injunction टिड्डाणद्धयसज्दघ्रज्मात्रन्तयण्ठक्ठकक्चरपः (४.१.१५) 33. As the suffix yol which has been used here is 37196 and hence for it deters Tu (the vowel gradation) from happening- HIDECHCL (.7.8), fasta a (8.8.4) As in Classical Sanskrit we find that only 311649 suffixes follow the verbal root $4, the form would accept only शानच् and never शतृ. As the stem ufugam is derived by adding the suffix CI - 311646 02 (3..C3) one particle 'm' has to be augmented after the first party of the compound which is The maxim of Panini is 3 to 44 .3.86 6. When the 377furich suffixes follow the root it never get augmentation after it ale 3469STGIOC (.7.80) There is no deterrent to the vowel gradation (here Tu), and therefore Tu ought to happen - Arducchefegori: (9.3.28) As the nominal stem Rich has the suffix 407 in it, while making feminine out of it we are always supposed to apply a feminine suffix shq ($) The supporting Pāṇini - maxims are oft &quqs: 012077 (3.7.844). fucrifaza (8.8.8%) 39. The definition being - 57-7-37-17-the 'ta' of the metrical foot is equated with 'ja' of 377 hence must be with a short vowel. Here as a conjunct of consonants is following the 'ta’ is gururlong, c.f. Pāṇini - TS (2.8.38) Reference Books Primary Kathākautukam of Śrīvara. Sharma Shivadutta and Parab Kashinatha Panduranga. 1901. Tukaram Javaji, Bombay. SecondaryBharucha, Sh. D. 1906. Khorda-Avestā-Arthaḥ. In Collected Sanskrit Writings of the Parsis, Part I, Bombay. - 1910. Ijisni. In Collected Sanskrit Writings of the Parsis, Part II, Bombay. - 1912. Mainyõi Khard. In Collected Sanskrit Writings of the Parsis, Part III, Bombay. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Balram Shukla SAMBODHI - 1913. Skanda-Gumānī-Gujāra. In Collected Sanskrit Writings of the Parsis, Part IV, Bombay. - 1920. Ardā-Gvīrā. In Collected Sanskrit Writings of the Parsis, Part V, Bombay. - 1933. Aogmadaecha, Shōdasa Shlkas, Kustyāh Kāranam, Chanda Prakasha and a Part of Yasna 65 (Ardvi Sūra Nyaesh). In Collected Sanskrit Writings of the Parsis, Part VI, Bombay Dhalla, Maneckji Nusservanji 1908. The Nyaishes of Zorostrian Litanies. Avestan Text with the Pahlavi, Sanskrit, Persian, and Gujarati versions. Narayanadasa, A 1932. Rubaiyat of Omar Khaiyam with English translation of Edward Fitzgerald translated into Sanskrit and Desiyandhra. Re- 2012 Sahitya Akademi. Truschke, Audrey. 2012 - Perso-Indica : a critical survey of Persian works on Indian learned tradition - The News letter no 59 - Spring Truschke, Audrey.2012A-Cosmopolitan Encounters: Sanskrit and Persian at the Mughal Court, Ph.D. submitted to Columbia University. Rezai Baghbidi, Hassan (2012), 'Parsi Sanskrit', in: Indic across the Millennia: From the Rigveda to Modern Indo-Aryan (14th World Sanskrit Conference, Kyoto, Japan, September 15th, 2009, Proceedings of the Linguistic Section), ed. Jared S. Klein and Kazuhiko Yoshida, Bremen: Dr. Ute Hempen Verlag, pp. 1-8. Jackson, A. V. Williams 1892 An Avestan Grammar in Comparison with Sanskrit. Stuttgart, W. Kohlhammer, (re) Asatir-Tehran-2004 Ogura, Satoshi (2015) Linguistic Cosmopolitanism, Political Legitimacies, and Religious Identities in Šāhmīrid Kashmir (1339-1561), A paper presented in The Third Perso-Indica Conference, Delhi University, 3-4 September 2015. Others कादम्बरी भानुचन्द्रसिद्धचन्द्रटीकोपेता (सं.) परब काशिनाथ पणशीकर, वासुदेव लक्ष्मण, (पुनः) नाग प्रकाशक-दिल्ली-१९८५ अष्टाध्यायी काशिकासहिता (सं.) विजयपाल विद्यावारिधि. रामलालकपूरट्रस्ट, रेवली-सोनीपत-२०१३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Consciousness in Philosophy of Advaita, Visiştādvaita, Dvaita and saivism with synoptic view of other philosophical traditions Sushim Dubey This article present the brief overview of the Philosophy and concept of Soul in the four major philosophical system mainly Advaita, Viśistādvaita, Dvaita, Saivism. In addition to this the concept of consciousness is also briefly explored in other philosophical and religious system eastern and western. Thus the article divided into five section viz. its dealt aforementioned subject matter viz. Etymological, the word 'conscious' derives from the Latin words 'cum' ("together with') and 'scare' (“knowing'). According to empiricist philosopher John Locke the perception of what passes in a man's own mind. Specifically “Every man being conscious to himself that he thinks; and that which his mind is applied about whilst thinking being the ideas that are there”2. Thus, consciousness depends on the function of the brain has been known from ancient times. Understanding the neurophysiological mechanisms of the consciousness correlations between states of consciousness and functions of the brain are under research among the modern scientists, however detailed understanding of the neural mechanisms of consciousness has so far still to be 'acidered. Vader das alertness or responsiveness are correlaced with paccers or electrical activity of the brain (brain waves) and is very interesting area for study and research to establish objectivity in the area by scientific methods in lieu of speculative or reflective or meditative methodology of Philosophy. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sushim Dubey SAMBODHI It is interesting to present here a synoptically survey of “Consciousness" or “Pure Consciousness” in different philosophies, thinkers, ism, religion and mysticism is which may be of the interest of common reader to grasp the comparative view on the consciousness. According to western Philosophers Sartre ‘all consciousness... is consciousness of something'. In a still broader sense, 'mind' and 'consciousness' are synonyms, as are being mindful of something and being conscious of. Descartes' uses 'consciousness for reflective knowledges. Vaiśesika Sūtra 'Intellect, pleasure, pain, desire, aversion, effort are perceptible by the internal organ'. In the Buddhism permanent self and its existence denied and doctrine of Momentariness is advocated. The consciousness in other systems of philosophy may be summarized as below in table : SN. Name of the Time System The Term referring to consciousness Stages/ Nature of Kinds or Thinkers/ Conscious- Number of description ness Conscious ness Upanisads 500 Cit, Universal Eka, B.C. and before Cetana, Vijñāna Satyam Jñānam anantam Bhrahma Aneka, Advaita Cetana Māndūkya Upanisad Beyond all categories Jāgrata, Svapna, Susupti, Turīya? Umāsvāti 3. Jainism Universal Many Since | Cetana their laksano philo- Jivah sophy devel oped 4. Buddhism Mahāyāna Accidental 500 B.C. Group of Pañca Samghāt Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Consciousness in Philosophy of Advaita, Viśiştıdvaita.... 5. Cārvāka quity 6. Advaita Vedānta 1. Samkhyakārikā Pātañjala Yoga Sūtra self Rem- Consciou- Material Accidental Many ote sness substance anti is produced without other factors. 700 Consciou- True nature Eternal/ NonA.D. sness of self or Universal dualistic Brahman 200 Consciou- Purusa 10 Universal Many B.C. sness (Conscious, Mediator, don-doer, alone) 200 Pure ordinary Universal ordinary B.C. Consciou- self and self - many sness special self and special (īŚwara'l) (Iswara) one 12 Consciou- Jiva Universal Many cent. sness (qualified A.D. Cit and dependent on Brahman or Iswara) 200 Self, Soul Accidental Many A.D. ātmacait anya 16-17 Cogito “I” Conscio- Imperi- Many Cent. ergo usness that shable A.D. sum which cannot be negated, negating process itself proves its existence. Višistādvaita 10. Nyāya Sutra 11. Descartes Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 Sushim Dubey SAMBODHI 12. Leibnitz 17 Cent. Conscio- usness A.D. 13. Immanuel Kant 17-18 Cent. A.D. Monads | Immanent Many but same in substance Self - it is a condition, not an Category object, of knowledge of Understanding usness 14. Husserl 19-20 Cent. A.D. Pure Consciousness everything is the ground for the whatever foundation and for Conscio-constitution of all usness exists meaning is an object 15. Existen tialism 20 Cent. Consciousness Nothingness, or Void A.D. 16. Mysticism and Since Pure their Conscioevolu- usness tion Religion mind has been emptied of all particular objects and images Emptiness, Holy Nothing Sūnya 17. Taoism hsü (q.v.) Sunyata12 300 B.C. Mahāyāna Buddhism Jewish Mysticism En Sof Table: Synoptically survey of consciousness" or "pure consciousness” in different philosophies, thinkers, ism, religion and mysticism. Here onward we move to the next part of the article which deals and present the overview of consciousness in the form of Advaita, Viśistādvaita, Dvaita and Saiva in important Indian Philosophical Systems. These are not only the philosophical system but have been living tradition also. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Consciousness in Philosophy of Advaita, Viśiştādvaita.... 31 II The cultural significance of the Advaita - "Non-dualism" or "Monism" may be stated as that it is most influential of the various schools of Vedānta tradition. The founder of Advaita tradition is Sankara or Sankarācārya. Advaita Vedānta is having the vastest literature in Hinduism. ādi Sarkarācārya has propounded four Pīth(s) or seat for the preservation of the spirit of Hinduism. They are also popularly known as Dhāma, (abode/destination). They are namely Puri, Dwarka, Badri and Sringeri in east, west, north and south direction in Bharata (India) respectively. According to Acārya Śarkara, Soul (Ātman)/Brahman or only nonduality (Advaita) is the final truth. There is ultimately no individual self or soul (Jiva), only the ātman (all-soul), in which individuals may be temporarily delineated just as the space in a jar delineates a part of main space: when the jar is broken, the individual space becomes once more part of the main space. Self is nothing but Brahman. Insight into this identity results in spiritual release. Brahman is outside time, space, and causality13, which are simply forms of empirical experience. No distinction in Brahman or from Brahman is possible. This truth is concealed by the ignorance (māyā) of illusion. There is no becoming, either of a thing by itself or of a thing out of some other thing. Hence in this way Jiva is ultimately not different from the Brahman. The famous saying of Advait goes as likewise - “Brahma satyam jaganmithyā jīvo brahmaiva nāparaḥ”14 Means, Brahman is the only real and world is unreal; Jīva is in fact Brahman and not different. III Rāmānuja or Rāmānujācārya the profounder of the Visistādvaita (10th11th A.D.) rejected Acharya Sarkara's conception of Brahman as an indeterminate, quality less, and difference less reality on the ground that such a reality cannot be perceived, known, thought of, or even spoken about. The Source Literature are the commentary on Brahmasūtra and Vedārtha Sangraha. According to Rāmānujācārya phenomenal world is real and provides real knowledge and daily life are not detrimental or even contrary to the life of the spirit. According to the Rāmānuja Philosophy, to elaborate the Viśistādvaita, there are three distinct orders: Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 Sushim Dubey SAMBODHI Matter, Soul, and God. Like Acārya Sankara and earlier Vedānta, he admits that there is nonduality (Advaita), an ultimate identity of the three orders, but this non-duality for him is asserted of God, who is modified (Visista) by the orders of matter and soul; hence his doctrine is known as Viśistādvaita (also referred as modified non-duality) as opposed to the unqualified non-duality of Acārya Sankara. Here is the simple analogy of body and soul to understand Rāmānuja Visistädvaita: as the body modifies the soul, has no separate existence from it, and yet is different from it, just so the orders of matter and soul constitute God's "body,” modifying it, yet having no separate existence from it. Rāmānuja this theory may be said as the organic unity of the nature of reality The goal of the human soul, therefore, is to serve God just as the body serves the soul. Anything different from God is but a sesa (residue) of him, a spilling from the plenitude of his being. All the phenomenal world is a manifestation of the glory of God (vibhūti), and to detract from its reality is to detract from his glory. Rāmānuja transformed the practice of ritual action into the practice of divine worship and the way of meditation into a continuous loving pondering of God's qualities; both in turn a subservient to bhakti, the fully realized devotion that finds God. Thus, release is not merely a shedding of the bonds of transmigration but a positive quest for the contemplation of God, who is pictured as enthroned in his heaven, called Vaikuntha, with his consort and attendants. As per the cultural significance the Rāmānujācārya has systematically given the devotional interpretation of Brahmasūtra and established the Puja practice of the God Visnu starting of Vaisnava tradition. This tradition is still being carried in various places in India to name the two prominent places in South one in Ranganatha Mandiram (Temple) in Srirangam, Tamil Nadu, and the Venkatesha Mandiram (Temple) in Tirupati, Andhra Pradesh. IV “Dualism”, or Davita is belief in a basic difference in kind between God and individual souls. It is an important school in the Indian philosophical system of Vedānta. Its founder was Madhva, also called Anandatīrtha (11th_ 12th Century A.D.). Source literature and the basic text of Dvaita philosophy is the Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Consciousness in Philosophy of Advaita, Viśiştādvaita.... 33 commentary written by Madhva on Upanisads, Brahmasūtra and Gītā. Apart from this, Sarvadarśana Saṁgraha is also the important text. Madhva's Davita Philosophy may be stated as based upon the three eternal, ontological orders: that of God, that of soul, and that of inanimate nature. The existence of God is demonstrable by logical proof, though only scripture teaches his nature. He is the epitome of all perfections and possesses a nonmaterial body, which consists of Saccidānanda (being, spirit, and bliss). The individual souls are countless in number and are of atomic proportions. They are a “portion" of God and exist completely by the grace of God; in their actions they are totally subject to God. It is God, too, that allows the soul, to a limited extent, freedom of action in a way commensurate with one's past acts (karma). Brahman or īswara is the fullness of qualities, and by his own intrinsic nature, Brahman produces the world. The individual, otherwise free is dependent only upon Iswara. Bondage and release both are real. Thus according to Rāmānujācārya devotion is the only way to release. It is possible by the God's grace. This is attained by the scriptural duties performed without any ulterior motive. Such acts purifies the mind and helps one to receive God's grace. Cultural significance - The present-day following of Dvaita has as its centre a monastery at Udipi, in Karnataka state, which was founded by Madhva himself and has continued under an uninterrupted series of abbots. V Saivism Philosophy is one of the core philosophy and may be stated as one of the oldest and also living traditions in India. The Saivism where Siva is also the God Śiva, with Vaişnavism and Śāktism, one of the three principal forms of modern Hinduism. Saivism includes such diverse movements as the highly philosophic Saiva-siddhānta, the socially distinctive Lingāyata, ascetic orders such as the Daśnāmī Samnyāsins, and innumerable folk variants. The beginnings of the Śiva cult have been traced back by some scholars to non-Aryan phallic worship. The meaning of 'Siva' is - "the Auspicious One", The Svetāśvatara Upanisad says Siva as the paramount deity. There are three principles: pati, śiva, the Lord; Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 Sushim Dubey SAMBODHI pašu, the individual soul; and pāśa, the bonds that confine the soul to earthly existence. The goal set for the soul is to get rid of its bonds and gain Śivatva ("the nature of Siva"). The paths leading to this goal are : caryā (external acts of worship), kriyā (acts of intimate service to God), yoga (meditation), and jñāna (knowledge). The cultural significance of the Saivism is that like some of the other forms of Indian philosophical system, spread in the past to other Southeast Asia, including Java, Bali, and parts of Indonesia and Cambodia. References : Key words: Consciousness, Soul, ātman, Advaita, Viśistādvaita, Dvaita, saivism Views and thoughts presented in the article are of the author personal and author expresses his thanks and gratitude to all sources to prepare the research material. An Essay Concerning Human Understanding, by John Locke : Book II.1 Jean Paul Sartre, Being and Nothingness, 1943 Cogito, ergo sum', (Latin: "I think, therefore I am) Rene Descartes argued in the second of his six Meditations on First Philosophy Ātmendriyamano'rthasannikarsāt sukhaduhkhe | Tadanārambha ātmas the manasi sarīrasya duḥkhābhāvaḥ sa yogah | Spasarpanamupasarpanaśitapītasamyogāḥ kāryāntarasamyogāscetyadstakāritāni| Tadabhāve samyogābhāvo' prādurbhāvasca moksaḥ|-Vaiseșikasūtrāņi, V.II.15-18 Taittirīya Upanişad, Brahmānanda Villi, 1 "Yato vāco nivartante | aprāpya manasā saha ānandam brahmano vidvān | na bibheti kadācaneti tasyaiņa eva śārīra ātmā || yaḥ pūrvasya || tasmādvā etasmānmanomayāt || anayo'ntara ātmā vijñānamayaḥ || tenaisa pūrnah 11 sa vā esa purusavidha eva tasya puruşavidhatām|| anvayaṁ puruşavidhah|| tasya śraddhaiva sirah || rtaṁ daksinah paksaḥ ||| nim i Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 018 Consciousness in Philosophy of Advaita, Viśistādvaita.... 35 8. satyamuttaraḥ pakṣaḥ || yoga ātmā ||| mahah puccham pratistā || tadapyeșa śloko bhavati || iti” Caturtho’nuvākaa || 4 || ibid. "Śāntam śivamadvaitam caturtha sa ātmā sa vijñeyah" - Māņdūkyopanişat, Kārikā 7; again, "Adrstamavyavahāryamagrāhyamalaksanamacintyamavyapadeśyamekātmap ratyayasāram prapañcopaśamam śāntam śivamadvaitam caturtha sa ātmā sa vijñeyaḥ ||” ibid. Nāntahprajñam na bahih prajñaṁ nobhayataḥ prajñam na prajñānaghanam na prajñam nāprajñam | Adrstamavyavahāryamagrāhyamalaksanamacintyamavyapadeśyamekātmapratyaya sāram prapañcopaśamam śāntam ceivamadvaitam caturtha sa ātmā sa vijñeyaḥ 7 ibid. Dravya-samgraha "Tasmācca viparyāsātsiddham sākṣitvamasya puruṣasya Kaivalyammādhyastham drstrtvamakartrbhāvasca || Samkhyakārikā, Kārikā-20 "Kleśakarmavipākāśayairaparāmrstah purusavisesa īśvarah” - Pātañjala Yoga Sūtrāni || 24 || "Sarvam ca yujyate tasya śünyatā yasya yujyate Sarvam na yujyate tasya śünyam yasya na yujyate" - Mülamadhyamakakārikā, XXIV.14 "Trikālābādhitvam sat" - Sānkarabhāsyam, Ontological level this is referee as Bhrahman - “Brhati bệmhati Brahma" Brahma satyam jaganmithyā jīvo brahmaiva nāparaḥ | Anena vedyam sacchāstramiti vedāntadindimah || - Brahmajñānavalīmālā, verse 20 13. 14. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A Note on Murāri's version of the Rāma-Story Charulata Verma Whatever its worth as a play, the Anargharāghava (AR)1 is notable for the changes that Murāri, its author, has made in the well-known Rāma-story to impart it a measure of vibrance and establish himself as a connoisseur of its myriad ramifications. He might have been indebted to the earlier sources for some of the innovations introduced in the play, the way he has dealt with them serves to enliven the ageless story. They come as puffs of fresh air in the play otherwise heavily burdened with the śāstric jargon. The changes made by Murāri may not have been many in number but they tend to give a new orientation to quite a few of the episodes. Sītā's Marriage : Rāvana's Envoy The first notable change pertains to Sītā's svayamvara, which though detailed with fanfare in the earlier writings, is conspicuous by its absence in the AR. It is instead her marriage that is performed in Murāri's version. However, perhaps as an hangover of Vālmīki's impact, the condition laid down for the marriage does not differ from the one prescribed for her svayamvara in the plethora of related texts. The marriage, as described in the play, is happily marked by a modicum of freshness. In, Muarāri's version of the people Rāvana's envoy Śauskala descends upon Mithilā to demand Sītā's hand for his masters. He immediately locks himself into sharp verbal exchanges with Janaka, Satānanda and Viśvāmitra with respect to the princess' marriage. He accuses Janaka of slighting his master by prescribing dhanur-bhanga as an imperative of his daughter's marriage. It was beneath Rāvana's dignity to participate in the trivial exercise, he thundered. “How could he trifle with Lord Siva's bow whom he had propitiated with nine of his heads”. He pities Sītā's lot who, he prophesies, would have to remain unmarried now. While Rāvana would never condescend to touch the mighty bow, others, howsoever Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 A Note on Murari's version of the Rama-Story powerful they may be, are unable to accomplish the arduous tasks. According to Murari's version, it was in the 'bow-house' (dhanurgṛha) that Rāma performed the tremendous feat of breaking the mighty bow, and that was formally announced to the public by Satananda, the family priest (kākutsthena tad eva bhargavaguroḥ kodandam akrṣyate, AR III. 43). In the popular version the mighty bow is brought to Rāma in the mandapa so that he may deal with it there. While Viśvāmitra greets his pupil's feat, it fills the envoy with rage. He curses Janaka's stars as he had missed the golden opportunity of having an omnipotent person like Rāvana as his son-in-law." He goes to the extent of warning Rāma that it would be an exercise in futility for him to marry Sītā as she was to land ultimately in Rāvana's harem.8 Malyavāna's Parleys with Surpanakhā 37 Rāma's Exile Malyavān, the wise minister of Rāvaṇa, is shaken to know from the envoy of Rama's amazing feat. He is equally upset over Janaka's brusqueness in declining Rāvana's proposal for the matrimonial alliance (IV 7.10). His worry is aggravated manifold on learning that the marriage of all the four princes has already been performed following Dasaratha's arrival at Mithilā. He holds Viśvāmitra responsible for his woes for it was he who diverted Rāma from his original function (IV.11). Mālyavān holds parleys with Śūrpaṇakhā on how could Rāvana be weaned away from his proposed operation of abducting Sītā (P. 200). While Surpanakha sees no alternative to the misadventure (P. 209). Malyavān shudders to think of the frightful consequences that were bound to follow the outrageous operation (mahādoṣo hi.... vaidehyāḥ prasahyāpahāraḥ, P. 201). At his suggestion Śūpaṇakhā proceeds to Mithila, disguised as Mantharā and demands of Dasaratha, on Kailey's behalf, the fulfilment of the two vows given to her earlier, by ordering Rāma into exile and consecrating Bharata on the throne. She cunningly, hands over to Dasaratha and Janaka fall into swoon on learning of the queen's devastating 'command'. Rāma along with Sītā and Lakṣmaṇa, leaves for the forest from Mithila itself (P. 256). Rāma's departure to the forest from Mithila as a consequence of Malyavān's astute strategy purports to be another innovation made by Murari in the story. Mālyavān was convinced that it would be easier for Rāvaṇa to abduct Rāma's wife while he would be wandering helpless in the mighty Vindhyaforest. It was also his calculation that Rāma would be driven to enter into an alliance with Sugrīva and kill Vālin as a part of the treaty.10 Jāmbavān had Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 Charulata Verma SAMBODI already assured the people of Kiskindhā to free from the nagging diarchy and seek Rāma's help in putting Sugrīva on the throne (P. 204-205). Paraśurāma's foray into Mithilā While according to the Vālmīki-Rāmāyaṇa confronts Rāma's concourse when they were on their way to Ayodhyā after the prince's marriage at Mithilā, in Murāri's version he rushes to Mithilā itself to punish Rāma for his 'crime' of breaking his mentor's bow (P. 208). True to his wont, he is immediately locked in an intemperate wordy duel with Janaka, Daśartha, Rāma and Laksmana. He rather lets loose on them a barrage of invectives. Rāma does his best to calm him down, but every peaceful measure on his part added fuel to the fiery sage's fire. 12 Rāma ultimately takes the bull by the horns (vatsa Laksmana ! dhanur, dhamuh, AR P. 245). Paraśurāma does his best to trivialise Rāma's feat by denouncing Siva's bow as a worn-out piece, and asks him instead to string Visnu's mighty bow to prove his credentials (IV-55). Rāma not only strung it with incredible ease but also blocked Paraśurāma's path to the heaven by shooting an arrow from it. That serves to humble Paraśurāma's ego. The encounter, as detailed, in the AR., is also notable for the fact that Parasurāma is filled with affection for Rāma after he strings Visnu's bow. Tremendously mellowed down, he addresses Rāma as Vatsa' (Dear), and lifts his chin with his finger as an expression of affection for him (P. 250). Rāma promptly returns the gesture. He not only begs the sage's pardon for his 'rash act' (IV. 58) but also implores him to accepts his 'hospitality'. 13 Abduction of Sītā The well-known episode of Sītā's abduction, though related in brief in the play, has also undergone certain deviations which combine to make it more lively, rather tantalizing. Rāvana in Murāri's version unwittingly discloses his identity from behind the curtain, though he struggles hard later on to straighten the faux pas with an amount of equivocation.14 Contrary to other versions, Jatāyu in the play detects Rāvana proceeding to the Dandaka forest along with Mārīca, and he rushes to Pancavati to apprise Rāma of the impending disaster, but to his chagrin Rāvana had carried away Sītā befo reached there (V. 7-8). Having failed in the pre-emptive measure. Jatāyu intercepts Rāvana in the air, but could not foil his demonic act. According to Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 A Note on Murāri's version of the Rāma-Story 39 Vālmīki's authoritative version Sītā throws down her ornaments from the aerial car on the Rsyamūka mount to facilitate her identifications, but in the AR. It is the uttarīya that is thrown by her and Hanumān soars in the air to each it midway. Sugriva sent it to Rāma through Guha (P. 290). Rāma gets eager to meet Sugrīva and Hanumān in seeing it. 16 Jāmbvān's strategy succeeded : acirād eva phalavatī jāmbavato mantraśaktih (P. 317). Killing of Vālin In view of the unkind criticism to which it has exposed Rāma, the later writers sought to straighten the episode of Vālin's killing with such changes in it as they deemed fit. Murāri too has recast it in the AR. In his version Laksmana, after slaying Kabandha, scattered the pile of Dundubhi's bones in a spirit of abandon. Guha feared a violent reaction from Valin. Rāma too was apprehensive of its fallout, Laksmana's attempt to underplay it notwithstanding (P. 290). Vālin actually flies into rage at the arrogant tinkering with the heap of the demon's bones, which he thought, symbolised his might and glory (P. 295). Spurred by Rāvana, he challenged Rāma to an encounter (V. 50). Rāma picked up the gauntlet and Vālin was killed in the ensuing combat : hatvā ca vālinas bāno rāmatunīram āgatah (AR. V. 52). Before Sugrīva and Hanuman reached on the scene, Rāma, on his own, had entered into an alliance with Sugrīva, with the fire -god standing witness to it (P. 300). That led to Sugrīva's consecration as the king of Kiskindhā. He despatches Hanumān in search of Sītā, then and there. Throwing the onus of starting the combat on Vālin. Murāri has tried to absolve Rāma of the so-called fraudulent action in killing him. Omission of Hanumān The most astounding feature of the Rāma-story in the AR. is that it has no place for Hanumān as a character. He is doubtless heard of once or twice, but whatever he does in the play, he often does it from behind the curtain. It is surprising that he does not find mention in the Lankā-war, though it is he who brings the Drona hill to cure Laksmana of the swoon (AR., VII. 10-11). He catches hold of the uttarīya thrown by Sītā from the aerial car and reaches to witness Rāma's encounter with Vālin, but all this happens off the stage. Sītā too is taken aback to find him absent in the vimāna while returning to Ayodhyā. He has already been sent to Ayodhyā, confides Rāma, to make arrangements for his coronation there. The rationale behind devaluing such as fascinating character by Murāri is hard to understand. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Charulata Verma SAMBODHI Though not many in number, the changes made by Murari in the Rāmastory, tend to lend it a new flavour. References : 1. Ram Chandra Mishra, Chaukhamba Vidyabhavan, Varanasi, 1960. 2. शाम्भवं चापमारोप्यं योऽस्मानानन्दयिष्यति । पूर्णपात्रमियं तस्मै मैथिली कल्पयिष्यते || Anargharaghava. III. 45 कन्यामयोनिजन्मानं वरीतुं प्रजिघाय माम् । दशाननपुरोहितः शौष्कलो महाराज दिद्दक्षते ॥ Ibid. P. 162 माहेश्वरेण महता दशकन्धरेण । कर्मेदृशं कथमनार्यमधिक्रियेत । Ibid., III.46 माहेश्वरो दशग्रीवः क्षुद्राश्चान्य महीभुजः । पिनाकारोपणं शुल्कं हा सीते किं भविष्यति ॥ Ibid., III.49 Rāmāyana (Gita Press), Bālakānda, 67. 1-27 7. वृथा सज्जन-सम्बन्ध-सत्कारेण वञ्चितः । Anargharāghawa, III.60 राम त्वं मा जनक-पुत्रीमुपयमथाः । पौलस्त्य हस्त वर्तिन्या सीतया तु भविष्यते । Ibid., III. 61 तदमुना च जाम्बवत्प्रयोगेण फलता - विन्ध्यगिरिषु विहरतो रामस्य सुकरं कलत्रापहरणम् । Ibid., P. 207 इत्थम्भाविना गुरुनिदेशचर्या प्रसंगेन - राजपुत्रः - वालिवधपूर्वकेण प्रतीकारसन्धिना सम्बन्धेन सग्रीवमुपगृह्णीयादिति। Ibid., P. 206 Rāmāyana (Gita Press), Balakanda, 74. 17-24; 75. 1-28 Anargharāghava, IV. 49 विप्रे शस्त्रग्रहणगुरुणः साहसिक्याद् बिभेमि । पाप दुर्मुख । स्वस्तिवाचन को ब्राह्मणस्ते परशुरामः । Ibid., P. 240 इक्ष्वाकुंश्च विदेहांश्च पुनीहि भगवन्नमून् । Ibid., IV. 60 आः लक्ष्मण, सर्वविद्रावणः खल्वहम् । किं भवान् रावणः ?, सर्वेषां विद्रावणः खल्वहमिति । Ibid., P. 273 Ramayana (Gita Press), Kiskindhākānda, 60. 11-12 स्पृहयामि सुग्रीव हनुमतोदर्शनाय तद् ऋष्यमूकगामिनं मार्गमावेदय | Anargharāghava, P. 292 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plant Propagation as described In Sanskrit Texts Dhananjay Vasudeo Dwivedi Plant propagation is directly related to the reproduction of plant life. The rich Sanskrit literature is replete with information regarding plant propagation. Various methods of propagation, such as by seeds (Vījaruha), by roots (Mūlaja), by cutting (Kāndāropya), by grafting (Skandhaja), by apical portions (Agravija), and by leaves (Parnyoni) are mentioned in ancient treatises. According to Vrksāyurveda, plants grow from seed, stalk, or bulb. Thus planting is of three kinds. Jambu, Campaka, Punnāga, Nagakesara, Cincini, Kapittha, Badarī, Bilva, Kumbhakārī, Priyangu, Panasa, Āmra, Madhūka, Karmarda etc. grow from seeds - बीजात्काण्डात्तथा कन्दात्तद्वपनं त्रिविधं मतम् ।। जम्बूचम्पकपुंनागनागकेशरचिञ्चिणी ॥ कपित्थबदरीबिल्वकुम्भकारीप्रियङ्गवः । पनसाम्रमधूकाद्याकरमश्चि बीजजा । Tambūlī, Sinduvāra, Tagara etc. grow from stalks ताम्बूली सिन्दुवारश्च तगराधास्तु काण्डजाः । Patala, Dadimi, Plaksa, Karavira, Vata, Mallik, Udumbara, Kunda etc. grow from seeds as well as from stalks पाटलादाडिमीप्लक्षकरवीरवटादयः । मल्लकोदुम्बरः कुन्दो बीजकाण्डोद्भवा मताः ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI Kunkuma, Ardra, Rasonā, Alukanda, etc grow from bulbs. Elā, Padma, Utpala etc. grow from seeds as well as from stalks कुङ्कमाईरसोनालुकन्दाः कन्दसमुद्भवाः । एला पद्मत्पलादीनि बीजकन्दोद्भवानि तु ।' Most important thing, which is necessary for plant propagation is land apart from many other things. Hence, the Sanskrit texts have focused on this aspect at length. Vedic people prayed for a land which was fertile and gave yields in abundance. The land provides three essentials to all plants - a firm grip, food and water. Hence, knowledge of the soil- its surface configuration, general natural fertility has been closely observed by ancient scholars. Classifications of soils are made various parameters. The Vajasaneyi Samhit 18 mentions lands of many kinds, such as tracts in hill area, open plains, stream land, slopes and undulating regions, flat surfaces, with green pastures, low fertile regions and cultivatable lands with homesteads. In ancient India there were special terms to refer to different types of lands. Of these many were based on their properties and characteristics. The consolidated list of such terms occurring in Amarkośa' includes bhūmi (soil in general), mrtsnā (an excellent soil), urvarā (a fertile land for all sorts of crops), ūşa (salt ground), usara (a spot with lime soil), maru (a region devoid of water), aprahata (untilled or waste land), nadvān, kumudyin, vetasvān and śādvala (a country abounding in reeds, water lilies, rattans or green grass), parkila (clayey or muddy soil), anupa (land contiguous to water), sarkarila (soil full of stony or similar modules), and siktila (sandy soil). These terms imply an awareness of the properties of the soil and classifying them on that basis. Here are some specific classificationsClassification Based on Fertility - Fertility is the main criterion for classifying the soil. The Vedic people divided soil into two as i) Urvara (fertile) 10 and ii) Anurvara (Sterile)." The sandy desert is referred to a Dhanvā.12 From agricultural point of view, the fertile land is classified into Krstapacyā and Akrstpacyā.13 Krstapacyā is the land which yields crops after cultivation?4 and Akrstpacyā is such a land in which without cultivation fruits, flowers and some corns will grow on their own as seen in forests. Classification Based on Nature of Soil, Climate and Vegetation - Under this category, the VỊksāyurveda of Surapala has classified the soil Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts 43 in three ways. They are Jāngala (Arid), Anūpa (Marshy) and Sāmānya (Ordinary) जाङ्गला अनूपसामान्यस्वभावापि च मेदिनी ।15 i.e. Arid, marshy, and ordinary are the three types of land. Caraka Samhitā and Suśruta Samhitā have given detailed information regarding this classification. According to Suceruta Samhitā the Anūpa deśa is that locality where water is in abundance, the ground is depressed as well as raised, rivers and rains are in plenty and hence the country is dense, where the wind is mild and cold, mountains and trees are numerous and big, where people have got soft, delicate and muscular body build and where Kapha and Vāta diseases are common. Jāngala deśa is that locality where the ground seems to be level like sky, where trees usually are thorny and few and far between, where the rains, fountains and wells have less water usually, where the winds are hot and turbulent, the mountains are sparse and low, people have usually got firm and thin body build and Vāta and Pitta diseases are common. Sādhārana deśa is that where the features of both are found. The locality is called so because cold, rains, temperature and winds at that place are moderate and dosas of persons are at equilibrium. 16 According to Vrksāyurveda of Parāśara, the tract in arid land is almost like a desert with scanty vegetation and limited water resources. The soil is sodic with abundance of gravel and sand - स्वल्पद्रुमो जाङ्गलश्च स्वल्पोदकमरुप्रायः । ऊषवन्तं शर्रिलः सिकतिलस्तथैव च ॥7 Because of extremely dry conditions of the soil and natural arid environment, the elements of fire, air and earth prevailing in the biosphere result in producing plants containing astringent, pungent and bitter.18 Due to the moist nature of the marshy soil and the influence of elements of water and earth as well as inherent soothing effect of the water-herbs, creepers and annuals flourishing in the area generally bear sap that tastes sweet or sour.19 The soil of ordinary land is neither too dry nor too moist; neither it has an abundance of rock particles and sand. The land is fertile sustaining all kinds of trees, shrubs and crops.20 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI According to the Vrksāyurveda, Arid and marshy land is not good. Ordinary land is good as all kinds of trees grow on it without fail - न जाङ्गला न चानूपा भूमिः साधारणा शुभा । तस्यां सर्वेऽपि तरवः प्ररोहन्ति न संशयः ॥1 Panasa, Lakuca, Tali, Vamsa, Jambira, Jambu, Tilaka, Vata, Kadamba, Amrātaka, Kharjura, Kadali, Tinisa, Mrdvi, Ketaki, Narikela, etc. grow on a marshy land पनसलकचतालीवंशजम्बीरजम्बतिलकवटकदम्बामातखर्जरपगाः । कदलितिनिशमृद्वीकेतकीनालकेनीप्रभृतय इति चान्ये प्रायशोनूपजाः स्युः ॥2 Sobhāñjana, Šriphala, Saptaparņa, sephālikā, Asoka, šamī, Karīra, Karkandhu, Kesara, Nimba, and Asoka grow well on an arid land शोभाञ्जनश्रीफलसप्तपर्णाः शेफालिकाशमीकरीराः । कर्कन्धुकेसरनिश्वशोकावृद्धिं लभन्ते जाड्लायाम् ॥23 Bījapūraka, Punnāga, Campaka, Amra, Atimuktaka, Priyangu, Dādima etc. grow on an ordinary type of land बीजपूरकपन्नागचम्पकाम्रातिमुक्तकाः । प्रियङ्गुदाडिमाद्याश्च साधारणसमुद्भवा ॥24 Classification based on Colour, Taste and Properties of Soil – Vrksāyurveda gives a separate definition of soil on the basis of their colours, taste and fertility. Soil is divided into six types by colours and savour भेदैः साभिद्यते य षड्भिर्वर्णतो रसतस्तथा ॥25 Black, white, pale, dark, red, and yellow are colours and sweet, sour, salty, pungent, bitter, and astringent are the tastes by which land is divided असितविपाण्डुश्यामललोहितसितपीततोचिषः क्रमशः । मधुरोम्ललवणतिक्तकटुकषाया भुवो रसतः ॥26 Vrksāyurveda further adds that bluish like sapphire, soft like parrot's feather, white like conch, jasmine, lotuses, or the moon, and yellow lil gold or blooming Campaka is the land recommended for planting इन्द्रनीलशुकपक्षकोमला शङ्खकुन्दकुमुदेन्दु सन्निभा । तप्तकाञ्चनविकासि चम्पकस्पर्धिनी वसुमती प्रशस्यते ॥27 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts 45 Caraka also makes note of the properties of these soils that are known through their colours. Thus the soils are divided into six as having black, offwhite, blue, red, yellow and white colour in appearance and having sweet, sour, salty, bitter, astringent and pungent taste respectively. They are once again most fertile, less fertile, relatively lesser fertile, infertile, relatively infertile and relatively lesser infertile. Classification According to the Pancabhūtas - Suśruta Samhitā28 gives a special classification of soil naming after the Pañcabhūtas. According to this Samhitā, classification of soil is as stated here a) Soils with properties of Earth - The soil which is stony, firm, heavy, blackish, and black and which has big trees and corn plants, has the properties of Earth. b) Soils with properties of Water - The soil which is fine and cold, has water in the vicinity, mostly has green corn plants, grass and tender trees and is white in colour has the properties of Water. c) Soils with properties of Agni (Fire) - The soil which is of various colours, is light, and stony, and where the trees and growing plants are sparse, small and whitish has the properties of Agni. d) Soils with properties of Anila (Air) - The soil which is dry, has the colour of ash or of an ass, where the trees in general are thin, rough, hollowed and less juicy have properties of Anila. e) Soils with properties of Ākāśa (Ether) - The soil which is soft, even, full of holes, where the plant juice and sub-soil water are not obvious, where trees without heart-wood abound, where trees and mountains are big in general and the soil which is blackish, has the properties of ākāśa. Choosing the Right Land – Land for the purpose of cultivation is to be chosen very carefully. According to the Vrksāyurveda, land with poisonous element, abu stones, ant hills, holes, and gravel and having no accessibility to water is unfit for growing trees विषपाषाणवल्मीकबिलदुष्टा तथोषरा । दूरोदका शर्करिला तरुभ्यो न हिता मही ॥29 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI Land, which is even, has accessibility to water, and is covered with green trees, is good for growing all kinds of trees समा समासन्नजला हरित्तरुनृणाङ्करा । तस्यां सर्वे यथास्थानं प्ररोहन्ति महीरुहाः ॥३० Suśruta Samhitā also discusses about the good and bad soil. It says श्वभ्रशर्कराश्मविषमवल्मीकश्मशानाघातनदेवतायतनसिकताभिरनुपहतामनूषरामभङ्गुरामदूरोदकां स्निग्धां प्ररोहवतीं मृद्वी स्थिरां समां कृष्णां गौरी लोहितां वा भूमिमौषधग्रगणाय परीक्षेत। तस्यां जातमपि कृमिविषशस्त्रातपपवनदहनतोयसम्बाधमार्गरनुपहतमेकरसं पुष्टं पृथ्ववगाढमूलमुदीच्या चौषधमाददीतेत्येष भूमिपरीक्षाविशेषः सामान्य: 31 i.e. Soil free from holes, broken earthenware pieces, stones, unevenness, anthills, and which is neither a cremation ground, slaughter house, sanctuary of God, nor is sandy; soil which is not fertile, not fragile and not far away from water resources and which is fine, promotes germination, is soft, firm, level, black, white or red; such soil should be selected for collection of medicinal herbs. Even from the herbs grown in the above mentioned soils, only those which are unaffected by worms, poisons, trauma, sun-rays, winds, fire, water, obstructions and roads, and have good tastes, are mature and whose roots are thick and deep should be collected is facing north. Kāśyapīyakrsisūkti says that as the earth is of a multifarious character by nature, a king consecrated to the fostering of all beings should initiate scrutiny of fields with marks of prosperity for crop production. The soil should be devoid of pieces of bones, stones etc. एवं बहुविधा जाता मेदिनीयं प्रकीर्तिता । अतो महीपतिः सर्वप्राणिपालनदीक्षितः ॥ सस्याभिवृद्धये भूमि परिक्षेत सुलक्षणाम् । अस्थिपाषाणखण्डाद्यैः हीनां मृदुलमृत्तिकाम् ॥2 The land should consist of pliant clay, unctuous, with reddish and black hue, without chaff and glass, full of essence and glossy with water सुस्निग्धामल्परक्तां च कृष्णवर्णा तथैव च । तुषकाचविहीनां च सारां रससमुज्ज्वलाम् ॥3 The land should be without holes, should be neither too deep nor too Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts high; it should be even, seasoned with fragrance of Mallikā, Jāti, Kutaja and Surāgandha न श्वभ्रयुक्तां नागाधां नोत्तुङ्गां च समस्थलाम् । मल्लिकाजातिकुटजसुरागन्धसमुज्ज्वलाम् ॥4 Or it should be distinguished with sprouts of Padma, Kharjūra, and Tiniša, and not be saturated with water, but also sometimes saturated with water अथवा पद्मखर्जूरतिनिशप्रसवक्रमाम् । अपीतसलिलां शश्वत् पीतोदकजलामपि ॥5 Conducive to speedy growth of the seed and also easy to furrow, it may be moistened by sprinkling bulls' foam, and inhabited by beneficial living creatures बीजवृद्धिकरी वेगात् सीतासौख्यप्रदायिनीम् । वृषफेनाक्तका वापि सत्वजन्तुसमन्विताम् ॥6 The land should be divided according to the fivefold qualities and further classified as having clear water, internally substantial, having some essence in the upper layer, and conforming to the standard एवं पञ्चविधां जात्या विभक्तां विमलोदकाम् । अन्तःसारयुतां बाह्यसारमपि च कल्पकीम् ॥7 The land should be pleasing to eyes, devoid of anthills and harmful creatures, and inhabited by other animals and birds नयनानन्दजननीं वल्मीकादिविवर्जिताम् । दुष्टसत्वविहीनां च सत्त्वपक्षिनिवेशनीम् ॥8 It should not be exposed to gusty winds, whirlwind or fire. It should not have absorbed water and should be favourable for the growth of gardens and construction pleasure groves near the farm houses वातवेगेन्त वात्या वा वह्निवेगेन वा पुनः । अपीतसलिलामन्तर्निष्कुटोद्यानवृद्धिदाम् ॥" Having abundant shady trees and not having many potholes, it should be conducive to prosperity, time and again leading to the growth of a number of varieties of seeds Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI प्रच्छायभूरुहां वृद्धिदायिनी वाल्पनिम्नकाम् । नाना बीजावलीवृद्धिकरणी च मुहुर्मुहुः ॥० With streams of water easily accessible, with water already easily adapted, it should be furnished with threshing floors. Endowed mostly with these characteristics the king should search and acquire best land. The king should appoint for this purpose those who know the way to scrutinize the quality of land. They should be equipped with the required eligibility सुलभोदकनिस्रावां सुलभस्वीकृतोदकाम् । एवं लक्षणसंयुक्तखलभूमिवृतां वचित् ॥ वसुधां भूपतिर्वीक्ष्य गृह्णीयादुत्तमामिह ।। भूपरीक्षाक्रमविदो गुणाढ्या नृपचोदिताः ॥1 He should know the characteristics of soil by its colour, the drop of water, taste, and fluidity and ascertain that the soil is of uniform shade of the colour and is thick-set and sticky - वर्णबिन्दुरसस्रावैः विद्यात् भूम्याश्च लक्षणम् । समवर्णा समच्छाया घना स्निग्धा च भूरपि ॥2 A good quality land yields good results to everyone, confers good wealth on the entire family, and causes growth of money, cattle, and grain शुभलक्षणसंयुक्ता सर्वेषां शुभदा धरा । कुटुम्बारोग्यदा शश्वत् धनगोधान्यवृद्धिदा ॥3 Hence, only good soil should be indicated, or in some cases that of a mediocre quality also may be specified, but an expert of soil should by all means avoid a bad quality land - निर्दिशेदुत्तमां भूमिं मध्यमामपि वा क्वचित् ।। अधमां वर्जयेत् यत्नात् भूमिलक्षणपण्डितः ॥4 The soil used for the plantation of fruit and flower trees should contain sweet water and should be free from pieces of stones. It should be smooth, soft and not open to frost. The real test to judge the fitness of the soil is that there should be free growth of Tila, Mudga and Māsa.45 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts 49 Propagation by Seeds Collection of Seeds - The collection of seeds in the appropriate time was a great importance for the success of cultivation. The Arthaśāstra mentions it as the first duty of the Superintendent of Agriculture. He is required to collect in the proper seasons seeds of all kinds of grains, flowers, fruits, vegetables, bulbous roots, roots, creeper fruits, flax and cotton. All sorts of seeds should be procured in Māgha or Phālguna and should then be dried well in sun without putting those directly on the ground माघे वा फाल्गुने मासि सर्वबीजानि संहरेत् । शोषयेदातपे सम्यक् नैवाधो विनिधापयेत् ॥6 Putting the seeds in a small pouch, seeds of other plants as well as straw must be removed from it. A mixture of different kinds of seeds causes great loss बीजस्य पुटिकां कृत्वा विधान्यं तत्र शोधयेत् । बीजं विधान्यसंमिश्रं फलहानिकरं परम् ॥7 Uniform seeds produce excellent results. Hence every effort should be made to procure uniform seeds एकरूपं तु यद्वीजं फलं फलति निर्भरम्। एकरूपं प्रयत्नेन तस्माद्वीजं समाचरेत् ॥8 Putting the seeds in a strong bag, one should weed out grass that shoots out in the field. If grass is not weeded it spreads later, growing all over the farm सुदृढं पुटकं कृत्वा तृणं छिन्द्यात् विनिर्गतम् । अच्छिन्नतृणके यस्मिन् कृषिः स्यात् तृणपूरिता ।। Seeds should never be stored in a place beset with white ants or in a cow shed or in labour room. Nor should it be placed in the house of a barren woman न वल्मीके न गोस्थाने न प्रसूतानिकेतने । न च वन्ध्या गर्भिणी चैव न च सद्यप्रसूतिका 150 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI Leftover food, a woman having menstruation, a barren woman, or a new mother should not be allowed to come in contact with the seeds नोच्छिष्टं स्पर्शयेद्वीजं न च नारी रजस्वलाम् । न वन्ध्या गर्भिणी चैव न च सद्यप्रसूतिका ॥1 ___A farmer should not even by mistake place ghee, oil, buttermilk, lamp, or salt on the seeds घृतं तैलं च तक्रं च प्रदीपं लवणं तथा । बीजोपरि भ्रमेणापि कृषको नैव कारयेत् ॥2 Seeds which have come in contact with lamp, fire, or smoke and which are exposed to rain or stored in a pit should always be discarded दीपाग्निधूमसंस्पृष्टं वृष्टया चोपहतं च यत् । वर्जनीयं सदा बीजं यद्गर्तेषु निधापितम् ॥3 Seeds which are pressed or are mixed with other inferior matter should never, even by mistake, be sown. Seeds blended with inferior matter or with leftover food grains do not sprout even if sown प्रोथितं मिश्रितं बीजं भ्रान्त्या न निर्वपेत् वचित् । विधान्यं गुडकोन्मिश्रं तद्वीजं वन्ध्यतां व्रजेत् ॥4 Treatment of Seeds - To increase the fertility of the seeds they were treated before sowing. According to the Arthaśāstra, seeds are to be soaked in dew and dried in the heat for seven days; those of pulses for three days and nights or five; stalks that serve as seeds are to smeared at the cut with honey, ghee and pig's fat mixed with cow-dung; bulbous roots to be smeared with honey and ghee; and stone like seeds to be smeared with cow-dung. The Vrksāyurveda of Surāpala deals with the treatment of seeds in some details. According to it, seed is extracted from dried fruits which become ripe in the natural course and season. It is then sprinkled with milk and dried for five days. It is then smoked with mustard seed mixed with Vidanga यथर्त्तपत्रात् फलतोविशोषिताद्विकृष्यबीजं पयसा निषिच्या । विशोषितं पञ्चदिनानि सप्पिषां विडङ्गमिश्रेण च धूपयेत्ततः । Seeds sprinkled with milk, smeared with mustard and ash of Tila and Brhatī, rubbed with cow dung, and smoked with marrow sprout in no time Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts 51 क्षीरनिषिक्तं बीजं बृहतीतिलभस्मसर्पिषां लिप्तम् । गोमयमृदितमथोप्तं सद्यो जायेत धूपितं वसया ॥6 Seeds sprinkled with milk, rubbed with cow dung, dried and profusely smeared with honey and Vidanga definitely sprout - पयसि निषिक्तं बीजं गोमयपरिमदितं विशोष्य ततः । माक्षिकं विडङ्गचूर्णैर्बहुशो मृदितं प्रजायते नूनम् ॥ According to the experts, seeds soaked in milk, dried well in shade, and rolled into the powder of Brhati, Tila, and Nala (hollow stalk of lotus) mixed with mustard are excellent for sowing क्षीरेण भावितमनातपसाधुम्युष्कसर्पविमिश्रवृहलीतिनाभूत्या । आलालितं प्रवरमे तदपि ब्रुवन्ति बीजं विशुद्धमतयो वपनाय धीराः ॥58 The seeds of Mākanda. Jambu. and Panasa are excellent when wet and treated as stated above. The seeds of Ksîri and Bakula are good when dried and treated as stated above and when tips are cut माकन्दजम्बूपनसोद्भवमार्दमेव सर्वोत्तमं सकलपूर्वविधानयुक्तम् । शुष्कं च पूर्व परिकर्मयुतं वरेण्यं स्यात् क्षीरिकाबकुलयोहुरकूर्चिताग्रम् ॥ Varāhmihira prescribes the methods for treating seeds for increasing their fertility. According to Brhatsamhitā all seeds should be soaked in milk for ten days, taking them out daily with the hands smeared with ghee. Then they must be rolled many times in cow-dung, fumigated with the flesh of deer and hog; thereafter with flesh and hog's marrow, they should be planted in soil that has been already prepared with sesamum treatment. Being sprinkled with milk and water, they will grow and bloom. Even a tamarind seed will produce a sprout when sprinkled with compound of the flour of rice, black gram and sesamum and wheat particles along with stale meat, and repeatedly fumigated with turmeric powder वासराणि दश दुग्धभावितं बीजमाज्ययुतहस्तयोजितम् । गोमयेन बहुशो विरूक्षितं क्रौडमार्गपिशितैश्च धूपितम् ॥ मांसशूकरवसासमन्वितं रोपितं परिकर्मितावनौ । क्षीरसंयुतजलासेवितं जायते कुसुमयुक्तमेव तत् ॥ तिन्तिडीत्यपि करोति वल्लरी वीहिमाषतिलचूर्णसक्तुभिः । पूतिमांससहितैश्च सेचिता धुपिता च सततं हरिद्रया ॥60 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI Any seed being soaked a hundred times in a paste of Ankola fruit or in its oil, or in a paste or oil of Ślesmāntaka fruit, will, when sown in a soil mixed with hail, sprout instantaneously, and what wonder it be, if its branches were laden with fruits शतशोऽङ्कोलसमभूतफलकल्केन भावितम् । एतत्तैलेन वा बीजं श्लेष्मातकफलेन वा ॥ वापितं करकोन्मिश्रमृदि तत्क्षणजन्मकम् । फलभारान्विता शाखा भवतीति किमद्भुतम् ॥61 Pits should be first kept ready heating them from inside and filling with soil. Seeds should be treated with dry cow dung and them with clarified butter and honey. 62 After rubbing them in dung or after smearing them with a mixture of ashes of Tila plants and seeds and clarified butter, the wise should sow them at proper places.63 Even an old seed when smeared with Ankola oil sprouts quickly. 64 The prescription about the treatment of seeds is not without some scientific basis. If the seeds are soaked in any solution, the decayed ones will float and can easily be detected and discarded. The application of cow-dung, honey, butter etc., would protect it from insects and diseases. The cow-dung being hygroscopic and containing potassium, nitrogen and phosphates and also microbes, is expected to help germination. Mānasollāsa also discusses the process of seed treatment. According to it, the first method is employed for the seeds of all kinds of trees. According to this method, the ripe fruits are first dried in Sun. Then they are kept covered with cow-dung for five days. They are perfumed with the Vidanga and the clarified butter.65 The other method is a special treatment given to the milky trees. According to this method, the seeds are soaked in the cow's milk continuously for ten nights. They are coated with the cow-dung and mixed with the ashes of Vyāghr and with ashes of barley and wheat. 66 SOWING - Sowing being an important process in cultivation, it was given serious attention and care. Befitting its importance solemn religious rites were performed on the occasion. Vrksāyurveda of Surapāla says regarding sowingThe owner of the farm should wear clothes after bath, worship God, offer salutations to his preceptors, offer wealth or land to the worthy, offer Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts 53 salutations to the Vāstu deity and then he himself should sow some seeds. The servants should then follow him शुचिः स्नातो विद्वसनममलं पूजितेसुरो गुरुं नत्वा दत्वा वसु वसुमती वा गुणवते। स्वयं बीजान्यादौ वपति कतिचिद्वास्तुपुरुषं मनस्यन्तः कृत्वा तदनु परितोन्यः परिजनः। 67 After sowing, the seeds should be covered with grass and sprinkled with water mixed with milk. Water should be sprinkled after they sprout. Grass should be removed and soil should be allowed to dry बीजधानी तृणास्तीणां कृत्वा सिञ्चत्पयोम्बुना । जाताङ्कुराश्च सलिलैनिस्तृणां शोषमानये ॥68 The first day of the bright fortnight, fullmoon day, the fifth or the thirteenth day of the bright fortnight are good for sowing. Monday, Wednesday, Thursday and Friday are good days शुक्लप्रतिपदापूर्णी पञ्चमी च त्रयोदशी । तिथयो गुरुशुक्रेन्दूसौम्यानां वासराः स्मृता ॥ Višākhā, Mrgaśirā, Mūla, Citrā, all the three Uttarā, Anurādhā, Jyesthā, and Kșttikā are good Nakşatras. Steady lagna is good विशाखवारुणं मूलमृगचित्रोत्तरात्रयम् । प्राजापत्यानुराधा च तथाज्येष्ठा च कृत्तिका । नक्षत्राणि प्रशस्तानि स्थिरं लग्नं च शोभनम् ॥ The seedling should then be planted in beautiful, even ground, on which sesame or black gram is not grown earlier and which is strewn over with heaps of flowers उसं पुष्पचयां कीर्णतिलप्राखाद्य वाहिते । भूप्रदेशे समे रम्ये वृक्षानां रोपयेद्वपेत् ॥1 Plants need proper environment for their growth. Therefore, there should be some distance between plants. According to the Vrksāyurveda of Surāpala, the distance between two plants is fourteen, sixteen or twenty forearm length. These distances result in inferior, mediocre and excellent yield of trees respectively भवेति चतुर्दशषोडशविंशतिहस्तैस्तदन्तरा दोलानि । क्रमशो निन्दित मध्यमवरमिति तरुसम्पदोनियतम् ॥72 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI Agni Purāņa is also of the same view.73 Echoing similar views, the Brhatsamhitā says that if proper distance is not maintained, the trees will not yield profuse quality of fruits because their roots are inter-locked and tortured due to being grown very close to each other and touching each other with their roots. The Sukranîti holds the same view for good production. Distance between two bushes should be four or five forearm length. Puga, etc. are planted carefully at a distance of two to three forearm lengths पञ्चचतुष्टयहस्तं प्रमिस्तं स्यागुल्मिनोंतरालम् च । त्रिद्विचतुहस्तैस्तत्पूगादीनां प्रयत्नेन ॥4 If planted at farther distance there is danger of strong winds. But if planted closer than this there is no yield. So no one should strictly adhere to the correct distance for proper yield from the trees अतोदूरे निलाह्रीति रसं पत्तिस्त्वदूरतः । तस्मान्नानान्यथा कार्य तरु सम्पत्तिमिच्छता ॥5 The pits should be prepared well in advance. The length, breadth, and the depth of the pits should be forearm measure uniformly. They should be properly dried, filled with cow bones and cow dung, and burnt गर्ते चिरकृते शुष्के सर्वतोहस्तसम्मिते । सम्यग्दग्धे तु सम्पूर्णगोकीकसकरीषकैः ॥ After the ash is naturally cooled and removed, Kuņapa water (liquid manure) should be sprinkled and pits should be filled with good earth तत्र स्वभावसंशीते भस्मन्यपहते सति । सिक्ते कुणपतोयेन सारमृत्य हि पूरिते ॥7 Sowing seeds for Mākanda, Dāļimî, Kuşmāņdā, and ālambuka is good but planting is even better माकन्ददाडिमादीनां कूष्माण्डालांबुकस्य च । वपनं कीर्तितं श्रेष्ठं रोपणं च विशेषत ॥78 In the fertile land which is used excessively, seeds of Trapusa or other vegetables are sown intermittently उप्तिस्त्रपुबीजानां स्थानके स्थानके शुभे । क्षेत्रे सुसारके सर्वशाकानामिति वाहिते ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts 55 Here in these fields, saffron, Maruvaka, and Damanaka are similarly grown in small carry उप्तिर्मरुवकश्चात्र तथा दमनकस्य च ।। कल्पिताल्षककेदारे कीर्तिताकुङ्कुमस्य च ॥३० Large seeds should be sown singly but smaller ones should be sown in multiples. The use of Nāranga should be sown in a slanting position with hand एकैकं स्थूलबीजाने लघुबीजान्यनेकशः । हस्ताग्रेणैवनारङ्गबीजं वक्रेण निर्वपेत् ॥1 Anila, i.e. Svāti, Uttarāşadha, Uttarābhādrapada, Uttarāphālgunī, Rohini, Mrgsirā, Mula, Punarvasu, Pusya, Sravana and Hasta are good stars for plowing अनिलोत्तररोहिण्यां मृगमूलपुनर्वसौ । पुष्यश्रवणहस्तासु कुर्याद्धलप्रसारणम् ॥2 ___Plowing on Monday, Wednesday, Thursday, and Friday results in good growth of crops हलप्रसारणं कार्य कृषकैः शस्यवृद्धये । शुक्रेन्दुजीववारेषु शशिजस्य विशेषतः ॥3 Commencement of plowing on Tuesday, Saturday or Sunday may cause impediments from king भौमार्कदिवसे चैव तथा च शनिवासरे । कृषिकर्म समारम्भो राज्योपद्रवमादिशेत् ॥4 The second, third, fifth, seventh, tenth, eleventh and thirteenth day of a month are good for plowing दशम्येकादशी चैव द्वितीया पञ्चमी तथा । त्रयोदशी तृतीया च सप्तमी च शुभावहा ॥85 If plowing is commenced on the first day of a month loss of crop may result. Starting on from the twelfth day can lead to death and arre causes several obstacles while the non-moon day, without the appearance of the moon, ruins the farmer Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI शस्यक्षयः प्रतिपदि द्वादश्यां बधबन्धनम् । बहुविघ्नकरी षष्ठी कुहूः कर्षकनाशिनी ॥6 Commencing plowing on the eighth day of the month kills the bullocks; on the ninth day it causes destruction of the crops. Commencing on the fourth day, leads to loss caused by insects and on the fourteenth day it leads to the master's death - हन्त्यष्टमी बलीवर्दानवमी शस्यघातिनी । चतुर्थी कीटजननी पति हन्ति चतुर्दशी ॥7 Propagation Of Plants by Cutting (Kāņdāropya) and Grafting (Skandhaja) - Various Sanskrit texts have described the fact that plants were propagated in ancient India by cutting and grafting. According to the Brhatsamhitā, grafting may be done in respect of the jack tree, Aśoka, Plantain, Eugenia, Lemon, pomegranate, grape, Pālīvata, Mātulinga and jasmine creeper by smearing a branch with cow-dung and transplanting it on the branch of another; or it may be done by cutting off the trunk of a tree and transplanting it like a wedge on the trunk of another tree. Here the part when the junction is affected must be covered with coating of mud पनसाशोककदलीजम्बूलकुचदाडिमाः ।। द्राक्षापालीवताश्चैव बीजपूरातिमुक्तकाः ॥ एते द्रुमाः काण्डरोप्या गोमयेन प्रलोपिताः । मूलोच्छेदेऽथवा स्कन्धे रोपणीयाः परं ततः । The grafting should be done in sisira season for those plants which have not yet got branches; in the Hemanta season for those that have grown branches; and in rainy season for those that have large branches. The particular direction of the tree that is cut off should be kept up in grafting also अजातशाखान् शिशिरे जातशाखान् हिमागमे । वर्षागमे च सुस्कन्धान् यथादिक्स्थान्नरोपयेत् ॥ Trees can be taken to other countries and there grafted on others, if they are smeared from root to the stem with ghee, andropogon, sesamum, honey, Vidanga, milk and cow-dung घृतोशीरतिलक्षौद्रविडङ्गक्षीरगोमयैः । आमूलस्कन्धलिप्तानां सङ्कामणविरोपणम् ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts 57 One should be clean and pure and worship a tree with ablutions and sandal paste etc. and then graft it. Then it will thrive even with the leaves with which it has been grafted. The transplanted (grafted) trees should be watered both in the morning and evening everyday in summer; on alternate d cold seasons; and whenever the soil becomes dry in rainy season शुचिर्भूत्वा तरोः पूजां कृत्वा स्नानानुलेपनैः । रोपयेद्रोपितश्चैव पत्रैस्तैरेव जायते ॥ सायं प्रातश्च धर्मत्तौ शीतकाले दिनान्तरे । वर्षासु च भुवः शोषे सेक्तव्या रोपिता द्रुमाः ॥1 The knowledge of grafting is mentioned as one of the essential qualifications of the gardener in the Sukranīti which recognizes it as one of the sixty four arts. Vrksāyurveda has also discussed the plant propagation through cutting and grafting. According to it, smeared with the pulp of a plantain ripened naturally and dried in the Sun, a rope of the stalk of Sastika (a rice variety that matures in 60 days) should be laid in the pits intermittently. Sprinkled with little water continuously in the hot days, it yields without fail sprouts like Tamāla सहजपरिपक्वकदलीफललिप्तास्तरणिकिरणपरिशुष्काः । षष्टिकपलालरज्जुर्निहितार्गर्ते तदतरिता ॥2 स्तोकजलैः परिसिक्त निरन्तरं शुचिरदिवसेषु । सूतेतमालनीलप्रतिमां कुरुसञ्चयं नियतम् ॥ The stalk should be 18 angula, neither too tender nor too hard. Half of it should be smeared with plenty of cow dung and then it should be planted with three-fourth in the pit and should be sprinkled with water mixed with softy sand mud अष्टादशाङ्गुलमकोमलकर्कशं च संरोपयेद्विपुलगोमयसंस्कृतार्ध । काण्डं त्रिभागमथतंत्परिपूर्यगर्तेसिञ्चेज्जलैर्मसृणसैकलमृत्तिकाभिः ॥4 Bulbs should be planted in pits measuring one forearm-length, breadth, and depth-and filled with mud mixed with thick sand सर्वात्कन्दात्वेद्गर्ते सर्वतो हस्तसम्मिते । सांद्रसैकत संमिश्रमृत्तिकापरिपूरिता ॥5 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI Small trees should be transplanted by day time at the proper distances when they are one forearm tall. The roots should be smeared with honey, lotus fibre, ghee, and Vidanga and then planted in proper pits along with the earth आरोपयेद्वालतरून् मनीषीच्छानांतरं हस्तिमितां दिशज्ञः । क्षौदामृणालाज्य विडङ्गलिप्तमूलान्सुगर्तेधिमृदा समेतान् । Twigs without shoots are good for plantation. Those with shoots are mediocre. Those with flowers and fruits are inferior and must not be planted as trees do not grow from them.97 In summer, branches with leaves are good for plantation. Those with shoots should be planted if rainy season is to start shortly. In rainy season branches with well-formed thick stem should be preferred for plantation.98 Propagation Of Plants by Roots - Kadali should be planted after smearing the root profusely with cow dung. It should be planted in the pit along with the root and should be watered well कदली रोपयेत्मूले दत्वा गोमयमुत्तमम् । रोपयेत्मूलतो गर्ते दत्वा प्रचुरमम्बु च ॥ Big trees should be similarly transplanted with their roots covered during evening after reciting the following mantra the previous day तथा महांतोप्यणुरोपणीया स्तलापिकावेष्ठितमूलदेशाः । प्रदोषकाले परवासरस्य संश्राव्ये पूर्वेति च मन्त्रमेलान् ॥100 O tree, I shall take you to a better place from here and shall water you in such a way that you shall be satisfied. You will grow there and shall have no fear from lightning etc. I shall look after you there, like a dear son. हे वृक्षत्वामितः स्थानान्नेष्याम्यन्यगुणोत्तरम् । तथा सेकं प्रदास्यामि निर्वृत्तिं येन यांस्यसि ॥ वृद्धिं यास्य सिलत्रत्वं वज्रादिभयवर्जितः । तत्रैव पालयिष्यामि प्रियं पुत्रमिवाचलम् ॥01 Proper Time For Plantation - Rainy season is the best time recommended for sowing all types of seeds Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts 59 and planting trees, etc. Autumn and spring are mediocre seasons for the purpose.102 Winter and summer are both contraindicated for plantation. A senior planter may plant trees if advised by some people. All seasons are equally good for plantation when extra effort is put on watering. 103 Ksīrikā, Cūta, Dadimī, Vakula etc. should be planted in the month of Srāvana. Rājakośa, āmra, Lakuca etc. should be planted in the month of Bhādra श्रावणे क्षीरिकाचूतदाडिमीवकुलादिकम् । भाद्रे च राजकोशाम्रलकुचादि वपेद्बुधः ॥104 Golla, Vārttāka etc. should be planted in the month of Āśvina. Phanijya, Satapatrikā, Dhānyaka and Mülaka etc. should be planted in the month of Kārttika आश्विने गोल्लवार्ताकप्रभृतीनि च कार्तिके । फणिज्ज्ञशतपत्रीका धान्यकं मुलादिकम् ॥105 Patola etc. should be planted in Phālguna and Kārkāruka etc. in Caitra. A wise man should plant Kadalî etc. in the month of Vaišākha and Friday फाल्गुने च पटोलादि चैत्रे कार्कारुकादिकम् । रोपयेत्कदलीकादिसुधीर्वैशाखशुक्रयोः ॥106 Any tree as desired can be planted in the month of Āsādha. Mārgaśīrṣa, Pausa and Māgha are stated to be bad for planting आषाढे निपेत्सर्वान् रोपेयच्च प्रकामतः । सहः सहस्यौ माघश्च वपनादौ विगर्हितः ॥107 Thus knowing the technique the person concerned with trees should undertake planting after propitiating Gods and preceptors and removing all impurities इति विदितविधानः शाखिचिंताविधानः कृतसुरगुरुतोषः क्षालिताशेषदोषः । निजमिव वरतोकं निर्वपेत्प्राज्ञशोकं तदवनिज विशेषात्कामतो ज्ञानशेषान् ॥08 Weeding Even a well grown crop does not yield full returns if grass is not weeded out. The yield is considerably reduced due to the grass.109 Crop from which grass is weeded out in Srāvana and Bhadrapada, doubles itself although full of D... Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI grass later. 110 Weeding should be done twice in Āśvina. Thus unripe crop grows like black gram.111 Hence every effort should be made to weed out grass. Farms free from weeds fulfil wishes of the farmers, 112 Conclusion In this way one can conclude that Sanskrit texts are replete with the facts regarding propagation of plants. The importance of soil, treatment of seeds, ways of plantation, time of propagation along with importance of weeding has well been described in Sanskrit texts. References : 1. Vrksāyurveda-45 2. Ibid, 48 Ibid, 49 Ibid, 49 Ibid, 50 Ibid, 51 Rgveda-1/125/5 Vājasaneyi Samhitā- 146/43 Amarkośa- 2/1/1-5, 9-11 Rgveda-1/127/6; 4/41/6 Śatapatha Brāhmaṇa-2/1/1/16 Rgveda-1/116/4 13. Yajurveda-18/14 14. Atharvaveda-10/6/33 15. Vřksāyurveda 35 16. Suśruta Samhitā-Sūtrasthāna 35/42-43) 17. Vrksāyurveda a of Parāśara-Bijotpatti Kānda 2/4 Ibid, 2/8. Ibid, 2/10 Ibid, 2/10 Vrksāyurveda -40 Ibid, 41 Ibid, 42 Ibid, 43 Ibid, 35 Ibid, 36 18. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described In Sanskrit Texts 61 27. 29. 32. 33. 34. 35. 44. Ibid, 38 Susruta Samhitā- Sūtrastāna 36/4 Vľksāyurveda -37 Ibid, 39 Suśruta Samhitā-Sūtrasthāna 36/3 Kāśyapīyakrșisūkti-1/2/32-33 Ibid, 1/2/34 Ibid, 1/2/35 Ibid, 1/2/36 Ibid, 1/2/37 Ibid, 1/2/40 Ibid, 1/2/41 Ibid, 1/2/42 Ibid, 1/2/43 Ibid, 1/2/45-46 Ibid, 1/2/53 Ibid, 1/2/55 Ibid, 1/2/56 Mānasollāsa-Bhūdharkridā/10-11 Krsi Parāśara-157 Ibid, 158 Ibid, 159 Ibid, 160 Ibid, 161 Ibid, 162 Ibid, 163 Ibid, 164 Ibid, 165 VỊksāyurveda-52 Ibid, 53 Ibid, 54 Ibid, 55 Ibid, 56 Bịhatsamhitā-55/19-21 Ibid, 55/27-28 Visvavallabha 4/9 . 50. 51. 52. i i 54. 8 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Dhananjay Vasudeo Dwivedi SAMBODHI 69. 70. 72. 73. 74. 75. 76. 77. 80. Ibid, 4/10 Ibid, 4/11 Mānasollāsa-Bhūdharkridā 6-8. Ibid, 9-10 VỊksāyurveda - 59 Ibid, 60 Ibid, 61 Ibid, 62 Ibid, 63 Ibid, 64 Agni Purāņa 119/8-9 Vrkṣāyurveda - 65 Ibid, 66 Ibid, 67 Ibid, 68 Ibid, 69 Ibid, 70 Ibid, 71 Ibid, 72 Krsi Parāśara-121 Ibid, 122 Ibid, 123 Ibid, 124 Ibid, 125 Ibid, 126 Brhat samhitā- 55/4-5 Ibid, 55/6 Ibid, 55/7 Ibid, 55/8-9 VỊksāyurveda -74 Ibid, 75 Ibid, 76 Ibid, 81 Ibid, 83 Viśvavallabha - 4/6 Ibid, 4/7 WN 89. 90. 96. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 Plant Propagation as described in Sanskrit Texts 63 108. 99. Vřksāyurveda - 82 100. Ibid, 84 101. Vrksāyurveda - 85-86 102. Visvavallabha - 4/1 103. Ibid, 4/2 104. Vrkśāyurveda - 87 105. Ibid, 88 106. Ibid, 89 107. Ibid, 90 Ibid, 96 109. Krși Parāśara-189 110. Ibid, 190 111. Ibid, 191 112. Ibid, 192 Biblography 1. 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In 1830, a British officer reported* to Company Government that "in this country, a general dislike to our government is that under our ruled cities are always destroyed, but Ahmedabad is the only exception." This is because of the insight people of Ahmedabad possess. They are hard-working and rational as well. Trade is in their blood. An Amdavadi is perseverant and composed. Simplicity and self-sufficiency are their mantras for existence. An Amdavadi is soft-spoken and has peaceful disposition. He is wise in practice. He never gets excited by anything and finds solution of every problem. He is truthful so keeps his word at any cost. An Amdavadi is calculative in his daily routine, but when it comes to charity, he is the most generous. Moreover, economic supremacy and social dignity of affluent businessmen have been the flavors of Ahmedabad. The businessmen of Ahmedabad had much influence on the rulers hence the rulers were always responsive to their advise. Thus business tycoons had a big say in shielding the people from cruel clutches of the rulers. The city has its cultural and political history of more than one thousand years. Jains in Ahmedabad : Ahmedabad has been a business centre with social and religious leaning Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 Jitendra B. Shah SAMBODHI since decades. Many Jains have settled in as well as outside the city. Oswal, Porval, Shrimali, Agrawal are the chief Jain communities of Ahmedabad. On the basis of known lineages, most of these communities of Ahmedabad have come from Rajasthan. Shantidas Sheth came from Rajasthan and settled in Ahmedabad. Names of various communities suggest that they have come from villages and towns of Rajasthan like Osiyaji, Bhinnmal, Shrimal etc. Some communities have come to Ahmedabad from other regions of Gujarat like Saurashtra, North Gujarat and Kutch for education and commerce. The Jains have surnames like Kapadia, Doshi, Gandhi, Mehta, Shah, Parekh which explain about their business activities as merchants of clothes, diamond merchants etc. After industrial revolution, Jains of Ahmedabad ventured into cloth mills, chemical and other industries. Today Jains have taken a leading position in businesses like pharmacy, iron, chemicals, etc. The Jains have not only earned the name in commerce but has also served the society by their charitable activities in education and health services. King of Gujarat Karnadev Solanki in 1074 A.D. defeated Asha Bhil and won Ashavalli(Ashaval). Karnadev was the father of Siddhraj Jaysinh. The Jains had a lion share in the development of Karnavati. In 1411 A.D. King Ahmed Shah founded Ahmedabad (Amdabvad), later known as Amdavad. It remained the capital of Gujarat for centuries. The city has been constantly flourishing since then and credit goes to the intelligence, skill and generosity of Jains. In 17th century, Shantidas Sheth came here and became an eminent representative of the entire Jain community. He had developed loyal relations with Mogul king Akbar and other Mogul kings. So the city became a major centre of commerce with the best facilities for Jainism. Thus Ahmedabad is also famous as the capital of Jains. For the development of Ahmedabad, Ahmedshah, founder of city and Mehmood Begda had invited prosperous businessmen to settle in Ahmedabad and start their business. Moreover, the legislative body of these kings included Jain shravaks like Gunraj, Gadraj and Gala Mehta etc. Shantidas Sheth, the leader of business in Ahmedabad took great pains to strengthen the influence of Jains. Other Shravaks like Devdhar Shrimali, Sonpal, Shiva, Somji, Latkan Shah, Moola Sheth, Veepa Parekh also gave notable contribution in social and religious prosperity of Ahmedabad. Jain scriptures have many references of Ahmedabad. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 The Jains in Ahmedabad 67 Prabandhchintamani,( p.55) describes historical value to the city. Prabhavakcharit( p.165) has a mention that merchants (12th century) had many Jain scriptures and treatise (Tika) reproduced. According to Puratan Prabandh Sangrah( p.27) Acharyashri Devacharya came here for four months on the request of Jains of the city, and gave lectures (Vyakhyans) in Neminath palace . Prabhavakcharit( p. 174-175) shows Acharyashri Devasuri had led Jain pilgrims from Ahmedabad. A Shrimali Jain Udayan came here from Vagra village near Jabalpur of Marusthali with his two sons Bahad and Chahad when he learned about the glory of King Karnadev, (Puratan Prabandh Sangrah, p.32). Udayan had come to Gujarat only for business but because of his wisdom and pious nature he had earned confidence of the King. So he became an important member of the royal court of Gujarat. He built Udayanvihar Jain temple (Prabandhchintamani, p.56, Puratan Prabandh Sangrah, p.126). Shantu Mehta built a Jain temple with 72 shrines, which became famous as Shantuvasahi. Mantri Udayan had greeted Hemchandrasuri who had come with Devchandrasuri. At that time, Chachig, father of Hemchandra, came to Karnavati to take his son back and had to show his objection he abstained himself from food and water. Udayan resolve his problems. So Hemchandra could take vows of renunciation in this city. Later on he became famous as Kalikal Sarvagna Hemchandracharya (Prabandh-chintamani pp. 83-84). Rajimati, a devotee in Ahmedabad, took 12 vows mentioned in Jain scriptures (Puratan Prabandh Sangrah, pp. 32, 80). Prominent Acharyashris like Buddhisagarsuri (1036 A.D.), Hemchandrasuri (1045 A.D.), Jinbhadrasuri (1402 A.D.), Ratnakarsuri (1452 A.D.), Heervijaysuri (1572 A.D.), Hemvijayji (1601 A.D.), Yashovijayji had visited this city during their time. Siddhraj was crowned as king in 1094 A.D. when he was little child and before the creation of Nirvanlilavati (1026-1036 A.D.) by an eminent grammarian Buddhisagar. Karnavati was prospered by Karnadev. Even after settling in Karnavati, Acharyashri Haribhadrasuri of Bruhadgucch wrote a treatise on Agamikvicharsar Prakaran (1116 A.D.), Yashodevsuri of Upkeshgachchh wrote an introduction of Prakrit Chandraprabh-charit (1122 A.D.). Acharyashri Chandrasuri, who stayed with sons of Shrimal Nagil created Munisuvratcharit (1137 A.D.). Pradyumansuri, disciple of Vadidevsuri, created Vadsthal. Son of Visal of Ukesh dynasty settled here and his fourth son, Chacho was the gem of Karnavati. According to Political and Cultural History of Gujarat (p.347) Chacho Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 Jitendra B. Shah SAMBODHI built a Jain temple in Karnavati. Jinbhadrasuri of Khartargachchh established libraries at Jesalmer and Ashapalli(Karnavati) (1402 A.D.). Hemhansgani, disciple of Ratnashekharsuri of Tapagachchh, wrote treatise on Arambhsiddhi of Udayprabhsuri (1458 A.D.). Political and Cultural History of Gujarat p.347) has a mention that Laxmisagarsuri (1463 A.D.) bestowed the status of Ganini on Somlabdhi, in 1463 A.D., a reproduction of Neminathfaguni of Jinpadmasuri was created for Matikala. In 1573 A.D., Devratnasuri observed fast for four months, and on this occasion, sage Somji created a reproduction of Mahipalras written in 1516 A.D. According to K. K. Shastri, Cultural Heritage of Ahmedabad, Swadhyay year-8, (pp.14-15) when Janjan, son of Pethadshah, led a Sangh-yatra (pilgrimages) from Mandapdurg (Mandal) in 1284, he arrived at Karnavati passing through Vamansthali and Prabhas. When Gunraj led the Sangh-yatra in 1423 AD, he returned to Karnavati while travelling through Mahuva, Prabhas, Mangrol and Junagadh. Ahmedabad had religious discussion between Kumudchandra of Digambar sect from the South and Devsuri of Shwetambar sect. The dialogue ended with the defeat of Kumudchandra. The condition of this dialogue was that whoever is defeated, should leave Gujarat with his community. Therefore, all the followers of Digambar tradition left the state at that time. This was a very significant event because after this, Digambar sect could not flourish in Ahmedabad and Gujarat (Mudrit Kumudchandra drama, p.6, Prabhavak charit, pp.174-175, Prabandhchintamani, p.66). According to Prabhavakcharit(p.84), Shravaks established themselves in Ahmedabad. In his treatise on Chaityaparipati, Lalitsagar has mentioned that there were total five temples in 1662, of which one temple each of Munisuvrat, Shantinath, Bhabha Parswanath and two temples of Adinath. Shantidas Sheth had built a temple of Chintamani Parswanath (1622-26 A.D.); the grand temple was destroyed by Aurangzeb in 1644 A.D. At this, Shantidas Sheth represented about this malicious act in Delhi. The then King of Delhi had issued an order to reconstruct the Chintamani Parswanath temple and to compensate all the loss. Thus, Jain nobles had their influence not only in Ahmedabad court but also in Delhi court. Aurangzeb was sent to a small province from Delhi as he had hurt religious feelings of Jains of Ahmedabad. Other prominent Jains like Khushalchand Sheth, Lakshmichand Sheth, Vakhatchand Sheth, Hemabhai Sheth and Premabhai Sheth maintained the noble tradition. Due to these qualities, reputation of Jains of Ahmedabad spread across the country. Families of these Jains had always served Ahmedabad during communal riots, foreign attacks and natural calamities like floods, draughts etc. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 The Jains in Ahmedabad Jain temples in Ahmedabad : Though Jains were intelligent businessmen and gained good position in politics, they were faithfully devoted to their religion. The preaching of Jain Sadhus, spiritual attitude and religious traditions made such an impact on them that they built best Jain temples wherever they settled in Ahmeda According to references in Chaityaparipati of Lalitsagar, there were temples inside the city and in the suburban area. These temples were damaged and destroyed by nature as well as man, but were also restored again and again. In spite of many foreign attacks, the statues of these temples were protected. Some temples got buried after horrible earthquake. Hence, even today many Jain statues are found during the excavation works in Ahmedabad. In 1662 A.D., there were many Jain temples in Ahmedabad. During Mogul rule, Aurangzeb invaded Ahmedabad and dismantled many Jain temples in the city. In this invasion, many temples situated in suburban area must have been broken down as there was not a single mention of suburban Jain temple in Chaityaparipati, written in 1821. Today, most of the temples inside the city are existent, whereas those located outside the city were destroyed later on. At present, there are 450 Jain temples in Ahmedabad. However, houses of all the Shravaks did not have space for house temples, so temples were constructed by Jain Sanghs. There are around 350 Jain temples existent in Ahmedabad. The city nowadays, is expanding in the west of the river and Jain temples have been or are being erected almost in all the areas. These Jain temples have stone and metal statues. There are 4500 statues of stone and 7000 of metal. From the scriptures on these statues, it seems that they were created during the last thousand years. Shwetambar Tradition : Around 250 years after the death of Mahavir, Jain Sadhus were divided into two sects: Shwetambar and Digambar. Sadhus of Shwetambar sect put on white clothes and the Digambar remained undressed. In subsequent times, there was not any notable division in Shwetambar and Digambar sects. There are few references of some divisions several sects. Main divisions of the Shwetambar sect are 1.Tapagachchh, 2. Khartar-gachchh, 3. Achalgachchh, 4. Paychandgachchh, 5.Pamchandgachchh and 6. Vimal-gachchh. In 11th century, Khartargachchh split from Tapagachchh. Then Sadhus of Achalgachchh and Paychandgachchh also separated themselves from Tapagachchh. There are Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 Jitendra B. Shah SAMBODHI total 84 divisions. But at present, only a few divisions like Tapagachchh, Khartargachchh, Achalgachchh, Pamchandgachchh and Vimalgachchh are in existence and others are found only in scriptures. In terms of figure, Tapagachchh is the biggest division As the Acharyas of this division follow separate tradition, Tapagachchh have various Sanghada (groups-subgroups). Presently, there are 18 Sanghada, which include about 150 Acharyas, 2500 Sadhus and 6000 Sadhvis. Sadhus of these Sanghada have their own Upashrayas in Ahmedabad. These Upashrayas are receptive to the Sadhus of other Sanghada, but during four months of Monsoon i.e. Chaturmas, Sadhus of respective Sanghada are given priority. Pratikraman and Padilehan and then Darshan in Derasar are main morning activities of Sadhus. Then they deliver lecture and guide Jain Shravaks for problems related with Religious activities. In the afternoon, they perform various religious activities like Swadhyay, jap(recitation of mantras) and meditation again and preaching. In the evening, they perform Swadhyay, jap(recitation of mantras) and meditation again. They visit several houses of Shravaks to collect food. They use only wooden utensils. They share it at Upashraya with other Sadhus. This practice is called as Gochri. Jain Sadhusadhvis do not use vehicles and they travel on foot. They snatch their hair every year. This is a routine for all sadhus. Some Jain Sadhus have written many well known works here. They have been influential in retaining Jain sanskar and encouraging spirit for religion in people. Acharyashri Ramvijayji and Acharyashri Ramchandra Vijayji. Ramvijayji (Ramchandra Suri) and Gandhiji were contemporaries. Acharyashri Ramvijay was 27 year younger than Gandhiji, but both started their careers around 1915 A.D. in Ahmedabad. As per Punya Parichay (p. 20-21) at that time, there was much dispute among Jain Sadhus about the interpretation of religious doctrines, especially on the definition of non-violence. Acharyashri Ramvijay had played an important role. Acharyashri Ramvijayji started delivering lectures on Jain diet and Jain way of living in 1920 A.D. He noticed that many new hotels were mushrooming in city and people had turned to the food which is not allowed in Jainism. Punya Parichay also mentions that his speech spread across the streets of Ahmedabad and as a result, restaurant-owners had to shut down their business. Restaurant like Chandravilas and Lakshmivilas, which used to be overcrowded by food-lovers then remained without people. (Punya Parichay, pp.23, 24). Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 The Jains in Ahmedabad 71 Today, many restaurants in Ahmedabad have started serving food following Jain tradition. Even the Italian fast food pizza is prepared according to Jain recipe. Moreover, Jain dishes are also available in trains and flights to and from Ahmedabad. In earlier days, a custom of beheading male goat during Navaratri festival, was observed in Bhadrakali temple of Ahmedabad. The statue of Goddess Kali used to be smeared by the blood of that goat. The non-violent people of Ahmedabad had a strong dislike against this execution of animal. According to Punya Parichay (p.27) Acharyashri Ramvijayji initiated a huge mass movement to stop this cruelty. Eventually the temple had put an end to the custom. Digambar Tradition : According to Digambar sect, a woman cannot take diksha (leave the society and become sadhu). She can only observe certain rituals and she is called 'Aryika' or 'Mataji'. They dress in white clothes. This is the ancient tradition of Jainism. This requires Sadhus to remain undressed. However, there are several divisions in this sect. Terapanthi is one such sect, which does not believe in statues of gods and goddesses. Shwetambar sect has its strong roots in Ahmedabad for years. As the city has been less visited by Digambar Sadhus, Ahmedabad has very few Digambar Derasars. Number of Sadhus in Gujarat is much less in relation to other states. For the last fifty years, opportunity for commerce has increased in Ahmedabad and so the number of people from other states Digambar Shravaks have also settle in the city. Nowadays, there are about 5000 Digambar families in Ahmedabad. There are 70 Digambar Jain temples and more than 70 Upashrayas are associated with these Jain temples. These Digambar families settled in Ahmedabad have 14 different groups. Most of these groups are engaged in business activities. For the last few years, many saints of Digambar tradition have been visiting Ahmedabad. According to Digambar traditions, only a males can perform pooja of the statues of God in Derasar and performs Swadhyay. These temples also follow a tradition of Swadhyay every night, and for this reason, facility of separate library is not found in Ahmedabad. Shravaks keep scriptures at home. Sthanakvasi Tradition : At present, there are almost nine divisions of Sthanakvasi exist. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 Jitendra B. Shah SAMBODHI Ahmedabad has been a focal point for all the Sadhus of Sthanakvasi division. Lonkashah, founder of Sthanakvasi division, belonged to Ahmedabad. He was devoted to Jainism right from his childhood. As he had mastered the art of calligraphy, Sadhus used invite him to write scriptures. He learnt about Jainism by reading these scriptures. He thought over the plight of contemporary society and opposed certain rituals like idol-worship and preached the practice of performing only Swadhaya in the Sthanak. This philosophy of Lonkashah gave birth to Sthanakvasi ideology in Samvant 1530. He insisted on the significance of soul and took a stand against rituals and other kinds of meditation. This is the reason why Sadhus and Shravaks of Sthanakvasi do not go to temple nor do they follow idol-worship. They are called Sthanakvasi as they worship God in Sthanak-Upashraya. With the passage of time, this tradition started losing its worth and Kriyodwar was called for. This tradition has given the world five reformers. Among them, sadhu Dharmasinhji established new sect in Samvant 1685. He established this division in Dariyapur, hence it has been famous as Dariyapuri Athkoti division. Initially they were only 17 Sadhus, but today, many Sadhus have joined this division. At present, there are 40 Upashrayas of Sthanakvasi sect in Ahmedabad. In this sect also, number of Sadhus is less than Sadhvis. Tarabai Siddhant Shala was established to teach Sadhus; they are taught Sanskrit, Prakrit, Jainism and Jain scriptures. There are many other such traditional schools run in various Sthanaks on short-term basis. Though, Sthanakvasi Shravaks are less in number, Gochri is not an issue for their Sadhus in Ahmedabad. Sthanakvasi Sadhus are permitted to receive Gochri from other Jian families, who may believe in idol-worship. These families also welcome the Sadhus with great respect. Terapanthi Tradition : Terapanthi is a sub-division of Sthanakvasi division of Shwetambar sect, separated due to the definition of non-violence. This sub-division has its roots in Rajasthan, but its influence has spread across the country. In the beginning, 13 Sadhus had separated and thus the name of sub-division is Terapanthi. Nowadays, there are about 1800 families and 5 Sthanaks of this sect in Ahmedabad. Preksha Vishwabharti, spread over the large area of land at Koba near Ahmedabad, is the major Sthanak. Acharya Mahapragna was the head of this division. Acharya Tulsi and Acharya Mahapragnaji came to this city to during chaturmas and took some crucial decisions. During that period, they Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 The Jains in Ahmedabad 73 rejected the traditional definition of non-violence and defined a new meaning. Saman-Samani Diksha was started in Ahmedabad. Acharya Mahapragnaji had also visited the city with his purpose of spreading non-violence. He took great pains to restore peace in Gujarat after Godhra riots. He has written as many as 125 books and Gujarati translation of all his books have been published from Ahmedabad. Moreover, a meditation camp is organized by Preksha Vishwabharti for people of all walks of society. This Yajna has been organized since last 25 years and more than 1 lakh people have benefited from this. Manuscript libraries : Since Ahmedabad has been the centre of Jainism, libraries of manuscripts have been established since decades. The most ancient reference is the library established by Acharya Jinbhadrasuri in 1402 A.D. Thus, the activity of maintaining books has been developing since about 600 years. There are two types of libraries in Ahmedabad : (1) libraries owned by Jain Sangh and (2) libraries associated with research institutes. One well-known Manuscript library associated with research institute is the library of Lalbhai Dalpatbhai Bhartiya Sanskriti Vidyamandir(L.D.Institute of Indology). This library was the initiated by donation from Sheth Kastoorbhai Lalbhai. It started under the guidance of Munishri Punyavijayji and Pt. Dalsukhbhai Malvaniya. In fact Munishri Punyavijayji has inspired Sheth Kastoorbhai to start such an institute with Manuscript library for Research and reference work. The library has more than 75000 manuscripts on treatise on Ved, Upnishad, Bhagvat, Ramayan and Jain scriptures written in Sanskrit, Prakrit, old Gujarati, Vraj, Urdu, Udiya and Tamil. This collection also has books of poetry, Ayurveda, astrology, figures of speech, prosody and drama. There are Manuscript libraries in B.J. Vidyabhavan, Gujarat Vidyapith, Maharshi Ved Vigyan Academy. There are 13 libraries are organized by Jain Sanghs. Amongst these libraries, manuscript collection of Koba is the largest one. It has about 2,50,000 manuscripts. Thus the total of all these manuscripts amount to approximately 4,50,000. Jains have very carefully protected these manuscripts. Such conservation and preservation of Manuscripts is not set up in any other place in India. Printed books libraries : Tradition Collecting books on Jainism has its origin since centuries in Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jitendra B. Shah SAMBODHI Ahmedabad. Jinashasan Aradhana Trust has about 400 rare books reprinted. Thus, Jainism believes in preserving and disseminating knowledge. A library in Kailassagarsuri Gyan Mandir at Koba has a large collection of printed books. With the advent of printing technology, books were available in printed form and more copies are at our disposal. This activity of printing books has increased in the last 25 years. Many books are published by Sangh. Books published by Sangh are gifted to various libraries in the city. There are about 80 libraries of Jain books in Ahmedabad. Newly published books are given to the readers. Sadhus are given any book from such library. They usually read these books and return to the library. This activity of printing books has been increased for the last 20 to 25 years and the books are published by Sangh. Books published by Sangh are gifted to libraries. Jainism has more than one lakh volumes. These libraries not only comprise of books on Jainism but also have volumes on literature, philosophy, art and architecture of other religions. Jain Sadhus and Shravaks are open-minded enough to respect scriptures of other religions. Pathshala of Jainism : Jains have established a tradition of learning and teaching in special schools. The schools that teach Jainism in a traditional manner are called Pathshala. Pathshalas are set up, maintained and funded by Jain Sanghs. There are two types of Pathshalas: 1.Pathshalas for teaching Sadhu-Sadhvis, 2. Pathshalas for teaching children. Earlier, Sadhus were taught by Jain Pundits and Brahmin Pundits. With the course of time, this tradition was replaced by Pathshala. The Pathshalas also have facility to teach Sanskrit and Prakrit languages as well as Philosophy, Karmashastra and Jain literature. When Sadhus do not have have sufficient time for learning, they invite Pundits to Upashraya and learn Jain Shstras. There are Sadhus who have learnt Jain shastras in depth and have become prominent writers. Acharyashri Jambuvijayji, Shilchandrasuri, Pradyumnsuri are few such Sadhus. Presently, there are 15 Pathshala in Ahmedabad. Pathshalas for Children : Jain Sanghs establish Pathshalas to impart the basic knowledge of Jainism to the Jain boys and girls. The children go to these Pathshala one to two hours every day. Nowadays, Pathshalas also give knowledge of routine rituals also. These Pathshalas give Prabhavana to students as incentive. Students registered with these Pathshalas visit various Tirths once or twice a Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 The Jains in Ahmedabad 75 year. These Pathshalas teach fundamental subjects like Navtatva and Jivavichar also. These Pathshalas teach Anekantavad, Jivadaya, service and renunciation also apart from spiritual teaching, so that children do not develop fanaticism in them. Ahmedabad has as many as 200 traditional schools. Thus Ahmedabad follows a tradition of religious education. Nowadays, this tradition is followed even in the country like America, where children learn lessons of Jainism on every Saturday and Sunday. Research Institutes : As described earlier there is a large collection of manuscripts in Ahmedabad. There is a tradition of teaching of various scripts and languages to help read manuscripts. European scholars are also read and write treatise of many manuscripts. Jain Pundits also prepare treatise edition of volumes. Bhimshi Manek was the first who had scriptures printed and then Yashovijay Sanskrit Pathshala in Banaras started publication of volumes. But this did not last for long. In those days, Gandhiji had established Gujarat Vidyapith. He started Archaeology department in Vidyapith. This institute undertook a project of publishing revised edition of volumes, and Pt. Sukhlalji and Pt. Bechardasji took the task of editing/compiling of critique written by Abhayde on Sanmatitark. After ten years of painstaking efforts, the volume was printed in four parts. Many volumes were compiled and edited. Then, a research institute was established in memory of Bholabhai Jesingbhai with the grant given by his family. Shri Punyavijayji was also active in nurturing the literature and research. He edited many books at Atmanand Sabha in Bhavnagar. He had a huge collection of manuscripts. He requested Shri Kastoorbhai Sheth to establish a research institute to preserve those scriptures, which can benefit the society. Shri Kastoorbhai Sheth accepted his suggestion and established Lalbhai Dalpatbhai Bhartiya Sanskriti Vidyamandir in 1956. He invited scholars of Jainism and assigned them the task of research and compilation. Till the date, this institute has published 140 volumes, and institute took personal interest in the research work of many scholars. Many such institutions were established during the last two decades: Mahaveer Jain Aradhna Kendra, Koba, Shardaben Chimanbhai Educational Research Centre, Gitarthganga Institute of Jainology, RISOIS etc. These research institutes are undertaking research works and publications. These institutes have libraries with plenty of books. The catalogue of these libraries does not show collection on Jainism only, but there are books available on all educational branches and their philosophy. Libraries also Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 Jitendra B. Shah SAMBODHI invite Pundits of other religions also and took advantage of their knowledge and expertise. Ayambil Shalas : Jainism strongly believes in Tapa of body. Accordingly, a shravak takes only one meal, lunch during the day. He takes food prepared from boiled or roasted pulses, without ghee, oil, jiggery, milk, yoghurt and spices. Green or dry vegetables or fruits are also not allowed. This practice is called Ayambil. It is believed to be more crucial in relation to other tapa. All auspicious rituals are followed by Ayambil. Shravaks are supposed to observe 500 Ayambil and Sadhus Vardhmantap. Earlier Shravaks used to observe this practice at home, but since the last 100 years, Jain Sanghs have established Ayambil-shalas to provide food to Shravaks observing Ayambil. There are 26 Ayambil shalas in Ahmedabad. Moreover, in Months Ashwin and Chaitra, Ayambil is observed contuniously for nine days as a part of Navpad- Pooja. Sangh-yatra : Earlier, Jains used to travel by foot as there were no facility of vehicles. The Jains still follow the same tradition for mass pilgrimage which is called Sangh-yatra. Sadhus and Shravaks undertake pilgrimage on foot in Chaturvidh Sangh. Shravaks have to observe six vows strictly during Sangh-yatra: (1) Brahmcharya (2) Padchari (travelling on foot) (3) Ekal Ahari(only lunch during the day) (4) Bhoomisanthari (sleeping on the ground) (5) Sachit Parihari(avoidance of Sachit food) (6) Avashyakari(Pratikraman in the morning and evening). Such Sangh-yatra is called Chhari Palit Sangh as all the six vows are followed by ‘Ri'. Such Chhari Palit Sanghs are organized every year. Normally, these Sanghs travel from Ahmedabad to Palitana. Some Sangh-yatra also travel to Sherisa, Shankheshwar, Taranga. Each Sangh has an Acharya accompanied by Sadhus. All the expenses of Sangh-yatra are borne by one or more Shravaks. Rich Shravaks help those poor shravaks during Sanghyatra. They also give charity for jivdaya. Moreover, they contribute to temples of other religions. Thus, the Sangh-yatra has a noble motive of helping others. Well known Shravikas : Ujamfai : Ujam, daughter of Sheth Vakhatchand and sister of Premabhai, was given a large amount of dowry (full of 500 carts). But Ujam was not happy with this dowry. When asked what she wished for, Ujam replied that she Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 The Jains in Ahmedabad 77 wanted a Jain temple built on the peak of Siddhachal – Palitana. Premabhai agreed and he had a temple of Nandishwar built on Palitana. This temple is given the name of Ujamfai. Then, he also had Nandishwar Dwip constructed in Doshivada's Plole in Ahmedabad. Chaumukhi Temple near Chintamani Parswanath in Vaghan Pole in Zaverivad was constructed by the financial help of Premabhai. He gifted his house as inn. Harkunvar Shethani : Harkunvar Shethani was the wife of Sheth Hathising. She was very religious. She had remarkable qualities of like intuition, persistence, thoughtfulness and intelligence. In Samvant1901, after the death of Sheth Hathising, she had completed construction of Derasar, which is known as Hathising Derasar. Harkunvar Shethani had invited British rulers and thousands of Shravaks and Jain Sadhus from all over the country for the ceremony of installation of statue. Harkunvar Shethani had managed this grand event single-handedly. She also gave donation to create new temple of Dharmanath in mint, to erect temple in Mandvi Street, to renovate Shreyasnath Derasar in Fatasa Pole. She had also led a Sangh-yatra to Siddhachalji. She was also extremely generous for social welfare. She donated huge amount for the permanent maintenance of girls' school established by Gujarat Vernacular Society. In 1858 A.D., she donated land for the construction and maintenance of girls' school. She had started Sheth Hathising Keshrisinh Civil Hospital. Jain Magazines : Jain journalism dates from the last two centuries. With the responsibility of guiding the society on right path, Jain Deepak was published first in 1859 A.D. Today, 600 Jain magazines are published in Gujarati, Hindi, Kannad, Tamil, Bengali, Marathi, Sanskrit and English. These magazines can be divided in three sections: (1) magazines like news letter (2) magazines with meditative and informative articles and (3) research magazines. Panjara Poles : The theory of non-violence is known as 'Amari', which means not to kill any living being. King Kumarpal, inspired by Acharyashri Hemchandrasuri had announced 'Amari' during his reign. Then, during Mogul rule, Heervijaysuri, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 Jitendra B. Shah SAMBODHI Vijaysensuri, Vijaydevsuri, Vijayprabhavsuri, Shantichandra, Banuchandra, Vivekharsh Upadhyay had a strong influence over the Mogul Kings Akbar, Jahangeer and Shahjahan. Akbar was impressed by values like penance, renunciation and non-possession. When Heervijaysuri requested Akbar for non-violence during the eight days of Paryushan, the king announced 'Amari in the whole nation for 12 days (1585 A.D.). Gujarat follows this tradition of ‘Amari' till today. Shantidas Sheth and his family pleaded for the ban on animal-killing even during the month in which Jahangeer was born. According to the declaration in 1676 A.D. and 1608 A.D., animal-killing was prohibited in Mogul empire on every Sunday, Thursday, and last day of every lunar month, Navroj and on the day of crowning ceremony. Non-violence is one of the main principles of Jainism and Jivadaya is its message. As the roots of Jivadaya in Gujarat have been strengthened by Acharyashri Hemchandrasuri, Acharya Heersuri and Gandhiji. Nowadays, it has became religion of Gujarat. Organizations like Panjara Pole established for the protection of animals. Due to Mahajan tradition, Jivadaya was not only supported by Jains but also by businessmen of other religious. History reveals that Yavans during the rule of Shahjahan in 1666 A.D. had visited Panjara Poles established for the care of birds, sick animals like bullocks, camels, horses etc. These Panjara Poles not only protected animals from the cruelty of Mogul kings and but also sheltered animals during drought. Since Jivadaya is accepted by all, every sect of Jainism gives donation to such institutes. These institutions protects more than 7000 animals animals even today, in Ahmedabad. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिकदर्शन में दःख का स्वरूप तथा प्रो. पाहिकृत दुःखवर्गीकरण की महत्ता धर्म चन्द जैन भारतीय परम्परा में दुःख : भारतीय परम्परा में यह तथ्य सभी दर्शनों को मान्य है कि दुःख का अनुभव चेतना को होता है । प्रतिकूल वेदनीय होने से यह किसी भी चेतना, पुरुष या आत्मा को प्रिय नहीं है। सभी इससे मुक्त होना चाहते हैं । बौद्धदर्शन में दुःख को चार आर्य सत्यों में प्रथम स्थान दिया गया है, तथा इसके अविद्या, तृष्णा आदि कारणों का भी प्रतिपादन किया गया है । इस दृष्टि से दुःख एक कार्य अथवा फल है। यदि कारण का निवारण कर दिया जाए तो दुःख से रहित हुआ जा सकता है। क्षणिकवादी बौद्धदर्शन में भी इस दुःख का अनुभव चेतना में ही स्वीकृत है, भले ही वह चेतना सन्तान रूप में ही प्रवाहित हो । सांख्यदर्शन में दुःख को प्रकृति का धर्म माना गया है, किन्तु उसका अनुभव चेतनाशील पुरुष को ही होता है । इसीलिये उसके आत्यन्तिक उच्छेद की आवश्यकता अनुभव की गई है । सत्त्व, रज एवं तमोगुणात्मिका प्रकृति में दुःख रजोगुण का कार्य है । सत्त्वगुण से सुख, रजोगुण से दुःख एवं तमोगुण से मोह प्रकट होता है । प्रकृति का कार्य होते हुए भी इसका अभिघात पुरुष को झेलना पड़ता जैनदर्शन के अनुसार भी दुःख का अनुभव चेतन आत्मा को होता है, किन्तु यह उसका निजीगुण या स्वरूप नहीं है। वेदनीय कर्म के कारण दुःख का उदय होता है । बाह्य पदार्थ एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ निमित्त कारण होती हैं । आत्मा यदि समभाव में रहे तो वह दुःख के प्रभाव से मुक्त हो सकता है । सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान पूर्वक की गई समभाव की साधना दुःख से मुक्ति का उपाय है । वेदान्तदर्शन में दुःख को अज्ञान या अविद्या का परिणाम स्वीकार किया गया है । इसमें ब्रह्म या आत्मा स्वरूपतः आनन्दमय है. दःख तो अज्ञान के कारण अनभव में आता है। न्याय-दर्शन में अक्षपाद गौतम ने कहा है कि मिथ्याज्ञान से राग-द्वेष आदि दोष उत्पन्न होते हैं, इन दोषों के कारण पाप प्रवृत्ति होती है, इस प्रवृत्ति से विभिन्न योनियों में जन्म होता है एवं जन्म के होने पर दुःख होता है । अतः जन्म ही दुःख का प्रमुख कारण स्वीकृत है । वैशेषिकदर्शन में प्रारम्भ से ही दुःख को आत्मा में रहने वाला गुण माना गया है, जो अधर्मरूपी अदृष्ट का फल है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 धर्म चन्द जैन SAMBODHI डॉ. विश्वम्भर पाहि ने वैशेषिकदर्शन में प्रतिपादित दुःख गुण का महत्त्वपूर्ण वर्गीकरण किया है, जो नूतन दृष्टि से युक्त है। दुःख के वर्गीकरण की चर्चा से पूर्व यह विचार कर लिया जाये कि वैशेषिकदर्शन में दुःख का क्या स्वरूप है एवं उसकी पदार्थ के रूप में क्या स्थिति है? वैशेषिक दर्शन में दुःख का स्वरूप प्रशस्तपादभाष्य में दुःख को उपघात लक्षण वाला कहा गया है- उपघातलक्षणं दुःखम् । प्रतिकूल वेदनीय होने के कारण दुःख से आत्मा उपहत होता है । दुःख का अनुभव आत्मा को होता है । दुःख की उत्पत्ति में अधर्म स्वरूप अदृष्ट एक कारण है तथा विष आदि अनभिप्रेत विषयों की सन्निधि में होने वाले इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के साथ आत्मा एवं मन का संयोग दूसरा कारण है । इन दोनों कारणों के होने पर ही आत्मा को दुःख का अनुभव होता है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि अधर्म से युक्त आत्मा दुःख का समवायिकारण है। विष आदि अनभिप्रेत पदार्थ निमित्त कारण हैं तथा इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष एवं आत्मा व मन का संयोग असमवायी कारण है । इस प्रकार दुःख एक कार्य है जो उत्पन्न होने से अनित्य है । वैशेषिकदर्शन में इसे पदार्थ-व्यवस्था के अन्तर्गत गुण की कोटि में रखा गया है, जो आत्मा नामक द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता है । न्यायदर्शन में दुःख को आत्मा, शरीर आदि द्वादश प्रमेयों में स्थान दिया गया है तथा बाधनालक्षणं दुःखम् सूत्र के द्वारा इसे बाधना, पीड़ा अथवा ताप के रूप में परिभाषित किया गया है । दुःख प्रतिकूल वेदनीय होता है- प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् तथा सुख अनुकूल वेदनीय होता है- अनुकूलवेदनीयं सुखम् । प्रशस्तपादभाष्य में दुःख को वर्तमान में उपलब्ध विष आदि अप्रिय या प्रतिकूल बाह्य पदार्थों से उत्पन्न मानने के साथ अतीत में देखे या जाने गए सर्प, व्याघ्र, चौर आदि के स्मरण से तथा एतादृक् भावी पदार्थों के संकल्प से भी दुःख की उत्पत्ति स्वीकार की गई है । तात्पर्य यह है कि दुःख उत्पन्न करने में अतीत, वर्तमान एवं भावी पदार्थों के क्रमशः स्मरण, इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं संकल्प भी दुःख के कारण होते हैं । यहाँ पर यह ध्यातव्य है कि प्रशस्तपादभाष्य में इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष को दुःख का कारण निरूपित करते समय पक्षधर्मता ज्ञान, सादृश्य ज्ञान एवं शाब्दबोध को दुःख की उत्पत्ति में कारण नहीं कहा गया है, किन्तु दुःख की उत्पत्ति में ये भी उसी प्रकार कारण हो सकते हैं, जिस प्रकार इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष कारण होता है। उदाहरण के लिये कोई फैक्ट्री में धूम की उठती हुई अविच्छिन्न धारा को देखकर दुःखी एवं भयभीत हो सकता है । भय, शोक आदि भी दुःख के ही रूप हैं, क्योंकि वैशेषिकदर्शन में इनकी गणना पृथक् से नहीं की गई है। इनमें भी प्रतिकूल वेदन होता है एवं उपघात का अनुभव होता है, अतः ये भी दुःख ही हैं। किसी को गोयरे (एक भुज परिसर्प) से भय लगता है तो वह तत्सदृश अन्य भजपरिसर्प को देखकर भी भयभीत हो सकता है। यह सादश्य ज्ञान के कारण उत्पन्न भय है। कोई 'चोर आया', 'भूकम्प आया', 'चक्रवाती तूफान आने वाला है' आदि शब्दों को सुनकर भी भय का अनुभव कर सकता है । अतः ज्ञान या प्रमिति के जितने साधन हैं वे दुःख की उत्पत्ति में भी निमित्त कारण बन जाते हैं । दुःख की उत्पत्ति तो भ्रान्त ज्ञान से भी हो सकती है। कोई रस्सी को सर्प समझकर Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 वैशेषिकदर्शन में दुःख का स्वरूप तथा प्रो. पाहिकृत दुःखवर्गीकरण की महत्ता 81 भी भयभीत या दुःखी हो सकता है। अतः दुःख में प्रमा, अप्रमा दोनों ही निमित्त हो सकते हैं, किन्तु दुःख का अनुभव आत्मा को तभी होता है जब अधर्म नामक अदृष्ट का उदय हो । सुख के अनुभव में धर्म तथा दुःख के अनुभव में अधर्म कारण बनता है । अधर्म के साथ दिक्, काल आदि भी कारण होते हैं, अतः अधर्मादि शब्द का उल्लेख है ।५ अधर्मादि की अपेक्षा रखकर आत्मा एवं मन का संयोग होने पर आत्मा में ही समवाय सम्बन्ध से दुःख उत्पन्न होता है । यहाँ आत्मा एवं मन का संयोग असमवायी कारण है, आत्मा समवायी कारण है तथा शेष सब निमित्त कारण हैं। दुःख को अमर्ष, उपघात एवं दैन्य की उत्पत्ति का निमित्त कारण कहा गया है । अमर्ष का तात्पर्य है - असहिष्णुता । दुःख से असहिष्णुता की उत्पत्ति होती है, आत्मा को उपघात का एवं दीनता का अनुभव होता है । यहाँ पर यह भी स्पष्ट करना उचित होगा कि दुःख से द्वेष का भी जन्म होता है। अमर्ष एक प्रकार का द्वेष ही है । प्रशस्तपादभाष्य में द्रोह, क्रोध, भय, अक्षमा, अमर्ष को द्वेष के ही प्रकार या भेद कहा गया है। दुःख एवं सुख का जन्म अदृष्ट के अनुसार होता है । वह अदृष्ट धर्म एवं अधर्म के भेद से दो प्रकार का है। धर्म अदृष्ट से सुख तथा अधर्म अदृष्ट से दुःख उत्पन्न होता है । इसलिये सुख दुःख की उत्पत्ति मात्र पदार्थों के ज्ञान से नहीं होती, अपितु धर्म एवं अधर्म भी उसमें कारण होते हैं। सांख्यदर्शन में त्रिविध दुःख एवं वैशेषिक दर्शन वैशेषिकदर्शन में दुःख के उस प्रकार के भेदों का कोई उल्लेख नहीं है, जिस प्रकार सांख्यदर्शन में तीन प्रकार के दुःख निरूपित हैं । सांख्य दार्शनिक ईश्वरकृष्ण ने तीन प्रकार के दुःख कहे हैं, जिनका उल्लेख वाचस्पति मिश्र कृत सांख्यतत्त्वकौमुदी में स्पष्टतः हुआ है । वे दुःख हैं - १. आध्यात्मिक २. आधिभौतिक ३. आधिदैविक । आध्यात्मिक दुःख वह है जो आन्तरिक उपाय से साध्य है । यह दुःख शारीरिक एवं मानसिक के भेद से दो प्रकार का है। शरीर में होने वाली पीड़ा, व्याधि आदि शारीरिक दुःख है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या विषाद, अभीष्ट विषय के दिखाई न देने आदि से मानसिक दुःख होता है । वैशेषिकदर्शन में यह मानसिक दुःख पृथक् विवेचित नहीं है । प्रशस्तपाद, उदयन, श्रीधर, व्योमशिव भी इसकी चर्चा नहीं करते हैं । हाँ, काम को वे इच्छा के अन्तर्गत, क्रोध को द्वेष के अन्तर्गत सम्मिलित करते हैं। ईर्ष्या का पृथक् से कथन करते हैं । वस्तुतः ये सभी आत्मा के लिए उपघातक होने से दुःख रूप ही है । सांख्यदर्शन में आधिभौतिक एवं आधिदैविक दुःख को बाह्य उपाय साध्य निरूपित किया गया है । अन्य मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप आदि के निमित्त से उत्पन्न दुःख आधिभौतिक है तथा यक्ष, राक्षस आदि के कारण उत्पन्न दुःख आधिदैविक है ।१० प्राकृतिक भूकम्प, बाढ़ आदि के द्वारा जन्य दुःख का भी इसमें समावेश किया जा सकता है । यह तीनों प्रकार का दुःख अन्तःकरण में रहकर चेतनाशक्ति का अभिधात करता है ।११ वैशेषिकदर्शन में प्रयुक्त उपघात शब्द एवं सांख्यदर्शन में प्रयुक्त अभिघात शब्द अर्थ की दृष्टि से समान हैं । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 धर्म चन्द जैन SAMBODHI प्रो. पाहिकृत दुःख-वर्गीकरणः प्रो. विश्वम्भर१२ पाहि ने वैशेषिक पदार्थ-व्यवस्था का पद्धतिमूलक विमर्श करते हुए दुःख का जो वर्गीकरण किया है । वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उन्होंने दुःख के मूलतः दो प्रकार स्वीकार किये हैं- १. लोकोत्तर दुःख २. लौकिक अथवा साधारण दुःख । प्रो. पाहि के अनुसार लोकोत्तर दुःख एक ऐसी वेदना है, जो मानवीय मूल्यों के सर्जन में कारण होने से मंगलकारी है। लौकिक अथवा साधारण दुःख या तो मानवकृत होता है या फिर प्रकृतिकृत । मानवकृत दुःख पुनः व्यक्तिकृत एवं संस्थाकृत दुःखों में वर्गीकृत किया गया है। व्यक्तिविशेष के द्वारा उत्पन्न दुःख व्यक्तिकृत होता है, जो पुनः दो प्रकार का निरूपित है - १. अर्जित दुःख – यह भोक्ता के स्वकृत कर्म से उत्पन्न होता है । २. अनर्जित दुःख - यह अन्य व्यक्ति के द्वारा उत्पन्न दुःख है । संस्थाकृत दुःख से अभिप्राय उस दुःख से है जो राज्य, समाज आदि संस्थागत व्यवस्थाओं के कारण उत्पन्न होता है । लौकिक दुःख के द्वितीय प्रकार प्रकृतिकृत दुःख को भी पुनः दो प्रकारों में विभक्त किया गया है । एक वह दुःख जो उपलब्ध तकनीकी या साधनों द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है, यथा- बाढ, अकाल आदि से उत्पन्न दुःख । जो नियन्त्रित न किया जा सके वह प्रकृतिकृत अन्य दुःख है, यथा भूकम्प, तूफान आदि से होने वाला विनाश । संक्षेप में इस दुःख के वर्गीकरण को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है दुःख लौकिक या साधारण दुःख लोकोत्तर दुःख (मानवीय मूल्यों की सृष्टि के आधार रूपी पवित्र एवं मंगलकारी दुःख) मानवकृत प्रकृतिकृत व्यक्ति कृत संस्थाकृत (व्यक्ति विशेष कृत (राज्य, समाज आदि संस्थागत कर्म के फलस्वरूप उत्पन्न) व्यवस्थाओं के कारण उत्पन्न) अजित दुःख अनर्जित दुःख (भोक्ता से स्वकृत कर्म से उत्पन्न) (परकृत कर्म से उत्पन्न दुःख) अन्य नियन्त्रण या निराकरणयोग्य (उपलब्ध तकनीक द्वारा) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 वैशेषिकदर्शन में दुःख का स्वरूप तथा प्रो. पाहिकृत दुःखवर्गीकरण की महत्ता 83 प्रो. पाहिकृत दुःख-वर्गीकरण : एक समीक्षा प्रो. पाहि के अनुसार लौकिक दुःख का जो वर्गीकरण किया गया है, उसमें सांख्यदर्शन के दुःख वर्गीकरण से पर्याप्त साम्य है । सांख्यदर्शन में जो शारीरिक एवं मानसिक रूप से अनुभूत दुःख है वह आध्यात्मिक दुःख है, जिसे प्रो. पाहि ने मानव के द्वारा अर्जित दुःख कहा है। अन्य मनुष्य एवं प्राणियों के द्वारा उत्पन्न दुःख को सांख्यदर्शन में आधिभौतिक कहा गया है, जिसे प्रो. पाहि ने अनर्जित दुःख कहा है। राज्य, समाज आदि संस्थागत व्यवस्थाओं के कारण उत्पन्न दुःख भी आधिभौतिक अथवा अनर्जित दुःख की ही श्रेणी में समाविष्ट हो सकता है। प्रो. पाहि ने व्यक्तिकृत दुःख को ही अर्जित एवं अनर्जित में वर्गीकृत किया है१३, जबकि संस्थागत व्यवस्थाओं के कारण उत्पन्न दुःख भी एक प्रकार से अनर्जित ही है। सांख्यदर्शन में जिसे आधिदैविक दुःख कहा गया है, उसके अन्तर्गत प्रकृतिकृत दुःख को समाविष्ट किया जा सकता है। प्रो. पाहिकृत दुःख-वर्गीकरण पर विचार करने पर विदित होता है कि लौकिक दुःख का विभाजन दुःख के जनक कारणों के आधार पर किया गया है, वहीं लोकोत्तर दःख का कथन उसके फल के आधार पर किसी कल्याणकारी लक्ष्य में परिणत होने वाली पीड़ा या व्यथा के लिए किया गया है। प्रो. पाहि ने जिस दुःख को लोकोत्तर दुःख कहा है, उसका अनुभव भी व्यक्ति को ही होता है, किन्तु वह लोकोत्तर तब बन जाता है, जब व्यक्ति उस दुःख से स्वयं करूणित होकर दूसरों के दुःख का निवारण करने के र होता है। वह दःख उपघातक नहीं होकर मानवता का सर्जक हो जाता है। वस्तुतः लौकिक दुःख ही व्यक्ति की अपनी अलौकिक दृष्टि के कारण मानवीय मूल्यों के सर्जन में सहायक बनता है । अतः प्रो. पाहि ने उस दुःख के फल को आधार बनाकर ही उसे लोकोत्तर दुःख कहा है। इस तरह के लोकोत्तर दुःख के कई रूप हो सकते हैं, यथा परिवार के इष्ट व्यक्ति के वियोगजन्य दुःख के परिणामस्वरूप संसार से वैराग्य, अनिष्ट के संयोजन्य दुःख के परिणामस्वरूप अनासक्ति या समता का अभ्यास आदि । तपस्या या साधना को दुःख की कोटि में लेना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि साधक उसे दुःख नहीं तप समझता है । अब प्रश्न यह है कि भारतीय परम्परा में चार्वाकदर्शन को छोड़कर सभी दर्शन कर्म-सिद्धान्त की इस मान्यता को स्वीकार करते हैं कि जैसा कर्म किया जाता है वैसा फल भोगा जाता है। सत्कर्म का फल अच्छा एवं दुष्कर्म का फल बुरा होता है । कर्मसिद्धान्त की यह मान्यता प्रो. पाहि के द्वारा कृत दुःख वर्गीकरण में मात्र अर्जित दुःख पर ही लागू होती है, शेष अनर्जित एवं प्रकृतिकृत दुःख कर्मसिद्धान्त की परिधि से बाहर हो जाते हैं । प्रो. पाहि ने अपने वर्गीकरण में अबाधित लोक प्रतीति को महत्त्व देते हुए अनर्जित दुःख की चर्चा की है, जो अपने आपमें महत्त्वपूर्ण है। अनर्जित दुःख की अवधारणा अकृत अभ्यागम एवं कृतप्रणाश के दोष से युक्त होते हुए भी व्यवहार में सही प्रतीत होती है। प्रो. पाहि के अनुसार सरकार के द्वारा लगाये गए करों के कारण उत्पन्न दुःख को व्यक्ति के स्वकृत कर्म का फल नहीं कहा जा सकता । इसी प्रकार जाति, धर्म, लिंग, अस्पृश्यता Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 धर्म चन्द जैन SAMBODHI आदि के कारण भेदभाव से उत्पन्न दुःख को स्वकृत कर्मजन्य कहना युक्तिसंगत नहीं । मोटरवाहन चालक की असावधानी से किसी व्यक्ति की मृत्यु होने एवं मरण पूर्वकालीन दुःख तथा मृत्यु के कारण उस पर आश्रित व्यक्तियों एवं उसके प्रियजनों का दुःख स्पष्टया अनर्जित है। प्रो. पाहि द्वारा किया गया दुःखवर्गीकरण तर्क एवं व्यवहार पर आधारित है, जो प्रचलित कर्म-सिद्धान्त की मान्यताओं को चुनौती देता है तथा कर्मवाद के सिद्धान्त को अपर्याप्त घोषित करता है, क्योंकि समस्त दुःख पूर्वकृत अधर्म के फल से नहीं होता, अन्य कारणों से भी दुःख की प्राप्ति होती है। कर्मसिद्धान्त को लेकर यहाँ दो बिन्दु उभरते हैं - एक तो यह कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है तदनुसार ही उसे दुःख-सुख प्राप्त होते हैं । दूसरा यह कि जो कोई भी सुख-दुःख प्राप्त होते हैं वे अपने कर्मानुसार ही होते हैं । इनमें से प्रथम बिन्दु की मान्यता में प्रो. पाहि द्वारा प्रतिपादित वर्गीकरण से कोई बाधा नहीं है, क्योंकि अजित दुःख अपने कर्म के अनुसार ही प्राप्त होता है। किन्तु समस्या तब उठती है जब अन्य के द्वारा उत्पन्न दुःख को भी अपने ही कर्मफल के रूप में स्वीकार किया जाता है। यहाँ पर जैनदर्शन के उस कथन का उल्लेख करना उचित होगा, जिसमें कहा गया है कि दुःख आत्मकृत होता है, पर कत नहीं ।१४ दसरा निमित्त कारण तो हो सकता है. किन्तु दःखी होना या न होना अपने पर निर्भर करता है। क्योंकि आत्मा ही उसका उपादान कारण है, वैशेषिक दर्शन के शब्दों में कहें तो आत्मा ही समवायी कारण है। हमें एक जैसे निमित्तों का प्रभाव भिन्न-भिन्न आत्माओं पर अलग-अलग दिखाई देता है। साधनाकाल में तीर्थंकर महावीर पर अनेकविध उपसर्ग एवं कष्ट आए, किन्तु उन्होंने उन निमित्तों को प्रभावहीन बना दिया, स्वयं अडोल एवं अविचल रहे । दूसरी बात यह है कि अपने अदृष्ट या वेदनीय कर्म शेष हैं तो उन निमित्तों के प्रभाव से दुःख का वेदन भी होगा ही । इस तरह जिसे अनर्जित दुःख कहा जा रहा है, कर्मसिद्धान्तानुसार वह भी तभी घटित होता है, जब अधर्म स्वरूप अदृष्ट या कर्म का उदय उसमें कारण बनता है। सम्भव है कर्मसिद्धान्त की यह मान्यता आत्मोत्थान को दिशा देने के लिए स्वीकृत की गई हो । यहाँ पर यह अवश्य ध्यातव्य है कि दुःख का उत्तरदायित्व यदि व्यक्ति स्वयं पर नहीं लेगा, तो वह उससे कभी मुक्त नहीं हो सकेगा । जिन दुःखों की उत्पत्ति स्वयं की भूलों एवं दोषों से होती है, उनका निराकरण करने का दायित्व मनुष्य का स्वयं का है। इस उत्तरदायित्व की ओर ध्यान दिलाना ही कर्मसिद्धान्त का प्रमुख लक्ष्य प्रतीत होता है, किन्तु कर्मसिद्धान्त के व्याख्याकारों ने अनर्जित दुःखों को भी स्वयं के अधर्म या पाप का फल स्वीकार कर प्रत्येक दुःख को स्वयं के कर्म के साथ जोड़ दिया है । यहाँ पर यह बात स्पष्ट करनी आवश्यक है कि दुःख चाहे स्वकृत पाप का फल हो अथवा अन्य व्यक्तिकृत व्यवहार, विचार, परिस्थिति आदि से उत्पन्न हो अथवा प्राकृतिक आपदाओं के कारण उत्पन्न दुःख हो, हर परिस्थिति में दुःख पर विजय व्यक्ति को स्वयं प्राप्त करनी होती है । वैशेषिक एवं न्याय दर्शन तो जब तक शरीर है तब तक दुःख का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, किन्तु जैन, बौद्ध आदि दर्शन एवं भगवद्गीता में समता की ऐसी साधना दी गई है, जो दुःख की परिस्थितियों में भी व्यक्ति को दुःखी नहीं होने देती । दुःख की परिस्थिति में भी दुःख का अनुभव न होने देना मनुष्य Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 वैशेषिकदर्शन में दुःख का स्वरूप तथा प्रो. पाहिकृत दुःखवर्गीकरण की महत्ता 85 की विशिष्ट साधना है। दुःख आता एवं जाता रहता है । वह उत्पन्न एवं नष्ट होता रहता है। किसी एक प्रकार के दुःख का आत्मा के साथ नित्य सम्बन्ध नहीं है । जब दुःख का नित्य सम्बन्ध नहीं है तो नित्य सम्बन्ध के रूप में परिभाषित समवाय से आत्मा में दुःख की उपस्थिति भी निरूपित करना कठिन हो जाता है। सन्दर्भ : mo3 ) दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः । -न्यायसूत्र, १.१.२ उपघातलक्षणं दुःखम् । विषाद्यनभिप्रेतविषयसान्निध्ये सति अनिष्टोपलब्धीन्द्रियार्थ सन्निकर्षाद् अधर्माद्यपेक्षादात्ममनसोः संयोगाद् यद् अमर्षापघातदैन्यनिमित्तमुत्पद्यते, तद् दुःखम् । अतीतेषु सर्पव्याघ्रचौरादिषु स्मृतिजम् । अनागतेषु सङ्कल्पजमिति । - प्रशस्तपादभाष्य, गुणवैधर्म्यप्रकरण, व्योमवती, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, भाग-२, १९८४, पृ. २१७ न्यायसूत्र, १.१.२१ द्रष्टव्य, उपर्युक्त पाद टिप्पण संख्या २ तस्मादधर्मापेक्षादित्यादिपदेन दिक्कालादेर्ग्रहणम् । - व्योमशिव, व्योमवती, भाग-२, पृ. २१७ तस्मादनिष्टोपलब्धीन्द्रियार्थसन्निकर्षाद् अधर्माद्यपेक्षादात्ममनसोः संयोगादसमवायिकारणाद् आत्मनि समवेतं यदुत्पद्यते तदुःखम् । -व्योमवती, भाग-२, पृष्ठ २१७ अमर्षोपघातदैन्यनिमित्तमुत्पद्यते, तद् दुःखम् ।- प्रशस्तपादभाष्य, व्योमवती, भाग-२, पृ. २१७ द्रोहः क्रोधः मन्युरक्षमा अमर्ष इति द्वेषभेदाः ।- व्योमशिव, व्योमवती, भाग-२, पृष्ठ २१९ दु:खानां त्रयं दुःखत्रयम् । तत् खलु आध्यात्मिकम् आधिभौतिकम, आधिदैविकञ्च । तत्राध्यात्मिकं द्विविधं शारीरं मानसं च । शारीरं वातपित्तश्लेषमणां वैषम्यनिमित्तम्, मानसं कामक्रोधलोभमोहभयेा विषादविषय-विशेषादर्शननिबन्धनम् । सर्वञ्चैतदान्तरिकोपायसाध्यत्वादाध्यात्मिकं दुःखम् । - सांख्यतत्त्वकौमुदी, सांख्यकारिका, कारिका १ पर । १०. बाह्योपायसाध्यं दुःखं द्वेधा, आधिभौतिकम् आधिदैविकञ्च । तत्राधिभौतिकं मानुषपशुमृगपक्षिसरीसृपस्थावरनिमित्तम्, आधिदैविकं तु यक्षराक्षसविनायकग्रहाद् यावेशनिबन्धनम् । - सांख्यतत्त्वकौमुदी, सांख्यकारिका, कारिका १ पर ___ तदनेन दुःखत्रयेणान्तःकरणवर्तिना चेतनाशक्तेः प्रतिकूलवेदनीयतयाऽभिसम्बन्धोऽभिघात इति । सांख्यतत्त्वकौमुदी, कारिका १ पर। २. वैशेषिक पदार्थव्यवस्था का पद्धतिमूलक विमर्श, दर्शन विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, २०००, पृ.७१-७४ द्रष्टव्य दुःख-विषयक सारिणी । १४. अत्तकडे दुक्खे नो परकडे । - व्याकरणप्रज्ञप्तिसूत्र, १७.५ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ : एक परिचय साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री आचार्य हेमचन्द्रसूरि की अनेक रचनाओं में एक कृति भवभावना ग्रंथ है । यह ग्रंथ ५३१ गाथाओं में निबद्ध है । ग्रंथ की भाषा प्राकृत है । गाथाओं का अर्थ सुगम्य बनाने हेतु मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने मूल ग्रंथ के साथ-साथ स्वोपज्ञ टीका की भी रचना की है। टीका संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में रची गई है। टीका में केवल कठिन शब्दों पर ही प्रकाश नहीं डाला गया, वरन् अनेक दृष्टान्तों की सहायता से सरल व गहन तत्त्वों को हृदयस्पर्शी व मार्मिक भी बनाया है। भवभावना ग्रंथ की टीका लगभग १३००० श्लोक प्रमाण है । इस प्रकार टीका सहित सम्पूर्ण ग्रंथ लगभग १३,५३१ श्लोक प्रमाण है। भवभावना प्रकरण ग्रन्थ दो भागों में विभाजित किया गया है । ग्रन्थ का प्रारम्भ मंगलाचरण से किया है । तत्पश्चात् २३ गाथाओं में परोपकार गुण पर प्रकाश डाला है । परोपकार दो प्रकार का होता हैं - अर्थ और काम के साधनों का दान करना द्रव्य परोपकार है । इस परोपकार को ग्रन्थकारश्री ने महत्त्वपूर्ण नहीं माना है । जिनधर्म का उपदेश या दान देना भाव परोपकार है, जो सर्व सुखों का एवं परंपरा से मोक्ष का प्रदायक है । यही भावपरोपकार करने के उद्देश्य से मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने इस ग्रंथ की रचना की है। परोपकार का लक्षण बताकर संक्षेप में भवभावना की महिमा वर्णित की गई है। प्रस्तुत ग्रंथ में भवभावना को एक चलनी की उपमा दी है, जिससे प्राणी कर्मरूपी रज को छानकर विवेक रूपी रत्न को प्राप्त करता है । इस रत्न को प्राप्तकर प्राणी बारम्बार भव-नैर्गुण्य पर विचार करता है, जिससे उसे संवग और निर्वेद गुणों की प्राप्ति होती है । तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा गया है कि - 'जगत्कायस्वभावौ च संवेगवैराग्यार्थम् ।' अर्थात् संवेग और वैराग्य की प्राप्ति के लिए जगत् और शरीर के स्वरूप का विचार करना चाहिए। नेमिनाथ आदि तीर्थंकरों को संसार के स्वरूप की भावना भाने से संवेग और निर्वेद गुणों की प्राप्ति हुई, जिसके फलस्वरूप वे प्रव्रज्या के मार्ग पर अग्रसर हुए । एतदर्थ भव का स्वरूप मननीय है । ग्रन्थकारश्री ने विस्तृत रूप से परमात्मा नेमिनाथ के चरित्र को चित्रित किया है। परमात्मा नेमिनाथ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ : एक परिचय 87 और राजीमती के सम्पूर्ण नव भवों का वर्णन प्रथम भाग की लगभग ४००० गाथाओं में किया गया है। परमात्मा नेमिनाथ केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद द्वादश भावनाओं पर देशना देते हैं । ग्रन्थ के द्वितीय भाग में परमात्मा की देशना स्वरूप क्रमशः द्वादश भावनाओं का निर्देश किया गया है । दुःख का दूसरा पर्याय संसार है । इस संसार में जीव को अनेक शारीरिक एवं मानसिक दुःखों का सामना करना पड़ता है। दु:ख के प्रतिरोध में प्राणी बलवान नहीं है, तथापि दुःख में दुःखी न होना जीव के हाथों में ही है । दुःख, पीड़ा, यातना में समता के सूत्र अवश्यमेव खोजे जा सकते हैं । कभीकभी समुद्र में भयंकर तूफान उठता है । तूफान की तीव्र गति से बड़े-बड़े वृक्ष, विशालकाय ईमारतें धराशयी हो जाती हैं । समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठती हैं और खूब हलचल मच जाती है। इस स्थिति में मछली, कछुआ, मगरमच्छ आदि जलचर प्राणियों की क्या दशा होती होगी? क्या वे भयंकर तफान की चपेट में आकर अपने प्राणों को गवां देते हैं ? नहीं, महाकाय ईमारतें व वृक्षों को तहसनहस करने वाला तूफान इन जलचर प्राणियों को अंशमात्र भी हानि नहीं पहुँचाते । क्योंकि आत्म-रक्षा हेतु वे समुद्र की गहराई में चले जाते हैं। ऊपरीभाग में तूफान उठने पर भी समुद्र का तल तो निरव शांत ही होता है। भयंकर तूफान वहाँ नहीं पहुंच पाता । पयोदधि के जलचर प्राणी हमें समता के सूत्र प्रदान करते हैं कि जीवन में दुःख, प्रतिकूलता, रोग, शोक, आपत्ति आदि के तूफान उठने पर प्राणी को बाहरी दुनिया में न रहकर अन्तरात्मा की गहराई में चले जाना चाहिए । क्योंकि अन्तरात्मा में तो आनन्द, आनन्द और आनन्द ही है। सामान्यतया प्रत्येक प्राणी अन्तरात्मा में निवेश नहीं कर सकता है। बाह्यदृष्टि से अन्तर्जगत की यात्रा करना संभव नहीं है । अन्तर्जगत में रमण करने हेतु अन्तर्दृष्टि का उन्मिलन अत्यन्त आवश्यक है, जिसका परम उपाय है भावनाओं का चिन्तन । जीवन में भावनाओं की इस आवश्यकता के कारण मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने द्वादश भावनाओं का विवेचन किया है। १. अनित्य भावना - इन्द्रपुरी, इन्द्रधनष, जीवन, यौवन, धन, गह, प्रधान, परिजन आदि सब बिजली के समान क्षणिक है। हाथी, घोड़े, सैनिक, लक्ष्मी, प्रिया आदि कोई नित्य रहने वाला नहीं है ऐसा चिन्तन करना अनित्य भावना है । अनित्य भावना से ममत्व का नाश होता है । इस सन्दर्भ में बलि-नरेन्द्र की कथा उल्लिखित है। इस कथा में जीव की निगोद से निर्वाण पर्यंत यात्रा का रोमांचित वर्णन किया गया है। भौतिक पदार्थों का या स्वजनों का संयोग भले ही अनित्य हो, परन्तु संकट के समय में निश्चित रूप से वे मेरा रक्षण करेंगे। अतः इन पर प्रीति-ममता रखनी चाहिए, ऐसी मिथ्या धारणा को दूर करने के लिए अनित्य भावना के पश्चात् अशरण भावना का विवेचन किया गया है । २. अशरण भावना - रोग, वृद्धावस्था, आपत्ति में धन, स्वजन आदि रक्षक नहीं है, त्राता नहीं है - ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है। रोगों में राज्य, वैभव, सैन्य आदि की अशरणता को सूचित करने के लिए कौशांबीपुरी राजा का कथानक दिया गया है। जितशत्रु राजा के कथानक से जरा में जीव Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री SAMBODHI की अशरणता तथा नंदराजा, कुचिकर्ण, तिलक श्रेष्ठी एवं सगर चक्रवर्ती के कथानकों से मृत्यु में क्रमशः धन, गोधन, धान्य एवं पुत्रों की अशरणता व्यक्त की गई है। अन्त में गजपुर राजपुत्र का कथानक उपसंहार के रूप में दिया है। स्वजन आदि की अनित्यता, अशरणता जानने पर भी ऐसा भ्रम होना संभव है कि भले ही रोग, जरा आदि को रोकने में स्वजन, धन आदि असमर्थ हैं, लेकिन जब रोग आदि दुःखों का आक्रमण होगा तब उन दुःखों के प्रतिकार में वे जरूर मेरी सहायता करेंगे । अतः मुझे उनसे प्रीति रखनी चाहिए। इस भ्रम को दूर करने के लिए अशरण भावना के बाद एकत्व भावना का वर्णन किया गया है । ३. एकत्व भावना - जीव अकेला कर्म बांधता और अकेला ही फल भोगता है । वह एकाकी जन्म लेता है और एकाकी ही परभव में चला जाता है - ऐसी अनुप्रेक्षा करना एकत्व भावना है । जीव के एकत्व का भान कराने हेतु मधुराजा का कथानक दिया गया है। __ यद्यपि भौतिक पदार्थ और स्वजन-सम्बन्धी मुझे दुःख-वेदन में सहयोग न दें, तथापि वे मेरे ही है। इस विपर्यास को नष्ट करने के लिए एकत्व भावना के पश्चात् अन्यत्व भावना का प्रतिपादन किया ४. अन्यत्व भावना - कोई तेरा नहीं, न तू किसी का है – ऐसा चिन्तन करना अन्यत्व भावना है । इस भावना में मुख्य रूप से शरीर आदि पर – पदार्थों पर पुनः पुनः मनन किया जाता है। शरीर, स्वजन आदि के अन्यत्व का स्पष्टीकरण धन श्रेष्ठी के कथानक से समझाया गया है । धन, स्वजनों आदि पर रहा हुआ ममत्व जीव को अनेक पाप कर्मों में प्रवृत करता है । इन पाप कर्मों के कारण जीव को चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है । अतएव अन्यत्व भावना के पश्चात् संसार भावना का विशद वर्णन किया है । यथा नाम तथा ग्रंथ का मुख्य प्रतिपाद्य भव अर्थात् संसार भावना ही है। ५. संसार भावना - नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति एवं देव गति - इन चार गति रूप संसार के स्वरूप पर निदिध्यासन करना संसार भावना है। संसार भावना के वर्णन में मुख्यतया चारों गतियों के दुःखों पर प्रकाश डाला गया है। साथ ही बताया है कि मनुष्य व देव गति में मिलने वाले भौतिक सुख-दुःख आकीर्ण है । इस भावना में २९ कथाएँ निर्दिष्ट हैं, जिसमें भिन्न-भिन्न दृष्टियों को प्रधान कर संसार के नैर्गुण्य को प्रस्थापित किया गया है । छोटी-सी भूल न जाने कब किसको कहाँ भ्रमित कर दें । अनित्य आदि भावनाओं के द्वारा स्वजन आदि की अनित्यता, अशरणता, अन्यता, आत्मा का एकत्व एवं संसार की असारता ज्ञात होने पर भी एक शरीर प्राणी को भटका सकता है । कष्ट में संसार पीडित प्राणी यदि शरीर में सुख की गवेषणा करें, तो भी वह अक्षय सुख को प्राप्त नहीं कर सकता है । अतः शरीर में पवित्रता व सुखों की आशंका को दूर करने हेतु छठ्ठी अशुचि भावना का प्रतिपादन किया गया है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89 Vol. XLI, 2018 आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ : एक परिचय ६. अशुचि भावना - खून, माँस, मज्जा, हड्डी, शुक्र आदि घृणित पदार्थों से बना यह शरीर परम पवित्रता का स्थान नहीं है - ऐसी अनुप्रेक्षा करना अशुचि भावना है । इस संदर्भ में कदंबविप्र की कथा निर्दिष्ट है। दुःखाकीर्ण संसार तथा अशुचिपूर्ण शरीर के निश्चय के पश्चात् धर्मध्यान ही श्रेयस्कर प्रतीत होता है। यह धर्मध्यान लोक-स्वभाव भावना के चिन्तन से सिद्ध होता है । एतदर्थ सातवें क्रम में लोकस्वभाव भावना का निरूपण किया है । ७. लोकस्वभाव भावना - माता मरकर भवांतर में पुत्री होती है । पुत्री मरकर माता बनती है । पुत्र, पिता तथा पिता-पुत्र में परिवर्तित हो जाता है । इस लोक में अनंतबार शत्रु-मित्र व मित्र-शत्रु बन जाता है। इस प्रकार लोक के परिवर्तनशील स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना लोकस्वभाव भावना है । लोक के स्वभाव को सुस्पष्ट करने के लिए यहाँ सुकोशल मुनि का कथानक उल्लिखित है । धर्मध्यान को पुष्ट करने के लिए लोक-स्वभाव भावना के पश्चात् आठवीं आस्रव भावना का प्रतिपादन किया है। ८. आस्रव भावना - राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्पर्शेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ, हिंसादि अव्रत और मन-वचन-काया का योग कर्मों के प्रवेशद्वार हैं - ऐसा बार-बार चिन्तन करना आस्रव भावना है । इस भावना में प्रत्येक कषाय, प्रत्येक इन्द्रिय एवं प्रत्येक अव्रत पर भिन्न-भिन्न कथाएँ निर्दिष्ट है। आस्रवों के प्रवेश का निरोध आस्रवों की विरति रूप संवर के द्वारा होता है । अतएव आस्रव भावना के अनन्तर संवर भावना निर्दिष्ट है । ९. संवर भावना - तप, प्रशम, ध्यान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र आदि के द्वारा आस्रवों को रोकने का चिंतन करना संवर भावना है । इस भावना पर विजय राजा व चिलातिपुत्र के दृष्टान्त दिये गये हैं। नवीन कर्मों के आगमन को रोकने के साथ-साथ पूर्व संचित कर्मों का क्षय भी आवश्यक है। इसी उद्देश्य से दसवें क्रमांक पर निर्जरा भावना प्रतिपादित है। १०. निर्जरा भावना - बाह्य एवं अभ्यंतर, तप पूर्व संचित कर्मों का नाश करते हैं, जिसे निर्जरा कहते हैं । इस भावना में निर्जरा के भेद-प्रभेद व उपायों पर चिन्तन-मनन किया जाता है । इस सन्दर्भ में अतिमुक्तक मुनि व कुरुदत्त महर्षि के कथानक निरूपित हैं। ___ जो जीव तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता है उसे भी उत्तम गुणों पर बहुमान रखना आवश्यक है, अन्यथा तपश्चर्या से भी इष्ट फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है । एतदर्थ निर्जरा भावना के पश्चात् उत्तम गुण भावना कही गई है। ११. उत्तम गुण भावना - अरिहंत, सिद्ध, साधु आदि उत्तम गुण धारक पुरुषों के गुणों पर Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री SAMBODHI निदिध्यासन कर उनके गुणों का आदर-सत्कार करना उत्तम गुण भावना है । श्रेष्ठ पुरुषों के आलंबन के रूप में यहाँ पर धन व स्कन्द मुनि का चरित्र प्रस्तुत किया गया है । ___ उत्तमगुणों में उत्तमोत्तम गुण – जिनधर्म है। जिनधर्म की उपस्थिति में ही शेष गुणों का सद्भाव व संरक्षण हो सकता है । अतएव अन्तिम बोधि दुर्लभ भावना का वर्णन किया है । १२. बोधि दुर्लभ भावना - बोधि अर्थात् धर्म सामग्री । इस संसार चक्र में मनुष्य भव, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल, रूप, आयुष्य, आरोग्य, बुद्धि, धर्म श्रवण, श्रद्धा एवं संयम का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है - ऐसा बार-बार चिन्तन करना बोधि दुर्लभ भावना है। इस सन्दर्भ में श्रेष्ठी पुत्र व राजपुत्री के कथानकों का प्रतिपादन किया है। बारह भावनाओं के चिन्तन का फल - फल अभिधान से पूर्व भावनाओं का चिन्तन किसके लिए हितकारी या अहितकारी हो सकता है इसकी विचारणा की गई है । मलधारी हेमचन्द्रसूरि का स्पष्ट मन्तव्य है कि भावनाओं का चिन्तन ज्ञानी के लिए ही कल्याणकारी होता है। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए आचार्यश्री ने अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं । यहाँ पर ज्ञानी के लक्षण भी दिये गये हैं । ग्रंथान्त में भावनाओं के फल को अभिहित करते हुए कहा है कि भावनाओं का अविरत अभ्यास ममत्व एवं स्नेह का विनाश करता है तथा रोग आदि आपत्तियों में चित्त के सन्तुलन को बनाये रखता है। समभाव में स्थित साधक ध्यान की कक्षा में पहुंच जाता है, जहाँ वह अपने आत्म-बल से समस्त कर्मों का क्षयकर अजर, अमर, अक्षय, अनंत सिद्ध स्थान को प्राप्त करता है । सन्दर्भ : १. तत्त्वार्थसूत्र, ७/७ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना सुरेश्वर मेहेर उपक्रम दर्शन परम्परा में वेदान्त सर्वाधिक प्राचीन व प्रमुख दर्शन के रूप में विवेचित है। भारतीय मनीषियों के मस्तिष्क को जितना इस दर्शन ने प्रभावित किया है उतना संभवतः किसी अन्य भारतीय दर्शन ने किया हो । जब बौद्धदर्शन का ह्रास होते हुए भी उसका पूर्ण उच्छेद नहीं हो पा रहा था एवं मीमांसक वैदिक कर्मकाण्ड के आध्यात्मिक महत्त्व को समझाने में असफल सिद्ध हो रहे थे, ऐसे समय में सत्य-धर्म व दर्शन का प्रचार कर समाज में धार्मिक और दार्शनिक एकता को स्थापित करने के लिए आचार्य शंकर ने अपने अद्वैतवाद सिद्धान्त की स्थापना की । शंकराचार्य को अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रन्थों से अद्वैत संबंधी विचारधारा की एक सबल पृष्ठभूमि उपलब्ध हुई थी। परन्तु शांकर अद्वैतवाद का प्रमुख आधार महर्षि बादरायण का ब्रह्मसूत्रदर्शन एवं उपनिषद् दर्शन था । अध्यात्मविद्या के अनेकों अनुशीलनकर्ताओं, उपनिषद्वर्ती तत्त्ववेत्ताओं एवं उपनिषद्वर्ती सिद्धान्तों के सूत्ररूप में प्रस्तुतकर्ता बादरायण के विचारों में अनेकता एवं सूत्ररूपता के कारण कुछ असामंजस्यता एवं असंदिग्धता बनी थी । उक्त न्यूनताओं की पूर्ति शंकराचार्य ने अपने शारीरकभाष्यादि ग्रन्थों में प्रस्तुत समन्वयात्मक सिद्धान्त के आधार पर की है । अद्वैतवेदान्त दर्शन के अन्य आचार्यों व विद्वानों में सुरेश्वराचार्य, पद्मपाद, वाचस्पति मिश्र, सर्वज्ञात्म मुनि, विद्यारण्य, मधुसूदन सरस्वती, धर्मराजाध्वरीन्द्र, सदानन्द योगीन्द्र आदि प्रमुख हैं जिन्होंने अपने-अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के द्वारा अद्वैतवेदान्त दर्शन को प्रतिपादित किया है। शंकराचार्य प्रतिपादित अद्वैत-वेदान्त दर्शन ने सृष्टि के मूल में एक ही प्रमेय तत्त्व 'ब्रह्म' को कारण के रूप में स्वीकार कर स्वकीय सिद्धान्त को प्रतिष्ठापित किया है, जिसे 'ब्रह्मकारणतावाद' के रूप में अभिहित किया जाता हैं । विशेषतः, उपनिषदों के आधार पर ही शंकराचार्य ने ब्रह्मविद्या का निरूपण किया है । शुद्ध चेतन ब्रह्म को ही अद्वैत तत्त्व अथवा एकमात्र कारणरूप स्वीकार कर अद्वैतवाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । शांकर अद्वैतवाद के अनुसार अद्वैततत्त्व ब्रह्म को निर्गुण स्वीकार किया गया है। जगत् की सत्ता शांकर अद्वैतवाद के अन्तर्गत मायिक बतलाई गई है । माया के कारण ही जीव और Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 सुरेश्वर मेहेर SAMBODHI ब्रह्म का भिन्नत्व है, वस्तुतः जीव और ब्रह्म में मूलतया ऐक्य ही है। यही आचार्य शंकर के ब्रह्मकारणतावाद का मूल सिद्धान्त है। १. ब्रह्म का स्वरूप __महर्षि बादरायण प्रणीत ब्रह्मसूत्र "जन्माद्यस्य यतः" के शारीरक भाष्य में शंकराचार्य ने अद्वैतवाद ब्रह्म की निम्नलिखित परिभाषा प्रस्तुत की है "अस्य जगतो नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्त स्य प्रतिनियतदेशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसा अपि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभङ्गं यतः सर्वज्ञात् सर्वशक्तेः कारणाद् भवति, तद् ब्रह्म"। अर्थात् नाम-रूप के द्वारा अव्यक्त, अनेक कर्ताओं एवं भोक्ताओं से संयुक्त, ऐसे क्रिया और फल के आश्रय जिसके देश, काल और निमित्त व्यवस्थित हैं, मन से भी जिसकी रचना के स्वरूप का विचार नहीं हो सकता ऐसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति एवं नाश जिस सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् कारण से होते हैं, वह ब्रह्म है । शंकराचार्य का उपर्युक्त कथन तैत्तिरीय उपनिषद् के एक महावाक्य की ओर लक्षित करता है जिसमें कहा गया है कि ब्रह्म वह है जिससे इस जगत के समस्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिसमें स्थित और जीवित रहते हैं और जिसमें पुनः विलीन हो जाते हैं । शंकरकृत उपर्युक्त लक्षण के अनुसार ब्रह्म की विशेषताएँ- सर्वव्यापकता, अधिष्ठानता, सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता है । अतः परिभाषानुसार 'ब्रह्म' शांकर वेदान्त का सर्वोच्च तत्त्व व एकमात्र परम कारण है। ब्रह्म शुद्ध चैतन्य, एकरस तथा कूटस्थ नित्य परम सत्ता है । शंकराचार्य के अनुसार सर्वोच्च सत्ता ब्रह्म व्यावहारिक, देशिक, कालिक एवं वैचारिक सत्ताओं से विलक्षण है । उसका अस्तित्व सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु देश-कालातीत होने के कारण ब्रह्म का अस्तित्व किसी भी स्थान पर नहीं कहा जा सकता है । वस्तुतः वह एक ऐसा सूक्ष्म तत्त्व है जिसका निर्देश वाणी एवं मन के द्वारा असंभव है, परन्तु वह अभावरूप नहीं है । परमार्थ दृष्टि से शांकर अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म एवं जगत् में अनन्यत्व होने के कारण कार्यकारणता का प्रश्न उपस्थित नहीं होता है । इसलिए शांकर दर्शन के अनुसार जगत् को ब्रह्म का विवर्त कहा गया है, परिणाम नहीं । परन्तु मायाशक्ति से सबलित होने के कारण ब्रह्म जगत् को कार्य तथा परब्रह्म को कारण कहा है । परन्तु ब्रह्म जगत् का कारण होने से उसमें अथवा उसके धर्म अथवा धर्मों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है क्योंकि उत्पत्ति, रक्षा तथा प्रलय काल में ब्रह्म अविकृत रहता है। अतः जगत् की उत्पत्ति आदि की इच्छा भी मायाविशिष्ट ब्रह्म में ही है। इसी मायाविशिष्ट ब्रह्म को 'ईश्वर' संज्ञा दी गई है । शांकर दर्शन के अनुसार माया शक्ति से विशिष्ट ब्रह्म जगत् का उपादान कारण ही नहीं, अपितु निमित्त कारण भी है। जिस प्रकार मकड़ी अपने शरीर चेतन अंश के प्राधान्य के कारण जाले का उपादानकारण, साथ-साथ अपने शरीर की प्रधानता के कारण जाले का निमित्त कारण बनती Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना 93 है, उसी प्रकार अज्ञान से उपहित चैतन्य अपनी प्रधानता के कारण निमित्त कारण एवं अपनी उपाधि की प्रधानता के कारण उपादान कारण होता है । शांकर दर्शन के अनुसार माया के बिना परमेश्वर का स्रष्टुत्व सिद्ध नहीं होता । २. सृष्टि : ईश्वर की लीला शांकर दर्शन में ईश्वर को जगत् का स्रष्टा रूप से विवेचित किया गया है । श्रुति में भी "सोऽकामयत् बहु स्यां प्रजायेयेति"८ आदि वाक्यों में परमेश्वर के अनेक रूपों में उत्पन्न होने की इच्छा का उल्लेख हुआ है । यहाँ यह विचारणीय है कि जो परमेश्वर आप्तकाम है, उसमें सृष्टि-उत्पत्ति की इच्छा किस प्रकार उत्पन्न होती है। उक्त शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए शंकराचार्य ने कहा है कि सृष्टि ईश्वर लीला का फल है । इस सम्बन्ध में एक दृष्टान्त देते हुए कहा गया है- क्रीडाक्षेत्र में प्रवृत्तियाँ किसी दूसरे प्रयोजन की अभिलाषा न करके केवल लीला-रूप ही होती हैं और जिस प्रकार उच्छास, प्रवास आदि किसी बाह्य प्रयोजन की अभिसन्धि के बिना स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार किसी अन्य प्रयोजन की अपेक्षा के बिना स्वभाव से ही ईश्वर की भी केवल लीलारूप प्रवत्ति कही जायेगी। यदि कहा जाये कि लोक में लीलाओं में भी किसी प्रकार का सूक्ष्म प्रयोजन देखा जा सकता है तो भी ईश्वर लीला के सम्बन्ध में किसी सूक्ष्म प्रयोजन की उत्प्रेक्षा करना संभव नहीं होगा । क्योंकि जो ईश्वर पूर्णकाम है उसकी लीला में किसी प्रकार का प्रयोजन नहीं देखा जा सकता है। इससे यह सिद्ध होता है कि सृष्टि लीलाविधायी ईश्वर के स्वभाव का फल है । ३. सृष्टि-वैषम्य : ईश्वरकृत नहीं पुनश्च यदि आप्तकाम एवं निःस्पृह ईश्वर जगत् का स्रष्टा है तो उसकी सृष्टि में वैषम्य किस प्रकार मिलता है, यह भी विचारणीय है । वस्तुतः सृष्टि-वैषम्य स्पष्ट है, क्योंकि संसार में कोई अत्यन्त ऊँचा है, कोई मध्यम है और कोई नीच भी है। सृष्टि की उक्त विषमता का कारण शंकराचार्य ने विस्तारपूर्वक वर्णित किया है । शंकराचार्य का कथन है कि ईश्वर निरपेक्ष होकर सृष्टि का निर्माण नहीं करता, वरन् वह धर्म और अधर्म की अपेक्षा करके सृष्टि का निर्माण करता है ।१० सृज्यमान प्राणियों के धर्म और अधर्म की अपेक्षा से सृष्टि विषम होती है । अतः ईश्वर का कोई अपराध नहीं है । ईश्वर को तो पर्जन्य के समान समझना चाहिए । जिस प्रकार व्रीहि, यव आदि की सृष्टि में पर्जन्य साधारण कारण है और ब्रीहि, यव आदि की विषमता में उस बीज में रहने वाली सामर्थ्य असाधारण कारण है, उसी प्रकार देव, मनुष्य आदि की सृष्टि का ईश्वर साधारण कारण है । देव, मनुष्यादि की विषमता में तो तत्तत् जीवों में रहने वाले कर्म असाधारण कारण होते हैं । इस प्रकार ईश्वर कर्म की अपेक्षा रखने से वैषम्य और नैपुण्य रूप दोषों का भाजन नहीं है। अनादि काल से पूर्व संचित साधु या असाधु वासनाओं के कारण पुरुष स्वभाव से ही साधु-असाधु कर्मों में प्रवृत्त होता है। अतः ईश्वर इसमें साधारण हेतु है । इसलिए ईश्वर को पक्षपातपूर्ण स्रष्टा नहीं कहा जा सकता है ।११ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 सुरेश्वर मेहेर SAMBODHI ४. मायावाद निर्विशेष ब्रह्म से सविशेष जगत् की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के लिए शंकराचार्य ने मायावाद की स्थापना की । यह माया तत्त्व ब्रह्म के समान त्रिकालाबाधित न होने के कारण सत् नहीं है तथा प्रत्यक्ष प्रतीयमान होने के कारण असत् भी नहीं है । यह सत् असत् से परे अनिर्वचनीय है ।१२ शंकराचार्य ने जगत् और ब्रह्म की द्वैत बुद्धि का हेतु अविद्या को बतलाया है । शंकराचार्य का मायावाद के प्रतिपादन के सम्बन्ध में कथन है कि लोगों की अनेक प्रकार की तृष्णाओं एवं जन्म-मरण आदि दुःखों का कारण अविद्या ही है। इस अविद्या का विषय जीव है। अविद्या के कारण ही जीव को परमार्थ सत्य आत्मस्वरूप का बोध न होने पर नानारूपात्मक जगत् ही परमार्थ रूप से सत्य भासता है। अविद्यानिवृत्ति होने पर जीव को आत्मस्वरूप का बोध होता है । जीव की यही स्वरूपस्थिति उसकी ब्रह्मरूपता है । इस अविद्या को जगत की उत्पन्नकी बीजशक्ति का रूप प्रदान किया गया है ।१३ यह बीज शक्ति परमात्मा की शक्ति है । इस अविद्यारूप बीज शक्ति का विनाश केवल आत्मविद्या के द्वारा ही सम्भव है । शंकराचार्य ने परमेश्वर को मायावी तथा जगत् को माया कहा है । इन्द्रजाल के अर्थ में 'माया' शब्द का प्रयोग करके शंकराचार्य ने यह सिद्ध किया है कि जिस प्रकार इन्द्रजाल की सत्यता केवल द्रष्टाओं के लिए ही है, उसी प्रकार नानारूपात्मक जगत् की सत्यता भी परमात्मा के लिए न होकर केवल अज्ञानी के लिए ही है, आत्मस्थिति के लिए नहीं । इस माया को अतिगम्भीर, दुरवग्राह्य एवं विचित्र सिद्ध करते हुए आचार्य शंकर का कथन है कि यह समस्त संसार, यह बतलाने पर भी कि प्रत्येक जीव ब्रह्म-रूप है, "मैं ब्रह्मरूप हूँ", ऐसा नहीं समझता । इसके विपरीत देहेन्द्रियादि रूप अनात्म तत्त्व को ही ग्रहण करता है । इस प्रकार अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया ही जगत् के परमार्थ रूप से सत्य मानने का कारण है । अद्वैत सिद्धान्त के अनसार वास्तविक परमार्थ सत्य तो अद्वैत ब्रह्म ही है और जगत् माया है। परन्तु जगत् मायिक होने पर भी शशशृङ्ग के समान पूर्णतया असत् नहीं है। इसीलिए शांकर अद्वैतवाद के अन्तर्गत जगत् की व्यावहारिक सत्ता स्वीकार की गई है । शंकर ने जगत्सम्बन्धी विचार को स्पष्ट ढंग से समझाने के लिए त्रिविध सत्ताओं को उपयोग किया है - पारमार्थिकी, प्रातिभासिकी तथा व्यावहारिकी। पारमार्थिकी सत्ता वह है जिसमें वस्तु का अस्तित्व त्रिकाल में अबाधित होता है । ऐसी सत्ता एकमात्र ब्रह्म की है । प्रातिभासिकी सत्ता के द्वारा किसी वस्तु का केवल आभास होता है । यथा- किसी वस्तु को अन्धकार में सर्प समझकर भयभीत होना और पुनः निरीक्षण करके उसके सही स्वरूप को पहचान कर भय से मुक्त होना । व्यावहारिकी सत्ता के अस्तित्व को संसार में व्यवहार के लिए सत्य स्वीकार किया जाता है जो स्वप्नभ्रम से भिन्न है । ५. विवर्तवाद अद्वैतवेदान्त में माया की दो शक्तियों का वर्णन किया गया है – (१) आवरण और (२) विक्षेप। आवरण शक्ति सत्य-ब्रह्म की तिरोधानकर्वी एवं ब्रह्मसाक्षात्कार की बाधक है१४ और विक्षेप शक्ति नानारूपात्मक मिथ्या जगत् की निर्मात्री है ।१५ अर्थात् आवरण शक्ति से माया ब्रह्म के शुद्ध स्वरूप को Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना आच्छादित कर लेती है तथा विक्षेप शक्ति से प्रपञ्चपूर्ण जगज्जाल की रचना करती है । इस प्रकार मायोपाधिक ब्रह्म ही सृष्टि का कारण है। जगत् की कार्य-कारणता का स्पष्टीकरण अद्वैतवेदान्त में अनेक स्थलों पर रज्जु-सर्प के दृष्टान्त के आधार पर किया गया है । इस दृष्टान्त के आधार पर शंकराचार्य का कथन है कि जिस प्रकार अविद्यावश रस्सी में सर्प का मिथ्या अनुभव होने लगता है, उसी प्रकार अविद्या के कारण परमात्मा में जगत् के नानात्व का अनुभव होता है ।१६ अतः जिस प्रकार भ्रान्तिकालिक सर्प रस्सी का विकार या परिणाम नहीं होता, उसी प्रकार जगत् भी ब्रह्म का विकार नहीं है । शंकराचार्य ने इस विषय का विवेचन करते हुए कहा है कि गाढ़ान्धकार में पड़ी हुई रस्सी को सर्प मानता हुआ द्रष्टा भय से कंपित होकर भागने लगता है । किन्तु किसी से यह सुनकर कि 'डरो मत, यह सर्प नहीं है, बल्कि रज्जु है' सर्पज्ञानजन्य भय से मुक्त हो जाता है और काँपना और भागना छोड़ देता है । यहाँ यह द्रष्टव्य है कि जिस प्रकार सर्पज्ञानजन्य भय और उसकी निवृत्ति, इन दोनों अवस्थाओं में सर्प रूप वस्तु में किसी प्रकार का विकार नहीं देखा जाता, उसी प्रकार ब्रह्म में भी किसी प्रकार का विकार सम्भव नहीं है । अतएव अद्वैतवेदान्त में विकारवाद का समर्थन न करके विवर्तवाद का ही अनुसरण किया गया विवर्तवाद के स्वरूप की विवेचना प्रस्तुत करने के लिए वेदान्तपरिभाषा के रचयिता धर्माराजाध्वरीन्द्र ने विवर्त को परिभाषित करते हुए कहा है विवर्तो नाम उपादानविषमसत्ताककार्यापत्तिः ।१० अर्थात् उपादानकारण से विषम कार्य की सत्ता को विवर्त कहते हैं । इस परिभाषा के अनुसार परमार्थ सत्य ब्रह्म से मिथ्या जगत् की सत्ता विषम होने के कारण जगत् ब्रह्म का विवर्त है । अतः मिथ्या जगत् की उत्पत्ति का कारण अधिष्ठान ब्रह्म ही है, न कि जगत् ब्रह्म का तत्त्विक परिवर्तन का स्वरूप है । जगत् के ब्रह्म का तत्त्विक परिवर्तन न होने के कारण ही ब्रह्म और जगत् में विवर्तभाव है ।१९ इस प्रकार अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म को छोड़कर और सभी पदार्थ असत् हैं। इन पदार्थों का आरोप ब्रह्म पर होता है। ब्रह्म आरोप का अधिष्ठान है। माया के विक्षेप के कारण जो सष्टि होती है, वह मायिक है, भ्रान्ति है। ब्रह्म को अधिष्ठान मानकर जितने कार्य जगत् में होते हैं, वे ही नहीं, प्रत्युत समस्त जगत् ही ब्रह्म का विवर्त है। ६. सृष्टि-प्रक्रिया १. समष्टि-व्यष्टिरूप कारणशरीर अद्वैत वेदान्त दर्शन में सृष्टि को दो खण्डों में विभक्त किया गया है - (१) समष्टिरूप (२) व्यष्टिरूप। माया में जब सत्त्वगुण की प्रधानता होती है और रजोगुण एवं तमोगुण की अप्रधानता होती है तब शुद्ध सत्त्वप्रधान उत्कृष्ट उपाधि से आवृत चैतन्य अपने समष्टि रूप में 'ईश्वर' कहलाता है । माया का अधिपति होने के कारण यह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापी है । पुनश्च समष्टिरूप ईश्वर संपूर्ण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 सुरेश्वर मेहेर SAMBODHI विश्वप्रपंच का कारण होने से 'कारणशरीर' तथा आनन्द की प्रचुरता के कारण 'आनन्दमय कोश' नाम से अभिहित भी है । जब माया के सत्त्वगुण की प्रधानता अर्थात् सात्त्विकता मलिन हो जाती है तब मलिनसत्त्वप्रधान निकृष्ट उपाधि से उपहित चैतन्य व्यष्टिरूप में 'प्राज्ञ' या 'जीव' कहलाता है । जीव अल्पज्ञ तथा स्वल्प शक्ति संपन्न होता है। इस जीव की व्यष्टिरूप उपाधि, अहंकार आदि का कारणरूप होने से कारणशरीर एवं आनन्द के आधिक्य व चैतन्य को कोश के समान ढंक लेने के कारण 'आनन्दमय कोश' नाम से नामित होती है । अद्वैत वेदान्त के अनुसार ईश्वर एवं जीव दोनों ही माया से आवृत उस चैतन्य की अनन्त अभिव्यक्तियाँ या सूक्ष्मतम अवस्थाएँ हैं । इसमें समस्त सूक्ष्म एवं स्थूल प्रपञ्चों का क्षय हो जाने के कारण इसे 'सुषुप्ति' अवस्था कहा जाता है। इस सषप्ति में जब स्वप्न और जागरण विलीन हो जाते हैं तब ईश्वर और जीव दोनों अज्ञान से अभिभूत होकर एक विशिष्ट आनन्द की अनुभूति करते हैं । वस्तुतः ईश्वर और जीव एक ही हैं, केवल उपाधिभेद से अलग-अलग प्रतीत होते हैं ।२० यही प्रतीति ही सृष्टि का बीज अथवा सार है । २. सूक्ष्मशरीरोत्पत्ति इस सृष्टिप्रक्रिया में सर्वप्रथम सूक्ष्मशरीर की उत्पत्ति होती है । तमोगुणप्रधान विक्षेप शक्ति से युक्त अज्ञान से उपहित चैतन्य अर्थात् ईश्वर से सर्वप्रथम आकाश की उत्पत्ति होती है। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल एवं जल से पृथ्वी की उत्पत्ति क्रमशः होती है । इन आकाशादि पञ्च भूतों में अपने-अपने कारणों के गुणों के आधार पर ही सत्त्व, रजस एवं तमस गण प्रधान रूप से उत्पन्न होते हैं । वेदान्त में ये आकाशादि सूक्ष्म महाभूत, तन्मात्र व अपञ्चीकृत भूत के रूप में कथित हैं । इनमें आकाश के सात्त्विक अंश से श्रोत्र, वायु के सात्त्विक अंश से त्वक्, अग्नि के सात्त्विक अंश से चक्षु, जल के सात्विक अंश से रसना एवं पृथ्वी के सात्त्विक अंश से घ्राण - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । आकाशादि पञ्चभूतों के समष्टिरूप सात्त्विक अंश से बुद्धि, मन, चित्त व अहंकार - चार वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं । इनमें बुद्धि की निश्चयात्मिका वृत्ति, मन की संकल्प-विकल्पात्मिका वृत्ति, चित्त की अनुसंधानात्मिका वृत्ति और अहंकार की अभिमानात्मिका वृत्ति होती है । ये वृत्तियाँ प्रकाशात्मक होती हैं । निश्चयात्मिका बुद्धि पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ से युक्त होकर 'विज्ञानमय कोश' एवं विमर्शात्मा मन उन पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ से युक्त होकर 'मनोमय कोश' कहलाते हैं ।२९ पुनश्च आकाशादि सूक्ष्म महाभूतों के रजस् अंश से अलग-अलग व्यष्टि रूप में क्रमशः वाणी, हाथ, पैर, गुदा व जननेन्द्रिय- पञ्च कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। आकाशादि पञ्चभूतों के उसी रजस् अंश के समष्टि रूप में क्रमशः प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान - पञ्च वायु की सृष्टि होती है। उपरोक्त पञ्च कर्मेन्द्रियों के साथ युक्त होकर पञ्च वायु 'प्राणमय कोश' कहलाते हैं । विज्ञानमय, मनोमय एवं प्राणमय- ये तीनों सम्मिलित रूप में सूक्ष्मशरीर का निर्माण करते हैं । इस सूक्ष्मशरीर के १७ अवयव होते हैं- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रिया, पाँच प्राणवायु, बुद्धि एवं मन । इस शरीर में ज्ञान, क्रिया और इच्छा - तीन शक्तियाँ होती हैं। इन्हीं समष्टि से आवृत चैतन्यात्मा 'सूत्रात्मा' या 'हिरण्यगर्भ' या 'प्राण' Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 Vol. XLI, 2018 ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना तथा व्यष्टि से आवृत चैतन्य 'तेजस' कहलाता है । सूक्ष्मशरीर की यह अवस्था स्वप्नावस्था कहलाती ३. पञ्चीकरण सूक्ष्मशरीर की उत्पत्ति के पश्चात् पञ्चीकरण प्रक्रिया द्वारा स्थूल पञ्च महाभूतों की उत्पत्ति होती है । वेदान्तसार के प्रणेता सदानन्द योगीन्द्र के अनुसार पञ्चीकरण की परिभाषा - "पञ्चीकरणं त्वाकाशादिपञ्चस्वेकैकं द्विधा समं विभज्य तेषु दशसु भागेषु प्राथमिकान्पञ्चभागान्प्रत्येकं चतुर्धा समं विभज्य तेषां चतुर्णा भागानां स्वस्वद्वितीयार्धभागपरित्यागेन भागान्तरेषु संयोजनम् ।" अर्थात् आकाश आदि पाँच सूक्ष्मभूतों के सर्वप्रथम दो-दो भाग किये जाते हैं जिससे प्राप्त दस भागों में से प्रथम पाँच भागों का पुनः चार-चार भागों में विभाजित किया जाता है। परिणामस्वरूप एक सूक्ष्मभूत अपने पाँच भागों में विभक्त हो जाता है । १/२ + १/८ + १/८ + १/८ + १/८ = १ पुनः इन सब भागों में से अपने-अपने आधे भाग को छोड़ कर अन्य सूक्ष्मभूत का एक-एक अष्टमांश (१/८ भाग) दूसरे चारों भागों में मिला दिया जाता है। परिणामस्वरूप प्रत्येक महाभूत में आधा अपना तथा शेष चार सूक्ष्मभूतों की १/८ अंश मिलने पर प्रत्येक आकाशादि भूत पूर्णता को प्राप्त करके पञ्चीकृत महाभूत की संज्ञा को प्राप्त करते हैं । उपनिषदों में वर्णित त्रिवृत्करण सिद्धान्त के आधार पर आचार्य शंकर ने पञ्चीकरण सिद्धान्त को अपनाया है। इन्हीं पञ्चीकृत महाभूतों से स्थूल सृष्टि का निर्माण होता है । पञ्चीकृत स्थूल भूतों में क्रमशः आकाश में शब्दय वायु में शब्द और स्पर्शय अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूपय जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रसय एवं पृथ्वी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध अभिव्यक्त होते हैं। ४. स्थूलशरीरोत्पत्ति पञ्चीकृत महाभूतों से भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् - सप्त ऊर्ध्ववर्ती भुवन तथा अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल, पाताल – सप्त अधोवर्ती भुवन, समुदाय १४ भुवनों या लोकों का निर्माण होता है । साथ-साथ समस्त ब्रह्माण्ड, चतुर्विध स्थूलशरीर एवं अनेक पोषणयोग्य भोग्य पदार्थों की सृष्टि होती है ।२४ चार प्रकार के स्थूलशरीर हैं - • जरायुज – गर्भाशय से उत्पन्न अर्थात् पिण्डज, यथा- मनुष्य, पशु प्रभृति । • अण्डज - अण्डों से उत्पन्न होने वाले, यथा- पक्षी, सर्प इत्यादि । • स्वेदज - धूप या पसीने से उत्पन्न होने वाले जीव, यथा- मच्छर, खटमल, जुएँ आदि । • उद्भिज्ज – धरती को फाड़ कर उत्पन्न होने वाले, यथा- पेड़, पौधे, लता आदि । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 सुरेश्वर मेहेर SAMBODHI इन चतुर्विध स्थूलशरीरों की समष्टि से आवृत चैतन्य को 'वैश्वानर' या 'विराट' एवं व्यष्टि से आवृत चैतन्य को 'विश्व' कहा जाता है । इस तरह कारणशरीर और सूक्ष्मशरीर मिलकर स्थूलशरीर की रचना करते हैं । यह जीव की जागरण अवस्था है जिसमें जीव विषयों का भोग करता है । स्थूलशरीर ही 'अन्नमय कोश' है ।२५ इस प्रकार कारणशरीर, सूक्ष्मशरीर एवं स्थूलशरीर की समष्टि-व्यष्टि से उपहित चैतन्य संपूर्ण स्थूल दृष्टि से क्रमशः ईश्वर, प्राज्ञ, सूत्रात्मा, तैजस एवं वैश्वानर, विश्व रूप में पृथक्-पृथक् प्रतीत होते हैं, किन्तु तत्त्विक दृष्टि से इनमें कोई भेद नहीं होता है ।२६ वर्णना की दृष्टि से भौतिक जगत् अथवा सृष्टि का कारण या स्रष्टा माया से उपहित शुद्ध चैतन्य ब्रह्म अर्थात् ईश्वर ही है । ईश्वर को जगत् का स्रष्टा के रूप में स्वीकार कर ही शंकराचार्य ने श्रुतिवाक्यों की सार्थकता सिद्ध की है। आलोचना अद्वैत-वेदान्त दर्शन द्वारा प्रस्तुत उपरोक्त ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि विषयक विवरणों पर वर्तमान एक आलोचनात्मक रीति से मूल्यांकन किया जा रहा है (१) अद्वैत-वेदान्त दर्शन जगत् का एकमात्र मूल कारण ब्रह्म को एकरस और कूटस्थ नित्य स्वीकार करता है। किन्तु मूल कारण को एकरस और कूटस्थ नित्य मानने पर प्रश्न उत्पन्न होता है कि इससे विविधतापूर्ण जगत् की सृष्टि कैसे हो सकती है ? क्योंकि कूटस्थ-नित्य कहना और उससे जगत् की सृष्टि मानना आत्मविरोधी है। जो कूटस्थ नित्य है वह तो वास्तव में कारण ही नहीं हो सकता। अद्वैत-वेदान्त इस समस्या का समाधान करने के लिए कथन करता है कि ब्रह्म वास्तव में अपरिवर्तित ही रहता है किन्तु वह विविध रूपों में प्रतीत होने लगता है। यह प्रतीति ऐसी है जैसे रस्सी में कभीकभी सर्प की प्रतीति होने लगती है। इस प्रतीति में रस्सी रस्सी ही रहती है, सर्प के रूप में परिवर्तित नहीं होती है, किन्तु वह सर्प के रूप में प्रतीत या आभासित होने लगती है ।२७ इसी प्रकार ब्रह्म में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं होता है, केवल वह जगत् के रूप में प्रतीत होने लगता है । किन्तु ऐसा मानने पर पुनः प्रश्न उठता है कि अन्ततः यह प्रतीति क्यों होती है ? इसका भी तो कोई कारण होना चाहिए। (२) अद्वैत-वेदान्त दर्शन के अनुसार ब्रह्म की शक्ति जो माया, अविद्या या अज्ञान नाम से अभिहित होती है, उस माया की आवरण और विक्षेप दोनों शक्तियों से उपहित होकर ब्रह्म अनेक रूपों में प्रतीत होने लगता है ।२८ किन्तु प्रश्न उठता है कि माया क्या ब्रह्म से कोई पृथक् सत्ता है या ब्रह्म से अपृथक् है ? वह ब्रह्म से अभिन्न है तो ब्रह्म को एकरस मानना संभव नहीं है । अद्वैत-वेदान्त माया को ब्रह्म से पृथक् न मानकर ब्रह्म की ही एक शक्ति के रूप में स्वीकार करता है ।२९ किन्तु शक्ति को शक्तिमान् से पृथक् नहीं माना जा सकता, जैसे उष्णता को अग्नि से पृथक् नहीं माना जा सकता । अत: प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि माया ब्रह्म की शक्ति होकर ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को तिरोहित करती है, तो इसका अर्थ यह होगा कि ब्रह्म अपने-आप में कूटस्थ नित्य नहीं है । भिन्नता की प्रतीति कहीं और से नहीं आती है, बल्कि स्वयं ब्रह्म से आती है। इसका अर्थ है कि ब्रह्म में किसी न किसी प्रकार Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना 99 का परिवर्तन अवश्य होता ही है। ब्रह्म का अपनी ही शक्ति से आवृत्त हो जाना भी एक प्रकार का परिवर्तन ही है। (३) पुनश्च यह भी प्रश्न उठता है कि यह प्रतीति किसको होती है ? जीव तात्त्विक दृष्टि से ब्रह्म से पृथक् सत्ता तो है नहीं, अतः जीव को प्रतीति होने का तात्पर्य है ब्रह्म की ही प्रतीति होना । इससे ब्रह्म की शुद्धता समाप्त हो जाती है । यह कहना पर्याप्त नहीं है कि यह वास्तविक नहीं है । जो वास्तविक नहीं है, वह भी कुछ तो है ही । अद्वैत-वेदान्त व्यावहारिक सत्ता के रूप में जगत् के अस्तित्व को स्वीकार करता है । एक अवास्तविक सत्ता ही सही, जगत् की स्थिति ब्रह्म की एकता पर, अखण्डता पर और शुद्धता पर प्रश्न-चिह्न लगा देती है। (४) अद्वैत-वेदान्त दर्शन ब्रह्म में जगत् की प्रतीति उत्पन्न करने वाली शक्ति 'माया' को न सत्, न असत्, अपितु इन दोनों से भिन्न अनिर्वचनीय स्वीकार करता है ।३० किन्तु माया को अनिर्वचनीय कहने से समस्या का समाधान नहीं हो जाता तथा यह विवेकसंगत भी नहीं है । वास्तव में इस संसार में ऐसी कोई भी वस्तु या शक्ति नहीं है जो सत्-असत् से भिन्न अनिर्वचनीय हो । कोई भी वस्तु या तो सत् होगी या तो असत् । अतः इससे केवल यही व्यक्त होता है कि शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित 'माया' रूपी अवधारणा मनुष्य की बुद्धि से परे है। किसी भी विषय के बारे में सटीक रीति से न जान पाना ही 'अनिर्वचनीयता' को द्योतित करता है । (५) अद्वैत-वेदान्त के अनुसार सृष्टि का निमित्त-उपादान कारण ब्रह्म शुद्ध चैतन्य है ।३९ आधुनिक विज्ञान के अनुसार तो जगत् का उपादान कारण उप-परमाणु कण हैं, न कि कोई चैतन्य वस्तु । शंकर ने मकड़ी का उदाहरण देकर जो सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वह वास्तव में त्रुटियुक्त है। मकड़ी के शरीर के अन्दर स्थित पदार्थ (खाद्य सामग्री के रूप में मकड़ी द्वारा संग्रहीत कीड़े-मकोड़े आदि का अवशेष) से ही जाले का निर्माण होता है२२, न कि स्वतः मकड़ी बिना किसी कारण के जाला रूपी कार्य का निर्माण कर पायेगी। कार्य सदा अनभिव्यक्त रूप में कारण में अवस्थान करता है। यदि सृष्टि के निमित्त कारण या कर्ता के रूप में ब्रह्म को माना जाता है तब यह शंका आविर्भत होती है कि ब्रह्म का कारण कौन है ? क्योंकि कार्य-कारण सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है, तो उस कारण का भी कोई कारण अवश्य होना चाहिये, अन्यथा विवेकसंगत बात प्रकटित नहीं हो सकती। पुनश्च यदि ईश्वर ने किस उपकरण या साधन के माध्यम से जगत् का निर्माण किया? क्या ईश्वर ने जगत् में विद्यमान प्रत्येक अणु-परमाणु, सूर्य-चन्द्र-आकाशगंगाएँ आदि सूक्ष्म-स्थूल पदार्थों का भी निर्माण किया है ? ब्रह्म या ईश्वर साकार है या निराकार ? (६) यदि ईश्वर निराकार है तो वह बिना किसी भौतिक उपकरण के द्रव्य पर क्रिया कैसे करता है? यदि उसकी इच्छा, संकल्प और विचारों की क्रिया द्रव्य पर अति सूक्ष्म रूप में होती है, तो यह स्पष्ट करना होगा कि इन्द्रियातीत३३ भौतिक और असाधारण पर क्रिया कैसे करता है। इसलिए तर्कसंगत स्पष्टीकरण के अभाव में यह मान लेना गलत होगा कि निराकार ईश्वर इस भौतिक विश्व का रचयिता स्थूल अर्थ में है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 सुरेश्वर मेहेर SAMBODHI (७) इसके अतिरिक्त यदि ईश्वर साकार है तो वह पूर्व कर्मों अर्थात् अदृष्ट के अधीन होगा क्योंकि किसी को उसके पूर्व कर्मों तथा उनके प्रभावों के आधार पर शरीर प्राप्त होता है । पुनः यदि ईश्वर देहधारी है तो उसके जनक-जननी होंगे। ऐसे मान लें तो ईश्वर को प्रथम कारण नहीं माना जा सकता । इसके अतिरिक्त यदि ईश्वर का शरीर है तो वह किन पदार्थों से बना है ? यदि वह द्रव्य से बना है तो क्या इसका यह अर्थ होगा कि 'द्रव्य' जगत् की रचना से पूर्व विद्यमान था और ईश्वर ने अपने शरीर का निर्माण किया ? उस विषय में यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि ईश्वर ने अपने शरीर का निर्माण बिना किसी भौतिक उपकरण के और बिना किसी उपकरण के कैसे किया ? इसके अलावा यदि ईश्वर का शरीर शाश्वत है तो वह द्रव्य से भिन्न किस पदार्थ से बना है ? यदि ईश्वर का शरीर शाश्वत नहीं है तो किन घटनाओं के कारण उसने अपनी मर्त्य देह का त्याग किया ? इस प्रकार असमाधेय प्रश्नों का अनन्त प्रतिगमन उपस्थित हो जायेगा । (८) पुनश्च मूल कारण को शुद्ध चेतन मानने पर यह समस्या सामने आती है कि चेतन से अचेतन जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई ? आदि शंकराचार्य ने इस प्रश्न का उत्तर यह कह कर दिया है कि कारण और कार्य में कुछ अन्तर अवश्य होता है । यदि कारण और कार्य में पूर्ण समानता स्वीकार की जायेगी तो कार्य-कारण सम्बन्ध ही समाप्त हो जायेगा ।३४ चेतन से अचेतन की उत्पत्ति तथा अचेतन से चेतन की उत्पत्ति के उदाहरण के रूप में आचार्य शंकर ने चेतन मनुष्य से अचेतन केश, लोम तथा नख आदि की उत्पत्ति तथा अचेतन गोबर से चेतन बिच्छू आदि की उत्पत्ति की बात प्रदर्शित की है ।३५ (९) किन्तु उपर्युक्त प्रकार से विवेचन करने पर यह स्पष्टतः शंका उठाई जा सकती है कि अचेतन केश तथा नखों की उत्पत्ति मनुष्य के अचेतन शरीर से होती है और अचेतन गोबर से बिच्छू के अचेतन शरीर की उत्पत्ति होती है । पुनश्च वर्तमान आधुनिक जीवविज्ञान के जीवजनन सिद्धान्त ने भी प्रमाणित कर दिया है कि गोबर में पहले से ही कीटाणु विद्यमान होते हैं जिसके कारण उससे बिच्छू आदि कीड़ों की उत्पत्ति होती है, अन्यथा कदापि नहीं हो सकती । अतः यह उदाहरण चेतन से अचेतन या अचेतन से चेतन की उत्पत्ति के नहीं हो सकते हैं । किन्तु शंकर के कथनानुसार फिर भी अचेतन कारण चेतन कार्य के रूप में परिणत हो जाता है, अत: कारण तथा कार्य में अन्तर तो होता ही है । इस प्रकार से अद्वैतवेदान्ती शंकराचार्य का उत्तर तर्कसम्मत प्रतीत नहीं होता है। उन्होंने जो भी उदाहरण या दृष्टान्त प्रस्तुत किये हैं वे व्यावहारिक सत्ता से हैं जहाँ पर स्वयं शंकर कार्य-कारण सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। कार्य-कारण सिद्धान्त के अनुसार कारण तथा कार्य में इतना अन्तर ही कि जो कारण में अनभिव्यक्त रहता है वह कार्य में अभिव्यक्त हो जाता है। किन्तु इस मत में यह कभी नहीं हो सकता कि कोई ऐसी वस्त उत्पन्न हो जाये जिसका कारण में किसी भी प्रकार का अस्तित्व ही न हो। आचार्य शंकर ने अपने दिये हुए उदाहरणों द्वारा कार्य-कारण सिद्धान्त के विरुद्ध जाने का जैसे प्रयत्न किया है । (१०) कार्य-कारण सिद्धान्त चेतन ब्रह्म से अचेतन जगत् की उत्पत्ति पर कदापि घटित नहीं हो सकता है क्योंकि ब्रह्म शुद्ध रूप से चेतन है, उसमें अचेतन तत्त्व अनभिव्यक्त रूप से भी नहीं है। अतः चेतन ब्रह्म से अचेतन जगत् की उत्पत्ति के लिए अद्वैत वेदान्त ने अचेतन जगत् को प्रतीति मात्र Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना 101 घोषित कर दिया है । अतः इस दर्शन के अनुसार जिस प्रकार विविधता केवल प्रतीति है, वास्तविकता नहीं है, उसी प्रकार अचेतनता भी केवल प्रतीति है, वास्तविकता नहीं । किन्तु ऐसा मानने पर पुनः अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा जो तर्कसंगत नहीं है । (११) पुनश्च माया से उपहित ब्रह्म से जो सृष्टि-क्रम का वर्णन किया गया है उसमें कहीं ऐसा प्रतीत नहीं होता कि यह एक मिथ्या प्रतीति का क्रम है, वह तो वास्तविक जैसा प्रतीत होता है। प्रतीतियों में इस प्रकार का कारण-कार्य क्रम होता भी नहीं कि एक वस्तु से दूसरी वस्तु, दूसरी से तीसरी वस्तु और तीसरी से चौथी आदि उत्पन्न होती चली जाये । किन्तु पंचीकरण प्रक्रिया के द्वारा आकाश से वायु, वायु से तेजस्, तेजस् से जल तथा जल से पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्त को किसी प्रकार युक्ति-संगत नहीं माना जा सकता । क्योंकि वर्तमान का आधुनिक विज्ञान इस बात की पुष्टि नहीं करता । भिन्न-भिन्न परमाणुओं के परस्पर मिश्रण से सूक्ष्म से स्थूल पदार्थों की रचना होना कुछ सीमा तक तर्कसंगत प्रतीत होता है । परन्तु पंचीकरण के आधार पर पंच महाभूतों का निर्माण होना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से पूर्णतया असिद्ध है। उपसंहार उपर्युक्त आलोचना से यह स्पष्टतः ज्ञात होता है कि यद्यपि अद्वैत-वेदान्त दर्शन भारतीय दार्शनिक संप्रदायों में स्वकीय स्वतन्त्र मौलिक विचारधारा के कारण एक उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित है, तथापि इस दर्शन के द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि सिद्धान्त वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक दृष्टिकोण से पूर्णतया संपुष्ट व स्वीकृत नहीं हो पा रहे हैं। समग्र संसार में एक ही ब्रह्मवाद को अवस्थापित करने के प्रयास में इस दर्शन द्वारा मायावाद रूपी एक अनोखी तथा अनसूझी विचार का आरोपण करना तथा उस माया के प्रभाव से समस्त जगत् की स्थिति का प्रकट होना - किसी भी वेदान्तज्ञाता अथवा मनुष्य के ज्ञान की परिधि से बहिर्भूत है । अन्यथा, विज्ञान द्वारा परीक्षित शाश्वत ऊर्जात्मक पदार्थ से निर्मित परिवर्तनशील परन्तु सत्य जगत् का आभास अथवा प्रतीति के रूप में ग्रहण करना स्वयं के अस्तित्व को भी जैसे धूलिसात् करना है। शंकराचार्य तथा उनके समर्थकों द्वारा प्रदर्शित अद्वैत-वेदान्त दर्शन की व्याख्या पद्धति त्रुटिपूर्ण प्रतीत होती है एवं यह दर्शन विषय-वस्तु का सम्यक् रीति से तार्किकतया प्रतिपादन करने में असमर्थ दृष्टिगोचर हो रहा है । अतः एक ज्ञानोपयोगी, सैद्धान्तिक तथ्य को वैज्ञानिक रीति से परिपुष्ट कर व्यवहारात्मक तथा प्रायोगिक धरातल पर पहुँचा देना ही वास्तव में दर्शन की सार्थक दर्शनता है। सन्दर्भ सूची १. ब्र.सू. शा.भा. १.१.२ २. यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति... तद् ब्रह्म । तैत्ति. उप. ३.१ ३. ब्र.सू. शा.भा. ४.३.१४ ४. वाङ्मनसातीततत्त्वमपि ब्रह्मणो नाभावाभिप्रायेणाभिधीयते । ब्र.सू. शा.भा. ३.२.२२ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 सुरेश्वर मेहेर SAMBODHI ५. कार्यमाकाशादिकं बहुप्रपञ्चं जगत्, कारणं परं ब्रह्म । वही. २.१.१२ ६. वे.सा. ११ ७. ब्र.सू. शा.भा. १.४.३ ८. तैत्ति. उप. २.६.४ ९. ब्र.सू. शा.भा. २.१.३३ १०. वही. २.१.३४ ११. वही १२. अज्ञानं तु सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानैरोधि भावरूपं यत्किञ्चिदिति वदन्त्यहमज्ञ इत्याद्यनुभवात् “देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्" इत्यादिश्रुतेश्च ? वे.सा. ६ १३. अविद्यात्मिका हि बीजशक्तिः । ब्र.सू. शा.भा. १.४.३ १४. गौड.का. १.१६ १५. वे.सा. ४ १६. ब्र.सू. शा.भा. २.१२.१९ १७. वही. १८. वे.प. पृष्ठ ५० १९. अतत्त्वतोऽन्यथाप्रथा विवर्त इत्युदीरितः । वे.सा. २१ २०. वे.सा. ७-८ २१. सात्त्विकै/न्द्रियैः साकं विमर्शात्मा मनोमयः । तैरेव साकं विज्ञानमयो धीनिश्चयात्मिका ? पञ्च. १.३५ २२. वे.सा. १४ २३. वही. १५ २४. वही. १६ २५. वही. २६. वही. १८ २७. वही. ६ २८. वही. १० २९. ब्र.सू. शा.भा. १.४.३ ३०. वे.सा. ६ ३१. वही. ११ ३२. ब्र.सू. शा.भा. २.१.२५ ३३. वाङ्मनसातीततत्त्वमपि ब्रह्मणो नाभावाभिप्रायेणाभिधीयते । ब्र.सू. शा.भा. ३.२.२२ ३४. अत्यन्त-सारूप्ये च प्रकृति-विकार-भाव एव प्रलीयते । वही. २.१.६ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना 103 ३५. ब्र.सू. शा.भा. २.१.६ ३६. मुण्ड.उप. शा.भा. १.१.७ ग्रंथ सूची १. ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य-रत्नप्रभा, भाषानुवाद सहित, भाग १-४, भोलेबाबा, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, २००४ २. वेदान्तसार, सदानन्द योगीन्द्र, अनु. सत्यनारायण श्रीवास्तव, सुदर्शन प्रकाशन, इलाहाबाद, २०००, पुनर्मुद्रण ३. ईशादि नौ उपनिषद्, गीता प्रेस, गोरखपुर, २०००, पुनर्मुद्रण ४. माण्डूक्यकारिका (गौड़पादकारिका), भाष्यसहित, गीता प्रेस, गोरखपुर, २००४, पुनर्मुद्रण ५. पञ्चदशी, विद्यारण्य स्वामी, गीता प्रेस, गोरखपुर, २००८, पुनर्मुद्रण ६. वेदान्तपरिभाषा, धर्मराजाध्वरीन्द्र, 'प्रकाश' हिन्दी व्याख्या, गजानन शास्त्री मुसलगांवकर, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, २०००, पुनर्मुद्रण ७. सर्वदर्शनसंग्रह, माधवाचार्य, संपा. उमाशंकर शर्मा 'ऋषि', चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, १९९८ ८. अविनाशी विश्व-नाटक, भाग-२, ब्रह्माकुमार जगदीश चन्द्र हसीजा, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय, आबू पर्वत, राजस्थान ९. जीवविज्ञान, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी), दिल्ली, २०११, पुनर्मुद्रण १०. भारतीय दर्शन : आलोचना और अनुशीलन, चन्द्रधर शर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, २००४, पुनर्मुद्रण ११. भारतीय दर्शन की चिन्तनधारा, राममूर्ति शर्मा, चौखम्भा ओरियन्टालिया, दिल्ली, २००८ १२. भारतीय दर्शन की प्रमुख समस्याएँ, महेश भारतीय, इण्डो-विजन प्राइवेट लिमिटेड, गाजियाबाद, १९९६, प्रथम संस्करण १३. भारतीय दर्शन में जगत् (एक वैज्ञानिक दृष्टि), सच्चिदानन्द पाठक, सुलभ प्रकाशन, लखनऊ, १९८५, प्रथम संस्करण 88. Māyā in Physics, N.C. Panda, Motilal Banarsidass Publishers Private Ltd, Delhi, 1991, 1st edition १५. Microbiology - A human perspective, Eugene W. Nester and others, McGraw Hill, New York, 3rd edition Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य दर्शनों के ज्ञान की आवश्यकता वीरसागर जैन तत्त्वज्ञान की निर्मलता या स्पष्टता के लिए अन्य दर्शनों का भी थोडा-बहुत ज्ञान अवश्य होना चाहिए, किन्तु आजकल अधिकांश लोग इस ओर ध्यान नहीं देते, वे अन्य दर्शनों का ज्ञान नहीं रखते। वे मात्र ‘अपना' ही एक दर्शन पढ़ते हैं और अन्य दर्शनों के ज्ञान का प्रयास भी नहीं करते । यहाँ तक कि कुछ लोग तो अन्य दर्शनों के ज्ञान को अनावश्यक, अनुपयोगी या समय की बर्बादी भी बताते हैं, जो कि एक बड़ी भयावह स्थिति है। प्राचीन काल में ऐसा नहीं होता था, सभी लोग सभी दर्शनों का ज्ञान रखते थे। वे जानते थे कि सभी दर्शन एक-दूसरे के ज्ञान में सहायक हैं, अन्य दर्शनों को समझे बिना किसी एक दर्शन का भी यथार्थ ज्ञान नहीं होता। दरअसल, प्रत्येक शास्त्र में पूर्व पक्ष के साथ ही उत्तर पक्ष को समझाया जाता है, पूर्व पक्ष में अन्य दर्शनों की मान्यताएं रखी जाती हैं और फिर उत्तर पक्ष में उनका निराकरण करके अपना दर्शन स्थापित किया जाता है, किन्तु यदि हम पूर्व पक्ष को ही ठीक से नहीं समझे होंगे तो उत्तर पक्ष को कैसे समझेंगे ? पूर्व पक्ष के बिना उत्तर पक्ष समझ में नहीं आ सकता । जिसे पूर्व पक्ष जितना अच्छा समझ में आएगा, उसे उत्तर पक्ष भी उतना ही अच्छा समझ में आएगा। लक्षण-निर्माण के समय भी आचार्यगण अन्यमत-निराकरण की दृष्टि से संक्षेप में सूत्ररचना करते हैं, जिसे अन्य मतों का ज्ञाता व्यक्ति ही ठीक से समझ-समझा सकता है । जैसे - 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' - परीक्षामुखसूत्र १/१ प्रमाण के इस लक्षण में एक-एक पद के द्वारा एक-एक दर्शन की मान्यता का निराकरण किया गया है। यथा - स्व' पद अस्वसंवेदनवादी सांख्य. परोक्षज्ञानवादी मीमांसक और ज्ञानान्तरप्रत्यक्षवादी योग के निराकरण हेतु है । 'अपूर्व' पद धारावाहिक ज्ञानवादियों के निराकरण हेतु है । 'अर्थ' पद बाह्य अर्थ को न मानने वाले विज्ञानाद्वैतवादी, पुरुषाद्वैतवादी, शून्याद्वैतवादी के निराकरण हेतु है । 'व्यवसायात्मक' पद निर्विकल्पज्ञान वादी बौद्धों के निराकरण हेतु है । 'ज्ञान' पद अज्ञानरूप सन्निकर्ष आदि को प्रमाण माननेवाले नैयायिकों के निराकरण हेतु है । (-प्रमेयरत्नमाला, पृष्ठ १४ ) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 अन्य दर्शनों के ज्ञान की आवश्यकता 105 इसी प्रकार सिद्ध जीवों का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए आचार्य नेमिचंद्र गोम्मटसार में लिखते हैं कि - 'अट्ठविह कम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा ।। अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥' - गाथा ६८ अर्थ – सिद्ध अष्टविध क्रमों से रहित, शान्त, निरंजन, नित्य, अष्टगुण सहित, लोकाग्रनिवासी होते हैं। इसमें भी एक-एक पद के द्वारा एक-एक दर्शन की मान्यता का निराकरण किया गया है, जैसा कि आचार्य नेमिचंद्र ने स्वयं ही अगली गाथा में लिखा है - 'सदसिव संखो मक्कडि बुद्धो णइयाइयो य वैसेसी । ईसरमंडलिदंसण-विदूसणटुंकदं एदे ॥' - गाथा ६९ अर्थ – उक्त सभी विशेषण क्रमशः सदाशिव, सांख्य, मक्कड़ी, बुद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, ईश्वरवादी और मांडलिक दर्शन के निराकरणार्थ किये गये हैं। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए टीकाकारों ने जो कुछ लिखा है उसे अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना कथमपि नहीं समझा जा सकता । यथा - 'अट्ठविहकम्मवियला' पद से याज्ञिक और सदाशिव मत का निराकरण किया गया है । 'सीदीभूदा' पद से सांख्य मत का निराकरण किया गया है। 'णिरंजणा' पद से मस्करी मत का निराकरण किया गया है । 'णिच्चा' पद से बौद्ध मत का निराकरण किया गया है । 'अट्ठगुणा' पद से नैयायिक –वैशेषिक मत का निराकरण किया गया है । 'किदकिच्चा' पद से ईश्वरसृष्टिकर्तृत्ववादी मत का निराकरण किया गया है । 'लोयग्गणिवासिणो' पद से मांडलिक मत का निराकरण किया गया है । (-संस्कृतटीका का सार ) इसी प्रकार अन्य भी सब समझना चाहिए । शास्त्रों के प्रत्येक कथन में कथ्य से अधिक निराकृत्य समाया होता है । उस निराकृत्य को समझे बिना कथ्य का ज्ञान-आनन्द प्राप्त नहीं होता । जैसे कि जीव का स्वरूप समझाते हुए द्रव्यसंग्रह आदि शास्त्रों में जीव के नौ अधिकारों का उल्लेख किया गया है जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्डगदी ॥ - आचार्य नेमिचंद्र, द्रव्यसंग्रह, गाथा २ अर्थ - जीव के नौ अधिकार हैं - जीवत्व, उपयोगमयत्व, अमूर्तिकत्व, कर्तृत्व, स्वदेहपरिमाणत्व, भोक्तृत्व, संसारित्व, सिद्धत्व, ऊर्ध्वगमनत्व । यहाँ भी एक-एक विशेषण के द्वारा एक-एक दर्शन का निराकरण किया गया है। यथा – 'जीवो' पद से चार्वाक मत का निराकरण किया गया है । 'उवओगमओ' पद से नैयायिक मत का निराकरण किया गया है । 'अमुत्ति' पद से भट्ट चार्वाक मत का निराकरण किया गया है । 'कत्ता' पद से सांख्य Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 वीरसागर जैन मत का निराकरण किया गया है। 'सदेहपरिमाण' पद से नैयायिक, मीमांसक एवं सांख्य मत का निराकरण किया गया है । 'भोत्ता' पद से बौद्ध मत का निराकरण किया गया है । 'संसारित्व' पद से सदाशिव मत का निराकरण किया गया है। 'सिद्धत्व' पद से भट्ट एवं चार्वाक मत का निराकरण किया गया है। 'ऊर्ध्वगमनत्व' पद से मांडलिक मत का निराकरण किया गया है । (बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा २ की टीका) कहने की आवश्यकता नहीं है कि जो व्यक्ति अन्य दर्शनों से परिचित नहीं होगा, वह इन्हें कथमपि नहीं समझ सकता । इसी प्रकार के और भी असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं, पर सबका अभिप्राय यही है कि अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना शास्त्रों के कथनों को ठीक से नहीं समझा जा सकता। मेरा स्वयं का भी अनुभव है कि मैंने जब से अन्य दर्शनों का कुछ ज्ञान प्राप्त किया है, तब से मुझे जैन दर्शन के कथनों का ज्ञान अधिक स्पष्ट होने लगा है, अतः आप भी अन्य दर्शनों का थोडा बहुत ज्ञान अवश्य प्राप्त करें । कुछ लोग कहते हैं कि हमें तो अध्यात्म का ज्ञान करना है, अतः हमें अन्य दर्शनों के ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है, किन्तु ऐसी बात बिलकुल नहीं है । आध्यात्मिक ग्रंथों को समझने के लिए भी अन्य दर्शनों का ज्ञान बहुत आवश्यक है । 'समयसार' जैसे आध्यात्मिक ग्रन्थ में भी स्थान-स्थान पर अन्य दर्शनों का बहुत उल्लेख हुआ है, जिसे अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना कथमपि नही समझा जा सकता है । यथा SAMBODHI (क) गाथा ११७,१२२, ३४० में स्पष्ट नाम लेकर सांख्यदर्शन का उल्लेख है - पसज्जदे संखसमओ. इत्यादि । ईश्वर सृष्टि कर्तृत्ववादी दर्शन का निराकरण है । (ख) गाथा ३२१,३२२ (ग) गाथा ३४७ में बौद्ध दर्शन का निराकरण है । (घ) एक अन्य गाथा में द्विक्रियावादी दर्शन का निराकरण है । समयसार के हिंदी - वचनिकाकार पं. जयचंदजी छाबड़ा ने ऐसे स्थलों को अपने भावार्थों में अन्य दर्शनों की अपेक्षाएं स्पष्ट करके विस्तार से लिखा है (देखिए समयसारकलश १३१, १८३ का भावार्थ ) । जरा सोचिए, यदि वे अन्य दर्शनों के ज्ञाता न होते तो बात को कैसे स्पष्ट करते ? अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना हम “नम: समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावा भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ||" जैसे आध्यात्मिक श्लोक को भी ठीक से नहीं समझ सकते, क्योंकि इसमें भी अन्य मतों की विवक्षा से ही कथन है । ( - देखिए समयसारकलश १ का भावार्थ ) । बहुत क्या कहें, एक णमोकार मन्त्र को भी अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना ठीक से नहीं समझा जा सकता । द्रव्यसंग्रह के आध्यात्मिक टीकाकार ब्रह्मदेवसूरि ने तो प्रत्येक गाथा का शब्दार्थ, नयार्थ, आगमार्थ और भावार्थ के साथ मतार्थ भी समझना आवश्यक बताया है । यथा "एवं शब्दनयमतागमभावार्थो यथासम्भवं व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यः । " ( गाथा २ ) - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 अन्य दर्शनों के ज्ञान की आवश्यकता 107 इससे अन्य दर्शनों के ज्ञान की महती आवश्यकता सिद्ध होती है । ब्रह्मदेवसूरि ने अपने परमात्मप्रकाश आदि सभी टीकाग्रन्थों में स्थान-स्थान पर अन्यमत-विवक्षा को स्पष्ट किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि न्याय, दर्शन, सिद्धांत विषयक ग्रन्थों के लिए ही नहीं, अध्यात्मविषयक ग्रन्थों के परिज्ञान हेतु भी अन्य दर्शनों का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है । जरा विचार कीजिए कि यदि अन्य दर्शनों का ज्ञान अत्यंत आवश्यक नहीं होता तो जैन आचार्यों ने प्रथमानुयोग के कथा-ग्रन्थों, पुराणों, श्रावकाचारों और पूजापाठ तक के प्राथमिक ग्रन्थों में भी षड्दर्शनों का परिचय क्यों दिया है । यथा - १. महापुराण, सर्ग ३ से ५ में विस्तार से षड्दर्शनों का परिचय दिया गया है। २. यशस्तिलकचम्पू, षष्ठ आश्वास में भी विस्तार से षड्दर्शनों का परिचय दिया गया है । ३. भद्रबाहुकथा में रइधू कवि लिखते हैं कि गोवर्धनाचार्य ने भद्रबाहु को सर्वप्रथम षड्दर्शनों का ___ ज्ञान कराया । (पृष्ठ ७ ) ४. मोक्षमार्गप्रकाशक में पं. टोडरमलजी ने एक पूरा पांचवां अधिकार अन्यमत-समीक्षा का लिखा। ५. हरिभद्रसूरि ने तो स्वतंत्र रूप से ही एक 'षड्दर्शनसमुच्चय' नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है । ६. सिद्धचक्र-विधान में भी कविवर पं. सन्तलाल जी ने अनेक स्थानों पर विविध दर्शनों का उल्लेख किया है । देखें पृष्ठ १४४, २४८, २५१ आदि । ७. इन सबसे भी यह भलीभांति सिद्ध होता है कि समीचीन शास्त्रज्ञान के लिए अन्य दर्शनों का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है । पुनश्च, यदि आप शास्त्रों के वक्ता, व्याख्याता या अध्यापक हैं, तब तो आपके लिए अन्य दर्शनों का ज्ञान होना बहुत ही आवश्यक है । आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। जैसा कि निम्नलिखित प्रमाणों से स्पष्ट होता है(क) 'ससमयपरसमयविदण्हू' - आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्यभक्ति अर्थ – आचार्य स्वसमय और परसमय के ज्ञाता होते हैं । (ख) 'तात्कालिकस्वसमयपरसमयपारगो' - धवला १/१/४८ ____ अर्थ – तात्कालिक (अपने समय के) सभी स्वसमय और परसमय का पारगामी होना चाहिए। (ग) 'सर्वेषां दर्शनानां मनसि परिगतज्ञानवेत्ता भवेद्धि । वक्ता शास्त्रस्य धीमान् ................॥' - आचार्य सोमसेन,१/२० अर्थ – शास्त्रों के धीमान् वक्ता को सर्व दर्शनों का विशेष ज्ञाता होना चाहिए । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 वीरसागर जैन SAMBODHI अन्त में, जिसप्रकार यहाँ अन्य दर्शनों के ज्ञान की आवश्यकता प्रतिपादित की, उसीप्रकार व्याकरण, भाषा, साहित्य, न्याय आदि अन्य शास्त्रों के ज्ञान की आवश्यकता भी समझ लेनी चाहिए। विशेष रूप से वक्ता को तो सर्व शास्त्रों का ज्ञान होना ही चाहिए, जैसा कि 'प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः' (आत्मानुशासन), 'सर्वशास्त्रकलाभिज्ञो' (इन्द्रनंदी) आदि वाक्यों द्वारा पूर्वाचार्यों ने भी स्पष्ट कहा है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिङ्गपुराण का योगदर्शन सत्यव्रत वर्मा पंचलक्षण से सम्बन्धित सामग्री से अतिरिक्त प्राय सभी पुराणों में कुछ ऐसे विषयों का भी निरूपण हुआ है, जो पुराण की मूल प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं । इस पुराणेतर सामग्री को पुराणों में समाविष्ट करने के अन्य कुछ भी कारण रहे हों, ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों के सम्पादकों, संशोधकों ने उनकी लोकप्रियता और स्वीकार्यता को देखते हुए, उनमें धर्म, नीति, समाज-व्यवस्था, साहित्य, कलाशिल्प आदि से सम्बन्धित ऐसी सामग्री भर दी है, जिसे वे जन-जन तक पहुचाने को लालायित थे । भागवत, मत्स्य, पद्म, गरुड, विष्णुधर्मोत्तर आदि में इस प्रकार की विषय-वस्तु प्रचुरता से समाहित है। अग्निपुराण में यह समावेशी प्रक्रिया पराकाष्ठा को पहुँच गयी है। उसमें ज्ञान-विज्ञान की विविध विधाओं तथा अन्य विधाओं का इस विस्तार से प्रतिपादन किया गया है कि वह पुराण की अपेक्षा एक विश्वकोष बन गया है । लिङ्गपुराण' में भी पुराणेतर सामग्री को उदारता से ग्रहण किया गया है, जो इसकी परम्परा से प्रतिबद्धता तथा लोकप्रियता का परिचायक है । वर्णाश्रम धर्म, प्रायश्चित्त, दण्डविधान, शौचाशौच, कालगणना, देवार्चनविधि आदि से अतिरिक्त कतिपद्य दार्शनिक सिद्धान्त भी उसके बृहत् क्लेवर में अनुस्यूत हैं । शैव पुराण होने के नाते उसकी चिन्तन धारा में महेश्वर परब्रह्म, पुरातन पुरुष, परमेश्वर, परमज्योति, सर्वदेवमय, वस्तुतः सर्वस्व हैं । समूचा विश्व लिङ्ग का स्वरूप है और सभी कुछ उसमें समाहित है। लिङ्गपुराण का सृष्टि-उत्पत्ति का विवरण बहुधा सांख्य सा अनुगामी है। सांख्य के समानधर्मा योग का निरूपण लिङ्गपुराण का यह योगशास्त्र निश्चय ही परम्परा तथा प्राचीन ग्रन्थों से प्रेरित है। कूर्म पुराण में उपलब्ध योगदर्शन के विवरण के साथ उसका साम्य अकारण नहीं हो सकता । परम्परा का अनुगामी होने पर भी लिङ्गपुराण के विवरण में कुछ नवीनता एवं भिन्नता है, जिसका परीक्षण-मूल्यांकन निस्सन्देह उपयोगी होगा । लिङ्गपुराण में योग का निरूपण उसके प्रयोजन/उद्देश्य के कथन से आरम्भ होता है । उसके अनुसार योग साधना का चरम उद्देश्य परमार्थ तत्त्व के ज्ञान की प्राप्ति है, जो चित्त की एकाग्रता से ही सम्भव है। पुराण की शैव विचारधारा के अनुसार चित्त की वह एकाग्रता भगवान् शिव के अनुग्रह से आती है । उस अनुग्रह का स्वरूप इतना दुर्बोध है कि ब्रह्मा आदि देवता भी उसे नहीं जान सकते । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 सत्यव्रत वर्मा SAMBODHI वह स्वयं संवेद्य है। योग के अनुष्ठान से ही उसका बोध हो सकता है। योग-साधना की परिणति निर्वाणप्राप्ति में होती है, जिसे पुराण की शब्दावली में 'माहेश्वर पद' कहा गया है। भगवान् रुद्र का ज्ञान निर्वाणप्राप्ति का साधन है, और वह उन्हीं की कृपा से प्राप्त होता है । जो साधक इन्द्रियों को जीत कर रुद्रज्ञान की ज्वाला से पापों को भस्म कर देता है, उसे योग की सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है (१-८.३-६)। __ लिङ्गपुराण की योग की परिभाषा - योगो निरोधो वृत्तेषु चित्तएय है (१.८.७) – पतंजलि के प्रसिद्ध लक्षण 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' है (१.२) की प्रतिच्छाया मात्रा है। नित उभरती चित्तवृत्तियों के विवेकपूर्ण निरोध की नींव पर ही योग का समूचा दुर्ग अवस्थित है। कूर्मपुराण के लेखक ने योग के प्राचीन लक्षण को नयी भंगिमा देने की चेष्टा की है। उसके अनुसार योग की सिद्धि तभी होती है जब चित्त में उठने वाली समस्त वृत्तियों को रोक कर उन्हें सर्वात्मना परमात्मा में केन्द्रित कर दिया जाता है : मय्येकचित्रता योगो वृत्त्यन्तरनिरोधतः (२.११.१२) । यह प्रकारान्तर से योग में भक्ति का समावेश है, यद्यपि इसके संकेत ईश्वर प्रणिधानाद्वा' (१.२३), तज्जपस्तदर्थभावनम् (१.२८) आदि सूत्रों के द्वारा योगदर्शन में भी मिलते हैं । शिव प्रणोधान नामक नियम की व्याख्या में लिङ्गपुराण के कर्ता ने भी योग में भक्ति का पुट देने का प्रयास किया है : शिवज्ञान गुरोर्भक्तिरचला (१.८.४१) । योग में भक्ति का यह समावेश लिङ्गपुराण की प्रकृति के सर्वथा अनुकूल है । योग के आठ प्रसिद्ध अंगों का लिङ्गपुराण में रोचक तथा सारपूर्ण विश्लेषण हुआ है, जो कई दृष्टियों से उपयोगी तथा विचारणीय है । पुराणकार के अनुसार अष्टांग योग ‘सिद्धि' का द्वार है : साधनान्यष्टधा चास्य कयितानीह सिद्धये (१-८.७) । यह 'सिद्धि' सम्भवत: 'विवेकख्याति' से भिन्न नहीं है, जो योग का साध्य है : योहाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः (२-२८)। योग के आठ अंगों का यथाविधि अभ्यास करने से चित्त के अविद्या आदि दोषों का क्षय होता जाता है और तदनुसार आत्मज्ञान की ज्योति उत्तरोत्तर प्रकाशित होती जाती है । आत्मज्ञान का प्रकर्ष होने पर साधक को प्रकृति-पुरुष के भेद का साक्षात् ज्ञान हो जाता है, जिसे योगदर्शन की शब्दावली में 'विवेकख्याति' कहते हैं । लिङ्गपुराण के अष्टांग योग के निरूपण की विशेषता यह है कि उसमें यम-नियम के भेदों की यथोचित व्याख्या की गयी है। जो काम पतंजलि के भाष्यकारों ने किया है. पराणकार ने स्वयं उसे करके इन उज्जवल भावों को और विशदता प्रदान की है। पुराणकार के अनुसार 'तप में प्रवृत्तितया विषयभोगों से निवृत्ति का नाम यम है : तपस्युपरमश्चैव यम इत्यभिधीयते (१.८.१०) । विषयों से निवत्ति का यह भाव यम् धातु (यमि उपरमे) में ही निहित है, जिससे यम शब्द की निष्पत्ति हुई है। अहिंसा को यम का प्रथम हेतु कहकर (१.८.१०) लिङ्गपुराण के रचयिता ने बहुत सहजता से अहिंसा के सर्वातिशायी गौरव को रेखांकित किया है। जहाँ प्रायः सर्वत्र मन, वचन, कर्म से सर्वविध हिंसा के त्याग के द्वारा अहिंसा के स्वरूप की निषेधात्मक व्याख्या की गयी है, वहाँ लिङ्गपुराण में अहिंसा के उदात्त भाव की अतीव व्यापक तथा सकारात्मक परिभाषा देखने को मिलती है। पुराण की शब्दावली में प्राणिमात्र को आत्मवत् - अपने अभिन्न – मानकर उनके कल्याण के लिये सतत प्रयत्नशील रहना अहिंसा है। इसी अहिंसा से आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 लिङ्गपुराण का योगदर्शन आत्मवत्सर्वभूतानां हितायैव प्रवर्तनम् । अहिंसैव समाख्याता या चात्मज्ञान सिद्धिदा ॥ १-८.१२ 111 यद्यपि लोक मंगल की उदात्त भावना में सर्वविध हिंसा का अभाव स्वतः अन्तर्निहित है, उसे स्थूल शब्दों में न कहकर प्रकारान्तर से व्यक्त करने से अहिंसा की धारणा को अपूर्व गौरव मिला है । अहिंसा को 'परम धर्म तथा सुख का अक्षय स्रोत मानना उसके गौरव की सच्ची स्वीकृति है । अग्निपुराण ने हिंसा के दस भेद बताकर प्रकारान्तर से अहिंसा की व्यापकता का संकेत किया है । (३७२ / ५-६) । अहिंसा को इस उच्च भावभूमि में प्रतिष्ठित कर शास्त्रविहित हिंसा को अहिंसा मानना वदतोव्याघात से कम नहीं है : विधिना तादृशी हिंसा सा त्वहिंसा इति स्मृता (१.८.२० ) । स्पष्टतः परम्परा की जकड़ से बचना सरल नहीं है । लिङ्गपुराण में सत्य के परम्परागत स्वरूप को ग्रहण किया गया है, जिसका आधार मन, वचन और कर्म का तादात्म्य है । 'मनस्यन्त् वचस्यन्यत्' की तथाकथित व्यावहारिकता हेय है । जैसा देखा, सुना, अनुमित तथा अनुभूत किया, उसे यथावत्, ननु नच के बिना प्रकट करना, सत्य है । सत्य को लोकहित से जोड़कर पुराणकार ने उसे बृहद् आयाम दिया है ।" उसके अनुसार वास्तविक सत्य वही है जो लोक के लिये हानिकारक अथवा पीडादायक न हो ( परपीडावर्जितम्) । जो किसी के लिये अहितकारी हो, वह सत्य यथार्थ होता हुआ भी सत्य नहीं है । इस दृष्टि से किसी के दोषों का कथन भी, उसके लिये पीडादायक होने के कारण उचित नहीं है : परदोषान् परिज्ञाय न वदेदितिचापरम् (१.८.१४) । अग्निपुराण के 'सत्य' के निरूपण में भी 'भूतहित' की भावना प्रमुख है : यद् भूतहितमत्यन्तं वचः (३६२/६) । लोकहित को सत्य की कसौटी मानने से उसका अवमूल्यन अथवा ह्रास नहीं हुआ है बल्कि नयी परीक्षा में तप का उसका स्वरूप और उज्जवल बन गया है । कूर्मपुराण में सत्य और गौरव की विराट् कल्पना की गयी है : सत्येन सर्वमाप्रोति सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम् (१.११.१६), सब कुछ सत्य में समाहित है । ऐसी कोई वस्तु संसार नहीं है, जिसे सत्य से प्राप्त न किया जा सके । T विपत्काल में भी मन, वचन, कर्म किसी प्रकार भी पराये धन का स्पर्श न करना अस्तेय है (१.८.१५) । लिङ्गपुराण में ब्रह्मचर्य पर संन्यासी तथा गृहस्थ की दृष्टि से पृथक् पृथक् विचार किया गया है । संन्यासी के लिये पुराण में कठोर विधान है। उसके लिये ब्रह्मचर्य यह है कि शारीरिक प्रवृत्ति तो दूर, मैथुन की मानसिक कामना भी न की जाए (मैथुनस्याप्रवृत्ति हि मनोवाक्कायकर्मणा, (१.८.१६), जबकि गृहस्थ के लिये, केवल अपनी स्त्री के साथ रति भी ब्रह्मचर्य के पालन के समान है (स्वदारे विधिवत्कृत्वा निवृत्तिश्चान्यतः सदा, १.८.१८ ) । इस प्रसंग में नारी की शव, अंगार आदि से तुलना करके उसकी छीछालेदर का क्या औचित्य है ? लिङ्गपुराण में अपरिग्रह को परिभाषित नहीं किया गया है, किन्तु अग्निपुराण ने उसे कठोरता की चरम सीमा तक पहुँचा दिया है, जिससे अपरिग्रह की प्राचीन अवधारणा की झलक मिलती है (३८२/१६-२४) । योगसाधना में यम का इतना महत्त्व है कि लिङ्गपुराण में उसे नियम का भी मूलाधार माना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 सत्यव्रत वर्मा SAMBODHI गया है : नियमस्यापि वै मूलं यम एव न संशयः (१.८.११) । ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणकार की दृष्टि में अहिंसा, सत्य आदि के सम्यक् अभ्यास के बिना 'नियम के भावों को आत्मसात् करना सम्भव नहीं है। योग के इस द्वितीय अंग के प्रति पुराणकार का कुछ ऐसा अनुराग है कि उसने सोलह भावों को नियम के अन्तर्गत माना है और उनकी पृथक्-पृथक् दो वर्गों में गणना की है। उनमें योगदर्शन के पांच प्रसिद्ध नियम भी अन्तर्हित है और केवल उन्हीं के स्वरूप की व्याख्या की गयी है, जो उनके सर्वोपरि महत्त्व का परिचायक है । शौचमिज्या तपो दानं स्वाध्यायोयस्यनिग्रह ॥ १.८.२९ व्रतोपवासमौनं च स्नानं च नियमा दश । नियमः स्यादनीहा च शौचं तुष्टिस्तपस्तथा ॥ १.८.३० जपः शिवप्रणीधानं पद्मकाद्यं तथासनम् । १.८.३१ उपर्युक्त भावों का आधार शौच अथवा शुद्धि है । बाह्य (शारीरिक) तथा आभ्यन्तर भेद से शौच दो प्रकार की है, किन्तु आभ्यन्तर (मानसिक) शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है (शौचमाभ्यन्तरं वरम्, १.८.३२) जिसके बिना बाह्य शुद्धि मात्र औपचारिक क्रिया है, यद्यपि उसके महत्त्व का निषेध सम्भव नहीं है । बाह्य/शारीरिक शुद्धि से चित्त की मलिनता का परिमार्जन नहीं हो सकता (अवगाह्यापि मलिनो ह्यन्तः शौचविवर्जितः, १.८.३४) । उसके लिये साधक को बाह्य शुद्धि के पश्चात् आन्तरिक शुद्धि के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिये (तस्मादाभ्यन्तरं शौच सदा कार्यं विधानतः, १.८.३५) । पुराणकार की कवित्वपूर्ण भाषा में मन पर अविचल वैराग्य का लेप कर, आत्मज्ञान के सरोवर में स्नान करने से आन्तरिक शुद्धि को कान्ति प्रकट होती है । आन्तरिक शुद्धि से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है । आत्मज्ञानाम्भसि स्नात्वा सकृदालिप्य भावतः । सुवैराग्यमृदा शुद्धः शौचमेव प्रकीर्तितम् ॥ १.८.३६ शुद्धस्य सिद्धयो दृष्टा नैवाशुद्धस्य सिद्धयः । १.८.३७ __ लिङ्गपुराण में शेष नियमों का अपेक्षाकृत संक्षिप्त प्रतिपादन हुआ है। उसके अनुसार न्यायपूर्वक अर्जित धन से सन्तुष्ट रहना तथा खोए धन की चिन्ता न करना सन्तोष है । चान्द्रायण आदि व्रतों के विवेकपूर्ण आचरण को पुराण में शत्रु तप कहा गया है। कूर्मपुराण में दी गयी तप की परिभाषा अतिवादी है । उसके विधान के अनुसार उपवास, चान्द्रायण आदि कठोर व्रतों के नियमित पालन से शरीर को सुख देना 'उत्तम तप' है (२.११.२१) । वस्तुतः सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में अविचल रहकर वासनाओं को क्षीण करना ही सच्चा तप है । यद्यपि कूर्मपुराण ने भी प्रणव के जप को स्वाध्याय माना है, किन्तु उसके साथ सत्साहित्य के अध्ययन का विधान कर उसने उसे कुछ पूर्णता देने का प्रमाण किया है (२.११.२२) । लिङ्गपुराण का स्वाध्याय का विवरण - स्वाध्यायस्तु जपः प्रोक्तः प्रणवस्य (१.८.३९) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 लिङ्गपुराण का योगदर्शन 113 - अधूरा तथा एकांगी प्रतीत होता है । स्वाध्याय के तीन सुविज्ञात भेदों का उल्लेख करने से उसके स्वरूप को कुछ स्पष्टता अवश्य मिली है । प्रणव का वाचिक जप अधम कोटि का स्वाध्याय है, उद्यांशु जप मुख्य स्वाध्याय तथा मानस जप उत्तमोत्तम स्वाध्याय है (१.८.३९) । योगदर्शन के ईश्वर प्रणिधान को लिङ्गपुराण के शैव परिवेश में 'शिवप्रणिधान' नाम से अभिहित किया गया है। पुराण की शब्दावली में अनन्य भाव से भगवान् शिव का चिन्तन तथा गुरु के प्रति निश्चल भक्ति 'शिवज्ञान' (शिवप्रणिधान) है। ईश्वर का पूर्ण आत्मसमर्पण के साथ स्मरण-चिन्तन करने से कर्तृभाव विचलित हो जाता है और चित्त ईर्ष्या-द्वेष आदि तुच्छ भावों से मुक्त होकर निर्मल हो जाता है। कूर्मपुराण में यमों को 'चित्तशुद्धिप्रदाः' और नियमों को 'योगसिद्धिप्रदायिनः' कहा गया है । वस्तुतः यम और नियम के सभी भाव चित्त को शुद्ध कर योग-साधना का मार्ग प्रशस्त करते हैं । इतना अवश्य है कि यमों का सम्बन्ध समाज से है जबकि नियम वैयक्तिक आचरण के भाव हैं। लिङ्गपुराण में 'आसन' का उल्लेख अन्त में हुआ है और उसका स्पष्ट लक्षण भी नहीं किया गया है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि इसके तुरन्त बाद पुराण में योगानुष्ठान का वर्णन है, जो समुचित आसन लगाकर ही किया जाता हैः लब्ध्वासनानि विधिवद्योगसिद्धयर्थमात्मवित् (१.८.७८) । अतः आसन को योगाभ्यास से पूर्व स्थान देना उचित ही है । आसन तक साधना शरीर के स्तर पर चलती है । उसकी सफलता के लिये प्राण का शोधन आवश्यक है। प्राणशोधन की सर्वोत्तम विधि प्राणायाम है। इसीलिये अन्य योग-ग्रन्थों की भाति लिङ्गपुराण में भी प्राणायाम का विस्तृत विश्लेषण किया गया है (१.८.४५-६७), यद्यपि मान्य क्रम का उल्लंघन कर पुराणकार ने उसे समाधि के बाद स्थान दिया है। उसकी मान्यता के अनुसार प्राणायाम धारणा, ध्यान तथा समाधि का भी हेतु है : सर्वेहेतुश्च प्राणायाम स्मृतः (१.८.४४) । पर्यालोचन में 'हेतु' (प्राणायाम) का हेतुमान् से पूर्व निरूपण करना ही औचित्यपूर्ण है। कूर्मपुराण तथा लिङ्गपुराण में प्राणायाम का लक्षण लगभग एक समान है। शरीर के भीतर रहने वाली वायु को प्राण कहते हैं, उसे रोकने का नाम आयाम । याम है - प्राणः स्वदेहजो वायुरायामस्तन्निरोधनम् (कूर्म. २.११.३०); प्राणः स्वदेहजो वायर्धमस्तस्य निरोधनम् (लिङ्गपुराण, १.८.४५)। विकल्प के रूप में लिङ्गपुराण में प्राणायाम का दूसरा लक्षण भी किया गया है, यद्यपि तात्पर्यार्थ की दृष्टि से दोनों में अधिक भेद नहीं है : प्राणापाननिरोधस्तु प्राणायामः प्रकीर्तितः (१.८.४६) । प्राण को रोकने का अभिप्राय है श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति को अधिक देर तक रोकना, उसे आयाम (विस्तार) देना, जैसे पूरक और रेचक के बीच कुम्भक द्वारा किया जाता है। लिङ्गपुराण में पहले अवधि के आधार पर प्राणायाम के तीन भेद किया गये हैं - अधम। मन्द, मध्यम, उत्तम । बारह, चौबीस तथा छत्तीस मात्रा (लघु अक्षरों का उच्चारण काल) तक किये जाने वाले प्राणायाम को क्रमशः मन्द, मध्यम तथा उत्तम कहा गया है । इनसे शरीर में क्रमशः प्रस्वेद, कम्पन तथा उत्थान (ऊपर उठने की क्रिया) उत्पन्न होते है । आनन्दजनक योग की प्राप्ति के लिये किये जाने वाला प्राणायाम शरीर में निद्रा, घुर्णन, रोमांच तथा सशब्द सकम्पन पैदा करता है । जिस प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास से पसीना बहने Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 सत्यव्रत वर्मा SAMBODHI लगे और उससे संविन्मूर्छा-ज्ञानमयी अनमनी अवस्था – उत्पन्न हो और शरीर हल्का होकर उड़ने की स्थिति में आ जाए, वह उत्तमोत्तम प्राणायाम है (१.८.४८-५०) । लिङ्गपुराण में प्राणायाम के पुनः दो भेद किये गये हैं - सगर्भ, अगर्भ । जिस प्राणायाम में प्रणव का जप साथ-साथ चलता है, उसे सगर्भ प्राणायाम कहते हैं । जो प्राणायाम प्रणव-तप के बिना किया जाता है, वह अगर्म प्राणायाम है (१.८.५१)। प्राणायाम के अनुष्ठान के फल का लिङ्गपुराण में विशद् निरूपण किया गया है । प्राणायाम के नियमित अभ्यास से चित्त का क्षोभ (व्यसन) शान्त हो जाता है, मन, वाणी और शरीर के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं, श्वास-प्रश्वास की गति व्यवस्थित हो जाती है तथा शान्ति, प्रशान्ति, दीप्ति तथा प्रसाद नामक दिव्य सिद्धिया प्राप्त होने लगती हैं (१.८.५५-५७) । प्राणायाम द्वारा प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान तथा नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय, इन दस वायुओं को सिद्ध करने पर प्रसाद नामक सर्वोच्च सिद्धियां प्राप्त होती हैं, जो तुरीया सिद्धि का ही दूसरा नाम है। प्राणायाम चित्त के दोषों को भस्म करनेवाली अचूक ज्वाला है-दोषान् विनिर्दहेत् सर्वान् प्राणायामदसौ यमो (१.८.७५) । प्राणायाम का सर्वोत्तम फल, जैसा पतंजलि ने कहा है, यह है कि उसके नियमित अभ्यास से ज्ञान को आवृत करने वाले व्यामोह । अज्ञान का आवरण क्षीण हो जाता है, जिससे क्रमशः आत्म-अनात्म के भेद का प्रकाश प्रकट होता है। ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् (२.५२) । इसीलिये प्राणायाम को परम तप कहा जाता है : प्राणायामः परमं तपः । अग्निपुराण की शब्दावली में सौ वर्ष से अधिक तक एक-एक मास के अन्तराल से कुश की नोक पर स्थित जल की बूंद पीने का तप करना और प्राणायाम का अभ्यास करना-ये दोनों तप समान पतंजलि ने प्राणायाम को योगसिद्धि का कारण माना है, किन्तु आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्राणायाम की रेचक, पूरक, कुम्भक आदि क्रियाओं से शरीर श्रान्त तथा मन संक्लेश-युक्त हो जाता है। मनः संक्लेश मुक्ति का कारण नहीं हो सकता । अतः प्रत्याहार प्राणायाम यम, नियम, आसन और प्राणायाम योग के बाह्य अंग है। धारणा, ध्यान, समाधि उसके आन्तरिक अंग है । इन दोनों का संयोजन तत्त्व 'प्रत्याहार' है । लिङ्गपुराण में केवल एक पद्य में प्रत्याहार का परिचय दिया गया है । स्वभावतः अपने-अपने विषयों में विचरण करनेवाली इन्द्रियों को उनके विषयों से लौटाना, विमुख करना और उसके फलस्वरूप उन्हें वश में करना प्रत्याहार है । निग्रहो ह्यपहृत्याशु प्रसक्तानीन्द्रियाणि च । विषयेषु समासेन प्रत्याहारः प्रकीर्तितः ॥ (१.८.४२) योगसाधना में प्रत्याहार के महत्त्व के कारण पतंजलि ने उसके स्वरूप का मार्मिक विश्लेषण किया है - स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार (२.५४) । योगाभ्यास के कारण चित्त के विषयों से विमुख होने पर इन्द्रियों को भी, विषयों के साथ सम्बन्ध होने पर भी, उनका ज्ञान नहीं होता । फलतः वे अपने विषयों से स्वयं को अलग कर लेती हैं, उनका विषयों से आहरण हो जाता है। योग की शब्दावली में इस स्थिति को प्रत्याहार कहते हैं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 लिङ्गपुराण का योगदर्शन 115 धारणा, ध्यान तथा समाधि योग के आन्तरिक अंग हैं। इनका सामूहिक नाम 'संयम' है । लिङ्गपुराण में धारणा का जो लक्षण दिया गया है - चित्तस्य धारणा प्रोक्ता स्थानबन्धः समासतः (१.८.४२), वह पतंजलि के सूत्र ‘देशबन्धारचित्तस्य' (३.१) की प्रतिध्वनि मात्र है। जैसा कूर्मपुराण में कहा गया है, देह के भीतर हृदयकमल, नाभिचक्र, मूर्छा आदि किसी अंग में अथवा पर्वतशिखर आदि किसी बाह्य लक्ष्य में चित्त को बांधना - एकाग्र करना – धारणा कहलाता है (३.११.३८) । धारणा में चित्त एक विषय में एकाग्रता अवश्य प्राप्त करता है । किन्तु अन्य विषय की वृत्ति उभरकर उसे बाधित कर देती है । विषयान्तर की वृत्ति को हटाकर चित्त को लक्ष्य देश में केन्द्रित करने के प्रयाण भी धारणा की सीमा में आते हैं। लिङ्गपुराण का 'ध्यान' का निरूपण संक्षिप्त होता हुआ भी सारपूर्ण है। उसमें ध्यान का स्वरूप समग्रता से प्रतिबिम्बित है - तत्रै कचित्तता ध्यानं प्रत्ययान्तरवर्जितम् (१.८.४३) । यह योगदर्शन के प्रत्ययैकध्यानं प्रत्ययान्तरवर्जितम् (३.२) से भिन्न नहीं है। किसी एक लक्ष्य/विषय का अवलम्बन कर उसमें चित्त की जो एकतान वृत्ति बनी रहती है और उसमें अन्य किसी वृत्ति का उदय नहीं होता, उसे ध्यान कहते हैं । वृत्ति की एकतानता जितनी अधिक देर तक बनी रहे, उतनी ही उसकी श्रेष्ठता है । अग्निपुराण में ध्यान का ऐसा ही लक्षण किया गया है - ध्येयालम्बनसंस्थस्य सदृशप्रत्ययस्य च । प्रत्ययान्तरनिर्मुक्तः प्रत्ययो ध्यानमुच्यते ॥ ३७४/२ अग्निपुराण ने तो धारणा और ध्यान की भाँति समाधि का भी विस्तृत विवेचन किया है (३७६), किन्तु लिङ्गपुराण में समाधि की चर्चा केवल एक पद्य में सीमित है । जब चैतन्यरूप ध्येय ही भासित होता है और (ध्याता को) देह के अस्तित्व का मान मिट-सा जाता है, ध्यान की वह अवस्था समाधि है : चिद् मासमात्रस्य देहशून्यमिव स्थितम्, समाधिः ... (१.८.४४) । समाधि का यह लक्षण पतंजलि के सूत्र 'तदेवार्थमात्रनिर्मासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः' (३.३) का रूपान्तर ही है। ध्यान ही अपनी विशेष अवस्था में समाधि कहा जाता है । ध्याता जब ध्यान में इतना संलीन होता है कि उसे अपनी सुघ ही न रहे, केवल ध्येय भासित हो अर्थात् ध्याता और ध्येय का भेद समाप्त हो कर ध्येय ही शेष रहता है और ध्यान भी स्वरूप-शून्य सा हो जाता है अर्थात् उसकी प्रतीति नहीं होती, ध्यान की चरम तल्लीनता की वह स्थिति समाधि है। अष्टांग योग के सैद्धान्तिक प्रतिपादन के पश्चात् लिङ्गपुराण में योगाभ्यास की विधि का विस्तृत विवेचन किया गया है, जो पारिभाषिकता से बोझिल है (१.८.७८.११६) । योग के समुचित तथा निर्विघ्न अभ्यास के लिये शान्त एवं बाधा रहित स्थान तथा अनुकूल समय अनिवार्य है । असुविधाजनक स्थान तथा प्रतिकूल समय में योग की एकाग्र साधना सम्भव नहीं है - अदेशकाले योगस्य दर्शनं हि न विद्यते (१.८.७८) । योगाभ्यास के समय चित्त का ईर्ष्या-द्वेष आदि उद्वेगकारी भावों से मुक्त होना आवश्यक है (१.८.८४) सुविधा के अनुसार दृढ आसन लगाकर, सिर को कुछ उन्नत कर, अधखुलीदृष्टि को नासिकाग्र Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 सत्यव्रत वर्मा SAMBODHI पर केन्द्रित कर, ओंकारवाच्य तथा दीपशिखा के समान ज्योतिष्मान् परमात्मा का हृदयकमल की कणिका में समाहित चित्त से ध्यान करना चाहिए (१.८.८७-९१) । अथवा नाभि से तीन अंगुल नीचे अष्टकोणात्मक, पंचकोणात्मक अथवा त्रिकोणात्मक उत्तम कमल का ध्यान करके उसमें क्रमानुसार अपनी शक्तियों के साथ अग्नि, सूर्य तथा चन्द्रमण्डल का ध्यान करते हुए अग्नि के नीचे धर्म चतुष्टय की कल्पना करके, मण्डलों के ऊपर सत्त्व, रजस् तथा तमस् की भावना करते हुए, स्वशक्ति से परिमण्डित रुद्र का चिन्तन साधक को करना चाहिए (१.८.९२-९५) । हृदयकमल में परात्पर ब्रह्म स्वरूप महादेव तथा नाभिदेश में सर्वदेवात्मक सदाशिव का ध्यान किया जाता है (१.८.१.२-१.८) । विधिपूर्वक की गयी योगसाधना से ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है, जो योग का चरम साध्य है। पूर्वजन्म के योगाभ्यासी को यह सिद्धि शीघ्र प्राप्त हो जाती है, नये अभ्यासी को विलम्ब से । ____ किन्तु योगसाधना का मार्ग निष्कष्टक नहीं है । योग के अनुष्ठान में समय-समय पर नाना विघ्न आते हैं । पुराणकारने ऐसे दस विघ्नों का उल्लेख किया है । निष्ठावान् अभ्यासकर्ता अपनी दृढ़ता तथा गुरू के मार्गदर्शन से उन्हें परास्त कर देता है – नश्यन्त्यभ्यासतस्तेऽपि प्रणिधानेन वै गुरोः (१.८.११६)। इसके अतिरिक्त नये अभ्यासी प्रतिमा, दर्शना आदि स्वल्प सिद्धियों से आकर्षित होकर उनके मोह में फंस जाते हैं। वास्तविक अभिलषित सिद्धियों को प्राप्त करने के लिये उनके जाल से मुक्त होना आवश्यक है – स्वल्पसिद्धिसंत्यागात् सिद्धिदाः सिद्धयो मुनेः (१.९.१६) । पुराणकार ने उन स्वल्प सिद्धियों के स्वरूप का विस्तृत विवरण दिया है (१.९.१४.२१) । उसने उन तथाकथित गुणों । ऐश्वर्यों । सिद्धियों का भी विस्तार से निरूपण किया है, जो वास्तव में योगमार्ग के बाधक है (१.९.२४-५१) । उन विघ्नकारी गुणों की व्यापकता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि उनका जाल ब्रह्मलोक तक फैला हुआ है। साधक को इन औपसर्गिक - विघ्नकारी - गुणों से सर्वात्मना बचना चाहिये - सन्त्याज्य सर्वथा सर्वमौपसर्गिकमात्मनः (१.९.२३) । वैराग्य का खड्ग से जो उन्हें जीत लेता है, उस महात्मा योगी को नाना शक्तियाँ प्राप्त होती है (१.९.५८-६७)। आत्मविधि के दीपक से अज्ञान के अन्धकार के नष्ट होने पर उसे अपने भीतर साक्षात् ईश्वर का दर्शन होता है - तमो निहत्य पुरुषः पश्यति ह्यात्मनीश्वरम् (१.९.६५)। जो योगी लोकहित के कारण उनका त्याग नहीं कर सकता, उसका जीवन दुःखमय नहीं होता : सोऽप्येवमेव सुखी भवेत् (१.९.५७)। लिङ्गपुराण में अन्यत्र (१.५५.७-२०) मन्त्रयोग, स्पर्शयोग, भावयोग, अभावयोग तथा महायोग, इन पाँच योगों का रोचक विश्लेषण किया गया है। ध्यान से युक्त जप का अभ्यास मन्त्रयोग है, कुम्भक में स्थित होकर ध्यान का अभ्यास स्पर्शयोग है, चित्तशुद्धि प्रदान करनेवाला योग भावयोग है, जिसमें शून्य तथा आभासहीन रूप में स्वरूप का चिन्तन किया जाता है वह अभावयोग है, जिसमें आत्मा की सत्ता भासित होती है वह महायोग है ।१० इन योगों में पूर्व की अपेक्षा बादवाला योग श्रेष्ठ माना गया है। इस दृष्टि से महायोग सर्वोत्तम है। महायोग समस्त आचरणों से मुक्त, वस्तुतः अचिन्त्य है । देवता भी इस ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हैं । वह स्वयं संवेद्य स्व साक्षी है। अहंकार-रहित साधक ही उसे जान सकता है (१.५५.१९-२०) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 Vol. XLI, 2018 लिङ्गपुराण का योगदर्शन ___ इन योगों के अभ्यास से अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं - अणिमादिप्रदाः सर्वे, सर्वे ज्ञानदायकाः । (२.५५.१७) पुराणकार की दृष्टि में योगमार्ग साधना का सनातन मार्ग है। वह वेद-शास्त्र के कमल का मकरन्द है। योग वस्तुतः अमृत है जिसका पान कर ब्रह्मवेत्ता योगी भवबन्धन से मुक्त हो जाता है । एवं देवि समाख्यातो योगमार्गः सनातनः । सर्ववेदागमाम्भोजमकरन्दः सुमध्यमे ॥ २.५५.२५ पीत्वा योगामृतं योगी मुच्यते ब्रह्मवितमः । २.५५.२६ सन्दर्भ : 3 १. लिङ्गपुराण, गीताप्रेस, गोरखपुर, तृतीय पुनर्मुद्रण, सम्वत् २०७३ व्यतिरिक्त न मत्तोऽस्ति नान्यत्किचित्सुरोत्तमाः ॥ लिङ्गपुराण, २.१७.११ नित्योऽनित्योऽहमनघो ब्रह्माहं ब्रह्मणस्पतिः । दिशश्च विदिशश्चाहं प्रकृतिश्च पुमानहम् ॥ वही, २.१७.१२ ज्योतिश्चाहं तमश्चाहं ब्रह्माविष्णुमहेश्वरः । बुद्धिश्चाहमहङ्कारस्तन्मात्राणीन्द्रियाणि च ॥ वही, २.१७.१९ एवं सर्वं च मामेव यो वेद सुरोत्तमाः । वही, २.१७.२० ३. सर्वं लिङ्गमय लोकं सर्वं लिने प्रतिष्ठितम् । वही, २.४६.१३ ४. कूर्मपुराण (गीताप्रेस), २.११.१५ कथनं सत्यमुक्तं परपीडाविवर्जितम् । लिङ्गपुराण, २.८.१३ शौच सन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । योगदर्शन (सं. उदयवीर शास्त्री, गाजियाबाद, सम्वत २०३४), २.३२ ७. इति यो दशवायूनां प्राणायामेन सिध्यति प्रसादोऽस्य तुरीया तु संज्ञा विप्राश्चतुष्टये ॥ लिङ्गपुराण, १.८.६७ ८. सम्बोधि-४०, पृ. ६२ आलस्यं प्रथमं पश्चाद् व्याधि पीडा प्रजायते । प्रमादः संशयस्थाने चित्तस्येहानवस्थितिः ।। अश्रद्धादर्शनं भ्रान्तिर्दुःखं च त्रिविधं ततः । दौमनस्यमयोग्येषु विषयेषु च योगता । दशधामिप्रजायन्ते मुनेर्योगान्तरायकाः । लिङ्गपुराण, १.९.१-३ १०. लिङ्गपुराण, २.५५.७-१६ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य मोहित कुमार मिश्र संस्कृत तथा फारसी इस प्रकार की भाषाएँ हैं जिनका प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा भाषिक सम्बन्ध रहा है। विद्वानों के द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि संस्कृत तथा फारसी इन दोनों भाषाओं के पूर्वजों का मूलस्थान एक ही था । भाषावैज्ञानिक भी इनकी उत्पत्ति-सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए इन्हें सहोदर भाषा मानते हैं तथा भाषाविज्ञान के अध्ययन में भारोपीय-परिवार की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण 'भारत-ईरानी' नाम की एक पृथक् शाखा के रूप में स्थापित करते हैं । हम यह जानते हैं कि किन्हीं दो भाषाओं की समानता को उसके भाषिक परिप्रेक्ष्य में अत्यधिक औचित्यपूर्ण ढंग से ज्ञात किया जा सकता है । संस्कृत तथा फारसी भारोपीय भाषा-कुल की अत्यंत समृद्ध सह-भाषाएँ हैं तथा दोनों ही भाषाओं के भाषिक (व्याकरणात्मक) पक्ष की अन्यतम विशेषता रही है, जो अन्य भाषापरिवारों में नहीं मिलती है। भाषा में क्रियापद की व्यवस्था के विषय में यह बात लक्षित होती है कि जिस प्रकार प्राणी के शरीर में जीवनतत्त्व (प्राण) निहित होता है, उसी प्रकार किसी भी भाषा के वाक्य में सारभूत तत्त्व "क्रिया' होती है। क्रियापद अर्थात् धातुरूप जिसके मूल में धातु विद्यमान रहकर अर्थ को वहन करता है। संस्कृत तथा फारसी के अनेक क्रियापदों (धातुओं) में मौलिक भाषिक साम्य दिखाई देता है जैसे- चर् > चर् = चरना/भक्षण करना, पच् > पजू = पकाना, कृष्-कर्ष > कश्तन-कार् = खींचना/जोतना। यद्यपि दोनों भाषाओं के कुछ क्रियापदों अथवा धातुओं में कहीं-कहीं परिवर्तन भी मिलता है जिनके कारणों को विशेष रूप में बताने का प्रयास किया गया है। इस निबन्ध में दोनों भाषाओं के आवश्यक बिन्दुओं (धातु-धातुरूप, काल, वृत्ति, क्रियापद-संरचना आदि) की चर्चा करते हुए क्रियापदों के स्वरूप एवं अर्थ का भाषिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इस अध्ययन द्वारा दोनों भाषाओं तथा उनके प्रयोक्ताओं के प्राचीन सम्बन्ध सुदृढतया ज्ञात होते हैं तथा दोनों भाषाओं में होने वाले भाषा वैज्ञानिक शोधों को दिशा मिलती है। संस्कृत और फारसी के क्रियापदों में साम्य किसी भी देश की संस्कृति एवं इतिहास को जानने में भाषा की अतिव्यापक एवं प्रमुख भूमिका होती है। हम देखते हैं कि अब तक भारत में लगभग जितने भी शासक आए उन्होंने किसी न किसी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 119 भाँति इस देश के गौरवभूत संस्कृत भाषा को सीखकर इस देश की संस्कृति को जाना तथा यहाँ पर शासन किया । संस्कृत तथा फारसी इसीप्रकार की भाषाएं हैं जिनका प्राचीन काल से ही ? ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं भाषिक सम्बन्ध रहा है। भाषा वैज्ञानिक भी इनकी उत्पत्ति-सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए इन्हें सहोदर भाषा मानते हैं तथा भाषाविज्ञान के अध्ययन में भारोपीय-परिवार की भारत-ईरानी नाम की एक पृथक् शाखा के रूप में रखते हैं। भारत-ईरानी भाषा परिवार में भारोपीय परिवार का प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद और अवेस्ता में सुरक्षित है। माना जाता है कि भारत के अधिकांश भाग में बोली जाने वाली भाषा के विकसित रूप का सम्बन्ध किसी एक मूल भाषा से है जिसका प्रचार-प्रसार लगभग ३००० वर्ष पूर्व उत्तर-पश्चिम के लोगों ने किया । भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लिए इस परिवार से प्रभूत सामग्री प्राप्त हुई विशेषतः संस्कृत से । व्हिटनी ने भी अपने अध्ययन में कहा है - “As historical fact, the scientific study of human speech is founded upon the comparative Philology of the Indo-European Languages and this acknowledges the Sanskrit as it is most valuable means and aid.” Whiteny, Language and its Study. भाषा-वैज्ञानिक इस परिवार को मुख्यतः दो उपवर्गों में रखते हैं - १. भारतीय आर्य और २. ईरानी । टी० बरो' के अनुसार भारतीय शाखा को ईरानी से अलग करने के लिए यह 'भारतीय आर्य' (Indo-Aryan) शब्द गढ़ लिया गया और भाषा एवं विभाषाओं के अर्थ में यह अब तक प्रयुज्यमान है। चाहे जो भी रहा हो परंतु यूरोपीय उपवर्गों के अलग हो जाने के उपरांत भारत-ईरानी आर्य भाषाभाषी दो दलों में बँट गये, एक ईरान का निवासी हुआ तो दूसरा भारत का। धीरे-धीरे इन दलों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं में प्रादेशिक विभिन्नता उत्पन्न हुई होगी, जिससे इस प्रकार की भारतीय और ईरानी दो अलग शाखाएँ बनीं । भारत-ईरानी भाषाओं में परस्पर साम्य ___ भारोपीय परिवार में अनेक शाखाओं में भारत-ईरानी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन दोनों ही वर्गों में संस्कृत तथा फारसी का अत्यन्त नैकट्य रहा है क्योंकि दोनों ही भाषाओं की संस्कृति का उद्गमस्थल एक ही रहा है और चिरकाल तक ये दोनों संस्कृतियाँ एक साथ रहीं मानी जाती हैं । किन्हीं दो भाषाओं की समानता को उसके भाषिक परिप्रेक्ष्य में अत्यधिक औचित्यपूर्ण ढंग से ज्ञात किया जा सकता है । यदि दोनों की प्राचीनता देखें तो प्राचीन ईरानी भाषा अवेस्ता तथा प्राचीनतम ग्रन्थ वेद का सहसम्बन्ध इतना घनिष्ठ है कि भाषाशास्त्री टी० बरोप के कथनानुसार एक के बिना अन्य भाषा का अध्ययन संतोषपूर्वक नहीं किया जा सकता । भाषिक दृष्टि से भी दोनों में अत्यंत न्यून भेदकतिपय विशिष्ट एवं स्पष्टतः नियत ध्वन्यात्मक परिवर्तनों में पाया जाता है, जिन्होंने एक तरफ ईरानी भाषा तथा दूसरी तरफ भारतीय भाषा को प्रभावित किया है। फारसी ग्रन्थ अवेस्ता की भाषा, शब्दावली, रचना, छन्दोयोजना और भावार्थ संस्कृत के वैदिक मन्त्रों से इस तरह साम्य रखते हैं कि दोनों भाषाओं के ध्वनिनियमों को जानने वाला कोई भी भाषाशास्त्री वेद के मन्त्रों को अवेस्ता में और अवेस्ता की गाथाओं को वैदिक मन्त्र के रूप में परिवर्तित Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 मोहित कुमार मिश्र SAMBODHI कर सकता है। भाषावैज्ञानिक अब्राहम जैक्सन ने भी कहा है कि कोई भी संस्कृत शब्द केवल कुछ ध्वनिनियमों के प्रयोग से अवेस्ता के पर्यायवाची शब्द के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है तथा यह बात अवेस्ताई श्लोक का वैदिक संस्कृत में अनुवाद करके प्रमाणित कर दिया है - मूल अवेस्ता वैदिक संस्कृत तम अमवन्तम यजतम तम् अमवन्तं यजतम् सूरम दामोहु सविश्तम शूरं धामसु सविष्ठम् मिथ्रम यज़ाइ जओथ्राब्यो मित्रं यजे होत्राभ्यः। फारसी तथा संस्कृत भाषा का भाषीय अन्तः सम्बन्ध अत्यन्त समृद्ध रहा है और दोनों के व्याकरण में पर्याप्त समानता भी है । अवेस्ता और संस्कृत की विभक्तियाँ एक समान हैं, दोनों में ही तीन लिंग, तीन वचन, आठ कारक हैं । कारकों का प्रयोग भी प्राय: वही है, यद्यपि वर्तमान फारसी में दो लिंग और दो वचनों का ही प्रयोग होता है । क्रियारूपों में तो आश्चर्यजनक समानता है, पुरुष एवं वचन में भी पूर्ण साम्य है । क्रिया के रूप दोनों में समान रीति से बनाये जाते हैं । जो द्रष्टव्य हैंसं० धातु फा मसदर (धातु) अर्थ कृ -(करोमि) र्क -(कुनम) करना र्च -(चरामि) र्च -(चरम) चल् -(चलामि) चल् -(चलम) पच् –(पचामि) पज्. -(पजम) पकाना ग्रह -(गृह्णामि) गिरिह –(गीरम) ग्रहण करना संस्कृत तथा फारसी दोनों ही भाषाओं में संख्या और संख्येय शब्दसाम्य प्राप्त होता है। जैसे संस्कृतएकः, द्वौ, त्रयः, चत्वारः, पञ्च, षट् आदि । अवेस्ता- फारसी- येक, द्वा, त्रि(से), चहार, पन्ज, शश आदि। __ अवेस्ता में ल का सर्वथा अभाव था इसके स्थान पर र् है, परन्तु वर्तमान फारसी में प्राप्त है। अरबी प्रभाव के कारण। वर्तमान फारसी, अवेस्ता से निर्गत उसी प्रकार की प्राकृत कही जा सकती है जिस प्रकार संस्कृत से निकली हुई प्राकृत, पालि आदि भाषाएँ हैं ।१० संस्कृत और अवेस्ता की संरचना तो एक जैसी है, लेकिन वर्तमान फारसी की कुछ धातुएँ (क्रियापद) संस्कृत से निर्गत प्राकृत भाषा के अति निकट हैं । जैसे- 'मसलना या मर्दन' अर्थ में फा० म० 'माल'(मालीदन) का संस्कृत धातु 'मृद्' के स्थान पर प्राकृत 'मल्'११ (मलइ) से, 'मरना' अर्थ की फारसी म. 'मीर्' (मुर्दन) का संस्कृत 'मृ' धातु के स्थान पर प्राकृत 'मर'(मरइ) से अत्यधिक साम्य है। इन्हीं बिन्दुओं को ध्यान में रखकर प्रस्तुत शोधपत्र में दोनों भाषाओं के कुछ क्रियापदों (धातुओं) के अध्ययन को रखा गया है । चरना चलना Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 121 क्रियापद संस्कृत तथा फारसी दोनों ही भाषाओं का व्याकरणात्मक होना उनकी अन्यतम विशेषता रही है। भाषा में क्रियापद की व्यवस्था के विषय में यह बात लक्षित होती है कि जिस प्रकार प्राणी के शरीर में जीवनतत्त्व (प्राण) निहित होता है, उसी प्रकार किसी भी भाषा के वाक्य में सारभूत तत्त्व "क्रिया' होती है। संस्कृत में तोयदि किसी वाक्य में एक ही पद है तो वह क्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता है लेकिन वह क्रियापद अकेले होकर भी अपने स्वरूप में अनेक भावों को छिपाकर रखती है। यास्क ने भी इसी भाव की प्रधानता को इन शब्दों में व्यक्त किया है- 'भावप्रधानमाख्यातम्' ।४२ वैसे आधुनिक आर्यभाषाओं में जिसे क्रिया कहा जाता है उसे संस्कृत व्याकरण में क्रिया न कहकर प्रायः 'आख्यात' कहा गया है । ऋक्प्रातिशाख्य में भी कहा है कि आख्यात वह शब्द है, जिसके द्वारा वक्ता 'करोतीति क्रिया' का कथन करता है। आगे चलकर क्रियावाचक-पद के रूप में उसका निरूपण किया गया है ।१३ परवर्ती आचार्यों के कथनानुसार- 'आख्यायतेऽनेन क्रियाप्रधानभूतेत्याख्यातस्-तिङन्त' ।१४ व्यवहार में हम जिस पद के द्वारा किसी कार्य के करने या होने को व्यक्त करते हैं, उसे 'क्रिया' के नाम से अभिहित किया जा सकता है । जैसे - 'रामः पुस्तकं पठति', यहाँ 'पठति' पद के द्वारा वाक्य में पढ़ने का भाव व्यक्त हो रहा है अतः यह पद क्रिया है। फारसी में क्रिया को 'फेअल' नाम से अभिहित करते हैं। धातु व धातुरूप संस्कृत भाषा के अधिकांश शब्द धातुओं से निर्मित होते हैं । धातु शब्द । धा धातु तथा तुन् प्रत्यय के योग से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है-रखना । अर्थात् क्रियारूप को धारण करने वाला धातु ही है - 'यः शब्दः क्रियां भावयति प्रतिपादयति स धातुसञः' । संस्कृत का सम्पूर्ण रूप में उपलब्ध व्याकरण 'पाणिनीय व्याकरण' है, पाणिनि अपने व्याकरण में धातु का प्रयोग शब्द की 'मूलप्रकृति' के अर्थ में करते हैं। धातु का अर्थ ही है - शब्दों का मूल या योनि (कारण)। महर्षि यास्क भी कहते हैं – 'सर्वाणि नामानि आख्यातजानि' ।१५ दूसरे शब्दों में कहें तो संस्कृत का लगभग हर शब्द अन्ततः धातुओं के रूप में प्राप्त होता है, अतएव धातुओं का सर्वथा महत्त्व है । धातु का मूल अर्थ भाव है, इस मूल भाव में क्रिया तिरोहित रहती है और उस मूल अर्थ को वहन करने वाला एवं उसकी प्रधानता से संवलित रूप ही 'तिडन्त या धातुरूप' कहा जाता है। भर्तृहरि भी लिखते हैं 'कालानुपाति यद् रूपं तदस्तीति प्रतीयते । परितस्तु परिच्छिन्नं भाव इत्येव कथ्यते' ॥१६ सहज शब्दों में कहें तो हिंदी अथवा अंग्रेजी भाषा की भाँति संस्कृत में भी धातुओं से विविध कालों और वृत्तियों को व्यक्त करने के लिए लिंग और वचन के अनुसार रूप बना लिए जाते हैं । अर्थात् कर्ता का पुरुष और वचन तथा क्रिया का काल एवं अर्थ वाच्य के अनुसार उस क्रिया को विभक्तियों (तिङ्प्रत्ययों) द्वारा खास-विशेष साँचों में ढालता है। इस प्रकार जो रूप बनते हैं, उन्हें 'धातुरूप' कहते Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 मोहित कुमार मिश्र SAMBODHI हैं। अतः एक धातुरूप (क्रियापद) में कर्ता का पुरुष वचन तथा वाच्य-भेद के साथ क्रिया का काल और वृत्ति (अर्थ) छिपा रहता है । पाणिनीयव्याकरणमें धातुओं की कुल संख्या लगभग १९४३ है । इन धातुओं को आचार्य पाणिनि ने दस गणों में विभाजित किया है। इन गणों के अपने गणचिह्न होते हैं जिन्हें 'विकरण' कहते हैं। इन्हीं विकरणों के प्रयोग से धातुओं को तद्गणीय कहा जाता है । जैसे - भ्वादिगण का शप्१८, अदादिगण का शप्१९ (शप्लुक्), जुहोत्यादिगण का श्लु२०, दिवादिगण का श्यन्२१, स्वादिगण का श्नु२२, तुदादिगण का श२३, रुधादिगण का श्नम्२४, तनादिगण का उ५, र्यादिगण का श्ना२६ तथा चुरादिगण का णिच्२७ विकरण होता है । धातुओं में व्याकरणिक प्रक्रिया के लिए विभिन्न प्रकार के विकरणों (मध्य प्रत्यय) का योग होता है, परिणामतः धातुओं का रूप गुणादि के कारण परिवर्तित हो जाता है। फारसी में धातुओं को 'मसदर' की संज्ञा दी जाती है । फारसी में धातुओं की संख्या के विषय में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है लेकिन लकारों में विकरण चिह्न प्रयुक्त होते हैं, परन्तु इन मध्य प्रत्ययों (विकरण) से क्रियारूपों में कोई परिवर्तन नहीं आता है । उपलब्ध धातुओं में भी सभी धातुएँ संस्कृत से साम्य नहीं रखती हैं फिर भी संस्कृत भाषा के साथ फारसी धातुओं की समानता को दृष्टिगत करने से ऐसा प्रतीत होता है कि फारसी संस्कृत से निर्गत एक तरह की प्राकृत भाषा है। काल काल अतीव व्यापक एवं महत्त्वपूर्णशब्द है । वर्तमान, भूत, भविष्य आदि के व्यवहार का हेतु काल कहलाता है –'अतीतादिव्यवहारहेतुः कालः' ।२८ क्रिया सदैव काल सापेक्ष होती है । वाच्य में 'करता है', "किया', 'करेगा' इत्यादि पद क्रिया के समय को सूचित करते हैं, जिसे 'काल' कहते हैं । क्रिया की पूर्णता या अपूर्णता तथा क्रिया की क्रमवत्ता को देखकर काल की अनुमिति कर ली जाती है। महर्षि पतञ्जलि भी काल को क्रिया के आश्रित मानते हुए लिखते हैं- 'नान्तरेण क्रियां भूतभविष्यद्वर्तमानकालाः व्यज्यन्ते' ।२९ काल यद्यपि अविच्छिन्न है, फिर भी व्यवहारार्थ संस्कृत भाषामें सात काल कहे गये हैंवर्तमान (भवति), अनद्यतन-भूत (अभवत्), अद्यतन या आसन्नभूत (अभूत्), परोक्षभूत (बभूव), पूर्णपरोक्षभूत (अबभूवत्), सामान्य-भविष्य (भविष्यति) और अनद्यतन-भविष्य (भविता) । संस्कृतवैयाकरण इन्हें दस 'लकारों' (लट्, लिट्, लङ्लुङ् आदि) के द्वारा प्रकट करते हैं । जिनमें से लट्लकार का प्रयोग मात्र वेद तक सीमित है लोक में इसका प्रयोग नहीं होता । लिङ्लकार के दो भेद हैं -विधि एवं आशीर्लिङ् अतः गौण रूप से लोक में भी दस लकार ही प्रयुक्त होते हैं । फारसी में काल को 'जमान' कहा जाता है, जैसे- वर्तमान काल को 'जमाने-हाल'। फारसी में नौ लकार माने गये हैं - Present Indefinite Tense अखबारी Present Subjunctive Tense मुज़ारे इल्तज़ामी Past Indefinite Tense माजी मुतलक/सादे Past Continuous Tense माजी इस्तमरारी/नातमाम Present perfect Tense माजी नकली/करीब Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 123 Present perfect continuous Tense Past perfect Tense Past subjunctive Tense ___माजी नकली इस्तमरारी माजी बायद /दूर माजी इल्तज़ामी जमाने आयन्दे/मुस्तकबिल Future Tense यह विभाजन अरबी व्याकरण द्वारा प्रेरित है । वृत्ति अनेक अर्थों की अभिव्यञ्जना के लिए कई तत्वों के योग से निर्मित शब्द-प्रक्रिया को वृत्ति कहते हैं जो सनादि से निर्मित होते हैं, परन्तु यहाँ वह वृत्ति नहीं है। 'करे, करो, करूं' इत्यादि क्रिया की उस स्थिति को सूचित करते हैं जो अभी मन में ही है । क्रिया की इस स्थिति को व्याकरण की भाषा में यहाँ 'वृत्ति या अर्थ' कहा गया है। संस्कृत में इनको आज्ञार्थ (भवतु), आशीरर्थ (भूयत्), विध्यर्थ (भवेत्), इच्छार्थ (भवेत्), याच्नार्थ (भवति) इत्यादि के द्वारा व्यक्त किया जाता है। लोट् और लिङ्लकार केवल क्रियाभाव (वृत्ति) के द्योतक हैं, जिसे पाणिनि ने अपने सूत्रपाठ में व्यक्त किया है'विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्ट सम्प्रश्नप्रार्थनेषु लिने १', 'लोट् च' ।३२ लिङ्लकार का प्रयोग विधि (प्रेरणा) अर्थ में विहित है, लेकिन इसमें विध्यात्मक बहुविध अर्थों के द्योतन की क्षमता है। कहने का अभिप्राय यह है कि इसमें वृत्ति (अर्थ) संकेत की अपूर्व सामर्थ्य निहित है। लोट् लकार में आज्ञा का प्राधान्य है, परन्तु प्रार्थना-विध्यादि अर्थ भी इससे अभिव्यक्त होते हैं । फारसी में इसे मात्र 'फेअले अम्र' (उदा०बिरवर्जिाओ) लोट्लकार के द्वारा व्यक्त किया जाता है । क्रियापदों की संरचना ___ क्रियापदों की संरचना धातु, विकिरण ?और प्रत्ययों पर निर्भर है। फारसी में मसदर (धातुओं) का स्वरूप प्रत्ययों (तन, दन, ईदन, ऊदन) के साथ ही प्राप्त होता है, प्रत्ययों को हटाकर ही धातुओं का शुद्ध स्वरूप दृग्गोचर होता है । जैसे- रफ़्तन (रफ़्त/रव् ), शुदन (शुद/शव ), चरीदन (चरीद/चर्) आदि। संस्कृत में भी धातुओं के अनुबन्धों की इत्संज्ञा तथा लोप करना पड़ता है। संस्कृत में लगभग सभी धातुओं को तीन रूपों में विभक्त किया गया है - आत्मनेपदी, परस्मैपदी और उभयपदी । लेकिन फारसी में मसदर (धातुओं) का ऐसा कोई विभाजन नहीं प्राप्त होता । संस्कृत में क्रियापद तीनों वचनों (एकवचन, द्विवचन, बहुवचन) में प्रयुक्त होते हैं, परन्तु फारसी में द्विवचन का प्रयोग नहीं होता है, जबकि दोनों भाषा में ही तीनों पुरुषों (प्रथम, मध्यम, उत्तम) का प्रयोग समान है । क्रियापद की निर्मिति हेतु संस्कृत में धातु के अन्त में तिङ् प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है । फारसी में इन प्रत्ययों का प्रयोग 'शिनासे सर्फी' (Conjugational Endings) के रूप में होता है। दोनों भाषाओं के इन प्रत्ययों की संरचना में भेद है। द्रष्टव्य है Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 मोहित कुमार मिश्र SAMBODHI संस्कृत- प्र०पु० एक तिप् बहु झि, फारसी- प्र०पु० एक द(अस्त) बहुः अन्द मपु० ,, सिप् , थ म पु० ,, ई , ईद पु० , मिप् ,, मस् । पु० , म , ईम् । प्रत्यय भेद के कारण ही धातुओं की समानता होते हुए भी संस्कृत एवं फारसी के क्रियापदों में अन्तर पाया जाता है । जैसे वर्तमानकालिक क्रियापदों में, |संधातु विकरण प्रत्यय | क्रियापद फामसदर( धा०) विकरण | प्रत्यय | क्रियापद | | तन् शप्(अ) तिप् | तनोति तन् मीद तनद चर्थ चरथ चर् | चरीद लकारों के अनुसार धातु के रूपों में पार्थक्य - संस्कृत व्याकरण में कुछ धातुएँ ऐसी हैं जो अपने मूल में एक भिन्न रूप में रहती हैं, परन्तु काल (लकार) प्रयोग के अनुसार उनके रूपों में पृथकता आ जाती है। पाणिनि के इस सूत्र में इसी प्रकार की कुछ धातुएँ हैं- 'पा-घरा-ध्मा-स्था-म्ना-दाण-दृशि-अति-सर्ति-शद-सदां-पिब-जिघर-धमतिष्ठ-मन-यच्छ-ऋच्छ–धौ-शीय-सीदाः' ।३३ जो लट्लकार में अलग रूप वाली हैं तो लृट् लकार में अलग । जैसे धातु लट् घ्रा दाण ऋच्छति धातु लट लुट लुट् पा पिबति पास्यति जिघ्रति घ्रास्यति स्था तिष्ठति स्थास्यति यच्छति दास्यति ऋ अरिष्यति दृश् पश्यति द्रक्ष्यति गम् गच्छति गमिष्यति प्रच्छ पृच्छति प्रक्ष्यति । इसी प्रकार फारसी में भी लकारों के अनुसार धातुरूपों में भिन्नता प्राप्त होती है - मसदर (धातु-अर्थ) | जमाने हाल | माजी बायद जमाने आयन्दे (वर्तमानकाल) (भूतकाल) भविष्यकाल) रफ़तन-(जाना) रवम रफ्तम ख्वाहम रफ़्त दीदन-(देखना) बीनम दीदम ख्वाहम दीद प्रस्तुत शोध का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होने के कारण यहाँ पर मात्र रूप व अर्थ साम्य रखनेवाली मात्र कुछ धातुओं (क्रियापदों) की सूची प्रस्तुत करते हुए कुछ का उदाहरण के साथ भाषिक विवेचन किया गया है । अवशिष्ट धातुओं को पुनः इसके दूसरे भाग के रूप में अन्यत्र कहीं प्रस्तुत किया जा सकता है। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 125 रूपसाम्य तथा अर्थ साम्य रखनेवाली धातुएँ (क्रियापद) यद्यपि किसी मूल भाषा की ध्वनियाँ, उससे विकसित सभी भाषाओं में उसी रूप में नहीं मिलती तथा एक ही भाषा की ध्वनियाँ कालान्तर में बदल जाती हैं, तथापि संस्कृत की धातुओं से फारसी की अनेक धातुओं में पूर्ण साम्य मिलता है जो इन के मौलिक एकता को सुदृढ़ करता है । हाँ, कदाचित् कुछ धातुओं के स्वरूप अथवा ध्वनि में अंशतः भेद हो गया है । कुछ धातुओं के मात्र एक वर्ण में ध्वनिगत परिवर्तन मिलता है जैसे- सं० प् को फा० में सघोष ब्, प् रो फ् ध्वनि, क्वम्' के च् को श्, क् अघोष ध्वनि को फारसी में ख्. संघर्षी ध्वनि, ख् संघर्षी को क् अघोष, च् अघोष अल्पप्राण को फा सघोष ज् अल्पप्राणवर्ण, 'ज्' का ध्वनिगत परिवर्तन 'स्' के रूप में हो जाना । इस प्रकार के परिवर्तन कई कारणों से हैं जिनमें कहीं कुछ तो स्वाभाविक हैं जैसे- ध्वनि या वर्णाभाव के कारण जैसे – फा० में मूर्धन्य ‘ष्' नहीं होने से तालव्य 'श्' का प्रयोग, 'ध्' वर्ण नहीं होने से उसके जगह 'द्' का प्रयोग, 'भ्' वर्ण के न होने से उसी के समानान्तर 'ब्' का प्रयोग मिलता है । लेकिन कहीं कहीं मुख सुख अथवा उच्चारण भेद से स्वर अथवा व्यंजन वर्णागम भी हुआ है और कहीं ध्वनि नियम से परिवर्तन हो गया है। यहाँ पर रूप साम्य और अर्थ साम्य रखने वाली कुछ धातुओं को प्रस्तुत किया जा रहा है क्रियापद | फारसी मसदर म० का अर्थ क्रियापद अमति, आमदन-आय् । आना, आयद आयाति पहुचना अयते क्र.सं. संस्कृत-धातु धात्वर्थ अम गत्यादिषु३४, जाना, आङ् +या प्रापणे३५, आना अय गतौ३६ जाना आप्M व्याप्तौ,३७ प्राप्त होना, या प्रापणे३८ | पहुँचना । (या+णिय=पि) | आङ् चमु अदने२९, भोजन करना याबन्द आप्नोति, याफ्तन-याब् यान्ति पाना, पता लगाना । आचामति | पीना आशामद आशामीदनआशाम् ४. | कष हिंसायाम्,४० | दुःख देना, कषति ते | कुश्तन-कुश् । मारना, नष्ट | कुथि हिंसायाम्४१ | कोड़े से कुन्थति करना । मारना, वध करना ५. | कृष विलेखने४२ | कृषिकर्म कर्षति कशीदन-कशा खींचना, काश्तन करना, खींचना, काश्त, कार् गड्ढा करना । | कारद रेखा करना । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 मोहित कुमार मिश्र SAMBODHI चशद | ६. | क्रमु पादविक्षेपे४३ । उछलकर चलना, क्रामति | ख़रामीदन-खराम गर्व से चलना, खरामद | लाँघना, पैरों से इठलाना । चलना । ७. | खनु अवदारणे४४ | खोदना खनति कन्दन-कन् खोदना कनीद खनते ८. | खादृ भक्षणे,४५ खाना खादति, | खुर्दन-खुर् | खाना-पीना खुर्द ९. | गम्लु गतौ४६ जाना गच्छति | गामीदन–गाम् जाना गामद १०. ग्रह उपादाने ग्रहण करना, गृह्णाति | गिरफ्तन-गीर् | पकड़ना गीरद पकड़ना । ११. चर गत्यर्थः विचरण करना, | चरति । चरीदन-चर्च रना, घास चरद भक्षणेऽपि४८ खाना १२. चल गतौ४९ चलना चलति । चलीदन-चल् चलना चलद १३. चष भक्षणे५० खाना, भक्षण | चषति/ते | चशीदन-चश् | स्वाद करना लेना,चखना । | १४. चिञ् चयने५१ चुनना, चयन | चिनोति | चीदन-चीन् | चुनना, तोड़ना चीनद करना १५. डुपचष् पाके५२ पकाना पचति । पुख्तन-पज् | पकाना पजद १६. तप संतापे५३ प्रकाशित होना, | तपति | ताफ़्तन-ताब् चमकना ताबद दुःखी होना १७. तर्ज भर्त्सने,५४ डराना तर्जति | तरसीदन-त... डरना तर्सद त्रसी उद्वेगे५५ त्रस्त होना त्रसति १८. दाण् दाने५६ देना, ददाति | दादन-दह देना दहद | दिश अतिसर्जने५७ । दान करना, दिशति प्रदान करना । १९. धावु गतिशुध्दयो:५८ जाना, दौड़ना | धावाति / दवीदन-दव् दौड़ना दवद २०. ध्मा शब्दाग्नि-५९ । फूंकना, साँस | धमति | दमीदन-दम् साँस लेना दमद संयोगयोः २१. बन्ध बन्धने. बध्नाति | बस्तन-बन्द् बन्द करना, बन्द | बाँधना । लेना बाधना Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 127 मालद जाना जाना हरते २२. | मृद क्षोदे,६१ । चूर्ण करना, । मृद्नाति मालीदन-माल् | रगड़ना, मद मर्दने६२ रगड़ना, मदते मलना मसलना २३. | रफ गतौ,६३ रफाति । रफ्तन-रव् जाना, रवद | रव गतौ६४ रन्वति निकलना २४. | शव गतौ६५ शवतिर्फ६ । शुदन-शव् होना, जाना शवद २५. ष्टुञ् स्तुतौ६७ स्तुति करना, स्तौति | सुतूदन-सुतूय् । प्रार्थना करना | सुतूयद, प्रशंसा करना स्तवीति सितायद २६. | ६ हृञ् हरणे६९ हरण करना, | हरति बुर्दन-बर् ले जाना बरद ले जाना । साम्य रखने वाली कुछ क्रियापदों का भाषिक विवेचन अय्/आय>>आय् अयते/आयाति>आयद संधा- अय गतौ७०, आङ् या प्रापणे७२ फा० म०-आय(आमदन) अर्थ- आना, पहुँचना । उदा० सं– 'अत्यायतं नयनयोर्मम जीवितमेतदायाति' ।७२ (अतीव लम्बी नेत्रों में यह आ रहा है मेरा जीवन ।) फा० – 'चे सूद चूँ हमी ज. तू गन्द आयद । गर तू बे नाम अहमद अतारी' ॥ (नासिर खुसरो) (क्या ही अच्छा हो कि तेरी खुशबू से तेरे नाम की खुशबू आ जाए ।) यहाँ आ उपसर्गपूर्वक / या धातु तथा फा० आय में स्वरूपतः और अर्थगत 'आना' का साम्य पूर्ण रूप से दृष्टगत है । । अय् धातु का उदाहरण सं० में न्यून है उपसर्गयुक्त क्रियापद में लगभग वही समानता है जो फा० 'आयद' का है। वैसे सं० अम्' धातु से फा० भूतकालिक क्रिया ‘आमद' का स्वरूपगत साम्य है, परन्तु अर्थ 'आना' का एकदम विपरीत 'जाना' है । २. । आप्/या>>याब् आप्नोति/यान्ति> याफ़्तन्द/याबन्द/या+ पुक्०३ +णिच् संख्धा- आप्M व्याप्तौ७४, V या प्रापणे७५ । फा०म० - याब (याफ़्तन) उदा० सं०- 'सर्वः कामानवाप्नोतु ..'।७६ (सभी अपनी अभिलाषा को प्राप्त करें) 'यान्त्येव गृहिणीपदं युवतयोः...'।७७ (इस प्रकार स्त्रियाँ गृहिणी (राजलक्ष्मी) पद को प्राप्त करें।) फा-मा सख्ती कशान् करार अज. कुजा याबीम ।८ (हम कष्ट में पड़े हुए चैन कहाँ से पायें।) Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 मोहित कुमार मिश्र SAMBODHI प्राप्ति अर्थ में उपर्युक्त धातु Vया/ आप्' और फा०म० 'याफ्त/याब्' में ध्वनिगत एवं अर्थ की दृष्टि से पूर्ण साम्य है। मात्र 'आप' के प् को फा० में सघोष ब् हो गया है। तिङ् प्रत्यय दोनों भाषाओं में पृथक् होने से उनके क्रियापदों के स्वरूप में कुछ अन्तर आ जाता है, परन्तु अर्थगत साम्य वर्तमान रहता है। जो कि 'प्राप्त करना' के रूप में प्रयुक्त है। ३. आ / चम्>>आशम् । आचामति>आशामीद/आशामद संधा-आङ् चमु अदने७९ फा०म०-आशाम (आशामीदन) उदा० सं– 'आकाशवायुर्दिनयौवनोत्थानाचामति स्वेदलवान् मुखे ते' । (वायु तुम्हारे मुख पर दोपहर की गर्मी से उत्पन्न पसीने की बूंदों को पी रहा है/सुखा रहा है।) फा-अज. शबनम आशामीदन तिश्नगी तमाम न मी शवद ।८१ (ओस की बूंद पीने से प्यास नहीं बुझती है।) आ उपसर्गपूर्वक / चम्' धा० से फा० में 'आ+शम्(आश्म्)' का स्वरूपगत साम्य है। इसमें केवल वर्णभेद है- फा० में 'चम्' के च को श् हो गया है जबकि दोनों व्यञ्जन ही तालव्य हैं और ये एकार्थक (समानार्थक) हैं। अर्थगत समानता उदाहरण से स्पष्ट ही है। ४. । कष्/कुथ्>> कुश् कषति/ते, कुन्थति>कुश्तन्द/कुशद संधा-कष हिंसायाम्८२, । कुथि हिंसायाम्३ । फा०म०-कुश (कुश्तन) उदा० सं०- 'कषन्निवालसत्कषपाषाणानि नभस्तले' ।।४ फा- बसी नामदाराने मा रा बिकश्त । चूँ यारान नमान्दन्द बिनमूद पुश्त । (फिरदौसी) (हमारे बहुत से सम्बन्धियों को मार डाला जब सम्बन्धी न रहे तो हिम्मत पस्त हो गई।) उपर्युक्त । कष् धा० से साम्य रखने वाली फा० 'कुश्' है जो अर्थगत रूप में सं1 कुन्थ्' से 'वध करना' अर्थ से अत्यधिक सामीप्य है। फा० में मूर्धन्य '' नहीं होने से तालव्य 'श्' का प्रयोग हुआ है और उकार का आगम होकर 'कुश्' बन गया है। अथवा स्वरूपतः 'कुन्थ्' का 'थ्' फा० 'कुश्' के 'श्' में परिवर्तित हो गया होगा। । कर्ष>>कार् किश् कर्षति>किशद/कारद संधा- कृष विलेखने फाम- कार, किश (कशीदन, किश्तन) उदा. सं– 'शरीरात् मे मनः प्रसभं कर्षति' ।८६ (शरीर से मेरा मन बलात् खींच रही है ।) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 129 फा-अज. ईन रूए ता मर्व लश्कर किशीद. शुद अज. गर्द लश्कर ए जमीं नापदीद । (फिरदौसी) (इस तरह से मर्व तक फौज खींचा कि सेना की गर्द से धरती गायब हो गई।) यहाँ पर 'खींचने व जोतने' अर्थ में फारसी की दो धातुएँ हैं - 'को' और 'किश्' । जो संस्कृत की । कृष्' (कर्ष) से साम्य रखतीं हैं । स्वरूपगत समानता देखें तो 'कर्का, किश्' दोनों 'कृष्' से सम्बद्ध हैं एक में 'ष्' नहीं है और एक में 'र' (अर्) नहीं है, जो कि देश कालानुसार परिवर्तित हो गया है जब कि उदाहरण से स्पष्ट है कि दोनों ही फा०म० अर्थगत समानता की दृष्टि से 'कृष्' के पूर्ण समीप हैं। क्राम्<>खराम् क्रामति>खरामद संधा. - । क्रमु पादविक्षेपे८७ फाम- खराम(खरामीदन) उदा० सं० – 'गम्यमानं न तेनासीदगतं कामता पुरः' ।८८ 'स्थितः सर्वोन्नतेनोर्वी क्रान्त्वा मेरुरिवात्मना' ।८९ फा० – आन्दम के मी पूशी कबा म खराम अज बहरे खुदा ।९० (खुदा के लिए, उस समय जब तुम कबा (वस्त्र) पहनी हो इठला कर मत चलो ।) संस्कृत 'क्राम्' के समानान्तर फारसी मसदर 'खराम' है। जो ध्वनि की दृष्टि से पूर्णतया संस्कृत की इस । क्रम' धातु से साम्य रखती है । केवल 'क्राम' के क् अघोष ध्वनि को फारसी में ख्. संघर्षी ध्वनि हो गई तथा अकार का आगम होकर 'खराम' हुआ । वस्तुतः यह परिवर्तन देशकाल के कारण है । अर्थगत समानता लगभग दोनों में एक ही 'गमन करना' अर्थ के रूप में है । ७. खन्>>कन् खनति/खनतुकनद संधा- । खनु अवदारणे११ फाम- कन(कन्दन) उदा० सं०- 'खनन्नाखुबिलं सिंहः पाषाणशकलाकुलम्' ।९२ (पाषाणखण्डों से व्याप्त भूमि में स्थित चूहे के बिल को खोदने वाला सिंह ।) फा- चूँ बन्दे रवान बीनी ओ रञ्ज ए तन । बे कानी के गौहर नयाबी मकन। । (फिरदौसी) फा० म० 'कन्' का स्वरूपतः सं खन्' धातु से साम्य है । फारसी में मात्र सं० 'ख' (खन्) के स्थान पर 'क' हो गया है जबकि 'क्' एवं 'ख्' दोनों ही अघोष ध्वनियाँ हैं । अर्थ की दृष्टि से दोनों भाषाओं की ये धातुएँ 'खोदना' अर्थ को व्यक्त करती हैं । कभी-कभी उपसर्गों के प्रयोग से इनके अर्थों में परिवर्तन आ जाता है । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 मोहित कुमार मिश्र SAMBODHI ह्यगृह< >गीर् गृह्णाति>गीरद संधा- ग्रह उपादाने९३ फाम- गीर (गिरफ्तन) उदा० सं०- 'सखि, प्रकृतिवक्र: स कस्यानुनयं प्रतिगृह्णाति' ।९४ (हे सखी, स्वभावतः कुटिल वे (दुर्वासा) किसकी प्रार्थना स्वीकारते हैं।) 'गृहाण शस्त्रं यदि सर्ग एष ते...' ।९५ (यदि आपका यही निश्चय है तो शस्त्र ग्रहण कीजिए ।) फा- मर्दुमे माजिन्दरान अज. दरिया यि खज्रि माही मी गीरन्द ।९६ (माजिन्दरान के लोग क्षीर नदी से मछली पकड़ते हैं ।) सं० । ग्रह' को स्वरूपतः फा० में 'र्गी' (ग्रिफ्तन) हो गया है । जो ध्वनि की दृष्टि से 'गृह' के समान ही है। सं० भूतकालिक 'क्त' प्रत्ययान्त क्रियापद का अत्यन्त सामीप्य उपर्युक्त फा॰धा में विद्यमान है- 'गृहीतम्>गिरफ्तम'। अर्थसाम्य तो दोनों भाषाओं में है, कभी-कभी उपसर्गों के प्रयोग से अर्थपरिवर्तन हो जाता है। ९. चिन्<>चीन् चिनोति<>चीनद संधा- चिञ् चयने९७ फाल्म- चीन (चीदन) उदा. सं- 'रक्षायोगादयमपि तपः प्रत्यहं संचिनोति' ।९८ (शरीर की रक्षा के लिए योगानुष्ठान से तप को चुनता (कमाता) है ।) फा- जनहा ए कारगर बर्गहा ए चाय रा मी चीनन्द' ।९९ (कार्यशील स्त्रियाँ चाय की पत्तियों को तोड़ती हैं ।) संस्कृत चिन्' धातु और फा०म० 'चीन्' का परस्पर ध्वन्यात्मक साम्य है । दोनों में ही अन्त्य वर्ण अनुनासिक है तथा उच्चारण भी समरूप ही है, मात्र हूस्व इकार के स्थान पर फारसी में दीर्घ हो गया है। परन्तु इस प्रकार का परिवर्तन तो समय एवं स्थान के अनुसार होता ही रहता है । दोनों भाषाओं में यह धातु 'चुनना और तोड़ना' अर्थ में प्रयुक्त होती है । १०. तप<>ताब्/तप् तपति>ताबद/तपीद संधा- तप सन्तापे१०० फाम- ताब/तप्(ताफ्तन/ताबीदन/तपीदन) उदा० सं०– 'तपति तनुगात्रि ! मदनस्त्वामनिशं मां पुनर्दहत्येव' ।१०१ (हे कृशांगि, कामदेव तुम्हें तो निरन्तर तपा रहा है, किंतु मुझे तो जला ही डाल रहा है ।) Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 131 131 फा- बे चूँ गू बे मनकारे चन्दी तपीद, चूँ नीरू बशद जाने सिपस आरमीद। (फिरदौसी) तनूर-ए-शिकम दम बि दम ताफ्तनखूब नीस्ता (पेट की भट्टी (भूख) को बार-बार तपाना ठीक नहीं । सं० । तप्' के समान फा० में 'तप्' व 'ताब्' दो धातुएँ हैं जिनमें से 'ताब्' का 'चमकना' अर्थ में और 'तप्' का 'तपाना, तड़पना' अर्थ में प्रयोग होता है। जो सं० तप् से पूर्णतः स्वरूपगत एवं अर्थगत रूप में साम्य रखती हैं। जो कि उपर्युक्त उदाहरण से भी स्पष्ट है । ११. तर्ज/त्रस्<>तर्स तर्जति/त्रसति>तर्सद संधा- तर्ज भर्त्सने१०२, त्रसी उद्वेगे१०३ फामः- तर्स(तरसीदन) उदा० सं– 'अंकुशाकारयाऽङ्गुल्या तौ अतर्जयदम्बरात्' ।१०४ __ (शूर्पणखा बाँस के समान अपनी उँगलियों को चमका-चमकाकर राम और लक्ष्मण को आकाश से धमकाने लगी।) 'बलवदत्र भवती परित्रस्ता' ।१०५ (आपकी यह सखी बहुत अधिक भयभीत हो गई है।) फा- अज. मर्ग चेरा तर्सम, क्,ऊ आबे हयात आमद व, ज. ता,ने चेरा तर्सम चून् ऊ सिपरम् आमद । (रूमी) (अब मैं मौत से क्यों डरूँ जब मेरा अमृततुल्य प्रिय मेरे पास आ गया और तानों से भी क्यों डरूँ जब उसे मैंने ढाल की तरह सीने से लगा लिया ।) यहाँ स्वरूपतः तज्' से साम्य रखने वाली फा०म० 'त' है। जिसमें अन्तिम वर्ण 'ज्' का ध्वनिगत परिवर्तन 'स्' के रूप में हो गया है, लेकिन संस्कृत त्रस्' धातु से फा० त... मसदर पूर्णतया मिलतीजुलती धातु है । अर्थगत समानता दोनों में ही वही 'भयभीत होना' और 'डराना' है। अतः निःसंकोच कह सकते हैं ये दोनों एक ही मूल से हैं । १२. बन्थ्<> बन्द बध्नातिा>बन्दम संधा- बन्ध बन्धने१०३ फाम- बन्द(बस्तन) उदा० सं– 'चूतानां चिरनिर्गताऽपि कलिका बध्नाति न स्वं रजः' ।१०७ (आम्रवृक्षों की चिरकाल से विकसित हुई मञ्जरी अपने पराग को नहीं बाँध रही ।) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 मोहित कुमार मिश्र SAMBODHI फा- गुले खन्दान कि न खन्दद चे कुनद ? अलम् अज. मुश्क न बन्दद चे कुनद ? (रूमी) (खिला हुआ फूल अगर न खिलखिलाए, तो और क्या करे ? चतुर्दिक् को अपने सुगन्ध की पताका से न बांधे, तो और क्या करे ?) यहाँ 'बन्द' मसदर की स्वरूपगत समानता सं० । बन्ध्' से है । फा० भाषा में ध् ध्वनि नहीं होने से संस्कृत की इस महाप्राण ध्वनि को अल्पप्राण ध्वनि द् हो गयी है। फा० अवेस्ता में भी महाप्राण ध्वनियों के स्थान पर अल्पप्राण ध्वनियाँ प्राप्त होती हैं, जैसे- सिन्ध को हिन्द । अतः संस्कृत की 'बन्ध्' धातु ही फारसी में 'बन्द' के रूप प्रयुक्त होने लगी होगी । अर्थ के दृष्टि से भी दोनों में 'बन्द करना, बाँधना' का प्रयोग होता है। अतएव अर्थगत समानता भी दोनों में विद्यमान है । निष्कर्ष एवं उपसंहार इस प्रकार प्रस्तुत शोधपत्र में संस्कृत तथा फारसी भाषा की परस्पर साम्य रखने वाली धातुओं (क्रियापदों) के भाषिक अध्ययन से स्पष्ट है कि यद्यपि वर्तमान में दोनों भाषाओं के बोलने वालों अथवा प्रयोग करने वालों का भौगोलिक क्षेत्र पृथक्-पृथक् है, लेकिन दोनों ही भाषाएँ एक समुद्र से निर्गत दो धाराओं के समान भारोपीय परिवार की भारत-ईरानी शाखा की प्रमुख सहभाषाएँ हैं। फारसी तथा अवेस्ता से संस्कृत का बहुत अधिक साम्य रहा है और दोनों की भाषिक संस्कृति एक ही रही है । दोनों की भाषिक संरचना में अत्यधिक समानता है। काल की दृष्टि से भी संस्कृत तथा फारसी में लकार विभाजन लगभग एक ही प्रकार का है, परन्तु वर्तमान फारसी का लकार विभाजन अरबी व्याकरण से प्रेरित है। क्रियापदों (धातुरूपों) की निर्मिति जिस प्रकार संस्कृत में तिङन्त आदि के संयोग से होती है उसी तरह फारसी में भी मुज़ारे अथवा मुज़ारिय से शिनासे सर्फी के रूप में प्रत्यय लगने से । लकारों के अनुसार दोनों भाषाओं की कुछ धातुओं के क्रियापदों में भेद आ जाता है; जैसे- संधा० 'दृश्' का रूप लट्लुट्लकार में क्रमशः ‘पश्यति'-'द्रक्ष्यति', फा०म० 'बीन्' का रूप 'बीनद'-'ख्वाहद दीद' । संस्कृत तथा फारसी के समान धातुओं के ध्वनि, वर्ण, शब्द और अर्थगत विवेचन से देखने पर अधिकांश धातुओं में परस्पर स्वरूपगत और अर्थगत समानताएँ मिलती हैं । कुछ धातुओं में वर्णपरिवर्तन, वर्णागम, वर्णविपर्यय एवं सम्प्रसारण होने से स्वरूपगत अंशतः भेद है, लेकिन दोनों भाषाओं में वे एक ही अर्थ में प्रयुक्त होती हैं । जैसा कि उल्लेख भी किया गया है कि संस्कृत और प्राचीन ग्रन्थ अवेस्ता की भाषा में अत्यन्त साम्य रहा, लेकिन कालान्तर में अवेस्ता का प्राकृतीकरण होकर आधुनिक फारसी भाषा का उदय हुआ प्रतीत होता है। दोनों भाषाओं के शब्दों के मूल-क्रियापदों के अध्ययन से दोनों भाषाओं के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं भाषिक पक्षों की एकता के अवबोधन में सहायता मिलती है। इससे स्पष्ट होता है कि दोनों भाषाओं का मूल एक है तथा कालातिपात तथा भौगोलिक प्रभावों के कारण दोनों भाषाओं के शब्द रूपों में परिवर्तन आ चुका है जिन्हें भाषा वैज्ञानिक प्रविधियों से जाम जा सकता है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 133 133 सन्दर्भ : , 6 १. वैदिक देवताः उद्भव और विकास, डॉ. गयाचरण त्रिपाठी, पृ. सं. ५० २. भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र, कपिलदेव द्विवेदी, पृ. सं. ४४५ ३. संस्कृत भाषा-विज्ञान, पृ० सं० १२२, डो राजकिशोर सिंह ४. भाषा-विज्ञान (Comparative Philology and Hist. of Linguistic), पृ० सं० १०५ , डॉ कर्ण सिंह ५. The Sanskrit Language, पृ० सं० ०१, अनुवादक - डॉ॰ भोलाशंकर व्यास ६. The Sanskrit Language, T. Burrow, Page - 6 AVESTA GRAMMAR, A. V. Williams Jackson, Introduction, p. xxxii भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र, कपिलदेव द्विवेदी, पृ० सं० ४५० आधुनिक फारसी के शब्द-भण्डार में भी अरबी शब्दों का बाहुल्य है, आज की फारसी में अरबी के लगभग ७० फीसदी शब्द शामिल हैं। हों भी क्यों न, क्योंकि अरबों के आगमन के साथ विक्रम संवत्सर के आठवीं शती में ही इसकी लिपि पहलवी (फारसी) से अरबी हो गयी है, जो आज भी वर्तमान है । फारसी में ३२ वर्ण हैं जिनमें मात्र ४ व्यंजनवर्ण पे, जीम, झे और गाफ ही फारसी के हैं, इन वर्गों का प्रयोग अरबी में नहीं होता है। १०. संस्कृत का भाषाशास्त्रीय अध्ययन, डॉ० भोलाशंकर व्यास, पृ० ७९ ११. 'मृदो लः' प्राकृत-प्रकाश-७.५४ १२. यास्क, निरुक्त, प्रथम अध्याय, पृ० ०२ १३. तदाख्यातं येन भावं स धातुः (ऋ० प्रा० १२.१९) क्रियावाचकमाख्यातम् (ऋ प्रा० १२.२५) १४. संस्कृत व्याकरण दर्शन, पृ० १५६, त्रिपाठी, रामसुरेश १५. निरुक्त, पृ० सं० ०६ १६. वाक्यपदीयम्, ३.८.१२ १७. प्रक्रियानुसारि-पाणिनीयधातुपाठ, पृ० सं० ०१ १८. कर्तरि शप्, पा० अ० ३.१.६८ १९. अद्प्रभृतिभ्यः शप्, पा० अ० २.४.७२ २०. जुहोत्यादिभ्यः श्लुः, पा० अ० २.४.७५ २१. दिवादिभ्यः श्यन्, पा० अ० ३.१.६९ २२. स्वादिभ्यः श्नुः, पा० अ० ३.१.७३ २३. तुदादिभ्यः शः, पा० अ० ३.१.७७ २४. रुधादिभ्यः श्नम्, पा० अ० ३.१.७८ २५. तनादिकृभ्युः उः, पा० अ० ३.१.७९ २६. ादिभ्यः श्ना, पा० अ० ३.१.८१ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 मोहित कुमार मिश्र SAMBODHI २७. सत्यापपाशरूप......चुरादिभ्यो णिच, पा० अ० ३.१.२५ २८. तर्कसंग्रह, पृ० सं०४५ २९. पतञ्जलि, महाभाष्य २.२.५ ३०. Elementary Persian Grammar, Dr. Rajender Kumar ३१. अष्टाध्यायी-३/३/१६१ ३२. वही-३/३/१६२ ३३. पा० अ० ७.३.७८ ३४. पाणिनीय धातुपाठ - ४६५ ३५. , १०४९ ३६. , ४७४ १२६० १०४९ ४६९ ६८५ १२८६ ४७३ २ १७९१ ५५९ १७ ८८९ १२५१ ९९६ ९८५ २२७ १२१७ ९३० १२८३ ६०१ ९२७ १५०८ " १५१५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 135 ६२. ,, ७६७ ६३. ,, ४१३ ६४. ,, ५९६ , ७२५ ६६. 'यास्क भी कहते हैं 'शवतिगतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाष्यते ।...' अर्थात "पख्तूनिस्तान में 'शव' का 'जाना' अर्थ जैसी सामान्य गति-क्रिया अर्थ में प्रयोग होता है तो वहीं आर्यों में महा-गति (मृत्यु) अर्थ को दृष्टि में रखकर निष्पन्न 'मुर्दा शरीर के लिए यह प्रयुक्त है।" निरुक्त, पृ.सं. १६९ अष्टाध्यायी धातुपाठ १०४३ __वैदिक संस्कृत में वह धातु क्भृ के रूप में प्राप्त होती है। तुलना करें- 'हग्रहोर्भश्छन्दसि हस्येति वक्तव्यम्' - ९३३ वार्तिक (वा० प्र०, पृ० सं० ४४१) से । जिससे फारसी बर(बुर्दन) का नैकट्य है। ६९. पा० धा० पा० ८९९ ७०. पा. धा० पा० ४७४ ७१. वही १०४९ ७२. मालविकाग्निमित्रम् ३.७ ३. अतिहीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्यातां पणौ ७.३.३६ ७४. पा० धा० पा०, १२६० ७५. वही, १०४९ ७६. विक्रमोर्वशीयम्, ५.२५ अभिज्ञान, ४.१८ ७८. फा० भा० प्र०, पृ० ९७ पा० धा० पा० १२०१ ८०. रघु० १३.२० ८१. फा० भा० प्र०, पृ० १११ ८२. पा० धा० पा० ६८५ ८३. वही ४३ ८४. नैषधचरितम् २.६९ ८५. पा० धा० पा० १२८६ ८६. विक्रमोर्वशीयम् ०१.२० ८७. पा० धा० पा. ८२७ ८८. भट्टि ८.२ ८९. रघु० १.१४ ९०. नि० ज० फा॰, पृ० १८ ९१. पा० धा० पा० ८७८ ९२. पञ्चतन्त्र ३.१६, पृ० ३४३ ९३. पा० धा० पा० १७१९ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 मोहित कुमार मिश्र SAMBODHI ९४. अभि० ४.१ के बाद ९५. रघु० ३.५१ ९६. कि फा॰, पृ॰ ६६ ९७. पा० धा० पा० १२५१ ९८. अभि० ०२.१५ ९९. कि फा॰, पृ० ७२ १००. पा. धा० पा० ९८५ १०१. अभि०० ३.१४ १०२. पा० धा० पा० २२७ १०३. वही १२१७ १०४. रघु० १२.४१ १०५. वि १.७ से पूर्व १०६. पा० धा पा० १५०८ १०७. अभि० ६.४ ग्रंथ सूची १. मिश्र, बिहारिकृष्णदास. सम्पा० भट्टाचार्य, विभूतिभूषण. (१९६५). पारसीकप्रकाशः, वाराणसी: सरस्वती भवन ग्रन्थमाला। २. त्रिपाठी, भगीरथ प्रसाद. (१९६५). पाणिनीय धातुपाठ समीक्षा. वाराणसीः संस्कृत विश्वविद्यालय । ३. दत्त, डॉ. शिव. (१९७१).पतञ्जलि महाभाष्यम् (नवाह्निक). मुम्बईः निर्णय सागर प्रेस. पंचम संस्करण । ४. सिंह, राजकिशोर. (१९७३). संस्कृत भाषा-विज्ञान. आगराः विनोद पुस्तक मन्दिर. तृतीय संस्करण । ५. गुणे, पी. डी, सम्पा. तिवारी, भोलानाथ. (१९७४). तुलनात्मकभाषाविज्ञान. दिल्ली: मोतीलाल बनारसी दास । ६. शर्मा, देवीदत्त (१९७४). संस्कृत का ऐतिहासिक एवं संरचनात्मक परिचय. चण्डीगढ़ः हरियाणा हिन्दी ग्रन्थ अकादमी। ७. शर्मा, दीप्ति. (१९७५). व्याकरणिक कोटियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन. पटनाः बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी। ८. शर्मा, आचार्य श्री शेषराज. (१९७६). भट्टिकाव्यम्. वाराणसी: चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस । ९. नाथ, धर्मेन्द्र. (१९७७). फारसी भाषाप्रवेश. नई दिल्ली: नागरी लिपि परिषद् । मैक्समूलर, एफ, अनु तिवारी, ऊ नारायण. (१९७८). भाषाविज्ञान (The Science of Language). दिल्ली: मोतीलाल बनारसी दास. प्रथम संस्करण। ११. शर्मा, उमाशंकर (१९८३). निरुक्तम्. वाराणसी: चौखम्भा विद्या भवन । १२. सिंह, कर्ण. (१९८६). भाषाविज्ञान (Compartive Philology and History of Linguistic). मेरठः साहित्यभण्डार। १३. पाणिनि. (१९८७). अष्टाध्यायी. दिल्ली: चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य 137 १४. गुप्ता, डॉ. श्रीमति पुष्पा. (२००३). मुद्राराक्षसम्. दिल्ली: ईस्टर्न बुक लिंकर्स । १५. द्विवेदी, कपिलदेव. (२००६). भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र. वाराणसीः विश्वविद्यालय प्रकाशन, दशम संस्करण । १६. वररुचि, सम्पा० पाठक, जमुना एवं मिश्र, कृद०(२००७). प्राकृत-प्रकाशः. वाराणसी: चौखम्भा कृष्णदास अकादमी। १७. द्विवेदी, रेवा प्रसाद. (२००८). कालिदास ग्रन्थावली. उज्जयिनीः कालिदास संस्कृत अकादमी। १८. आप्टे, वामन शिवराम.(२००९). संस्कृत-हिन्दी कोश. वाराणसी: चौखम्बा संस्कृत सीरीज ओफिस । १९. दीक्षित, पुष्पा. 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Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदयानन्दचरितममहाकाव्यम् : एक समीक्षा हेमवती नन्दन शर्मा "श्री दयानन्दचरित महाकाव्यम्" के रचयिता परम मनीषी विद्वान आचार्य रमाकान्त उपाध्याय है। (आपश्री का जन्म उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर जनपद के झोंआरा ग्राम में सन् १९७२ में हुआ था । इनके पिता का नाम श्री नागेशोपाध्याय जो ज्योतिष शास्त्र के परम ज्ञाता थे इनकी माता का नाम श्रीमती दिलराजी देवी अत्यन्त धार्मिक गृह कार्य में कुशल एवं व्रत, जप, तीर्थादि में निष्ठा रखने वाली थी। ब्राह्मण पुत्र होने के कारण आपको संस्कृत आदि ग्रंथों के अध्ययन की प्रेरणा विरासत से ही प्राप्त हुई। इसी की फलश्रुति है कि आपने 'श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम्' की रचना कर डाली । श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् बीस सर्गों में विभक्त है। इस महाकाव्य के प्रणेता आचार्य रमाकान्त उपाध्याय ने इन बीस सर्गों के अन्तर्गत विद्यातीर्थ महाकवि महर्षि दयानन्द के पावन जन्म का वर्णन, उनके व्याकरण, वेदादि शास्त्रों का अध्ययन श्री दयानन्दजी के द्वारा पशु, पक्षी आदि मांस भक्षण एवं मदिरा पानी की अत्यन्त निंदा के साथ बालविवाह, मूर्तिपूजन आदि कुप्रथाओं का खण्डन, पंडितों से शास्त्र वाद-विवाद, अन्य कुमतों का खण्डन एवं वेदोक्त मंत्रों की प्रमाणिक व्याख्या, हिमालय, हरिद्वार, गंगादि वंदनीय स्थानों का वर्णन किया है। इस प्रकार महाकाव्य के रचयिता आचार्य रमाकान्त उपाध्याय ने समग्र विषय को आत्मसात् करते हुये महर्षि दयानन्द के सम्पूर्ण-चरित्र को उद्घाटित करने का प्रयास किया है जो अपने आप में अद्वितीय है । रस-विमर्श रस शब्द "रस्यतेआस्वाद्यते"१ इस व्युत्पत्ति से निष्पन्न है । जिसका अर्थ है आस्वाद्यमान या जिसका आस्वादन किया जा सके । काव्यशास्त्र में रस शब्द का प्रयोग शृंगारादि रसों के अर्थ को व्यक्त करता है । अभिप्राय यह है कि जिसके द्वारा भावों का आस्वादन हो, वह रस है। रस-संख्या ___ यद्यपि रसों की संख्या को लेकर अत्यधिक विवाद है। लेकिन शास्त्रीय परम्परा, सर्व सम्मति से नौ रसों को मान्यता प्रदान की थी । भरत और उनसे पूर्ववर्ती आचार्यों ने आठ रसों की ही मान्यता Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139 Vol. XLI, 2018 श्रीदयानन्दचरितममहाकाव्यम् : एक समीक्षा प्रदान की थी । शांत रस को मुनि भरत ने अभिनेय मानकर उसका वर्णन नहीं किया । सर्वप्रथम उद्भट ने नौ रसों का वर्णन किया है - श्रृंगारहास्यकरुणरौद्र वीर भयानकः । वीभत्साद्भूतशांताश्चनवनाट्येरसास्मृताः ॥ अर्थात् शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, विभत्स, अद्भूत और शांत । श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् में रस-योजना करुण रस : इष्टनाश एवं अनिष्ट की प्राप्ति से उत्पन्न होने वाला रस करुण रस कहा जाता है। इसका स्थायी भाव शोक है। इसकी उत्पत्ति शोक, क्लेश, विनिपात, इष्टजन-विप्रयोग, विभवनाश, वध आदि विभावों द्वारा होती है। धनञ्जय ने इष्टनाश या अनिष्ट की प्राप्ति से करुण रस की उत्पत्ति मानी है। इष्टनाशादानेष्टप्राप्तौ शोकात्मा करुणो रसः श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् में करुण रस का परिपाक स्पष्टः दृष्टिगोचर होता हैं एक उदाहरण दृष्टव्य है, जिसमें अनेक नारियाँ वैधव्य से तप्त हो रही है, वे रो रही है हे दयाशीलों ! उन पर दया करो । जिससे कि उनका वह क्रन्दन देश को न जलाये । अतः शीघ्र ही उनका विवाह करना उचित है । अनेकाश्चवैधव्यदग्धास्त्विदानी __ रुदन्तीतितासां दयार्दा दयध्वम । यथा क्रन्दनं तद्धहेन्नैव देश तथा तद्विवाहं पुनः कारयध्वम् ॥ शान्त रस: तत्त्व-ज्ञान तथा वैराग्य के कारण शांत रस उत्पन्न होता है इसका स्थायी भाव निर्वेद है । शांत रस के आलंबन है - अनित्य रूप संसार का ज्ञान तथा परमार्थ-चिंतन आदि । श्री दयानन्दचरितमहाकाव्यम् के दूसरे सर्ग में तत्त्व-ज्ञान का प्रसंग उपस्थित हुआ है जिसका उदाहरण द्रष्टव्य है - जोवोऽस्ति नित्यः प्रकृतिश्च नित्या नित्योजगत्कारणमीश्वरश्च । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMBODHI 140 हेमवती नन्दन शर्मा नित्यं जगन्नैव विकारवत् तत् । प्रबोध्यवंशो विवमौ गुरुणाम् ॥ गुरुवंश यह उपदेश देकर शोभित हुआ कि जीव नित्य है, प्रकृति भी नित्य है और संसार का कारण ईश्वर भी नित्य है परन्तु संसार अनित्य और विकारी है । वीर रस : श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् के रचयिता आचार्य रमाकान्त उपाध्याय ने वीर रस का वर्णन प्रसंगानुसार किया है जिसका एक उदाहरण यहाँ दृष्टव्य है - झटिति झङ्कृतिझम्पकृतिर्यति र्धनरवो मृगराजसमक्रमः । करणरावकरोद्गत खड्गकं निजकेरणबभञ्जसशिञ्जनम् ॥ यतिवर दयानन्द ने फुर्ती एवं झटके के साथ घन-गर्जन करते हुये सिंह के समान बल दिखाते हुये, करणराव के हाथ की तलवार को अपने हाथ से पकड़कर झट से तोड़ दिया । गुण-विमर्श : आचार्य वामन ने गुण के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि "काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मागुणाः"७ अर्थात् काव्य के शोभाकारक धर्म को गुण कहते हैं । गुणों के भेद : गुण के भेद - निरूपण व्यापक आधार पर किया गया है । इस सम्बन्ध में आचार्यों के पांच वर्ग है । प्रथम वर्ग में दंडी, वामन, वाग्भट्ट आदि हैं, जिन्होंने गुण के दस भेद माने हैं । द्वितीय वर्ग में आनन्दवर्धन मम्मट, पं. विश्वनाथ व जगन्नाथ है, जिन्होंने पूर्वोक्त दस गुणों का अन्तर्भाव माधुर्य, ओज तथा प्रसाद तीन गुणों में कर लिया । प्रसाद गुण : प्रसाद का अर्थ है - प्रसन्नता या विकसित होना, इसके मूल में चित्त की व्यापकता या व्याप्ति निहित है। श्रवण मात्र से ही जो रचना चित्त में व्याप्त हो जाये, उसे प्रसाद गुण कहते हैं । सरलता, सर्वजन सुलभता तथा सहज ग्राह्यता इसकी विशेषताएँ हैं - श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् में से प्रसाद गुण का एक उदाहरण दृष्टव्य है - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 श्रीदयानन्दचरितममहाकाव्यम् : एक समीक्षा 141 तदामुदापूज्यगुरुः सगद्गद स्वमङ्कमारोप्यजगादतं पुनः । गतिं त्वदीयां विमलां मति शुभां नतिं च सम्प्रेक्ष्य गतोऽस्मिसन्मुदम् ॥ सहर्ष गद्गद् हो पूज्य गुरु ने उसे गोद में बैठाकर कहा – तुम्हारी गति और विमल शुभमति ‘एवं नति (नम्रता) को देखकर मैं तो अतुल हर्षित हो रहा हूँ। माधुर्य गुण : दण्डी के मत से रसमपता को माधुर्य कहते हैं, उन्होंने माधुर्य का तात्पर्य सरलता, शिष्टता तथा सुसंस्कृतता से लिया है : मधुरं रसवद् वाचि वस्तुन्ययिरसः स्थितः । येन माद्यंति धीमंतो मधुनेव मुधव्रता । प्रस्तुत महाकाव्य में से माधुर्य गुण का एक उदाहरण प्रस्तुत है - दिशां प्रसादे पवनः सुखववौ गवां प्रसादे जनमण्डलं बभौ । बभुस्तदानी निजराष्ट्रभास्वरा मुदं दधानाश्च शुभाशिषो ददुः ।१० अलंकार-विमर्श अलंकार दो शब्दों के मेल से बना है - अलम और कार । जिसका अर्थ होता है - शोभाकारक पदार्थ । “अलंक्रियतेऽनेन इत्यलंकारः" अर्थात् जो अलंकृत करे अथवा जिसके द्वारा अलंकृत किया जाय उसे अलंकार कहते हैं । आचार्य दण्डी ने भी काव्य के शोभावर्द्धक धर्म के रूप में अलंकारों को मान्यता प्रदान की हैं काव्य-शोभा-करान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते ९ उपमा अलंकार : आचार्य मम्मट ने उपमा अलंकार का लक्षण इस प्रकार किया है कि उपमान और उपमेय के भेद होने पर भी उन दोनों का एक समान धर्म से सम्बन्ध उपमा कहलाता है - साधर्म्यमुपमा भेदे१२ आचार्य रमाकान्त उपाध्याय द्वारा रचित श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् में से उपमा अलंकार का एक उदाहरण दृष्टव्य है - Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 हेमवती नन्दन शर्मा SAMBODHI परीक्ष्य पाण्डित्यमृपेम॑षापराः परीक्षकावेदनिधे शातुरा । समूचि रे ते बुधबालशास्त्रिणं मृगा यथा तस्य पुरोहरेर्वयम ॥१३ झूठे पण्डितों ने ऋषि के पाण्डित्य की परीक्षा की । वे अति आतुर होकर बालशास्त्री से बोले उस वेदनिधिसिंह के सामने तो हम मृग हो रहे हैं । यहाँ पर पाण्डित्य परीक्षा के अन्तर्गत ऋषि दयानन्द को सिंह की उपमा एवं झूठे पंडितों को मृग की उपमा दी गई है। रूपक अलंकार - रूपक अलंकार का लक्षण स्पष्ट करते हुये आचार्य मम्मट ने लिखा है कि “तद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययो ।१४ अर्थात् उपमान और उपमेय का जो अभेद वर्णन है, वही रूपक अलंकार है । प्रस्तुत महाकाव्य से रूपक अलंकार का एक उदाहरण दृष्टव्य है - मदांदिषड्वर्गपलायनंश्रुत पराजितंमत्तगजेन्द्रवद्रलम् । पद प्रणष्टं च विरोधिनां शिशौ __ चकासति प्रेङ्खति मूल शङ्करे ॥१५ यहाँ पर "गजेन्द्ररूपी विरोधी एवं सिंह रूपी मूल शंकर के कारण रूपक अलंकार है । इसके अतिरिक्त कवि आचार्य रमाकान्त उपाध्याय ने श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् में अतिशयोक्ति, काव्यलिङ्ग अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों का प्रयोग भी अपने काव्य में किया है। छन्द योजना : कवि आचार्य रमाकान्त उपाध्याय ने श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् में अनेक छन्दों का प्रयोग किया है जिनमें शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, वंशस्थ, मन्दाकान्ता, उपेन्द्रवज्रा, द्रुतविलम्बित भुजंग-प्रयात, अनुष्टुप आदि है। सूक्ति -योजना : महाकाव्य की विषय-योजना लोक-व्यवहार से सम्बन्धित होने के कारण सूक्तियों का बाहुल्य काव्य में प्राप्त होना स्वभाविक एवं काव्यशास्त्रीय दृष्टि से पूर्णतः उचित ही है। श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् में अनेक विषयों से सम्बद्ध सूक्तियों का प्रयोग कवि ने किया है, उनमें से कुछ उदाहरण यहाँ दृष्टव्य है परार्थहन्तुर्विकृतिर्जगत्याम् ।१६ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 श्रीदयानन्दचरितममहाकाव्यम् : एक समीक्षा 143 दूसरे के हित को नष्ट करने वाले का संसार में तिरस्कार ही होता है । वृषा मियन्तेन च काक-शापैः ।१७ कौओं के शाप से बैल (बलशाली) नहीं मरा करते । निरस्तपादपे देश एरण्डोऽपि द्रुमायते ।१८ जिस देश में वृक्ष नहीं होते, वहाँ ‘एरण्ड' (रेडी) को ही पेड़ समझा जाता है । दारिद्र्य दोषो गुणराशिनाशी ।१९ दारिद्र्य समस्त गुणों पर पानी फेर देता है । श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् की भाषा शैली : कवि की भाषा भी स्वयं के व्यक्तित्व के अनुरूप ही होती है। प्रस्तुत काव्य में परिष्कृत, परिशुद्ध संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ है । भावों के विन्यास, कोमल, कल्पना, चारुता, सूक्ति-साधुना, प्रकृतिचित्रण आदि प्रस्तुत काव्य में सहजतया विद्यमान है । इस प्रकार प्रस्तुत काव्य की भाषा-शैली अत्यन्त सरल, सहज एवं भावगम्य है । इस प्रकार कवि आचार्य रमाकान्त उपाध्याय द्वारा रचित श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् की साहित्यिक समीक्षा के दोनों पक्षों (भाव एवं कला पक्ष) के द्वारा समीक्षा करने पर ज्ञात होता है कि इस काव्य में दोनों ही पक्षों में समाहित तत्त्वों का प्रयोग कवि ने यथा स्थान किया है । सन्दर्भ : १. वाचस्पत्यम् - श्रीतारानाथ वाचस्पति, पृ. ४७९४ २. काव्यालंकारसार संग्रह-उद्भट ४/४ ३. दशरूपक - ४/८१ श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् ५/४४ श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् २/५४ ६. श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् ४/९९ ७. काव्यालंकारसूत्रवृत्ति-वामन ३.१.१ श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् ३/४१ ९. काव्यादर्श-दण्डी १/५१ १०. श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् १/८ & 32 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 हेमवती नन्दन शर्मा SAMBODH) ११. काव्यादर्श-दण्डी १/१ १२. काव्याप्रकाश १०/८७ १३. श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् ६/५१ १४. काव्यप्रकाश ११/९३ १५. श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् १/५२ १६. श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् ७/२३ १७. श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् ७/२६ १८. श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् १६/३० १९. श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् ९/४६ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुसव्विरी के मुकाम और राजस्थान ज्योति कुमावत यथा सुमेरुः प्रवरो नगानां, यथाण्डजानां गरूणः प्रधानः । यथा नराणां प्रवरः क्षितीशः स्तथाकलानामित चित्रकल्पः ॥३९॥ विष्णुधर्मोत्तर पुराण (तृतीय खण्ड) "जैसे पर्वतों में सुमेरू पर्वत श्रेष्ठ है, पक्षियों में गरुण प्रधान है और मनुष्यों में राजा उत्तम है उसी प्रकार कलाओं में चित्रकला में सर्वश्रेष्ठ है ।"१ कलाओं से सम्बद्ध इस वाक्य से प्रश्न उठता है कि चित्रकला ही इतनी अधिक प्रशंसनीय क्यों है ? उत्तर के लिए संक्षेप में अन्य ललित कलाओं के साथ चित्रकला को जोड़कर देखना होगा। हमारी ज्ञानेन्द्रियों में आँख सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील है। हम अपने ज्ञान का ८० प्रतिशत आँखों के माध्यम से प्राप्त करते है। कमल शब्द कहने पर आँख का जो अनुभव हैं वही कमल के रूप को कल्पना में स्थापित करके उसके प्रभाव को व्यंजित करता है । सौन्दर्य शब्द का अर्थ विस्तार कितना ही हो गया हो मूलतः उसकी अनुभूति का माध्यम आँख ही है । कई विद्वान संगीत और काव्यकला को ललित कलाओं में श्रेष्ठ मानते है परन्तु उनकी सौन्दर्यानुभूति ध्वनि और शब्दों पर निर्भर करती है जो चाक्षुष रसानुभूति क्षमता से कई पीछे है। इन कलाओं का रसास्वादन करने के लिए बुद्धि से होते हुए मन तक का मार्ग तय करना होता है जबकि चित्रों को देखते ही उसके रंगों, आकारों, संतुलन-समन्वय से मन सीधे ही प्रभावित होता है जो एक सार्वभौमिक प्रभाव है। मूर्तिकला चित्रकला का ही एक अगला स्तर है परन्तु यह कई मायनों में चित्रकला से पिछड़ा हुआ है। चित्र फलक पर द्विआयामी चित्रण के साथ-साथ कलाकार तीसरे आयाम का भी आभास सम्भव बना देता है जिससे मूर्तिकला की आवश्यकता पर संदेह होने लगता है। मूर्तिकला के लिए अभिव्यक्ति माध्यम ठोस पदार्थ होता है जबकि वही प्रभाव चित्रण में रंगों द्वारा भी उकेरा जा सकता है । ललित कलाओं का एक पक्ष स्थापत्यकला भी है जो उपयोगिता की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है या यूं कहें कि स्थापत्य में उपयोगिता का प्रश्न पहले उठता है। किसी भी कलाकार के लिए स्थापत्य कला द्वारा अपने भावों की अभिव्यंजना इतनी आसान नहीं होती जितनी कि एक चित्र के द्वारा । अतः चित्रकला अन्य सभी कलाओं में अपना सर्वोच्च स्थान बनाये Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ज्योति कुमावत SAMBODHI रखती है। मनुष्य ने अपने मन में उठने वाले विचारों को कला के माध्यम से जो साकार या मूर्त रूप प्रदान किया, वह देश-काल की सभी सीमाओं को लांघकर सबके लिए समान रूप से बुद्धि-ग्राह्य हो गया। अस्तु विचारों के आदान-प्रदान के लिए जहाँ मनुष्य की भाषा का प्रभाव क्षेत्र सीमित है, वहाँ मनुष्य की कला का क्षेत्र विस्तृत है और सार्वभौम है । चित्रण हमारे जीवन में आदिकाल से लयबद्ध रूप से निरन्तर जुड़ा रहा है। सम्पूर्ण मानवीय जीवन चित्रकला में अनुरंजित है । कलाकार अपने जीवन के अनुभव, कल्पना, प्रतिक्रिया और आन्तरिक उद्वेलन को चित्रण के माध्यम से दशक के सामने प्रस्तुत करता है। भारतीय चित्रकला का उद्भव एवं समकालीन स्वरूप भी प्रायः यही कथानक का बखान करना है। संस्कृति की संवाहिका, सौन्दर्यानुभूति, धार्मिक एवं आध्यात्मिक, सार्वभौमिक एवं प्रतीकात्मकता का गुण लिए हुए भारतीय चित्रकला वैश्विक कला उपादानों में महत्वपूर्ण है। भीमबेठका, पंचमढ़ी, सिंहनपुर, होशंगाबाद आदि शैलाश्रयों में प्राप्त प्राक्कालीन कला चित्रण की अस्तित्व गाथा का रूपांकन हमारे समक्ष करती है। इन शैलाश्रयों से निकलकर कला शनैः शनैः सामाजिकता रूपी प्रयोगशाला में प्रवेश कर गई। जहाँ अनेक समुदायों ने इसे अपनी-अपनी रूचि अनुसार परिवर्तित परिवधित किया। आदिवासियों की अनगढ़ कूची से बौद्ध भिक्षुओं की तूलिका से होते हुए कला कुमावत, जांगिड़, सोनी समुदाय विशेष के ब्रश के वश में आ गई । भारतीय कला का यह इतिहास कई उतारचढ़ाव का साक्षी है। चित्रकला की चर्चा करते वक्त उसके चित्रकार का जिक्र सबसे पहले जहन में आता है। भारत में भी कई ऐसे चित्रकार हुए जिन्होंने यहां की कला को धूमिल से प्रकाश पुंज में बदल दिया। यहां की अपनी शास्त्रीय कला शैली है परन्तु समय के साथ यहा की कला पर भी बदलाव के लक्षण स्पष्टतः दिखाई देते है। भारत में वैदेशिक सत्ताओं का हस्तक्षेप बहुत ही लम्बे समयान्तराल तक रहा जिसने यहाँ की कलानुरंजना का रूख ही बदल दिया। गुप्तकाल के स्वर्णिम काल के पश्चात् मध्यकाल एक ऐसा महत्वपूर्ण अवसर देश के इतिहास में आता है जिसमें राजनैतिक, सांस्कृतिक संवेदनशीलता ने एक नवीन युग का सूत्रपात किया। मध्यकाल की पूर्वपीठिका से उसके अन्त तक साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक सभी पक्षों में विरोध और सामन्जस्य का मिला-जुला रूप दिखाई देता है। ___ कलात्मक पक्ष पर ध्यानकेन्द्रित करने पर हम पायेगें कि अब भारतीय कला शुद्ध रूप से भारतीय न रही । यहाँ हस्तक्षेप आरम्भ हो चुका था। हिन्दू कलाकारों के साथ-साथ यहाँ मुस्लिम कलाकारों ने भी प्रचूर कलाभिव्यक्ति की। मुस्लिम कलाकारों का भारत में प्रवास किया गया जिसके पश्चात् वे भारत में ही रहकर सृजनकारी कार्य करने लगे । चित्रकार के लिए अरबी भाषा में 'मुसव्विर' शब्द का उपयोग किया जाता है जो "मुसव्विरी" के फन में माहिर होता है । जो एक अरबी स्त्रीलिंग शब्द है जिसका अर्थ चित्रकला या तस्वीर बनाने की कला होता है। गौरतलब है कि मुसव्विरी के लिए इस्लाम में यह मान्यता है कि इसके पवित्र धर्म ग्रन्थ, कुरआन में जीवित वस्तुओं का चित्रण करना मना है । इस निषेध के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि किसी भी जीवित वस्तु का प्रतिरूपण भगवान् से स्पर्धा करना है। क्योंकि सिर्फ वही है जो प्राणवान चीजें बना कता है । एक जनश्रुति यह भी है कि जिस घर में कुत्ता Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 मुसव्विरी के मुकाम और राजस्थान 147 या मूर्ति होती है, उसमें फरिश्ते प्रवेश नहीं करते.... जिस दिन मुर्दे पुनः जीवित होकर खड़े होंगे उस दिन मूर्ति की रचना करने वालों को ईश्वर सबसे अधिक दण्डनीय समझेगा..... और जो उन्हें बनाने वाले है वे उस दिन दण्डित किये जायेगें उनसे कहा जायेगा "जो तुमने बनाया है, उसमें जीवन का प्रवेश करो ।'६ यह एक अशुद्ध अर्थ निरूपण है कुरआन में एक भी शब्द जीवन्त वस्तुओं के प्रतिरूपण के पक्ष में या विपक्ष में लिखा ही नहीं गया है लेकिन यह भी सत्य हे कि यह आठवीं शती के मध्य एक निषेध प्रचलित हो गया और इस्लामिक विचारधारा का एक अंग बन गया जो न पूरी तरह से नकारा गया और न पूरी तरह से अपनाया गया । जीवन्त वस्तुएं न चित्रित करने का जिक्र हदीसों में किया गया है। मोहम्मद साहब की मृत्यु के पश्चात् उनकी उन सूक्तियों एवं विचारों का संकलन किया गया हो जो कुरआन में उपलब्ध नहीं थे। इन्हें "हदीस" कहा गया । कुरआन एवं हदीस का सम्मिलित नाम शरीअत (श) है । प्रत्येक मुसलमान चाहे यह खलीफा या सम्राट ही क्यों न हो शरीअत के नियमों से सीमित है। धर्म शास्त्रियों ने इसकी व्याख्या का ही अधिकार स्वीकार किया है। इनमें परिवर्तन का अधिकार किसी को नहीं है । ये हदीसें हमें हजारों की तादाद में प्राप्त होती है और इनका अध्ययन कर व्याख्या करना सिर्फ उलेमाओं (इस्लामी धर्म शास्त्री) के ही वश का कार्य है। जब इन उलेमाओं ने हदीसों का संकलन किया तब बेहद बारिकी से छान-बीन की परन्तु इस कार्य में त्रुटि की सम्भावना अवश्य बनी रहती है। इसलिए उलेमाओं ने हदीसों की व्याख्या करते वक्त इन्हें कुछ वर्गों में विभाजित कर दिया जैसे मुख्य हदीस, गढ़ी हुई या कमजोर हदीस। जीवन्त वस्तुओं के प्रतिरूपण सम्बन्धी हदीस इन्हीं कमजोर में हदीसों में गिनी जाती मुस्लिम समाज का एक बहुत बड़ा तबका इन निषेधों को स्वीकार करता है तो वही एक तबका ऐसा भी है जो इसे स्वीकार नहीं करता। १२वीं सदी के लेखक मौलवी नवी ने लिखा है कि इस्लाम धर्म के अनुसार ईश्वर की सृष्टि का अनुकरण करके तस्वीरें बनाना गुनाह का काम है। इसलिए जो लोग भी कपड़े, कालीन, सिक्के या बरतन पर चित्र बनाते है वे इस्लाम के नियम से गुनहगार है। इस निषेध का परिणाम यह हुआ कि साधारण मुस्लिम सभ्यता में मूर्तिशिल्प और चित्रकार को कभी भी प्रधानता नहीं मिली। मुसलमानों ने चित्रों और मूर्तियों का केवल भंजन ही नहीं किया। सामान्य मुस्लिम जनता ललितकला मात्र से उदासीन रहने लगी। बाद में इस्लाम में जो भी उदारता आई, वह ईरान के प्रभाव के कारण। इसी भावना से प्रेरित मुस्लिम समाज कलाओं की ओर आकृष्ट हुआ एवं चित्र और संगीत ये वर्जित नहीं रहे ।११ उत्तरोत्तर मुस्लिम समुदाय में कला के प्रति आकर्षण में वृद्धि होती गई और वे ललित कलाओं में रूचि प्रदर्शित कर अपने रचनाकौशल का प्रदर्शन करने लगे। मुगल शासक अकबर ने यहाँ तक कहा कि "बहुत से लोग चित्रों से घृणा करते है, किन्तु मैं ऐसे लोगों को नापसंद करता हूँ। मेरा ख्याल है कि ईश्वर को पहचानने का चित्रकारों का अपना अलग ढंग होता है । चित्रकार जब जीवित प्राणियों के चित्र बनाता है, तब अवयवों को एक-एक कर यथास्थान बिठा देता है किन्तु सच के अन्त में वह यह सोचे बिना नहीं रह सकता कि मूर्ति में प्राण डालने का काम भगवान् ही कर सकते Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ज्योति कुमावत SAMBODHI है । इस प्रकार चित्र बनाते-बनाते वह ईश्वर की सत्ता का ज्ञान प्राप्त करता है ।"१२ अतः यह स्पष्ट है कि आज से कई सौ वर्षों पूर्व से ही मुस्लिम समुदाय कला क्षेत्र में सक्रिय है । भारत में मुस्लिमों के आगमन के पश्चात् यहाँ सत्ता हासिल करने के लिए आक्रान्ताओं में होड़. मच गई। ये मुस्लिम आक्रमणकर्ता सिर्फ युद्ध पर ही ध्यानकेन्द्रित नहीं करते थे अपितु ये कला के संरक्षणकर्ता भी थे। सन् ११९२ ई. में तराईन के द्वितीय युद्ध के परिणामस्वरूप दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई ।१३ इसके पश्चात् भारत में निरन्तर आक्रमणों का दौर चलता रहा जिसने राजनीतिक रूप से तो देश को असंतुलित कर दिया परन्तु धीरे-धीरे कलाओं में उन्नति का बीजांकुर होने लगा। पूर्वविदित है पूर्व काल में मुस्लिम चित्रण को पाप समझते थे। इस दृष्टिकोण के कारण कट्टर मुसलमान कम-से-कम जीवजन्तुओं को चित्रित करते थे। इसलिए दिल्ली के सुल्तान, मुसलमान अमीर और जन साधारण चित्रकला से दूर रहते थे और सुल्तान चित्रकारों की संरक्षण नहीं देते थे ।१४ यही बात स्थापत्य कला के लिए पोषक सिद्ध हुई और हमें अनेकों इस्लामिक स्थापत्य कला के उदाहरण हमें दिखाई देते है। कुतुबुद्दीन एबक से लेकर शाहजहाँ तक मुस्लिम शासकों ने स्थापत्य को खूब उन्नति दी जिसके परिणामस्वरूप कुतुबमीनार सहरायम का मकबरा, लालकिला, ताजमहल जैसी कई अद्भूत ईमारतें भारतीय मानचित्र पर अंकित हुई। स्थापत्य कला के पश्चात् धार्मिक शिथिलता की कट्टरता के शिथिल पड़ जाने के कारण चित्रकला का उन्नयन होता दिखलाई पड़ता है। इस समय बने चित्रों पर ईरानी प्रभाव दिखाई देता है। मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर का पुत्र हुमायूँ अपने निवर्सन काल में फारस (ईरान) रहा जहाँ वह फारसी (ईरानी) चित्रकला के सम्पर्क में आया। वह अपने साथ दो चित्रकारों मीर सैय्यद अली तथा ख्वाजा अब्दुलसम्मद को भारत लाया ।१५ जिन्होंने मुगल शैली का सूत्रपात किया। अकबर के काल में दसवन्त और बसावन महत्वपूर्ण कलाकार थे लेकिन मुस्लिम चित्रकारों में शीराजी और मीर सैय्यद अली भी विशिष्ट प्रिय थे। इन्हीं के साथ फारूख शेख, फारूख चेला, फारूख कुलामक, आकारिजा भी प्रमुख चित्रकार थे जिन्होने हिन्दू ग्रन्थ चित्रण में रूचि ली ।१६ अकबर की इस कला परम्परा को उसके पुत्र जहागीर ने आगे बढ़ाया जिसका काल मुगल शैली का स्वर्णकाल कहा जाता है। जहाँगीर के दरबार में फारसी, हिन्दू, मुस्लिम चित्रकार थे । कुलमाक, फारूख बेग, आकारिजा अबुल हसन (आकारिजा का पुत्र), मोहम्मद नादिर, मोहम्मद मुराद ऐसे चित्रकार थे जो सूदूर देशों से भारत आए और यही बस गये और भारतीय विषयों पर चित्रण किया। बिशनदास, गोवर्धन, मनोहर के साथ ही मिस्किन, दौलत, उस्ताद मंसूर (भारतीय मुस्लिम) बिचित्तर भी प्रमुख कलाकार थे। इन्हीं के साथ जहाँगीर काल में मुस्लिम महिलाएँ भी चित्रण करती थी जिनमें साइफाबानो, नदिरा बानो, रूकइमबानो प्रमुख थी ।१७ मुगल साम्राज्य की कला जहागीर के काल के पश्चात् पतनोन्मुख होने लगी इसका परिणाम यह हुआ कि चित्रकार संरक्षण के लिए प्रान्तीय स्तर पर पलायन कर कला कर्म में लीन हो गए । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 मुसव्विरी के मुकाम और राजस्थान 149 तुर्की मुर्गी उस्ताद मंसूर की एक कृति राजस्थान में कला इतिहास के संदों में यहाँ के राजा-महाराजाओं का कला प्रेम अत्यधिक कला हितैशी रहा । समय-समय पर इन कलाकारों को राजा-महाराजा पुरस्कृत भी करते थे । पुरस्कार स्वरूप प्रायः रहने का स्थान, जागीरें भी देते थे । यहाँ कलाकारों के सम्मान, प्रश्रय और पूर्ण संरक्षण मिलता था ।१८ राजस्थान की चित्रकला को चार भागो में विभाजित किया जाता है यथा : (१) मेवाड़ (२) मारवाड़ (३) हाड़ौती (४) ढूंढाड़ । इन क्षेत्रों के विभिन्न ठिकाणों में चित्रकला फली-फूली । N मालवी रागिनी : रागमाला (मेवाड़ शैली) साहिबदीन द्वारा चित्रित मेवाड़ शैली के आरम्भिक चित्रकारों में मुस्लिम नाम अधिक है। निसारदीन, साहिबदीन, अल्लाबक्श, नुरूद्दीन, बख्तावर आदि प्रमुख थे। दिल्ली से आए निसारदीन के द्वारा १६०५ ई में बनी Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 ज्योति कुमावत SAMBODHI "रागमाला" प्राप्त हुई ।१९ निसारदीन के पुत्र साहिबदीन ने भी मेवाड़ शैली में अपना अमूल्य योगदान दिया । उसने रागमाला, गीतगोविन्द, रसिकप्रिया, भागवत और रामायण के चित्रों की एलबम बनाई । बख्तावर एक पारम्परिक चित्रकार था जो उदयपुर के समीप बेदला ठिकाने में कपड़ों पर जन्तुओं की आकृतियाँ बनाता था ।२१ मारवाड़ की कला में मुगल प्रभाव छन-छनकर आने लगा था। यहाँ के चित्रकारों में किशनदास, देवदास, शिवदास, गोपी तथा फतह मुहम्मद के नाम उल्लेखनीय है ।२२ बीकानेर की कला में मस्लिम प्रभाव सर्वाधिक है। उस्ता हामिद रूकनद्दीन ने बीकानेर राजदरबार में रहकर आचार्य केशवदास की 'रसिकप्रिया' पर आधारित बीकानेर शैली के श्रेष्ठ चित्र बनाए ।२३ १६०६ ई. में नूर मोहम्मद पुत्र शाह मोहम्मद का बनाया बीकानेर शैली का सर्वाधिक पुराना व्यक्ति चित्र है ।२४ बीकानेर शैली को समृद्ध बनाने में मुस्लिम कलाकारों का सर्वाधिक योगदान रहा। अजमेर में भी चाँद, तैय्यब, अल्लाबक्श, उस्ना और साहिबा आदि चित्रकारों ने चित्रसृजना की ।२५ ढूंढाड़ शैली का प्रमुख केन्द्र जयपुर रहा । दरबारी चित्रकार मोहम्मद शाह व साहिबराम के समय जयपुर चित्रशैली ने अपना पूर्ण स्वतंत्र रूप प्राप्त कर लिया था ।२६ जयपुर के समीप स्थित उनिराया मीराबक्श की कर्मस्थली रहा जिसने श्रीमद् भागवत् की सचित्र प्रति का निर्माण किया ।२७ वहीं कोटा में उसमान, लुकमान जैसे चित्रकारों ने चित्रण कार्य किया । परम्परागत रूप से कला सृष्टि की रचना करते हुए इन कलाकारों ने आगे आने वाले कलाकारों को प्रेरणा और अभिव्यक्ति का साहस दिया जिसके परिणाम स्वरूप आज भारत की चित्रकला का सारांश मुस्लिम चित्रकारों के वर्णन बिना अधूरा है । आधुनिक भारतीय चित्रकारों में एक प्रमुख नाम अकबर पद्मसी कहा है जो मुख्यतः पेंटर है पर उन्होंने मूर्तिशिल्प सरीखे माध्यमों में उल्लेखनीय काम भी किया ।२८ मदर टेरेसा एम.एफ. हुसैन की एक कृति Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 मुसव्विरी के मुकाम और राजस्थान 151 सन् १९४८ में बम्बई में "प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना हुई जिसमें एम. एफ. हुसैन संस्थापक सदस्य थे । जो बेहद चर्चित चित्रकार थे । बुनियादी तौर पर हुसैन प्रतीकवादी चित्रकार थे उनकी मानवाकृतियों में एक विशेष प्रकार की विकृति उत्पन्न की गई । उन्होंने मोटे-मोटे रंग लगाकर सरलीकृत मानवाकृतियों से अपने विषयों का प्रकट किया । सैय्यद हैदर रजा भी इसी समूह का एक महत्त्वपूर्ण नाम है ठोस रंगों, ज्यामीतिय अलंकरणों से दर्शक को एक अचरज भरी नवीन सृष्टि के मध्य लाकर खड़ा कर दिया । रजा की कृतियों में बिन्दु सर्वाधिक रहस्यमयी है जिसका विश्लेषण कर चित्त सरल सौन्दर्यानुभूति करना है । ___ तैय्यब मेहता भारतीय मुस्लिम समकालीन चित्रकारों में महत्वपूर्ण रहे । इनके चित्रों में आकार कों का ध्यानपूर्वक अनुअंकन किया गया जिससे आन्तरिक भाव प्रकट हो गया । उन्होंने स्वतंत्रतापूर्वक भंजन किया जिससे वस्तुनिरपेक्ष आकारों से जीवित रिश्ते निकले जिन्होंने दबाव की तरंगों को रंगों में घोलकर हमारे समक्ष प्रस्तुत किया ।२९ गुलाम मोहम्मद शेख के चित्रां में स्वप्न व फन्तासी का वास्तविक रूप हमें देखने को मिलता है। भारतीय मुस्लिम कलाकारों की फेहरिस्त लम्बी है। जो कभी न खत्म होने वाली है। क्योंकि नीत-नवीन प्रयोग कर ये मुसव्विर नये मुकाम हासिल कर रहे है। इन्हीं की तरह राजस्थान में भी आधुनिक कलाकारों ने कला सजृन किया। इरशाद अली (किशनगढ़), इशहाक अहमद (जोधपुर), इसरार हसन (बीकानेर) निगार सुल्ताना (जयपुर), मोहम्मद रफीक (बीकानेर), डॉ. मोहम्मद सलीम (जयपुर), शहजाद अली शीरानी (किशनगढ़), शाहिद परवेज (उदयपुर) आदि कई मुस्लिम कलाकारों ने जीवनभर सक्रिय रहकर राजस्थान के कला वैभव को समृद्ध किया ।३० सन् १९४८ में जन्में अब्दुल करीम ने राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट्स से डिप्लोमा किया और अध्ययन के पश्चात् स्वतंत्र रूप से चित्रण किया जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों से नवाजा गया ।३१ अब्दुल मजीद नकवी टोंक के मालपुरा से तालुक रखते है। अनेक चित्रों में उनके रचना कौशल का गम्भीर्य देखा जा सकता है। कोटा के अगसर अली सागर भी इन चित्रकारों में महत्वपूर्ण है ।३२ इकबाल हुसैन झालावाड़ के रहने वाले है उनकी चित्र कला में सिक्ख धर्म से सम्बन्धित कई चित्र बने है। जिनमें से कुछ कनाडा देश में भी प्रदर्शित हो चुकी है। कहते है आतंकवाद का कोई चेहरा नहीं होता । इसके उलट, इकबाल की एक पेंटिंग में आतंकवाद का चेहरा बताया हुआ है। अन्य पेटिंग में पंचतत्व में विलीन होते इंसान को चित्रित किया गया है। इसमें जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी व आकाश के बीच एक इंसान के चेहरे को समाते हुए दिखाया गया है ।३३ मंजिलें उन्हीं को मिलती है जिनके सपनों में जान होती है, पंखों से कुछ नहीं होता दोस्तों हौंसलों से उड़ान होती है... इन्हीं पंक्तियों को चरितार्थ किया है जवाहर नगर (जयपुर) के निवासी और मिनिएचर पेंटिंग्स में एक मुकाम हासिल कर चुके आर्टिस्ट शाकिर अली ने। अपनी कला के जरिए भारत सहित कई देशों में सतरंगी आभा बिखेरने वाले शाकिर अली की गणना प्रदेश के उन कलाकारों में होती है जो भीड़ से जुदा होकर कला फलक को रोशन कर रहे हैं । स्वभाव से शर्मीले, प्रचार-प्रसार की चकाचौंध से दूर रहकर सादगी से नई-नई रचनाएँ करने वाले शाकिर अली को भारत सरकार पद्मश्री सम्मान से नवाज चुकी है ।३४ अपनी जायज जिद के पक्के शाकिर अली ने चित्रकला में परम्परागत कला को जीवन प्रदान करने के साथ नवचित्रकारों के लिए नवीन कला नमूनों को सृजन करने की उमंग प्रदान की है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 ज्योति कुमावत SAMBODH शाकिर अली की एक कृति एम.एफ. हुसैन के साथ कार्य कर चुके सैय्यद मेहर अली अब्बासी आज भी पूर्ण रूप से कला के क्षेत्र में सक्रिय हैं । कला हमेशा सीमाओं के परे एक स्वतंत्र जहां बनाना चाहती है । इस प्रक्रिया में मनुष्य स्वयं के दृष्टिकोण को शुद्ध करता है और समाज के उसूलों को तोड़कर सम्प्रेषण रूप कला तत्व मीमांसा को साकार कर चित्र में परिणत करता है । सैय्यद ने अपने चित्रों में पक्षियों का पतंगों की तरह और पतंगों को पक्षियों की तरह बनाकर कल्पना को नवीन स्तर दिया, गणेश का अत्यधिक ÇTM4¢ ¢Ü3¢ju accleansinHRIRes, सैय्यद मेहर अली अब्बासी की एक कृति Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 मुसव्विरी के मुकाम और राजस्थान 153 सम्पूर्ण अध्ययन के परिणाम स्वरूप हमारे दृष्टिपटल पर भारतीय मुसव्विरी के क्षेत्र में राजस्थान के मुसव्विरों के मुकाम बेहद महत्वपूर्ण दिखाई देते हैं जिनसे प्रेरित होकर निरन्तर सृजन कार्य गति प्राप्त कर रहा है। सन्दर्भ : ८. श्रीला १. द्विवेदी, डॉ. प्रेम शंकर : भारतीय चित्रकला के विविध आयाम; कला प्रकाशन, वाराणसी, २००७, पृ. ५ २. श्रोत्रिय, डॉ. शुकदेव : कला विचार; छवि प्रकाशन, मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश, पृ. १७ ३. श्रीवास्तव, ए.एल. : भारतीय कला; किताब महल, इलाहाबाद, पृ. ३ ४. वही; पृ. ४ 4. Kuiper, Kathleen : Islamic Art, Literature and Culture; Britanica Educational Publishing, New Delhi, 2010, Pg. 131 ६. अशोक : ईरान की चित्रकला; ललित कला प्रकाशन, अलीगढ़ उत्तर प्रदेश, पृ. ३३ ७. Kuiper, Kathleen : Islamic Art, Literature and Culture; Britanica Educational Publishing, New Delhi, 2010, Pg. 131 श्रीवास्तव, डॉ. हरिशंकर : मुगल शासन प्रणाली; वोहरा पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, इलाहाबाद, १९८९, पृ. १ ९. हारून रशीद (जमात-ए-इस्लामी हिन्द के सदस्य) के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार। १०. जोशी, ज्योतिष : कला परम्परा; यश पब्लिकेशन्स, दिल्ली, २०१०, पृ. ३८ ११. वही; ३८ १२. वही; ३८ १३. हाशमी, इजहार आलम : मध्य भारत में इस्लामी कला एवं स्थापत्य, शारदा पब्लिशिंग हाऊस, दिल्ली, २०१२ पृ.१ २१-१२२ शर्मा, डॉ. कालूराम व्यास, डॉ. प्रकाश : मध्यकालीन भारत का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास; पंचशील प्रकाशन, जयपुर, २००४, पृ. २९६ १५. बाघेला, डॉ. हेतसिंह : भारतीय संस्कृति का विकास; रिसर्च पब्लिकेशन्स, जयपुर, नई दिल्ली, पृ. १६८ १६. प्रताप, डॉ. रीता : भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास; राजस्थान हिन्दी गन्थ अकादमी, जयपुर, २०११, पृ. १४०-१४३ १७. वही; पृ. १४७ १८. माथुर, कमलेश : हस्तशिल्प कला के विविध आयाम; पंचशील प्रकाशन, जयपुर, १९९७, पृ. १२० १९. Vashistha, R.K. : Art and Artists of Rajasthan; Abinav Publications, New Delhi, 1995, Pg. 68 २०. वही; पृ. ६८-६९ २१. वही; पृ. ८६ २२. अग्रवाल, डॉ. गिर्राज किशोर : कला और कलम; अशोक प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़, २०१५, पृ. १५२ १४. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 ज्योति कुमावत SAMBODHI २३. प्रताप, डॉ. रीता : भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास; राजस्थान हिन्दी गन्थ अकादमी, जयपुर, २०११, पृ. १९९ २४. उपाध्याय, डॉ. विद्यासागर : आकृति- मारवाड़ कला विशेषांक; राजस्थान ललित कला अकादमी, जयपुर १९९७, पृ. ३४ प्रताप, डॉ. रीता : भारतीय चित्रकला एवं मूर्तिकला का इतिहास; राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, २०११, पृ. १० २६. गुप्ता, मोहनलाल : आकृति- ढूंढाड़ कला विशेषांक, राजस्थान ललित अकादमी, जयपुर, १९९७, पृ. ३१ २७. असलम, एम : चित्रकला के क्षेत्र में उनियारा शैली का आज भी है बड़ा नाम (अप्रकाशित लेख) भारद्वाज- विनोद : वृहद आधुनिक कलाकोश; वाणि प्रकाशन, नई दिल्ली, २००६, पृ. २६९ २९. MAGO, PRAN NATH : CONTEMPORARY ART IN INDIA - A Perspective; National Book Trust, New Delhi, 2009, Pg.160 ३०. कलाकार- राजस्थान के कलाकारों की निर्देशिका; जवाहर कला केन्द्र (जयपुर) पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र (उदयपुर), २००३, पृ. १३ ३१. वहीं पृ. सं. १३ ३२. वहीं पृ. सं. १६ ३३. शर्मा, तोशी : इकबाल की पेंटिंग कनाडा के सिख म्यूजियम में सजीं; दैनिक भास्कर, जयपुर १९.९.२०१६ ३४. मंजिल यूं ही नहीं मिलती एक जुनून सा दिल में जगाना पड़ता है; राजस्थान पत्रिका, जयपुर, २१.९.२०१५ ३५. सैय्यद मेहर अली अब्बासी द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांगड़ा शैली में नायिका-भेद अंकन रीतिका गर्ग भारतीय संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है तथा इसकी सबसे बड़ी विशेषता समन्वय की है। भारतीय कलाकार भी मानव-सृष्टि को सम्पूर्ण-सृष्टि का ही एक अंग मानता है, इसी से उसकी कला में भी मानवीय तथा प्राकृतिक जगत का समन्वय प्राप्त होता है। उसके अनुसार प्रकृति का सौन्दर्य अतुलनीय तथा अनुपम है। प्रकृति में सौन्दर्य का अक्षय भण्डार है तथा चित्रकला में सौन्दर्य की भावना को प्राण संचार करने वाली भावना कहा गया है। प्रकृति के साथ ही भारतीय कलाकार नारी के विलक्षण सौन्दर्य से भी प्रेरित होकर कला-सृजन करता आ रहा है। भारतीय संस्कृति में नारी का स्थान सदैव ऊपर रहा है, इसी कारण कहा गया है कि - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता । अर्थात् जहाँ स्त्री का सम्मान होता है, वहाँ देवता प्रसन्न होते हैं । नारी के सौन्दर्य की तुलना प्रकृति के विभिन्न अवयवों से करते हुए भी भारतीय चित्रकारों ने अनेक कलाकृतियों का निर्माण किया है। प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक किसी न किसी प्रसंग में नारी को कला में सौन्दर्य के आदर्श रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा। भारतीय विचार से नारी के शारीरिक सौन्दर्य को आत्मिक उत्थान का भाव प्रदर्शन करने हेतु प्रयुक्त किया जाता है। उसके चित्रण में सौम्यता, बुद्धिमत्ता तथा रमणी सुलभ रहस्य को भी स्थान मिला है । यद्यपि इन सभी परम्पराओं का पालन करते हुए भारतवर्ष की प्रत्येक शैली में नारी रूप सौन्दर्य का अधिकाधिक चित्रण हुआ है किन्तु १८वीं शती के उत्तरार्द्ध में कांगड़ा घाटी में पुष्पवित कांगड़ा चित्रशैली में इस प्रकार के नारी अंकन का जो कार्य हआ है उसे निःसन्देह ही सर्वश्रेष्ठ नारी चित्रण के अन्तर्गत रक्खा जा सकता है। यहाँ के कलाकारों ने नारी को केन्द्र बिन्दु मानकर उसकी विभिन्न अवस्थाओं का जो चित्रण किया है वह निःसन्देह विलक्षण है। यहाँ के चित्रकारों ने नायिका-भेद पर आधारित अनेक चित्रों का निर्माण कर कला में अपना अतुलनीय योगदान दिया। कांगड़ा शैली में मुगल और परम्परागत प्राचीन भारतीय कला एवं राजस्थानी हिन्दू कला और Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 रीतिका गर्ग SAMBODHI भावना का अपूर्व सम्मिश्रण है। अप्रत्यक्ष रूप से इस शैली पर पाश्चात्य प्रभाव भी पड़ा जिससे चित्रों की सुन्दरता और कोमलता में श्रीवृद्धि हुई है। कांगड़ा घाटी के आरम्भिक इतिहास के बारे में प्रमाणिक सामग्री का अभाव है। वहाँ के सामाजिक जीवन में जब शासन व्यवस्था का आरम्भ हुआ उस प्राचीन युग में वहाँ अनेक ठकुरातियाँ थीं, जो सामन्तों, राणाओं और ठाकुरों के बीच बंटी हुई थीं। वे अपनी सीमाओं को बढ़ाने के लिए तथा अपना बल प्रदर्शन करने के उद्देश्य से परस्पर लड़ा करते थे। कभीकभी बाहर से आकर कोई शक्तिशाली क्षत्रिय राजा इन सामन्तों तथा ठाकुरों को पराजित करके उन्हें अपने अधीन कर लेता था और वे उसको कर दिया करते थे । कांगड़ा के प्राचीनतम राजवंशों में 'कटोच राजवंश का नाम मिलता है जिसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में 'ब्राह्मण-पुराण' में एक कथा इस प्रकार मिलती है - असुरों के विनाश में असमर्थ देवताओं ने एक शक्तिशाली पुरुष की रचना की तथा भगवती की कृपा से उसका जन्म हुआ। इस मानव को भूमिचंद कहा गया जिसने दैत्यों का विनाश किया। देवताओं ने प्रसन्न होकर इसे त्रिगर्त (जालंधर) का राज्य प्रदान किया एवं देवलोक के गायनाचार्य पद्मकेतु की लड़की से इनका विवाह किया। त्रिगर्त संघ के अन्तर्गत कांगड़ा भी आता है जो कटोच राजवंश की राजधानी थी। दसवीं शताब्दी के अन्त में या ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भ में जब पंजाब पर मुहम्मद गजनवी का भयंकर आक्रमण हुआ तो कटोच राजवंश ने अपनी सुरक्षा के लिए नगरकोट (कांगड़ा) में आश्रय लिया, क्योंकि नगरकोट उस युग का सर्वाधिक सुदृढ़ स्थान था। किन्तु अन्त में (कांगड़ा) नगरकोट के किले पर भी गजनवी का अधिकार हुआ और वह लगभग ३० वर्षों तक बना रहा। अन्त में दिल्ली के शासक पर्णभोज की सहायता से कटोच राजा ने चार मास के घमासान युद्ध के बाद गजनवी के सामन्तों से कांगड़ा का किला छुड़ाकर अपने अधिकार में किया। बाद में कांगड़ा दुर्ग पर मुहम्मद तुगलक, शेरशाह सूरी, जहाँगीर, रणजीतसिंह और गुों के भयंकर आक्रमण होते रहे और इस प्रकार उसके इतिहास की उदयास्त की लम्बी कहानी रही । कांगड़ा में कटोच राजवंश की स्थिति कई सौ वर्षों तक बनी रही। पृथ्वीचंद के बाद पूरनचंद तथा तदन्तर रूपचंद ने गद्दी को संभाला। इसके बाद लगभग बीस उत्तराधिकारियों के बाद सन् १७५१ ई. में घमण्डचंद कांगड़ा की गद्दी पर बैठा। नाम के अनुरूप ही उसका स्वभाव भी था। इस समय तक मुगलों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी जिसका लाभ उठाकर घमण्डचंद ने उन समस्त क्षेत्रों को अपने अधिकार में कर लिया जो उसके पूर्वजों के हाथ से निकल गये थे । घमण्डचंद के पश्चात् उसका पुत्र तेगचंद गद्दी पर बैठा किन्तु एक वर्ष शासन करने के पश्चात् ही उनका स्वर्गवास हो गया। अपने स्वर्गवासी पिता के बाद १७७५ में कांगड़ा का किला भी दस वर्षीय संसारचन्द के हाथों में आ गया। समय के सरकने के साथ-साथ संसारचन्द का प्रभुत्व समस्त पहाड़ी रियासतों पर हो गया और उनकी महत्वाकांक्षा यहाँ तक बढ़ गयी कि उनके दरबार में अभिनन्दन भी लाहौर परापत कहकर होने लगा जिसका अर्थ है लाहौर प्राप्त हो । बाल्यकाल से ही चित्रकला की ओर उसकी तीव्र अभिरूचि थी तथा वह चित्रों का संकलन कर उनका निरीक्षण किया करता था। राजा का यह चित्र प्रेम बराबर बना रहा एवं उसके राज्य में कला Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 कांगड़ा शैली में नायिका-भेद अंकन 157 एवं शिल्प ने चतुर्दिक उन्नति की। उसने कलाकारों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया तथा उन्हें अपना संरक्षण प्रदान किया । वास्तव में कांगड़ा के इतिहास में १७८६ से १८०५ तक का समय स्वर्णिम रहा। काफी संख्या में स्वर्णकार, सूत्रगाही, कर्मकार व कविन्दकों आदि ने भी राजाश्रय पाकर हस्तशिल्प को आगे बढ़ाया । कांगड़ा में व्यक्ति-चित्रों, आखेट एवं दरबारी-चित्रों के अतिरिक्त भागवत, गीतगोविन्द, बिहारी-सतसई, रागमाला, नल-दमयन्ती, रसिकप्रिया, नन्ददासकृत रास-पंचाध्यायी, नायिका भेद, रामायण, सुदामा चरित्र, शिवपुराण, रूक्मिणी मंगल, ऊषा-चरित्र, पद्मावत्, गंगावतरण, हरिवंश पुराण, सस्सी-पुन्नू तथा अनेक देवी-देवताओं के चित्र बने । इन सभी चित्रों में सौन्दर्य की अभिव्यक्ति नारी के ही माध्यम से की गई है । सौन्दर्य दर्शन ही कला का उद्देश्य होता है। काव्य, नाटक और कामशास्त्र के रचयिताओं नारी के विविध रूपों, अवस्थाओं, मनोदशाओं तथा स्वाभावों का बड़ा सहज वर्णन प्रस्तुत किया है। नारी के इसी अध्ययन को 'नायिका-भेद' कहा जाता है। नायिका-भेद पर संस्कृत के आचार्यों के बाद हिन्दी साहित्य में केशव, देव, बिहारी व मतिराम आदि कवियों एवं आचार्यों ने लेखनी चलाई है। इन्हीं के काव्यों ने राजस्थानी व पहाड़ी तूलिकाओं में एक नया यौवन भरा है ।१० नायिका वह है जो नायक की प्रेयसी है, जो नायक को वशीभूत करती है, उसे श्रृंगार का मार्ग दिखाती है। श्रृंगार मंजरी में, नायिका की निम्नानुसार परिभाषा की गयी है - "श्रृंगाररसालम्बनं स्त्री नायिका" रस मंजरी की टीका करती हुई व्यंग्यार्थ कौमुदी निम्नानुसार परिभाषा प्रस्तुत करती है - "नयति वशीकरोति सा नायिका" मध्ययुगीन कामशास्त्र, नाट्यशास्त्र तथा साहित्यशास्त्र के आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में नायिकाओं के अनेक वर्गों की कल्पना की है ।१९ प्रारम्भ में अंग-प्रत्यंगों के आधार पर स्त्रियों के पद्मनी, चित्रणी, शंखनी तथा हस्तिनी नामक चार भेद किये गये। कामसूत्र में वैवाहिक, कन्या, पारदारिक तथा वैशिक प्रकरणों में नायिका-भेद का सविस्तार वर्णन किया है। काव्यशास्त्र ने इसी वर्गीकरण को अपनी स्वीकृति दी है। चित्र भी अधिकतर इसी भेद पर आधारित हैं । वात्स्यायन के कामसूत्र के अनुसार नायिका के तीन भेद किये गये हैं – (१) स्वकीया (२) परकीया तथा (३) साधारणी ।१२ साहित्यशास्त्र के अन्तर्गत नायिका-भेद की परम्परा 'नाट्यशास्त्र' से ही आरम्भ होती है। प्रसिद्ध अष्टनायिकाओं तथा नायिका के उत्तमा, मध्यमा, अधमा भेदों का उल्लेख भरतमुनि ने किया है । किन्तु 'नाट्यशास्त्र' में नायक-नायिका का वर्गीकरण एवं उनके भेद-प्रभेदों का वर्गीकरण इसलिए हुआ था, जिससे नाटककार अपने पात्रों के शील, मर्यादा का आदि से अन्त तक उचित रीति से निर्वाह कर सकें। साहित्य शास्त्रकारों ने नायिकाओं का वर्गीकरण तथा विश्लेषण उनके द्वारा श्रृंगार विकास के उद्देश्य से किया । श्रृंगार-रस को रसराजत्व प्राप्त होने के बाद श्रृंगार रस के आलम्बन के रूप में नायिका भेद को Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 रीतिका गर्ग SAMBODHI विशेष महत्व दिया जाने लगा ।१३ नायिका-भेद के विस्तार तथा विशदीकरण के लिए पर्याप्त उपयुक्त वातावरण में रीतिकालीन कवियों ने नायिकाओं के सौन्दर्य तथा प्रगाढ़ रागात्मकता की अनेक स्थितियों में उनके अनेक सूक्ष्म एवं कल्पना प्रवण चित्रों की अवतारणा की है। उसी प्रकार चित्रकारों ने रंग और रेखाओं के माध्यम से उसे सजीव किया है। आलम्बन के अन्तर्गत आचार्यों ने नायिका-भेद के विभिन्न आधार माने हैं जो इस प्रकार हैं - १. जाति (प्राकृतिक वर्ग) - पद्मिनी, चित्रिणी, शंखिनी और हस्तिनी । २. कर्म (धर्म या लोकरीति) - स्वकीया, परकीया और सामान्या । ३. वय - मुग्धा, मध्या ओर प्रौढ़ा । ४. पति का प्रेम ___ ज्येष्ठा, कनिष्ठा । ५. मान - धीरा, अधीरा, धीराधीरा । ६. दशा गर्विता, अन्य-सुरति-दुःखिता, मानवती । ७. अवस्था (काल) - स्वाधीन-पतिका, उत्का, वासक सज्जा, अभिसंधिता, खंडिता, प्रोषितपतिका, विप्रलम्भ तथा अभिसारिका । ८. प्रकृति या गुण - उत्तमा, मध्यमा तथा अधमा ।१४ हिन्दी रीतिकालीन साहित्य में जिस प्रकार नायिकाओं का विभिन्न आधारों पर विविध रूप से वर्णन किया गया है, उसी प्रकार मध्यकलीन चतुर चितेरों ने उन्हें अपने रंग और रेखाओं के द्वारा अभिनव हृदयग्राही चित्रों में साकार किया। कवि को काव्य-धर्म के निर्वाह में लगभग सभी नायिकाओं के गुण का वर्णन अनिवार्य-सा हो गया था। परन्तु तत्कालीन चित्रकारों के लिए ऐसा बन्धन न था। उन्होंने श्रेष्ठ, सुन्दर तथा मनमोहिनी नायिकाओं का ही चित्रण अधिकतर किया है। इन चित्रकारों की रूचि हस्तिनी, सामान्या (वेश्या), अधमा आदि नायिकाओं के चित्रण में बिलकुल नहीं रही । नायिकाओं के भेदों उपभेदों का कोई अन्त नहीं है और जिस प्रकार कवियों ने उनकी विशेषताओं का विशद वर्णन किया है उसी प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ चित्रण में चित्रकार ने उनको रूपायित करने का भरपूर प्रयास किया है लेकिन उसका मन पद्मिनी नायिका के रूप लावण्य को उनके प्रमाणानुसार चित्रित करने में अधिक रमा है ।१५ नायिका-भेद के चित्रों में अवस्थानुसार अष्ट नायिकाओं का चित्रण कांगड़ा के चित्रकारों की पहली पसन्द थी अतएव उनका चित्रण यहाँ के चित्रकारों ने अपूर्व कुशलता के साथ किया है । चित्रकारों ने इसी सन्दर्भ में प्रकृति का चित्रण भी अलंकारिक रूप के साथ-साथ प्रतीकात्मक रूप में परिस्थिति के अनुकूल भी किया है। यदि नायिका विरहोत्कण्ठिता है तो उसे विलोवृक्ष के नीचे खड़ा दिखाया है तथा वातावरण को भी शुष्क रूप में चित्रित किया है और यदि मुदितावस्था में दिखाया गया है तो उसे सारस के जोड़े, तेज बहती नदी, उछलते फव्वारे व झूमते हुये फलफूलों से लदे वृक्षों के साथ अंकित किया Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 कांगड़ा शैली में नायिका-भेद अंकन 159 है ।१६ नायिका के भय, लज्जा तथा संकोच जैसे भावों को भी इन चित्रकारों ने बड़ी ही कुशलता के साथ अपने चित्रों में उतारा है। कांगड़ा शैली के एक चित्र में (चित्र संख्या १) अभिसारिका नायिका को अपने प्रिय से मिलने जाते दिखाया गया है। अभिसारिका नायिका वह है जो नायक से मिलने के लिए संकेत-स्थल पर जाती है। काली अंधेरी रात में अपने को छिपाने के लिए नीले या श्याम वर्ण के वस्त्र धारण करने वाली नायिका कृष्णाभिसारिका कहलाती है। इसे अपने प्रियतम से मिलने की इतनी लालसा है कि मेघों का गर्जन, बिजली की चमक, पैरों से लिपटते सर्प तथा भयावह रात्रि में मिलने वाले भूत-पिशाचों का भी भय नहीं रहता । इस चित्र में अंकित नायिका को चित्रकार ने इन्हीं सब लक्षणों से परिपूर्ण दर्शाया है जिसे रात्रि के अंधियारे के मध्य एक प्रेत से वार्तालाप करते हुए भी भय नहीं लग रहा। नीले रंग का लहंगा-चुनरी धारण किये यह नायिका रात्रि के मध्य एक घनघोर जंगल से गुजरती जा रही है। उसे इस बात का भी भान नहीं है कि उसके पैरों में सर्प लिपटे हैं तथा मार्ग में आने वाली बाधाओं की भी उसे कोई परवाह नहीं है। नायिका का रूप-लावण्य अंधकार में भी अपना प्रकाश फैला रहा है तथा उसके मुखमण्डल के भाव उसकी भावनाओं को पूर्ण रूप से उजागर करने में सक्षम है । ___ एक अन्य चित्र में (चित्र संख्या २) स्वाधीनपतिका नायिका को नायक से अपने पैरों पर महावर लगवाते चित्रित किया गया है । स्वाधीनपतिका नायिका वह कहलाती है जो सर्वथा सुखी व सन्तुष्ट है। नायक उसके पूर्णतः अधीन है अतः उसे लोक-लाज की कोई चिन्ता नहीं होती । इस चित्र में नायिका को भवन के बाहरी बरामदे में एक चौकी पर बैठे दिखाया गया है। नीचे जमीन पर नायक बैठा है जिसने नायिका का एक पैर हाथ से पकड़कर अपने घुटने पर रक्खा है व दूसरे हाथ से वह उस पर महावर लगा रहा है । नायिका के पैर के नीचे उसने अपना पटका लगा रक्खा है जिससे उसके नायिका के प्रति अनुराग की पुष्टि होती है। नायिका का मुख गर्वमयी दीप्ति से व्याप्त है । नायक के समीप ही नायिका की सखी खड़ी है जो नायिका से वार्तालाप कर रही है। सभी मानवाकृतियाँ कांगड़ा शैली की विशेषताओं को दर्शाती है । चित्र की पृष्ठभूमि में भवन की वास्तु का अंकन आकर्षक है । भवन के बाहरी भाग में कुछ पेड़ भी चित्रित हैं। इस संयोजन में नायक-नायिका के कोमल मनोभावों को कलाकार ने अत्यन्त लालित्यपूर्ण ढंग से अभिव्यक्त किया है । प्रोषित्पतिका नायिका का भी कांगड़ा शैली में अत्यन्त सुन्दर चित्रण देखने को मिलता है (चित्र संख्या ३) । प्रोषित पतिका वह नायिका है जिसका पति अनेक कार्यों में फंसकर परदेश चला गया है तथा नायिका उसकी अनुपस्थिति में विरह से पीड़ित है । नायिका को भवन के बाहर बरामदे में एक पलंग पर बैठे चित्रित किया गया है। उसके समीप ही खड़ी उसकी सखी उसे समझाने का प्रयत्न कर रही है । नायिका के मुखमण्डल पर कुछ गम्भीरता के भाव हैं । चित्र में भवन की वास्तु का भी सुन्दर अंकन हुआ है तथा भवन के पीछे दूर पहाड़ी पर घुमड़ते हुए बादलों का भी अंकन है। भवन के पीछे बने वृक्ष-पुष्पाच्छादित लताओं से तो ढंके हैं परन्तु वृक्ष पर बैठे पक्षी जोड़े में न चित्रित होकर अकेले ही अंकित किये गये हैं जो कि नायिका के मनोभावों को व्यक्त करने में सक्षम हैं । वस्त्राभूषणों, भवन Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 रीतिका गर्ग SAMBODHI की वास्तु व कालीन आदि का चित्रण कांगड़ा की परम्परागत शैली में ही हुआ है जो वातावरण को कोमलता व मधुरता प्रदान कर रहा है । इस प्रकार के अनेक चित्र कांगड़ा शैली में निर्मित हुए जो नायिका की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं, उसके मनोभावों, दशाओं तथा समयानुसार होने वाले परिवर्तन को उजागर करते हैं यद्यपि नायिका-भेद पर आधारित चित्रण पहाड़ी व राजस्थानी शैली के अनेक ठिकानों पर हुआ परन्तु हम यह कह सकते हैं कि नायिका के हृदय के भावों को जिस प्रकार कांगड़ा शैली के कलाकारों ने दर्शाया है उस प्रकार अन्य स्थानों के कलाकारों को चित्रित करने में वह सफलता प्राप्त नहीं हुई । कांगड़ा की नायिका कोमलता, मधुरता, दृढता व सौम्यता आदि सभी भावों को एकसाथ ग्रहण किये हैं। पतिप्रेम से परिपूर्ण स्वाधीनपतिका नायिका के मुखमण्डल की दीप्ति व गर्व का भाव उसके अन्तरतम के भावों को उजागर करते हैं । इसी प्रकार अभिसारिका नायिका के अपने प्रिय से मिलन को जाते अधीरता आदि के भाव भी उसके मन की व्यथा को व्यक्त करते हैं। सभी नायिकाओं की देहयष्टि व मुखमण्डल तथा हस्तमुद्राओं के माध्यम से कलाकारों ने उनकी अवस्थाओं का अत्यन्त ही लालित्यपूर्ण चित्रण किया है। कांगड़ा के कलाकारों ने सत्य में नायिका के रूप-सौन्दर्य के माध्यम से नायिका-भेद का उत्कृष्ट अंकन कर अपनी कला को इतिहास में अमर कर दिया । सन्दर्भ : १. वर्मा, डॉ. अविनाश बहादुर, वर्मा अनिल व वर्मा संगीता, भारतीय चित्रकला का इतिहास, प्रकाश बुक डिपो, बरेली, २०१२, पृ. २३०. २. गैरोला. वाचस्पति, भारतीय चित्रकला, मित्र प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद, १९६३, पृ. १९१. ३. अग्रवाल, डॉ. श्यामबिहारी, भारतीय चित्रकला का इतिहास (मध्यकालीन), रूपशिल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९९, पृ. १५२. ४. गैरोला, वाचस्पति, भारतीय चित्रकला, मित्र प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद, १९६३, पृ. १९१. अग्रवाल, डॉ. श्यामबिहारी, भारतीय चित्रकला का इतिहास (मध्यकालीन), रूपशिल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९९, पृ. १५३. ६. अग्रवाल, डॉ. आर.ए., कला विलास, इंटरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, मेरठ, २००३, पृ. १६४. ७. अग्रवाल, डॉ. श्यामबिहारी, भारतीय चित्रकला का इतिहास (मध्यकालीन), रूपशिल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९९, पृ. १५३. ८. अग्रवाल, डॉ. आर.ए., कला विलास, इंटरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, मेरठ, २००३, पृ. १६५. ९. अग्रवाल, डॉ. गिरिराज किशोर, कला और कलम, अशोक प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़, १९९५, पृ. २४४. १०. अग्रवाल, डॉ. आर. ए., कला विलास, इंटरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, मेरठ, २००३, पृ. २३०. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 कांगड़ा शैली में नायिका-भेद अंकन 161 ११. अग्रवाल, डॉ. श्यामबिहारी, भारतीय चित्रकला और काव्य, किताब महल, इलाहाबाद, १९९६, पृ. ५७. १२. अग्रवाल, डॉ. आर.ए., कला विलास, इंटरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, मेरठ, २००३, पृ. २३०. १३. अग्रवाल, डॉ. श्यामबिहारी, भारतीय चित्रकला और काव्य, किताब महल, इलाहाबाद, १९९६, पृ. ६०. १४. अग्रवाल, डॉ. श्यामबिहारी, वही, पृ. ६०. १५. अग्रवाल, डॉ. श्यामबिहारी, भारतीय चित्रकला का इतिहास (मध्यकालीन), रूपशिल्प प्रकाशन, इलाहाबाद, १९९९, पृ. १८०. १६. अग्रवाल, डॉ. आर. ए., कला विलास, इंटरनेशनल पब्लिशिंग हाउस, मेरठ, २००३, पृ. २३३. चित्र संख्या १ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 रीतिका गर्ग SAMBODHI M चित्र संख्या २ way चित्र संख्या ३ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक कला के नये मुहावरे गढ़ते : यामिनी राय के चित्र राजेन्द्र प्रसाद लोक कला के स्रोतों को अपनी कला का आधार बना तीसरे दशक में यामिनी राय ने भारतीय कला धारा में नये मुहावरे गढ़कर लोक कला को अक्षुण्ण रखा । लोक कला मानव के मानस का वह लोक रंजन भाव है जो रूपकारों में परिवर्तित हो रेखाओं के माध्यम से व्यक्त होता है । लोक कला हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में उन तमाम चीजों की शक्ल में गुथी हुई है, जिनका हम अपने घरों में अपने त्योहारों और उत्सवों पर, अपनी आत्माभिव्यक्ति के साधनों के रूप में इस्तेमाल करते हैं - चाहे हम किसी भी जाति या धर्म के हों ।१ जब हम लोक कला पर विचार करते हैं तब सामान्य सामाजिक जनसाधारण के उन क्रियाकलापों की बात करते हैं जिनमें सहज आनन्द से परिपूर्ण, सरल, स्वच्छ और परम्परागत रूपों की अभिव्यक्ति होती है । लोककला मनुष्य को कृत्रिमता से सहजता बंधन मुक्त और आह्लाद की ओर खींचली है । लोक कला मन की सहजावस्था से आनन्द की निर्मल धारा है। आदिम कला की भाँति लोककला मनुष्य की अन्तःप्रेरणा का सहज तथा नैसर्गिक एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति का ओजस्वी रूप है । लोक कला की विशेषताओं ने आधनिक भारतीय कलाकारों को प्रभावित किया है। लोक कला की सरलता, प्रतीकात्मकता, प्रतिरूपात्मकता तथा छाया का अभाव आदि विशेषताएँ आधुनिक कलाकारों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी और भारतीय लोक कला ने ठेठ ग्रामीण अंचल से विकसित होकर विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है । इस उपलब्धि का मुख्य श्रेय बंगाल के प्रख्यात लोक कलाकार यामिनी राय को है । उन्होंने भावमयी लोक कला को अपनाया जो स्वदेशी थी और जिसके उज्ज्वल भाल पर धूल की परतें जम चुकी थीं। इस ओर प्रवृत्त होने की प्रेरणा उन्हें ग्रामीण शिल्पकारों से प्राप्त हुई थी. यद्यपि कालीघाट के पटुओं से भी वे प्रभावित थे । ____ यामिनी राय के आत्मबोध और जातीय स्मृति में बंगाल की आंचलिक पृष्ठभूमि थी । उनका जन्म बांकुड़ा जिले (पं. बंगाल) के बेलियातोड़ ग्राम में १८८७ को हुआ था । बंगाल बिहार सीमा के पास बसे इस गाँव में संथाल, मल्ल और बारूई सरीखी कई जनजातियों के लोग रहते थे। शहरी संस्कृति से इत्तर यहाँ के रीति-रिवाज व रस्में उस बृहत् भारतीय लोक संस्कृति का ही अभिन्न अंग थी जिसने Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 राजेन्द्र प्रसाद SAMBODHI हिन्दु कला व संस्कृति को लोककथाएँ व मिथक दिए और विशेष रूप से मौलिक वानस्पतिक ऊर्जा दी । सोलह वर्ष की अवस्था में कलकत्ता आने तक यामिनी राय गाँव में रहें और ग्रामीण परिवेश में दैनिक जरूरतों को पूरा करने वाले किसान व दस्तकारों को सुधबुध खोकर काम करते देखते थे। अन्य बालकों की तरह इनके काम की नकल करने के अलावा यामिनी राय का इन दस्तकारों से सीधा व इष्ठ सम्बन्ध भी था- "छुटपन में सभी बच्चे मूर्ति बनाते थे मैं कुछ ज्यादा ही बनाता था ।"४ ___ यामिनी राय लोक कला से प्रेरणा ग्रहण करने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहे । उन्होंने अनेक गाँवों का भ्रमण कर कुम्हारों, बुनकरों, गुड़ियाँ तथा खिलौने बनाने वालों आदि की कृतियों को देखा, समझा एवं रेखांकित किया । AlAAPAN MUZAAT यामिनी राय : काला घोड़ा ग्रामीण लोक कला के अध्ययन से उनको इस बात का ज्ञान हुआ कि इन परम्परागत ग्रामीण कलाकारों ने अनायास ही रंगों, आकारों तथा छंद के रहस्य को पा लिया है। यामिनी राय ने लोक कला के अभिप्रायों तथा प्रतीकों को ग्रहण कर अपनी नवीन चित्रात्मक सुव्यवस्था से संजोया । यामिनी राय ने अपनी कला के प्रेरणा के विषय में स्वयं लिखा है कि - "मैं बाल कला से प्रेरित हूँ" ।' सरलीकरण के इस प्रयास में यामिनी राय ने कुछ आधारभूत रूपाकार, रंग और बुनावटें (पैटर्न) संजोए रखने की कोशिश की । वे किन्हीं सार्वभौमिक तत्त्वों की खोज में अनावश्यक चीजों को छोड़ते चलते हैं और एक ऐसी अवस्था में पहुँचते हैं जहाँ सजावट, और अलंकरण से रहित हो कर उनकी आकृतिओं में फ्रीज सरीखे स्थापत्य की-सी विशेषताओं का समावेश हो जाता है। सरलीकरण की प्रक्रिया में कुछ तकनीकी समस्याएं हल करने के अलावा उन्होंने तस्वीरों में साहित्यिक विषयवस्तु को भी त्यागने की कोशिश की । उन्हें जो सफलता प्राप्त हुई वह सचमुच अप्रतिम है । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 लोक कला के नये मुहावरे गढ़ते : यामिनी राय के चित्र 165 यामिनी राय की खूबी इस बात में नहीं थी कि उनकी चित्र भाषा तथा कला प्रेरणा के स्रोत आंचलिक लोककला से थे । महज ऐसा करना भावुकतावादी हो सकता था । यामिनी राय को श्रेय इस बात का जाता है कि उन्होंने लोक धाराओं की खूबियों तथा उनके कलात्मक सत्य को पुनः अन्वेषित किया था। उन्होंने तात्कालिक भारतीय चित्रकला में हमारे दस्तकारों की सूझबूझ को पुनर्स्थापित किया। कई शताब्दियों के लम्बे अभ्यास के बाद से भारतीय कला ने रेखा के प्रयोग में विशेष लयात्मक गुण प्राप्त किया था । यही गणवत्ता उनकी विशेष पहचान बन गई थी। यामिनी राय के सचेतन प्रयासों से रेखा के इन विशेष गुणों ने पुनः सन्मान अर्जित किया । चित्रों में गठन, संतुलन और अनुपात आदि भी उन्होंने लोक कला से लिए । किन्तु एक विकासशील समकालीन चित्रकार की तरह उन्होंने चित्र भाषा के इन तत्त्वों का प्रयोग केवल मूल रूपाकार के बुनियादी गुणों को उभारने के लिए किया। यह स्वाभाविक ही था कि चित्रकला में उनके प्रयोग मुख्यत: रूपाकारों के गठन और रैखिक तत्त्वों को लेकर थे। विशुद्ध रेखारूप बनाने का प्रयास करते हुए उन्होंने क्रमशः अपनी विशिष्ट शैली विकसित की । अपनी सामाजिक चेतना में स्वयं के अनुभूत जगत को सार्थक अभिव्यक्ति देने की आकुलता ने उन्हें निजी आविष्कारों के लिए प्रेरित किया था। जैसा कि अपेक्षित था, यह नया चरण तकनीकों और तरीकों में परिवर्तन भी लाया । यामिनी राय तैल-रंगों से मिट्टी के रंगों की ओर मुड़े । कैनवास की बजाय उन्होंने चिकनी मिट्टी या चूने के पुते कपड़े या कागज. और लकड़ी के तख्ते इस्तेमाल करना शुरू किया । रंगों को बाँधने और टिकाऊ बनाने के लिए उन्होंने अण्डे के टेम्परा का उपयोग किया, लेकिन इससे ज्यादा इमली के बीज से बनी गोंद का । उन्होंने अपने रंग संयोजन को छ: या सात रंगों तक सीमित कर दिया - हिन्दुस्तानी लाल, गैरिक पीला, कैडेमियम हरा, सिन्दूरी राखिया सलेटी और नीला, जो ज्यादातर आसानी से उपलब्ध सामग्री से बनाये जाते, मसलन हरताल, काक खोरी, दिये की कालिख, चौक या चूना आदि। यामिनी राय : माँ और शिशु Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 राजेन्द्र प्रसाद SAMBODHI यामिनी राय को विषय-वस्तु चुनने में कोई कठिनाई नहीं थी। उनके विषय इर्द-गिर्द के लोगों से लिये गये हैं, खास तौर पर ब्राउल, बाओरी, सन्थाल और मल्ल जैसे ग्रामीण जन बहुलता से उनके चित्रों में प्रकट होते हैं । पौराणिक पात्र भी आम हैं, यथा – कृष्ण, बलराम, शिव, राम और गोपियां इत्यादि । इसके अलावा पशु-जगत से भी बिल्लियों, गायों, घोड़ों और चिड़ियों के बिम्ब भी अकसर नजर आते हैं । लेकिन इन सब में से भी यामिनी राय ने 'माँ और बच्चा' और सन्थाल स्त्रियों समेत औरतों को अधिक संख्या में अपने चित्रों का विषय बनाने की ओर झुकाव दर्शाया है। प्रसंगवश, कुछ समीक्षकों के अनुसार सन्थाल थीम ही आगे रूपान्तरित होकर यामिनी राय के उन चित्रों में विस्तार पाती है जो उन्होंने ईसाई विषयों पर बनाये । उनके चित्रों में नारी रूप प्रधान थे जिनमें माँ, युवती, पुजारिन आदि रूपों ने स्थान पाया । ये पारम्पारिक भारतीय नारी के रूप थे तथा जनस्मृति में इन चित्रों के ये रूपाकार आज प्रतीक बन चुके हैं। उनके चित्रों में रंग का प्रयोग हमेशा इस तरह सपाट रहा कि धरातल की द्वि-आयामी प्रकृति में आकार त्रि-आयामी भ्रम न हीं देते । यामिनी राय : झिंगा और बिल्ली त्रि-आयामी आभास के बिना भी ये रूपाकार अक्सर विराट, बलिष्ठ तथा आयतन बोध लिए हुए है । लघुत्तम रूपाकारों में भी बृहदाकृत होने का एहसास स्पष्ट होता है । ऐसा रूपाकारों में निहित प्रसारित ऊर्जा के कारण नहीं बल्कि रेखा में गठन की विशिष्टता से संभव हुआ । रेखा की स्वच्छ व शक्तिशाली भाषा यामिनी राय की कला का मूल आधार थी। उनके चित्रों में रेखा असाधारण रूप से बलिष्ठ, आलंकारित, स्वतः स्फूति, मितव्ययी और नितांत सरल होती थी। एक ही रेखा की बहुमुखी गति में कई विवरण व भाव-भंगिमाएँ सीधे आंकी जान पड़ती है । यामिनी राय की रेखा कालीघट के पट चित्रों की त्वरित तूलिका संचालन से प्रभावित थी जिसकी बानगी उनके चित्रों में दृष्टित है। उनके नारी-देह अंकन करने वाले चित्र, रेखाओं की वक्रतापूर्ण अभिव्यक्ति और लयात्मक सौन्दर्य के लिए विशेष रूप से विख्यात हुए । दरअसल यामिनी राय के रेखांकन उनकी Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 लोक कला के नये मुहावरे गढ़ते : यामिनी राय के चित्र 167 कला की बहुत बड़ी ताकत है। शृंगार करती स्त्री हो या बैठी हुई या बच्चे को संभालती हुई या नृत्य मुद्रा में कोई गोपिनी हो - यामिनी राय की रेखाएँ प्रेक्षक को सब तरह से बांध लेती हैं । पशुओं का संसार भी अत्यंत समृद्ध है । जाहिर है कि बंगाल के कलाकार के लिए बिल्ली एक केन्द्रीय आकर्षण है। हाथी भी यामिनी राय को खूब आकर्षित करता था । घोड़े लोक खिलौनों की तरह सजे-धजे या उड़ रहे होते थे । चाहे पेंटिंग हो या रेखांकन – यामिनी राय ने माँ-बच्चे के अनगिनत रूप चित्रित किए हैं । कुछ रेखांकनों में अलग तरह के और अत्याधुनिक संयोजन पहचाने जा सकते हैं । कालीघाट चित्रों की मोटी रेखाओं का भी उन्होंने बैठी हुई स्त्री की विभिन्न मुद्रओं में बड़ा सुंदर इस्तेमाल किया ।१० आपके चित्रों में दूर-दराज के गाँवों के पटचित्रों व लोक रूपों का विषय और अभिव्यक्ति के रूप में सहजता ही विशेष रूप से दृष्टव्य होती है। 'ढोकरा शिल्प' और गाँव की 'गुड़िया कला' उन्हें प्राय प्रेरणा देती रही, फर्श पर सजे 'अल्पना' और कथरी-गुदड़ियों की कशीदाकारी की 'कांथा कला' भी आपके चित्रों के अलंकरण की प्रेरणा बनी । अनेक रूपों में उन्होंने अपने चित्रों को शाश्वत गुणवत्ता प्रदान की। यामिनी राय की कला का बांकुरा क्षेत्र की जीवन्त लोक कला से सीधा सम्बन्ध था । 228848 ORMATHA यामिनी राय : गोपिनी यामिनी राय इस बात के पक्ष में थे कि कलाकृतियाँ अधिकाधिक घरों में जगह पाएँ । इसीलिए वे स्वयं को पूरे जोशो-खरोश से पटुआ कहते थे । अपने स्वनिर्धारित आदर्श कलात्मक मूल्य उन्हें दृढ़ता प्रदान करते थे । सम्भवतः इन्हीं मूल्यों के कारण उनमें दार्शनिक की-सी तटस्थता दिखाई देती थी जिसके कारण उनकी प्रदर्शनियों की संख्या भी बहुत सीमित रही । अपने जीवन काल में तो केवल दो ही प्रदर्शनिया हो पाई (लन्दन १९४६ और न्यूयॉर्क १९५३) । दिल्ली की आधुनिक कला की राष्ट्रीय वीथिका तथा अन्य कई व्यक्तिगत एवं सावर्जनिक भारतीय एवं विदेशी संग्रहालयों में उनकी कृतियाँ पाई जाती Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 राजेन्द्र प्रसाद SAMBODHI है । लेकिन चालीस के दशक तक उनकी और उनकी कृतियों की ख्याति दूर-दूर तक फैल चुकी थी। बुद्धिजीवियों के विशेष वर्ग जिनमें कवि और कला समीक्षक जैसे सुचीन्द्रनाथ दत्ता, विष्णु दे, शाहिद सुहरावर्दी तथा जन इरविन आदि शामिल थे, जो यामिनी राय को स्वीकार करने लगे । देश-विदेश में | अपने प्रशंसकों की संख्या बढ़ने से भी उन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ा । वे तो अपने घर में ही (जो यामिनी राय का स्टूडियो भी था) सीमित रहना चाहते थे । काम में डूबे हुए वे १९७३ के अन्त तक स्वयं भी काम करते रहे और दूसरों को प्रेरित करते रहे ।११ बहरहाल एक चित्रकार के रूप में यामिनी राय ने माटी की गंध को महसूस किया और विशुद्ध भारतीय लोक-कला को अपने चित्रों का विषय बनाया । सभी वर्गों के लोग खुद को उनकी कला से जोड़ पाते थे । जनमानस की विश्वास-परंपराओं से उपज कर उनके रूपाकार भारतीय संस्कृति के प्रतीक बन गये । निस्संदेह यामिनी राय द्वारा चित्रित रंगबिरंगी लोक परम्परा ने अन्य कलाकारों को भी देशी स्त्रोतों की ओर मुड़ने की प्रेरणा दी, जो समकालीन भारतीय कला में कहीं न कहीं मौजूद हैं जैसे गणेश पाइन, के. जी. सुब्रमण्यम, धर्मनारायण दासगुप्ता, लालू प्रसाद शॉ आदि कई चित्रकारों की समकालीन कलाकृतियों में । हर दृष्टि से यामिनी राय आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने की वे अपने समय में थे। ॐ सन्दर्भ : १. धमीजा, जसलीन (अनुवादक), भारत की लोक कला और हस्तशिल्प, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, १९९४, पृ. १. २. विरंजन, राम; समकालीन भारतीय कला, निर्मल बुक एजेन्सी कुरुक्षेत्र, २००३, पृ. ४३. ३. गैरोला, वाचस्पति, भारतीय चित्रकला, मित्र प्रकाशन प्रा. लि. इलाहाबाद, १९६३, पृ. २६१. गोयल, जवाहर. यामिनी राय का पुनर्मूल्यांकन, समकालीन कला, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, सं. ७-८, नवम्बर १९८६/मई १९८७, पृ. ५. ५. वर्मा, अविनाश बहादूर; भारतीय चित्रकला का इतिहास, प्रकाश बुक डिपो, बरेली, २०१२, पृ. २७८. ६. दत्त, अजित कुमार, साहचर्य, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, २००९, पृ. ९८. ७. गोयल, जवाहर, यामिनी राय का पुनर्मूल्यांकन, समकालीन कला, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, सं. ७-८, नवम्बर १९८६/मई १९८७, पृ. ८-९ दत्त, अजित कुमार, साहचर्य, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, २००९, पु. ९९. गोयल, जवाहर, यामिनी राय का पुनर्मूल्यांकन, समकालीन कला, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, सं. ७-८, नवम्बर १९८६/मई १९८७, पृ. ९-१० १०. भारद्वाज, विनोद; बृहद आधुनिक कला कोश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, २००६, पृ. ८१. ११. दत्त, अजित कुमार, साहचर्य, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, २००९, पु. १०२. ८. ** * Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ और मनोविज्ञान साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री समनस्क जीव अर्थात् मन युक्त जीव संज्ञी कहलाते हैं। मन का काम है विचार करना, मनन करना । मनन करने से ही मनुष्य, मनुष्य कहलाता हैं । कहा भी गया है - "मननात् मनुष्यः ।" अर्थात् जो मन से विचार करने में समर्थ हो व हमारे शरीर में तीन तत्त्व प्रमुख हैं - १. शरीर २. मन और ३. आत्मा । शरीर स्थूल है । जैन विचारणा के अनुसार मनुष्य आदि का शरीर औदारिक माना गया है। औदारिक शरीर को आहार आदि की आवश्यकता रहती है । औदारिक शरीर आहार-पाचन, रस, रक्त-मास आदि निर्माण के रूप में विविध कार्य करता हैं । शरीर में इन्द्रियाँ, मन आदि होते हैं। मन शरीर से सूक्ष्म व आत्मा से स्थूल होता है । मन को इन्द्रियों के द्वारा देखा नहीं जा सकता है क्योंकि मन अतिसूक्ष्म होता है। वरन् मानसिक क्रियाओं के द्वारा मन का अनुभव किया जा सकता जैन दर्शन में मन के दो भेद किये गये है - १. द्रव्य मन २. भाव मन । मन का भौतिक रूप द्रव्य मन है तथा चेतन रूप भाव-मन है । द्रव्य मन मनोवर्गणा नामक पुद्गल स्कन्धों से बना हुआ है। यह मन का आंगिक एवं संरचनात्मक पक्ष है । साधरणतया, इसमें शरीर के सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक अंग आ जाते हैं। मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक-रचना-तन्त्र में प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा भावमन है। दसरे शब्दों में इस रचना-तंत्र में इस रचना-तंत्र को आत्मा से मिली हुई ज्ञान, वेदना एवं संकल्प की चैतन्य-शक्ति ही भावमन है ।५ मनोविज्ञान में मन को तीन स्तरों में बाँटा गया हैं – १. चेतन मन २. अर्धचेतन मन ३. अचेतन मन । चेतन मन सदा जागृत रहता है । अचेतन मन सदा सोया रहता है और अर्धचेतन मन कभी सोया कभी जागृत रहता है । चेतन मन में जितनी शक्ति है उससे असंख्य गुण अधिक शक्ति अचेतन मन में है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री SAMBODHI मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अचेतन मन ही मनुष्य के सभी अच्छी-बुरी क्षमताओं का भण्डार है । सभी प्रकार की अतीन्द्रिय क्षमताएँ इसमें छिपी है। जब यह अनुप्रेक्षा अर्थात् भावनाओं के द्वारा जागृत हो जाता है तब चमत्कार दिखाता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में मन की विलक्षण शक्तिओं का विवेचन किया गया है। चरक संहिता में मन का लक्षण बताते हुए कहा है - चिन्त्यं विचार्यं उद्यं च, ध्येयं संकल्पमेव च । यत्किंचित् मनसो ज्ञेयं, तत्सर्वं ह्यर्थसंज्ञकम् ॥ मन के पाँच कार्य हैं - १. चिन्त्य २. विचार्य ३. ऊह्य ४. ध्येय ५. संकल्प्य । १. चिन्त्य :- चिन्तन करना, यह करने योग्य है या नहीं उसका चिन्तन करना चिन्त्य है । २. विचार्य :- जो काम किया जा रहा है उसके लाभ-हानि का विचार करना विचार्य है । ३. ऊह्य :- कार्य-प्रणाली का गहन चिन्तन करना, ऊहापोह करना, तर्क-वितर्क करना ऊह्य है। ४. ध्येय – किसी एक वस्तु या विषय पर गहन चिन्तन-मनन करना ध्येय है। ५. संकल्प्य - कार्य करने का निश्चय करना । यह पाँचों क्रियाएँ एक से एक सूक्ष्म और स्थिर दशा की सूचक है । चिन्तन और विचार के बाद भावना की स्थिति आती है, जो ध्येय और संकल्प के रूप में परिणत होकर शक्तिशाली बन जाती है। मनोवैज्ञानिकों ने मन की अपार शक्ति का विवेचन किया है । मन की ऊर्जा मनुष्य स्वभाव को बदल देती है । मन की शक्ति सूक्ष्मतम पदार्थ के स्वभाव को बदलने में भी समर्थ है। विचार द्वारा मन की शक्ति को एकाग्र करके आश्चर्यकारी परिणाम प्राप्त कर सकते हैं । उससे विपरीत चंचल मन के द्वारा मानसिक शक्तियों का क्षय भी हो सकता है। इसी धारणा को जैन धर्म कुछ अन्य शब्दों में प्रस्तुत करता है - भावे भावना भाविये, भावे दीजे दान । भावे जिनवर पूजिये, भावे केवलज्ञान ॥ अर्थात् भावपूर्वक भावना भाने से अद्भूत परिणाम की प्राप्ति होती है, भावपूर्वक दान देने से अपार पुण्योपार्जन होता है, भावपूर्वक जिनवर की पूजा करने से सभी इच्छितों की पूर्ति होती है और भावना भाने से ही केवलज्ञान प्रकट होता है । भावना का अर्थ है कि एक ही विचार का बार-बार और निरन्तर चिन्तन करना । इसी को तत्त्वार्थाधिगम सूत्रकार उमास्वातिजी ने 'तत्त्वार्थानुचिन्तन अनुप्रेक्षा' कहकर के व्याख्यायित किया है । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ और मनोविज्ञान 171 तत्त्व के अर्थ का निरन्तर चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा भावना का पर्यायवाची शब्द है । अनु अर्थात् पश्चात् और प्रेक्षा अर्थात् चिन्तन । तत्त्वों के अर्थों के चिन्तन-मनन का सातत्य अनुप्रेक्षा है । नव तत्त्वों में अनुप्रेक्षा को संवर तत्त्व के अन्तर्गत समाविष्ट किया है। संवर का अर्थ है आते हुए कर्मों को रोकना । जिस प्रकार खिड़किया बन्द कर देने से बाहर का कचरा घर में प्रवेश नहीं करता है । उसी प्रकार मन के विचार रूपी द्वारों का नियमन करके आने वाले अनेक दुर्विचारों को संवृत्त करना ही संवर है । जैसे-जैसे चिन्तन गहन बनता जाता है वैसे-वैसे मन विकारों से मुक्त होकर शुभ भावों में एकाग्र होने लगता है। मन के भावों का प्रभाव कर्मबन्ध पर भी पड़ता है। कर्म-साहित्य मानसिक भावों की अतुल शक्ति को स्वीकार करता है । मन के अभाव में केवल काया या वचन से न ही प्राणी उत्कृष्ट कर्मबन्धन कर सकता है और न कर्म-क्षय । कर्म-सिद्धान्त का एक विवेचन है कि मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बन्ध उत्कृष्ट रूप में एक सागर की स्थिति का हो सकता है । वचनयोग मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बन्ध हो सकता है ।घ्राणेन्द्रिय अर्थात् नासिका के मिलने पर पच्चास सागर और चक्षु के मिलते ही सौ सागर की स्थिति का बन्ध हो सकता है और जब अमनस्क पंचेन्द्रिय की दशा में कान मिलते हैं, तो हजार सागर तक का बन्ध हो सकता है, लेकिन यदि मन मिल गया और उत्कृष्ट मोहनीय कर्म का बन्ध होने लगा, तो वह लाख और करोड़ सागर को पार कर जाता है । सत्तर क्रोडाक्रोडी (७० करोड x १ करोड) सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट-मोहनीय कर्म बन्ध मन मिलने पर ही होता है । यह है बन्धन की दृष्टि से मन की अपार शक्ति, इसलिए मन को खुला छोड़ने से पहले मनन करना चाहिए कि वह आत्मा को किसी गहन गर्त में तो नहीं धकेल रहा है? जैन-विचारणा में मन के भाव मुक्ति रूपी मंजिल का राजमार्ग है । जहाँ केवल समनस्क प्राणी ही गतिमान हो सकते हैं। अमनस्क प्राणियों को तो इस राजमार्ग पर चलने का अधिकार ही प्राप्त नहीं होता है । सम्यग्दर्शन के अधिकारी मात्र समनस्क जीव ही होते हैं, जो अपनी साधना के द्वारा मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव अध्यात्म की कक्षा में आगे बढ़ता हुआ जब उत्तरोत्तर अप्रत्याख्यानीय आदि कषायों का नियमन करता है तब देशविरति, सर्वविरति आदि उच्च आध्यात्मिक अवस्थाओं को प्राप्त करता है। चूंकि मन के द्वारा ही क्रोधादि कषायों का संयमन संभव है, इसलिए कहा गया है कि स्थिति-घात, रस-घात, गुण-श्रेणि आदि प्रक्रियाएँ मन का योग होने पर होती हैं । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं, "मन का निरोध हो जाने पर कर्म (बन्धन) भी पूरी तरह रुक जाते हैं, क्योंकि कर्म के आस्रव मन के आधीन हैं, लेकिन जो पुरुष मन का निरोध नहीं करता है, उसके कर्मों (बन्धन) की अभिवृद्धि होती इस प्रकार जैन कर्म-साहित्य में जीव के उत्थान-पतन के प्रबल हेतु मन को अचिन्त्य शक्तिधारक माना है। ___ वेदान्त परंपरा के मैत्राण्युपनिषद् एवं तेजोबिन्दूपनिषद्११ में मानसिक-शक्ति पर प्रकाश डालने Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री SAMBODHI हेतु कहा है कि 'मनुष्य के बन्धन और मुक्ति का कारण मन है । उसके विषयासक्त होने पर बन्धन और उसका निर्विषय होना ही मुक्ति है ।' बाह्य जगत में वैज्ञानिकों ने भावों के अचिन्त्य प्रभाव पर अनेकविध प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया है कि भावनाओं का प्रभाव न केवल स्व के ऊपर किन्तु पर के ऊपर भी पड़ता है । ऐसा ही एक प्रयोग केलीफोर्निया के एक कृषि वैज्ञानिक एलन फार्ड ने कर दिखाया । दुनिया में कंटकयुक्त गुलाब का पौधा तो सामान्यतया सर्वत्र पाया जाता है। लेकिन एलन ने भावना-प्रयोग के द्वारा गुलाब के प्राकृतिक स्वरूप को बदलकर उसे कंटकविहीन बना दिया । एलन के खेत में एक काटेदार सफेद गुलाब लगा था । एलन चाहता था कि वह पौधा निष्कंटव बन जाये । लेकिन अपनी इच्छा को पूर्ण करने हेतु एलन ने शस्त्र प्रयोग द्वारा काँटो को उखेड़ा नहीं क्योंकि वह पौधे को हानि पहोचायें बिना उसके स्वरूप का परिवर्तन करना चाहता था । दिन-प्रतिदिन वह उस गुलाब के पौधे के पास जाता और प्यार से उस पर हाथ फिराकर कहता गुलाब ! तुम कितने सुन्दर हो, मनमोहक हो, खुश्बुदार हो ! लेकिन तुम्हारे काटे बड़े ही पीड़ाकारक है, जिसके हाथ में लग हैं उसे कष्ट पहुंचाते हैं । तुम अपने काटे निकाल दो, निष्कंटक बन जाओ । चौथे महीने के प्रारम्भ में ही एलन का भावना प्रयोग सफल हो गया । उसने देखा कि गुलाब के काटे अपने आप झड़ने लग गये, कुछ ही दिनों में पूरा पौधा निष्कंटक हो गया । ऐसे अनेक प्रयोगों के बाद एलन ने एक पुस्तक लिखी- मिरेक्लस ऑफ थोट । इस पुस्तक में उसने विचार, भाव या भावना का विस्तार से वर्णन किया है। इसमें उसने लिखा है - 'मन की गहराई, सच्चाई, दृढ़ता, तन्मयता और प्यार से यदि कोई विचार किया जाता है तो वह आशानुरूप परिणाम अवश्य लाता है। भावना जब गुलाब का स्वभाव, गुण, धर्म बदल सकती हैं तो क्या अपने जीवन को, अपनी वृत्तियों को, अपने स्वभाव को नहीं बदल सकते ? अवश्य ही बदल सकते हैं । ___ इस प्रकार शुभाशुभ भावों का प्रभाव अन्य पदार्थों पर भी शुभाशुभ पड़ता है और स्व-परिवर्तन में भी भावों का प्रभाव पाया जाता है । मनोविज्ञान में ऑटोसज्जेशन (autosuggestion) नामक प्रक्रिया में व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण रूप से परिवर्तन कर लेता है । ऑटोसज्जेशन (autosuggestion) अर्थात् स्व को भावपूर्वक आदेश करना । जैसे यदि वह स्वयं को शांत करना चाहता है और स्वभाव शांत-समतामय बनना चाहता हो तो वह अपने आपको शांत रहने का आदेश देता रहता है । तब वह धीरे-धीरे शांति का अनुभव करने लगता है । इस प्रक्रिया में भी वस्तुतः मन के भावों का ही प्रभाव है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विख्यात वैज्ञानिक वाल्टर हैस ने सृजनात्मक एवं निषेधात्मक भावों पर कई प्रयोग किये हैं । उन्होंने बताया है - विचारों से, भावों से हमारे शरीर के हार्मोन्स प्रभावित होते हैं, शरीर के भीतर जो नाड़ी तंत्र है, अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ हैं, वे प्रभावित होती हैं । जब सृजनात्मक या शुभ विचार करते हैं तो उनसे जो रसायन स्रवित होते है उनसे हमारे भीतर उत्साह, उल्लास जागता है। INised Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ और मनोविज्ञान 173 मन शक्ति से लबालब भर जाता है। रोगों से लड़ने की शक्ति, जिसे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र कहते हैं, अपने आप प्रखर हो जाता है । मनुष्य में नये जीवन का संचार होने लगता है । व्यक्तित्व को उच्च स्तर पर पहुँचा देता है और जब अशुभ, निराशाजनक, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, क्रोध आदि के विचार आते हैं तो वे रसायन सूख जाते हैं और शरीर में कई तरह के विष उत्पन्न होकर उसे क्षीण करते जाते हैं। जैन धर्म में भाव कर्म ही द्रव्य कर्म का कारण है। पं. दलसुख मालवणिया ने द्रव्य कर्म और भाव कर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि भावनात्मक क्रियाएं भाव कर्म और पौद्गलिक अर्थात् कर्म वर्गणा के पुद्गल द्रव्य कर्म है । इन दोनों के मध्य परस्पर कार्य-कारण भाव है । आचार्य विद्यानन्दि ने अष्टसहस्री में द्रव्यकर्म को 'आवरण' और भावकर्म को 'दोष' के नाम से अभिहित किया है। चूंकि द्रव्य-कर्म आत्म-शक्तियों के प्रकटन को रोकता है, अतः वह आवरण है और भाव-कर्म स्वयं आत्मा की ही विभावस्था है, अतः वह दोष है ।१२ जब द्रव्य कर्म का उदय होता है तब विभिन्न प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं और वही भाव पुनः नये कर्मों को आकृष्ट करके आत्मा के साथ बान्धता है अर्थात् पूर्व का भाव-कर्म नये द्रव्य-कर्म बन्ध का कारण बनता है और वही द्रव्य-कर्म का उदय नये भाव-कर्म का निमित्त बनता है। ___ कैसे द्रव्य-कर्म का उदय भाव-कर्म को उत्पन्न करता है ? इसे दृष्टान्त के माध्यम से समझ सकते हैं। पूर्व बद्ध मोहनीय कर्म उदय में आता है तब क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों के उत्पन्न ने की संभावना होती है । यदि जीव शुभ भावों में स्थिर रहे तो द्रव्य-कर्म से नये भाव-कर्म उत्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु चंचल चित्त प्राणी नये भाव-कर्म बांध लेता है। इसी सिद्धान्त को आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगबिन्दु ग्रंथ में भिन्न प्रकार से समझाते हुए कहा है कि पूर्वकृत कर्म पुरुषार्थ है, जब कि वर्तमान में उदित कर्म भाग्य या नियति है। अतः द्रव्य कर्मोदय के समय यदि जीव पुरुषार्थपूर्वक मन को समभाव में स्थिर रखे तो नवीन कर्म-बन्ध की श्रृंखला समाप्त हो जाती है । इस प्रकार बारम्बार समभाव में स्थिर रहने के अभ्यास से संवर और निर्जरा करता हुआ जीव कर्म-क्षय करता है एवं परंपरा से सद्गति और मोक्ष को प्राप्त करता है । इस सारी प्रक्रिया में भाव की भूमिका प्रमुख है। ___ जैन धर्म में एक अन्य प्रकार से भी चिन्तन किया गया है। धर्म को चार विभाग में विभाजित करते हुए कहा है कि दान, शील, तप और भाव - ये चार धर्म हैं । १. दान अर्थात् अपने धन का दूसरों के लिए त्याग करना । २. शील अर्थात् जीवन को संयमित करना । ३. तप अर्थात् कर्मक्षय हेतु अन्न आदि का - भोजन आदि का त्याग या संक्षेप करना । ४. भाव अर्थात् मन में शुभ एवं पवित्र भाव भाना । ये चारों धर्म जीवन को उन्नत बनाने वाले हैं । तथापि शास्त्रों का स्पष्ट निर्देश है कि भाव रहित Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री SAMBODHI दान, शील और तप फलदायी नहीं बनते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कल्याण मंदिर स्तोत्र में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति करते हुए इसी तथ्य को स्पष्ट किया है - आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या, जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं, यस्मात् क्रियाः प्रतिफलंति न भावशून्याः ॥१३ यह श्लोक स्पष्ट रूप से सूचित करता है कि भाव शून्य क्रिया निष्फल होती है। मनोविज्ञान के कई प्रयोग भावों की चमत्कारी शक्ति को अभिव्यक्त करते हैं। यदि पानी को अमृत मानकर पिया जाय तो जल औषधिय गुण युक्त बन जाता है और जीवन हेतु विशेष लाभदायी सिद्ध होता है । जापानी वैज्ञानिकों ने पानी पर इसी प्रकार का एक प्रयोग किया था, जिसके परिणाम आश्चर्यकारी थे । उन्होंने दो अलग-अलग ग्लास में पानी भरकर रखा । एक ग्लास पर 'प्रेम' का लेबल चिपकाया गया और दूसरे पर 'घृणा' का । चौबीस घंटे के पश्चात् उस पानी का वैज्ञानिक परीक्षण करने पर पाया गया कि जिस ग्लास पर 'प्रेम' का लेबल लगाया था उसमें स्वास्थ्य-वृद्धिकारक तत्त्वों की मात्रा बढ़ गयी थी और 'घृणा' का लेबल युक्त ग्लास में जहरीले तत्त्वों की मात्रा में वृद्धि हुई थी। जहरीले तत्त्वों वाला पानी शरीर को नुकसान करने वाला बन चुका था और 'प्रेम' लिखा हुआ पानी अमृतमय बन चुका था । यह तो केवल सामान्य भावों का प्रभाव था । किन्तु यदि विशेष भावपूर्वक प्रयोग किया जाये तो इससे भी विशेष प्रभाव संभवित है। योगदृष्टिसमुच्चय१४ में अष्टांगयोग का वर्णन किया गया है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि – ये आठ योग के अंग हैं । यम व्रत स्वरूप है । नियम जीवन को अनुशासित करता है । आसन शरीर को सुदृढ़ बनाता है। प्राणायाम नाड़ी शुद्धि करता है । प्रत्याहार यों को विषयों से उन्मुख करके स्व में ले आता है। धारणा मन के भावों को घनीभूत करके इच्छित फल प्राप्ति में निमित्त बनती है । ध्यान एकाग्रता है और समाधि समत्व की प्राप्ति है। इन आठ अंगों में धारणा का सम्बन्ध भावना के साथ है । जिस प्रकार भावना में किसी एक विषय पर गहन चिन्तन किया जाता है । उसी प्रकार धारणा में किसी एक वस्तु पर भावों को केन्द्रित करके उसको परिवर्तित किया जाता है । कविराज महोपाध्याय गोपीनाथ 'मनुष्य की लोक यात्रा' नामक ग्रंथ में स्वामी सिद्धेश्वरानंदजी के जीवन चरित्र का वर्णन करते हैं । वहाँ उन्होंने लिखा है कि स्वामी सिद्धेश्वरानंदजी कभी भी किसी भी पदार्थ को क्षण-मात्र में हाजिर कर देते थे । सभा में कोई वस्त्र की अपेक्षा करता तो वे क्षणवार में उसी प्रकार का वस्त्र वहाँ उपस्थित कर देते थे । न केवल वस्त्र अपितु खाने-पीने आदि की सामग्री की अभिलाषा करने पर वहाँ वह सामग्री भी उपलब्ध करवा देते थे । यह एक आश्चर्यकारी घटना है । किन्तु योगमार्ग का सूक्ष्म चिन्तन करने पर यह स्पष्ट बोध होता है कि यह धारणा का ही प्रभाव है । धारणा करके वे तद्-तद् वस्तुओं को उसी समय आहूत कर सकते थे। धारणा भी भावना का गहन स्वरूप है। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ और मनोविज्ञान 175 भक्ति योग में भी भक्त भगवान के पास भाव भरे स्तवन या भक्ति गीत गाता है तब चमत्कार निर्मित होते हैं । नरसिंह महेता, मीराबाई एवं जैन कवि मूलचन्दजी के जीवन की घटनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर पाया जाता है कि इन भक्तों ने भावों की चरम सीमा तक पहुँचकर अपने ऊपर आये दुखों, आपत्तियों एवं कष्टों को सहजता एवं सरलता से पार कर दिया था । हमारी सुषुप्त शक्तियों को जागृत करके अपार लाभ लिया जा सकता हैं। इन तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि भावनाओं के द्वारा जीवन में अचिन्त्य लाभ हो सकता है, इन तथ्यों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि शुभाशुभ भावनाओं का प्रभाव जीवन पर शुभाशुभ होता है। इस शोध प्रबंध में मैंने जैन धर्म में वर्णित अनित्य आदि द्वादश भावनाओं एवं मैत्री आदि चार भावनाओं का संक्षेप या विस्तार से वर्णन करके उनके महत्त्व को स्थापित किया है । इन भावनाओं में से आद्य छह भावनायों का स्वरूप चिन्तनात्मक है एवं पश्चातवर्ती छह भावनाएँ तत्त्वचिन्तनात्मक है एवं मैत्री आदि भावना चतष्क का सम्बन्ध व्यवहार जीवन से है। ___अनित्य आदि भावना षट्क पदार्थ के स्वरूप को प्रकट करके उसके प्रति हमारे मन में पैदा होने वाले राग-द्वेष और मोह का नाश करती हैं । आश्रव आदि भावना षट्क तत्त्वचिंतन के द्वारा आत्मजागृति की दिशा में अग्रसर करती हैं। इन भावनाओं का निरन्तर अभ्यास करने से अचिन्त्य लाभ हो सकता है। आगम एवं आगमेतर साहित्य में वर्णित अनेक दृष्टान्तों से यह स्पष्ट होता है कि साधकों ने भावनाओं के द्वारा उपसर्ग एवं परिषहों में स्थिरता प्राप्त करके अपने जीवन को धन्य बनाया था । इन सबसे यही स्पष्ट होता है कि मन में जो भाव उत्पन्न होता है उनका प्रभाव जीवन में निश्चित देखा जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि भावनाओं का मनोविज्ञान के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । आज के मनोविज्ञान ने प्रयोग के आधार पर जो तथ्य हमारे सामने रखे है वही तथ्य प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कथाओं और दृष्टान्तों में भी पाये जाते है । सन्दर्भ : १. तत्त्वार्थसूत्र, २/११ २. वही, २/३७ ३. कर्म-प्रकृति, पृ. ५० ४. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड ६, पृ. ७४ भारतीय आचारदर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ५०५ चरक संहिता, शरीर स्थान, १/२० ७. तत्त्वार्थसूत्र, ९/७ ८. पंचम कर्मग्रन्थ, गाथा ३७, ३८ ९. योगशास्त्र, ४/३८ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 साध्वीश्री प्रियाशभांजनाश्री SAMBODHI १०. मैत्राण्युपनिषद, ४/११ ११. तेजोबिन्दूपनिषद्, ५/९५ १२. अष्टसहस्री, पृ. ५१; उद्धृत भारतीय आचार दर्शन – एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ३४३ १३. कल्याणमंदिर स्तोत्र, श्लोक ३४ १४. योगदृष्टिसमुच्चय, श्लोक-१३ --- Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની રૂપરેખા પં. સુખલાલજી મિત્રો, ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની પરિષદમાં એક જુદા વિભાગ તરીકે ગુજરાતી વિભાગનું સંમેલન આ વર્ષો પહેલવહેલું ગોઠવાયું છે. આ વિભાગીય અધિવેશનનો નિર્ણય બહુ મોડો લેવાયો છે, તેથી તેની જાણ જોઈએ તેટલા પ્રમાણમાં ગુજરાતમાં વસતાં કે ગુજરાત બહાર રહેતાં ભાઈબહેનોને થઈ નથી શકી. છતાં ઉપક્રમ તો થાય જ છે, અને સંભવ છે કે આગળની પરિષદોમાં ગુજરાતના આ દાખલાને અનુસરી ઇતર પ્રદેશોમાં પણ ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાન પરિષહ્ના ભાગ તરીકે ત્યાંની પ્રાદેશિક ભાષામાં આવા વિભાગીય અધિવેશનની ગોઠવણ ચાલુ રહે. | ગુજરાતમાં તત્ત્વજ્ઞાન કે ગુજરાતીમાં તત્ત્વજ્ઞાન, એનો અર્થ એવો નથી કે કોઈ ખાસ વિશિષ્ટતા ધરાવે એવું તત્ત્વજ્ઞાન ગુજરાતમાં ઉદ્ભવ્યું છે, કે વિકસ્યું છે. એનો એવો પણ અર્થ નથી કે કોઈ ચિંતકે ગુજરાતી ભાષામાં ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનથી કાંઈક જુદું પડે કે કાંઈક જુદી વિશિષ્ટતા ધરાવે એવું તત્ત્વજ્ઞાન ખેડ્યું હોય. વળી એનો એવો પણ અર્થ નથી કે કોઈ તત્ત્વજ્ઞાનનો આંતરિક સંબંધ કે વિકાસ એ માત્ર ગુજરાત કે ગુજરાતીની ખાસિયત સાથે વધારે મેળ ખાતો હોય. એનો સીધો અને સાદો અર્થ એટલો જ છે કે જે જે તત્ત્વજ્ઞાન ગુજરાતી ભાષામાં અવતર્યું છે કે અનેક રીતે પ્રસર્યું છે, તે ગુજરાતી કે ગુજરાત સાથે સંબંધ ધરાવનારું તત્ત્વજ્ઞાન. ઉપર કહી તે વાત ગુજરાત સિવાયના ઇતર પ્રદેશો અને ઇતર પ્રાદેશિક ભાષાઓને પણ લાગુ પડે છે. તત્ત્વજ્ઞાન એ વસ્તુના યથાર્થ સ્વરૂપનો વિચાર કરે છે. વિચાર કરનાર કોઈ પણ દેશ, જાતિ, પંથનો હોય કે ગમે તે ભાષા ભાષી હોય પણ એનું તત્ત્વચિંતન એ ખરી રીતે માનવીય તત્ત્વચિંતન છે. અને એને દેશ, જાતિ, પંથ કે ભાષાના બંધનો આડે નથી આવતાં. છેલ્લાં લગભગ સો એક વર્ષમાં પાશ્ચાત્ય વિદ્યાઓના સંપર્કને પરિણામે ગુજરાતમાં તત્ત્વજ્ઞાનને * અમદાવાદમાં મળેલ ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાન પરિષદના ૩૩માં અધિવેશનની ગુજરાતી વિભાગના અધ્યક્ષ તરીકે આપેલ ભાષણ તા. ૨૭.૧૨.૧૯૫૮. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 પં. સુખલાલજી SAMBODHI લગતું વિવિધ કાર્ય ગુજરાતી ભાષામાં થયું છે. અને એ પ્રમાણમાં ઓછું નથી; ગુણવત્તામાં તો કદાચ એ, તે વિષયના બંગાળી સાહિત્ય કરતાં બીજે જ નંબરે આવી શકે, તેમ મને લાગ્યું છે. આ સાહિત્યમાં વૈદિક, બૌદ્ધ, જૈન, જરથૉસ્ટ્રી, યાહૂદીય, કિશ્ચિયન અને ઇસ્લામ એ બધાનો સમાવેશ થાય છે. માત્ર ગુજરાતી ભાષા દ્વારા કોઈ તત્ત્વજ્ઞાન વિષે પરિચય કરવા ઇચ્છે તોય, એને પુષ્કળ સામગ્રી મળી શકે તેવી ભૂમિકા તૈયાર છે. આ સામગ્રીમાં થોડું પણ એવું લખાણ મળી આવશે, કે જેને મહદંશે મૌલિક પણ કહી શકાય. આવા તત્ત્વજ્ઞાનીય સાહિત્યના વિવિધ પ્રકારોનું વિસ્તૃત વર્ણન આપવા જેવું છે જ; તે વર્ણન શ્રીયુત મુકુલભાઈ કલાર્થી, એમ.એ., એમણે તૈયાર કર્યું છે, જે અહીં યથાસમયે વંચાશે, અને જે ઘણું જ માહિતીપૂર્ણ છે. આ બીજી બાબતો ચર્ચવાની પાછળ મારી નેમ એ છે કે જેઓ તત્ત્વજ્ઞાનમાં રસ લેતા હોય અને જેઓ ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની પરંપરાઓને ઠીક-ઠીક સમજવા ઇચ્છતા હોય, તેઓને એના મૂળ પ્રવાહોનો તેમ જ તેના વિકાસનો ટૂંકમાં પણ પ્રામાણિક ખ્યાલ આવે. પહેલાં હું તત્ત્વજ્ઞાનનો વિકાસ કયા ક્રમે થયેલો મને જણાય છે તે જણાવવા પ્રયત્ન કરું છું. તાત્ત્વિક મુદ્દાઓ અને તેનો વિકાસક્રમ સામાન્ય રીતે તત્ત્વજ્ઞાનના મુખ્ય ત્રણ વિષયો મનાય છે અથવા છે : ૧. ભૌતિક યા અચેતન તત્ત્વ-અધિભૂત; ૨. જીવ, આત્મા યા ચિત્તતત્ત્વ-અધિદેવ; ૩. પરમચેતન પરમાત્મા યા બૃહતુંઅધિબ્રહ્મ. આમાંથી જે ભૌતિક જગત છે, તે નેત્ર આદિ બાહ્ય ઇન્દ્રિયો દ્વારા એક યા બીજી રીતે ગમ્ય થવાની શક્યતા ધરાવે છે અને તે જગત સર્વ ચેતન માટે યા સર્વ દ્રષ્ટાઓ માટે સાધારણ છે. અર્થાત ભૌતિક વિશ્વ યા તેની ઘટનાઓ એ કેવળ એક જ વ્યક્તિ દ્વારા ગમ્ય થઈ શકે તેવી નથી હોતી. તેથી ભૌતિક વિશ્વ પરત્વે અનેક ચિંતકો પોતપોતાની શક્તિ અને રુચિ અનુસાર અવલોકન તેમ જ ચિંતન કરતા રહ્યા છે. પણ આથી ઊલટું અધિદેવ યા ચિત્તતત્ત્વ વિશે છે. ચિત્ત એ આંતરિક તત્ત્વ છે. એનું સીધું અવલોકન કે ચિંતન એ માત્ર તે જ કરી શકે છે. * ચિત્ત યા વરુ જીવનું સાક્ષાત્ નિરીક્ષણ યા ચિંતન એ કે વ્યક્તિ કરી ન શકે. તેથી જીવ, આત્મા કે ચિત્ત પરત્વેનાં અવલોકનો યા અનુભવો એ દરેક વ્યક્તિનાં આગવાં હોય છે; ભલે એમાં પરસ્પરના વિચાર વિનિમયથી સામ્ય દેખાય. ભૌતિક વિશ્વના નિરીક્ષણ વખતેય અનુભવ કરનારને પોતાના ચિત્તનું કાંઈક ને કાંઈક ભાન તો થતું જ રહે છે; પણ જ્યારે અનુભવિતા મુખ્યપણે અંતર્મુખ થઈ પોતાના આંતરિક સ્વરૂપનું અવલોકન કરે છે, ત્યારે એનું ભાન અને ચિંતન વધારે વિશાળ તેમ જ સ્પષ્ટ બને છે. અંતરિન્દ્રિયની યા મનની ગૂઢ શક્તિનો વિકાસ થયા પછી એની એવી પણ ભૂમિકા આવે છે કે જ્યારે તે સર્વ જીવાત્મા કે સર્વ ચિત્તતત્ત્વના અધિષ્ઠાન થા અન્તર્યામી તત્ત્વનો વિચાર કરવા પ્રેરાય છે. અને તે જાણવા પ્રયત્ન કરે છે કે કીટ-પતંગથી મનુષ્ય સુધીની ચડતી ઊતરતી કક્ષાઓના ચેતનવર્ગમાં કાંઈ એવું છે કે જે વસ્તુસ્થિતિએ એક જ હોય યા સમાન હોય ? આ પ્રયત્ન છેવટે પરમાત્મા, ઈશ્વર કે બૃહત્ તત્ત્વની શોધમાં પરિણમે છે. તત્ત્વજ્ઞાનને લગતો આ વિકાસક્રમ ભારતીય પરંપરાઓમાં કેવી રીતે વ્યક્ત થયો છે, તે હવે આપણે જોઈએ. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 Vol. XLI, 2018 ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની રૂપરેખા ભૌતિક અણુવાદ ભૌતિક જગત પરત્વે આપણે ત્યાં મુખ્ય બે પરંપરાઓ છે : એક અણુવાદી અને બીજી પ્રકૃતિવાદી, અણુવાદીમાં પહેલાં ચાવકો આવે. તેઓ આખું જગત ભૌતિક તત્ત્વમય માનતા, અને એમાં ગ્રીક ચિંતકોની પેઠે, ચાર કે પાંચ મૌલિક તત્ત્વનો સમાસ કરતાં. એ તત્ત્વોની સૂક્ષ્મતા પણ તે કાળમાં બહુ દૂર સુધી ગયેલી નહીં; ઇન્દ્રિયગમ્ય થઈ શકે એવાં ભૌતિક તત્ત્વો એ જ ઘણું કરી એમને મતે મૂળ અને પ્રાથમિક તત્ત્વ હતાં. પણ કાંઈક નિરીક્ષણ અને વિશેષે તો કલ્પનાએ ચિંતકોને ઊંડાણ ભણી પ્રેર્યા. તેમણે કપ્યું અને સ્થાપ્યું કે વધારેમાં વધારે શક્તિ ધરાવનાર ઇન્દ્રિયો જે દેખી શકે તેથી પણ અતિસૂક્ષ્મ તે તે ભૌતિક અણુઓ હોવા જ જોઈએ. આ વાદ વૈશેષિક પરંપરારૂપે વિકસ્યો અને વૈશેષિકો અતીન્દ્રિય પરમાણુવાદ સુધી ગયા. તેમણે એ પણ કહ્યું કે પૃથ્વી, પાણી આદિ ભૌતિક તત્ત્વોના અંતિમ પરમાણુંઓ અતીન્દ્રિય છે, પણ તે પરસ્પર તદ્દન વિજાતીય છે. એટલે પાર્થિવ પરમાણું કદી પાણી કે તેજ આદિરૂપે બદલાઈ ન શકે. આ વૈશેષિક વિચારધારાથી આગળ વધનાર અણુવાદીઓ પણ અસ્તિત્વમાં આવ્યા. તેઓની વિચારધારા વૈશેષિક કહેવાતી વિચારધાર પછી જ અસ્તિત્વમાં આવી કે પહેલાં યા સમાનાન્તર – એ કહેવું સરળ નથી. પણ એ વિચારધારા વૈશેષિક વિચારધારાથી વધારે સૂક્ષ્મ અને વધારે સત્યની નજીક છે, એટલું તો ચોક્કસ. આ વિચારધારા જૈન પરંપરામાં બહુ વિસ્તાર પામી છે. તેણે કહ્યું અને સ્થાપ્યું કે પાર્થિવ આદિ ભૌતિક પરમાણુઓ તે તે વ્યવહાર્ય ગુણધર્મને કારણે ભલે જુદા કહેવાતા અને મનાતા હોય, પણ મૂળમાં એ પરમાણુઓમાં કોઈ પાર્થિવત્વ આદિ સ્વતઃ સિદ્ધ વિભાજક તત્ત્વ નથી. પરિસ્થિતિ અને પરિવર્તનવશ જે પરમાણુ પાર્થિવ હોય તે સંયોગ બદલાતાં જલીય પણ બની શકે અને વાયવીય પણ. જેમ આ પરંપરાએ પરમાણુઓમાંના સ્વતઃસિદ્ધ વિભાજક તત્ત્વને લોપી નાખ્યું, તેમ એણે સૂક્ષ્મતાની દિશામાં પણ બહુ જ વિશેષ પ્રગતિ કરી. વૈશેષિક પરંપરામાં મનાતો અંતિમ પરમાણુ જૈન કલ્પના પ્રમાણે એક મોટો સ્કંધ યા અનંત અવિભાજ્ય પરમાણુઓનો સમુદાય બની ગયો. આ અણુવાદની પ્રક્રિયા એથી એ આગળ વધી. બૌદ્ધ પરંપરાએ પરમાણુ માનવા છતાં કહ્યું કે પરમાણુનો એવો અર્થ નથી કે કોઈ એક દ્રવ્ય સદા ધ્રુવ રહે અને તેમાં ગુણધર્મો રૂપાંતર પામતા જાય પણ એનો અર્થ એ છે કે એવું કોઈ ધ્રુવ પરમાણુ-દ્રવ્ય ન હોવા છતાં તેના ગુણધર્મોની પ્રતિસમય નવીનવી બદલાતી ધારા ચાલ્યા જ કરે છે, એ અવિચ્છિન્ન ધારા તે જ દ્રવ એટલે પ્રવાહરૂપે વહેતી હોવાથી દ્રવ્ય કહેવાય છે. આમ બૌદ્ધ પરંપરાએ પહેલેથી મનાતા એક ધ્રુવ પરમાણુનો છેદ ઉડાડી તેના સ્થાનમાં પ્રતિસમય યા પ્રતિ ક્ષણ ઉદય પામતા નવા-નવા રૂપ, રસ આદિ ગુણધર્મોને જ પરમાણુ માન્યા. ટૂંકમાં ઉપર સૂચિત પરમાણુવાદને લગતી ચાર કલ્પનાઓ ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનમાં છે, એની આસપાસ અનેક કલ્પનાઓની સૃષ્ટિ ઊભી થયેલી છે, પણ મૂળમાં આ ચાર જ છે. ભૌતિક પ્રકૃતિવાદ ભૌતિક જગત પરત્વેની બીજી પરંપરા તે પ્રકૃતિવાદી, જે સાંખ્ય પરંપરા તરીકે સુવિદિત છે. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 પં. સુખલાલજી SAMBODHI આગળ જતાં આ જ પ્રકૃતિવાદ અનેક વેદાન્તી વિચારસરણીઓની ભૂમિકા બની ગઈ છે. આ પરંપરા પ્રથમ પરંપરાની પેઠે મૌલિક અનંત પરમાણુઓ ઉપરથી ભૌતિક જગતનું સર્જન નથી માનતી. તે કહે છે કે વિશ્વના મૂળમાં અખંડ તત્ત્વ તો એક જ છે, અને તે પ્રકૃતિતત્ત્વ. આ તત્ત્વમાં જુદા-જુદા ગુણધર્મો ધરાવનાર અને તેને વ્યક્ત કરનાર એવા પરસ્પર અવિભાજ્ય અંશો કે ઘટકો છે, પણ તે મૂળ પ્રકૃતિતત્ત્વથી છૂટા નથી. પ્રકૃતિતત્ત્વ એક જ અને કોઈને મતે અનેક છતાં તે સમગ્ર વિશ્વમાં વ્યાપક છે. તે તત્ત્વ અણુવાદી પરંપરાની પેઠે પરમાણુ કહેવાય તો એ અર્થમાં કે તે ઇન્દ્રિયાતીત અને અતિસૂક્ષ્મ છે; પણ એ અર્થમાં નહીં કે એનું કદ યા પરિમાણ અતિ અલ્પ છે. પ્રકૃતિવાદીએ મૂળ એક પ્રકૃતિ માનીને પણ તેનામાં એટલી બધી સર્જનશક્તિ માની છે કે જેથી તે વિશ્વવૈવિધ્ય યા વૈશ્વરૂપ્યનો પૂરો ખુલાસો આપી શકે છે. બન્ને વાદની સર્જનપ્રક્રિયાની તુલના અહીં ઉપર સુચિત એ ભૌતિકવાદોની સર્જનપ્રક્રિયાને લઈ ટૂંકમાં સરખામણી કરીએ તો બન્નેના દૃષ્ટિકોણ સમજવામાં સરળતા થાય. દરેક અણુવાદી એમ માને છે કે પરમાણુઓના નાના-મોટા સમુદાય દ્વારા છેવટે ઇન્દ્રિયગમ્ય બની શકે એવી ભૌતિક સૃષ્ટિ નિર્માણ થાય છે; જ્યારે પ્રકૃતિવાદી એમ માને છે કે અણુવાદીઓનાં પરમાણુ દ્રવ્યો કે એના સ્કંધો, એ તો પ્રકૃતિના સર્જન-વ્યાપારનો એક ભાગ છે, અને તે પણ બહુ આગળ જતાં આવે છે, પહેલાં તો પ્રકૃતિમાંથી જે સર્જન થાય છે, તે જ્ઞાયક કોટિનું યા જ્ઞાનપક્ષીય હોય છે. પ્રાથમિક સર્જનમાં જીવાત્મા દ્વારા જે સુખ, દુઃખ, જ્ઞાન, ઇચ્છા આદિ સ્વસંવેદ્ય ભાવો અનુભવાય છે, તે અસ્તિત્વમાં આવે છે, અને ક્રમે-ક્રમે તેમાંથી જ્ઞાન મેળવનારી અને જ્ઞાનને વ્યવહાર્ય બનાવનારી શક્તિઓ યા ઇન્દ્રિયો રચાય છે. આ જ્ઞાતુ, આ જ્ઞાનસાધન અને જ્ઞાનનું વાહન એ ત્રિવર્ગ રચાય ત્યારે જ સૂક્ષ્મ-સ્થૂળ ભૌતિક સૃષ્ટિના આવિર્ભાવના કાળ આવે છે; પહેલાં જ્ઞાતયા જ્ઞાયકપક્ષીય સૃષ્ટિ; અને પછી શેય યા ઉપભોગ્ય સૃષ્ટિ રચાતી મનાય છે, અને કોઈપણ અવસ્થામાં પરમાણુઓની બનેલી સૃષ્ટિ જ્ઞાયકપક્ષમાં પડતી જ નથી. આમ અણુવાદી સર્જનપ્રક્રિયા પ્રારંભથી અંત સુધી ભોગ્ય સૃષ્ટિના ઉત્પાદન-વિનાશનો જ વિચાર કરે છે; ત્યારે પ્રકૃતિવાદી સર્જન-પ્રક્રિયા પ્રથમ જ્ઞાતા યા ભોક્તાના સર્જનને લગતો વ્યાપાર ઘટાવી ત્યાર બાદ ભોગ્ય સૃષ્ટિનો વિચાર ઘટાવે છે. આ મૌલિક ભેદ ઉપરથી એમ લાગે છે કે કદાચ તત્ત્વજ્ઞાનની કોઈ પ્રાચીન અવસ્થામાં એક પરંપરાએ મુખ્યપણે બહિર્મુખ થઈ સૃષ્ટિનો વિચાર પ્રારંભ્યો, અને અંતે પરમાણુ સુધી તે ગયો; જયારે બીજી પરંપરાએ અન્તર્મુખ થઈ એ વિચાર પ્રારંભ્યો અને છેવટે તે સ્થળ વિશ્વના સર્જનને ઘટાડવામાં વિરમ્યો. આ ભેદ જોતાં અને આગળ ઉપર જે જીવત્ત્વ વિશે વિચાર ખેડાતો ગયો તે જોતાં, એમ લાગે છે કે પ્રથમ અણુવાદી ચાર્વાક કે જીવનતત્ત્વ તો પોતે માનેલાં ભૌતિક તત્ત્વોથી ખાસ સ્વતંત્ર નથી. પણ ભૌતિક તત્ત્વોનાં વિવિધ મિશ્રણોમાં જે મિશ્રણો શરીર આકાર ધારણ કરે અને સેન્દ્રિય બને તે મિશ્રણોમાં સુખ-દુ:ખ આદિની લાગણી જેવું જ જીવન પ્રગટે. પણ બીજા અણુવાદી પક્ષોએ તેથી જુદા પડી એમ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 Vol. XLI, 2018 ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની રૂપરેખા કહ્યું કે અણુસૃષ્ટિ એ તો ભોગ્ય સૃષ્ટિ છે, અને જે ભોગ્ય હોય તેનો કોઈ ભોક્તા સચેતન હોવો જ જોઈએ. આ દલીલને આધારે તેમણે બધાએ ભોક્તાનું યા જીવનું સ્વતંત્ર અસ્તિત્વ માન્યું. કારણ કે એમની સર્જન પ્રક્રિયામાં મૂળ પાયારૂપે તો પરમાણુઓ જ હતા; અને તેમાં તેમણે ચૈતન્ય સ્વીકાર્યું ન હતું, તેમ જ ચૈતન્ય પ્રગટ થાય એવી ચાર્વાકસંમત શક્તિ પણ સ્વીકારી ન હતી. આથી ઉલટું પ્રકૃતિવાદની સર્જન પ્રક્રિયામાં દેખાય છે એ પ્રક્રિયા પ્રમાણે જ્ઞાન, સુખદુઃખ, ઇચ્છા આદિ સ્વસંવેદ્ય મનોગત ભાવો એ તો પ્રકૃતિના સર્જન ક્રમમાં આવિર્ભાવ પામતાં, પહેલા જ તબક્કે અસ્તિત્વમાં આવે. તેથી શરૂઆતના વખતમાં પ્રકૃતિવાદીને પણ કદાચ પ્રકૃતિથી ભિન્ન એવા ચેતનતત્ત્વની કલ્પના કરવી નહીં પડી હોય. અને જ્યારે એ કલ્પના કરવી પડી ત્યારે પ્રકૃતિવાદીને ચેતન સાથે પ્રકૃતિનો મેળ બેસાડવામાં અને પ્રકૃતિના બુદ્ધિ, જ્ઞાનેન્દ્રિય અને કર્મેન્દ્રિય એ ત્રિવર્ગને સાર્થક ઠરાવવામાં પણ ભારે મુશ્કેલી અનુભવવી પડી હોય તેમ દેખાય છે. ભૌતિક તત્ત્વોનાં સ્વરૂપ પરત્વે જે-જે કલ્પનાઓ થતી ગઈ અને વિકસતી ગઈ, તે કલ્પનાઓ પ્રયોગની કસોટીએ ચડેલી નહીં. બે કે અનેક કલ્પનાઓના પુરસ્કર્તા પરસ્પર ચર્ચા કરે; એક બીજાની કલ્પનામાં ત્રુટિ કે અસંગતિ બતાવે. બીજો પોતાના બચાવ ઉપરાંત પહેલાની માન્યતામાં અસંગતિ દર્શાવે. આમ તર્ક-પ્રતિતકના પરિણામે દરેક વાદી પોતાનાં મંતવ્યોમાં કાંઈક ને કાંઈક સુધારો કે ઉમેરો કરતો ગયો છે, પણ કોઈ ભૌતિકવાદી પરંપરાએ પોતાની કલ્પનાને પ્રયોગની કસોટીએ ચડાવી તેની સારાસારતા સિદ્ધ નથી કરી. જેમ છેલ્લાં ચારસો-પાંચસો વર્ષમાં વૈજ્ઞાનિકોએ ભૌતિક તત્ત્વની પોતપોતાની કલ્પનાઓને અનેક પ્રયોગો દ્વારા કરવાનો પ્રયત્ન કર્યો છે, અને તેને પરિણામે અનેક જૂની માન્યતાઓ ભૂંસાઈ ગઈ છે; નવી માન્યતા અસ્તિત્વમાં આવતી ગઈ છે, અને તે પણ પ્રયોગમાં સાબિત થાય તો જ ટકી રહે છે, નહીં તો માત્ર ઐતિહાસિક નોંધમાં જ એનું સ્થાન રહે છે, તેમ ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની ભૌતિક વિશ્વ પરત્વેનો સેંકડો વર્ષોમાં ખેડાયેલી વિવિધ કલ્પના વિશે ક્યારેય બન્યું નથી તેથી આ કલ્પનાઓ આજે એ જ રૂપમાં સિદ્ધાન્ત કોટિમાં આવી શકે નહીં, અને છતાં એ તત્ત્વજ્ઞાનનો એક ભાગ તો ગણાય જ છે. આનો અર્થ મારી દૃષ્ટિએ એટલો જ થઈ શકે કે તે તે ચિંતકો મૂળે તો વસ્તુના યથાર્થ દર્શનની શોધમાં જ પ્રવૃત્ત થયેલા. તેમનાં સાધનો તે કાળે પરિમિત. અને વૈજ્ઞાનિક પ્રયોગની દિશા તેમણે ઉઘાડી જ ન હતી. તેથી આજના વૈજ્ઞાનિક પ્રયોગોના સમયમાં એ કલ્પનાઓનું મૂલ્ય અવશ્ય સિદ્ધાન્તકોટિનું નથી જ, છતાં ઉત્કટ જિજ્ઞાસુઓના પ્રાથમિક અને દીર્ઘકાલીન પ્રયન રૂપે તો એનું ઐતિહાસિક મૂલ્ય છે જ. અહીં એ પણ નોંધવું યોગ્ય ગણાશે કે ભૌતિક તત્ત્વોની વિવિધ કલ્પનાઓ સાથે બૌદ્ધિક સૂક્ષ્મતા, તાર્કિક સચોટતાનો સંબંધ જોડી શકાય; પણ સૈકાલિક સર્વજ્ઞત્વ કે અબાધિત સ્વાનુભવનો સંબંધ જોડી ન શકાય. આ વિચારને વધારે સ્પષ્ટપણે સમજવામાં ઉપયોગી થઈ શકે એવો, એક લેખ હમણાં જ પ્રસ્થાન” માસિકના ગત કારતક માસના અંકમાં “પરમાણુની ભીતરમાં' શીર્ષકથી પ્રસિદ્ધ થયો છે. એના લેખક છે ડો. અશ્વિન મ. ત્રિવેદી અને શ્રી મહેન્દ્ર દેસાઈ. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 પં. સુખલાલજી SAMBODHI ચેતનવિષયક માન્યતાની ભૂમિકાઓ હવે તત્ત્વજ્ઞાનના બીજા વિષય ચૈતન્ય ભણી વળીએ. વિચારકોને પહેલાં એમ તો લાગ્યું જ કે જ્ઞાન યા ચૈતન્યશક્તિ એક વિશિષ્ટ વસ્તુ છે. પણ તેનું ભૌતિક તત્ત્વથી નિરાળું અસ્તિત્વ તેમણે માન્યું નહીં. તેઓએ માન્યું કે, જેમ ભૌતિક તત્ત્વોમાં બાહ્ય ઇન્દ્રિયથી ગ્રહણ થઈ શકે એવા ગુણધર્મોનું અસ્તિત્વ છે, તેમ માત્ર મનથી જ ગ્રહી શકાય અને સમજી શકાય એવા જ્ઞાન કે ચૈતન્યગુણનું પણ અસ્તિત્વ છે- ભલે અસ્તિત્વ અમુક પરિસ્થિતિમાં જ દેખા દે. આ દૃષ્ટિએ તે ભૂતવાદી વિચારકોએ ચૈતન્યનું કેન્દ્ર ભૂતતત્ત્વોમાં માન્યું અને કહ્યું કે જીવન્ત દેહ વિલય પામે ત્યારે ભૌતિક તત્ત્વો વીખાઈ જાય, અને ચૈતન્ય પણ ત્યાં જ અસ્ત પામે. કોઈ પ્રાણી જન્મ લે ત્યારે તેના શરીરમાં કોઈ પહેલાંનું સ્વતંત્ર ચૈતન્ય દાખલ નથી થતું, પણ નવા દેહ સાથે નવીન ચૈતન્યશક્તિ નિર્માણ થાય છે. આજે આ ભૂતચૈતન્યવાદ ભારતના સામાન્ય માનસપ્રદેશમાંથી જાણે સાવ સરી ગયો હોય એમ લાગે છે. પણ એ વિચારના થરો તો સાહિત્યમાં અનેક રીતે નોંધાયા છે. આ ચૈતન્યવાદની પ્રાથમિક ભૂમિકાથી આગળ વધી બીજા વિચારકોએ ચેતન યા ચૈતન્યનું ભૂતતત્ત્વોથી સ્વતંત્ર અને નિરાળું અસ્તિત્વ સ્થાપ્યું. આવા સ્વતંત્ર ચેતનવાદી અનેક પંથો અસ્તિત્વમાં આવ્યા. દરેકની દૃષ્ટિ એના સ્વરૂપ પરત્વે, ગુણધર્મ પરત્વે તેમજ વિકાસની પરાકાષ્ઠા પરત્વે જુદી-જુદી ઘડાતી હતી. અંતે આ ચૈતન્યવાદી વર્ગમાંથી એક એવી દૃષ્ટિ પણ પ્રગટ થઈ કે જે અમૂર્ત જ્ઞાન યા ચૈતન્ય સિવાય બીજી કોઈ ભૌતિક વસ્તુનું સ્વતંત્ર અસ્તિત્વ જ ન માનતી. આમ ચેતનતત્ત્વની બાબતમાં મુખ્ય-મુખ્ય જે વિચારપ્રવાહો ચાલ્યા તેને ત્રણ ભાગમાં મૂકી શકાય. પહેલો ભાગ ભૂતચેતનવાદી, જેમાં ભૌતિક શક્તિઓ, ગુણધર્મો અને ચૈતન્ય યા જ્ઞાનશક્તિ એ માત્ર ભૂતતત્ત્વના કેન્દ્રમાં જ મનાયાં. આ ભૂતતત્ત્વાદ્વૈતવાદ થયો. બીજો ભાગ એ કે જેમાં ભૌતિક તત્ત્વોથી ભિન્ન સ્વતંત્ર ચેતનતત્ત્વોનું શાશ્વત અસ્તિત્વ મનાયું. ત્રીજો ભાગ એ કે જેમાં જ્ઞાન, ચૈતન્ય યા સ્વસંવેદ્ય અમૂર્ત તત્ત્વ સિવાય બીજી કોઈ ભૂત-ભૌતિક જેવી વસ્તુઓનું સ્વતંત્ર અસ્તિત્વ જ નહીં. આ રીતે પહેલો ભાગ અને બીજો ભાગ, બન્ને પોતપોતાની રીતે અદ્વૈતી. પહેલાને ચૈતન્યનું ભાન ભૂતોમાંથી ઘટાવવાનું તો બીજાને ભૌતિક્તા યા બાહ્યતાનું ભાન ચૈતન્ય યા જ્ઞાનશક્તિમાંથી ઘટાવવાનું પહેલા અદ્વૈતમાં અવિદ્યાની કલ્પના કરવી ન પડતી; જયારે બીજા અંતમાં અવિદ્યાનો આશ્રય અનિવાર્ય હતો. વિજ્ઞાનવાદી બૌદ્ધ હોય કે કેવલાદ્વૈતવાદી વેદાન્તી હોય, બન્નેને ઇન્દ્રિયગમ્ય બાહ્ય સૃષ્ટિના અનુભવની ઉપપત્તિ એકમાત્ર અવિદ્યા, અજ્ઞાન યા માયાશક્તિનો આશ્રય લઈને જ કરવી પડતી. અને એ અવિદ્યા નામનું તત્ત્વ પણ કોઈ સ્વતંત્ર ન મનાતા એક ચિરકાલીન વાસનારૂપે તેમ જ ચેતનના એક પાસા લેખે કલ્પાયું. આત્મષ્ટિની પ્રયોગસિદ્ધતા ચેતનતત્ત્વને લગતી ભારતીય પરંપરાઓની માન્યતાઓનો આ તો અતિસંક્ષેપ થયો. પણ અત્રે જે મુખ્ય વક્તવ્ય છે તે એ છે કે ચેતનવાદી દરેક પરંપરાના પુરસ્કર્તાઓમાં થોડા પણ પ્રામાણિક સાધકો Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XL, 2018 ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની રૂપરેખા 183 પહેલેથી આજ લગી એવા થતા આવ્યા છે, કે જેમણે પોતપોતાની પરંપરાની આત્મદષ્ટિ સ્વીકારીને તેની સત્યતાનો અનુભવ કરવા પ્રયોગો કર્યા છે. તેઓ માત્ર કલ્પનામાં વિહર્યા નથી, પણ તે તે આત્મદષ્ટિની યથાર્થતાનો અનુભવ કરવા બહુ મથ્યા પણ છે. એટલે ભારતીય આત્મદષ્ટિની પરંપરાઓને માત્ર કલ્પનામૂલક કહી અવગણી શકાય તેમ નથી, કેમ કે કલ્પનાઓ પ્રયોગની કસોટીએ કોઈ ને કોઈ રૂપે ચડી છે. એ પ્રયોગની કસોટી તે જ યોગવિદ્યાને નામે પ્રસિદ્ધ છે. યોગવિદ્યાનું મુખ્ય ધ્યેય જ પહેલેથી એ રહ્યું છે કે સાધક પોતાના ચૈતન્યનો અનુભવ કરે. આવો અનુભવ કરવાની પ્રયોગશાળા એ કાંઈ ભૌતિક પ્રયોગશાળા જેવી નથી હોતી, કે જેમાં દૂરદર્શક અને સૂક્ષ્મદર્શક યંત્રોની પૂરી સગવડ તેમ જ ગણિત આદિ વિદ્યાઓને બળે જ માત્ર આત્મસ્વરૂપનો સાક્ષાત્કાર થઈ શકે. એની પ્રયોગશાળા એ સાવ નિરાળી રચના છે. આવા પ્રયોગમાં જેણે-જેણે ઝંપલાવ્યું તેઓએ પ્રથમ તો પોતાના મનને સ્થિર કરવા, શરીરને સમતોલ બનાવવા અને ચિંતનશીલ મનને વિઘ્નરૂપ થતા ક્લેશોને નિવારવાની યોજના કરી, અને તે દ્વારા આત્માનુભવનું એક શાસ્ત્ર ધીરે-ધીરે ખીલવ્યું. જે જે પ્રામાણિક સાધકો થયા તે બધાની આત્મદષ્ટિ ભલે નોખી-નોખી હોય, છતાં એના અનુભવ પ્રયોગોનાં મુખ્ય અને સ્થિર પરિણામો સરખાં જ આવેલાં નોંધાયા છે. સાધનાની પદ્ધતિ અને તેનાં ભિન્ન-ભિન્ન અંગો ઉપર ભાર આપવાની બાબતમાં તેઓ ભલે જુદા પડતા હોય, પણ એ સાધનાપ્રયોગનાં અંતિમ પરિણામો તેમ જ વચગાળાની વિકાસમુખી યા શુદ્ધિલક્ષી અવસ્થાઓમાં બધાનો જ અનુભવ એકસરખો નોંધાયેલો છે. તે ઉપરથી એમ કહી શકાય કે ભારતીય ચિંતકો અને સાધકોએ ભલે ભૌતિક વિશ્વની બાબતમાં કલ્પનાવિહાર કર્યો હોય, પણ જીવ, આત્મા યા ચેતનતત્ત્વની બાબતમાં એમણે માત્ર કલ્પનામાં રમણ નથી કર્યું, પણ પોતપોતાની કલ્પના યા Hypothesis અનુસરી એ અધ્યાત્મતત્ત્વને અનુભવવાનો પ્રયત્ન કર્યો છે. તેથી જ આજેય ભારત એક આધ્યાત્મિક દેશ તરીકે જાણીતો છે. એની આ ખ્યાતિમાં જો કાંઈ પણ સત્ય હોય તો તે આત્મદષ્ટિ ઉપર પ્રયોગ કે યોગ કરવો એ છે. યોગની સાધના કરતાં કરતાં તેને ઉપયોગી થઈ શકે અને સામાજિક જીવનમાં પણ સહાયક થઈ શકે એવાં કેટલાંય શાસ્ત્રો ખીલ્યાં છે. માનસશાસ્ત્ર એ મનની શક્તિઓ અને મનનાં કાર્યોને લગતું શાસ્ત્ર છે. શરીરની અને પ્રાણવહનની ગતિ-વિધિને નિયમમાં રાખે એવું એક હઠયોગશાસ્ત્ર પણ અસ્તિત્વમાં આવ્યું છે. મનની અને ચૈતન્યની ગૂઢ શક્તિઓ કઈ રીતે ખીલે, એનાં આવરણો કઈ રીતે દૂર થાય, એને દર્શાવતું શાસ્ત્ર પણ રચાયું છે. આવાં શાસ્ત્રો પણ પરંપરાભેદે જુદાં જુદાં છે. પણ બધાંયનો સૂર એક જ છે તેથી તે યોગવિદ્યાને નામે, ધ્યાન કે સમાધિને નામે પ્રસિદ્ધ હોય છતાં એ છેવટે તો ચેતનના સ્વાનુભવની પ્રયોગવિદ્યા જ છે. પરમાત્મતત્ત્વ તત્ત્વજ્ઞાનનો ત્રીજો વિષય છે પરમાત્મતત્ત્વ. આ તત્ત્વ વિશે પણ તત્ત્વજ્ઞાનમાં અનેક પરંપરાઓ પ્રવર્તે છે. કોઈ ઇશ્વરતત્ત્વને જીવાત્માઓથી અને ભૌતિક તત્ત્વથી સાવ નિરાળું અને સ્વતંત્ર Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 ૫. સુખલાલજી SAMBODHI કલ્પ છે; તો બીજા અનેક એવા છે, જે પરમાત્મતત્ત્વને બાહ્ય વિશ્વ અને ચેતનતત્ત્વ એ બેથી સાવ નિરાળું ન માનતાં તેમાં એકરસ યા ઓત-પ્રોત હોય તેવું માને છે. અથવા એમ કહો કે ભૂત અને આત્મા એ બન્ને પરમાત્મતત્ત્વના જ અંશો યા આવિર્ભાવો છે. કોઈ પરમાત્મતત્ત્વને સ્વતંત્ર ન માનતાં તમામ જીવાત્માઓમાં શક્તિરૂપે વિદ્યમાન માને છે અને એ જ શક્તિ વિકસતાં જીવાત્માઓ જ પરમાત્મા બની રહે છે. મનુષ્ય ગમે તેટલો વિકાસશીલ હોય તોય એને વિકાસ કરતાં કરતાં જ્યારે કાંઈક પોતામાં ઉણપ ભાળે છે, ત્યારે તે કોઈ આવા પરિપૂર્ણ અને સર્વવ્યાપી શુદ્ધ તત્ત્વને માની તેને અવલંબી તેની ઉપાસનામાં લીન થાય છે. પછી એ તત્ત્વ તેનાથી જુદું હોય કે શક્તિરૂપે તેનામાં જ પડ્યું હોય. પણ એની ઉપાસનાની ઝંખના એને દ્વૈતભૂમિકામાં પ્રેરે જ છે. આવી ઉપાસનાઓ પણ માત્ર કલ્પનામાં નથી રહી. તે પણ પ્રયોગ યા સાધનાની કસોટીએ ચડી છે અને તેનાં પણ પરિણામો બધી જ પરંપરાઓમાં લગભગ એકસરખાં નોંધાયા છે. એટલે એમ કહી શકાય કે પરમાત્મતત્ત્વની માન્યતા એ માત્ર કલ્પનારૂપ નથી રહી; એ માનવજીવનના ઊંડા સ્તર સુધી સાકાર થઈ છે. તત્ત્વજ્ઞાન અને ધર્મનો સંબંધ તેમ જ વિચારોત્ક્રાંતિના કેટલાંક પાસાં તત્ત્વજ્ઞાનની પરંપરાઓનો સાધના તેમજ ઇશ્વરોપાસના સાથે સંબંધ થયો, અને તે તત્ત્વજ્ઞાન ધર્મ સાથે સંકલિત થઈ ગયું. ધર્મ એ મુખ્યપણે શ્રદ્ધા અને સાધનાનું ક્ષેત્ર હોય છે. તેથી તેમાં જે જે તત્ત્વજ્ઞાનના મુદ્દાઓ સંકળાય તે પણ મોટે ભાગે શ્રદ્ધાના વિષયો બની જાય છે. એટલે જેટલું બળ પ્રયોગવિદ્યામાં આવશ્યક હોય છે તે ધર્મક્ષેત્રે રહેવા નથી પામતું. આને લીધે અનેક કલ્પનાઓ પ્રયોગ વિના પણ સિદ્ધાંતનું રૂપ લઈ લે છે. અને દરેક પરંપરાના વિચારકો ઘણી વાર યુક્તિ યા તર્કને બળે જ વિચાર કરે છે. આ વિચારનાં પરિણામો પણ એકદરે ઉત્ક્રાંતિગામી જ આવેલાં દેખાય છે. જુદાં-જુદાં ભારતીય શાસ્ત્રોમાં અનેક શબ્દયુગલો એવાં છે કે જે ઉપર સૂચવેલી વિચારોત્ક્રાંતિનાં સૂચક છે; જેમ કે લૌકિક અને લોકોત્તર, વ્યવહાર અને નિશ્ચય, સંવૃત્તિ અને પરમાર્થ, વ્યાવહારિક અને પારમાર્થિક, નેયાર્થ અને નીતાર્થ, માયા અને સત્ય ઇત્યાદિ. જ્યારે માત્ર ભૂતવાદ હતો ત્યારે એનું કોઈ વિશિષ્ટ નામ ભાગ્યે જ પડ્યું હશે. પણ આત્મવાદ અસ્તિત્વમાં આવતાં જ ભૂતવાદને લોકાયત યા લૌકિક દૃષ્ટિ તરીકે ઉતરતું સ્થાન મળ્યું. અને આત્મવાદ લોકોત્તર યા અલૌકિક ગણાયો. આત્મવાદ સ્થિર થયા પછી પણ એના સ્વરૂપ પરત્વે ઊંડાણ કેળવાનું શરૂ થયું. જે લેશો, વાસનાઓ કે બળો ચૈતન્ય સાથે સંકલિત હોય તે સામાન્ય રીતે ચેતનના ભાગ જ ગણાય. પણ જૈન જેવી પરંપરાઓએ તારવ્યું કે ચેતનનું ખરું સ્વરૂપ એથી જુદું છે. એ વસ્તુ સ્પષ્ટ કરવા તેમણે કહ્યું કે રોજિંદા જીવનમાં અનુભવાતું વાસનામિશ્રિત ચૈતન્ય એ વ્યવહાર છે; નિશ્ચયદષ્ટિએ તો એનું સ્વરૂપ કલેશ-વાસનાઓથી સર્વથા મુક્ત છે. એ જ રીતે જ્યારે એમની સામે પ્રશ્ન આવ્યો કે જો એક પરમાણુ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની રૂપરેખા 185 અવિભાજય એવા આકાશખંડમાં રહેતો હોય તો અનંતાનંત અણુઓ અને તેના સ્કંધો આકાશમાં સમાઈ ન શકે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં તેમણે કહ્યું કે અવિભાજ્ય આકાશક્ષેત્રમાં એક પરમાણુ સમાય છે એ વાત સાચી, પણ એ પરમાણુ બીજા અનેક અથવા અનંત પરમાણુઓને પણ પોતાના ક્ષેત્રમાં અવકાશ આપે છે. આ ઉપરથી પ્રશ્ન થયો કે અવિભાજય આકાશક્ષેત્રમાં એક પરમાણુ પણ સમાય અને પરમાણુઓનો સ્કંધ પણ સમાય, તો એ મૂળ પરમાણુ અને સ્કંધ બે વચ્ચે પરિમાણનો ભેદ શો રહ્યો? આના ઉત્તરમાં એ જૈન વિચારકોને વ્યવહાર અને નિશ્ચયદષ્ટિ મદદે આવી. તેમણે ખુલાસો કર્યો કે જે એક પરમાણુ તે નિશ્ચય-પરમાણુ અને તે જ પરમાણુના અધિષ્ઠાન-ક્ષેત્રમાત્રમાં સમાતો અનંતાણુમય સ્કંધ એ વ્યવહાર પરમાણુ. આ રીતે જડ અને ચેતનતત્ત્વમાં જેમ જેમ વિચારનું ઊંડાણ વધતું ગયું અને પ્રથમની કલ્પનાઓમાં અસંગતિ દેખાવા લાગી તેમ તેમ વ્યવહાર અને નિશ્ચયની દૃષ્ટિનો આશ્રય લઈ તત્ત્વવિચાર ખીલતો ગયો. બુદ્ધ સ્થાયી દ્રવ્યનો છેદ તો ઉડાડ્યો જ હતો અને બાહ્ય તેમજ આન્તર વિશ્વમાં ક્ષણિક ધર્મોનું અસ્તિત્વ જ સ્થાપ્યું હતું. પણ એ જ બૌદ્ધ પરંપરામાં જ્યારે એવો તબક્કો આવ્યો કે તેમાં બાહ્ય ભૌતિક તત્ત્વનું અસ્તિત્વ જ નકારાયું, ત્યારે એ વિજ્ઞાનવાદને બાહ્ય વિશ્વના થતા ઇન્દ્રિયગમ્ય અનુભવની સત્યતાનો ખુલાસો કરવાનો વારો આવ્યો એણે તરત જ કહી દીધું કે બાહ્ય વિશ્વ એ સત્ય છે, પણ તે સત્ય પારમાર્થિક નથી; માત્ર સંવૃતિસત્ય. સંવૃત્તિ એટલે અવિદ્યાનું ટાંકણ. આ અવિદ્યાને લીધે જે ભાન થાય તે અવિદ્યાકાલીન સત્ય કહેવાય. આમ વિજ્ઞાનવાદે પોતાના ઉત્ક્રાન્ત યા વિકસિત દર્શનને સ્થાપવા પરમાર્થસત્યનો આશ્રય લીધો, અને પોતાના જ સમાનધર્મા ઇતર બૌદ્ધની માન્યતાને સંવૃત્તિસત્ય કહી તેને પણ એક ખૂણામાં ગોઠવી. બાહ્ય અને આંતર જગતના દ્વૈત તેમ જ અદ્વૈત વિશેની દીર્ઘકાલીન ચર્ચાઓ પછી જ્યારે શંકર જેવા આચાર્યોએ કેવલાદ્વૈત સ્થાપ્યું ત્યારે તેમને પહેલાંથી પ્રચલિત, શાસ્ત્રોમાં રૂઢ અને લોકમાનસમાં ઘર કરેલ દ્વૈત તેમ જ જીવોના અસ્તિત્વ અને પારસ્પરિક ભેદનો ખુલાસો તો કરવો જ રહ્યો. વળી, સ્વતંત્ર ઇશ્વર વિશેના મંતવ્યનું સ્થાન પણ ગોઠવવું જ રહ્યું. એટલે તેમણે પણ અખંડ સચ્ચિદાનંદ બ્રહ્મને પારમાર્થિક સત્ય રૂપે પોતાના દર્શનમાં નિરૂપ્યું અને બીજાં વિરોધી દેખાતાં મંતવ્યો કે લોકપ્રવાહોને વ્યાવહારિક સત્યની કોટિમાં કોઈ ને કોઈ રૂપે ગોઠવ્યાં. માયાનો આશ્રય લઈ ઈશ્વરતત્ત્વનું નિરૂપણ કર્યું અને અવિદ્યાનો આશ્રય લઈ જીવોનું અસ્તિત્વ, તેમનો પારસ્પરિક ભેદ અને બાહ્ય જગતનો આભાસ – એ બધું ગોઠવ્યું. એક રીતે આ પ્રક્રિયા સંવૃતિસત્ય અને પરમાર્થસત્યના જેવી જ છે. નાગાર્જુને જે કહ્યું હતું અને વસુબંધુએ ત્રિસ્તભાવ નિર્દેશમાં જે નિરૂપ્યું હતું, તે કેવલાદ્વૈતવાદમાં કાંઈક રૂપાંતરથી નિરૂપાયું. વિજ્ઞાનવાદે બાહ્ય જગતનું અસ્તિત્વ નકારી બૌદ્ધ પરંપરામાં વિચારની એક નવી દિશા ઉઘાડી હતી. પણ ક્ષણવાદી અને ધ્યાની બૌદ્ધો ત્યાં જ થોભે તેવા ન હતા. તેમાં શૂન્યવાદ અસ્તિત્વમાં આવ્યો. એ વાદે વિજ્ઞાનસંતતિ જેવા આંતરિક સત્યોને પણ નિઃસ્વભાવ કહી એક રીતે સંવૃત્તિસત્યની કોટિમાં મૂકી દીધાં, અને કહ્યું કે તે નિરૂપણ નેયાર્થક છે, એટલે કે કલ્પના-સ્થાપનીય છે. નીતાર્થ એટલે બુદ્ધનું Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 પં. સુખલાલજી SAMBODHI અંતિમ તાત્પર્ય તો માત્ર શૂન્યતામાં છે. જયાં મનની ગતિ નથી અને શાબ્દિક કલ્પનામાં જે બદ્ધ થઈ શકે નહીં તે તત્ત્વ અંતિમ અને એ બધા અભિનિવેશો, દૃષ્ટિઓ અને કલ્પનાઓથી શૂન્ય છે. એમાં શૂન્યતાની દૃષ્ટિ – અભિનિવેશને પણ સ્થાન નથી. આ રીતે એક જ બૌદ્ધ પરંપરામાં ઉત્તરોત્તર વિચારક્રાન્તિ થતાં પૂર્વ પૂર્વ મંતવ્યોને ગૌણ સ્થાને ગોઠવવાં પડ્યાં. છેલ્લે એક શબ્દયુગલ વિશે પણ થોડું કહી દેવું પ્રાસંગિક છે. માયા અને સત્ય એ બે શબ્દો બહુ જાણીતા છે, અને અતિ પ્રાચીન પણ છે. તેના અર્થોની છાયાઓ અનેક છે. જ્યાં કાલ્પનિકતા અને અવાસ્તવિકતાનો ભાવ સૂચવવો હોય ત્યાં સામાન્ય રીતે માયા પદ વપરાય છે, અને જયાં વાસ્તવિકતા યા અબાધિતતાનો ભાવ સૂચવવો હોય ત્યાં સત્ય પદ વપરાય છે. પણ જેમ જેમ સત્યની પ્રતીતિ વિકસતી તેમ જ સ્પષ્ટ થતી જાય તેમ તેમ પૂર્વ પૂર્વની સત્યપ્રતીતિઓને તત્ત્વચિંતકો લૌકિક, વ્યાવહારિક, સાંવૃત્તિક, નેયાર્થક અને માયિક કહી ઉતરતા ક્રમમાં ગોઠવતા આવ્યા છે. આ ક્રમ જેમ તત્ત્વજ્ઞાનમાં તેમ ધાર્મિક આચારમાં પણ દેખાય છે. જેમ જેમ ધર્મની સૂક્ષ્મતા વિચારાતી ગઈ અને આચરણમાં વ્યક્ત થતી ગઈ, તેમ તેમ સ્થૂળ કોટિના લોકગમ્ય બાહ્ય ધર્માચારોને લૌકિક, વ્યાવહારિક કે અપારમાર્થિક રૂપે ઓળખાવવાનું વલણ વધતું રહ્યું છે. ઉપર જે ચર્ચા કરી છે તેના વિષયોને વિશેષ ફુટપણે સમજવામાં ઉપયોગી થઈ શકે એવી બે મારી પુસ્તિકાઓની ભલામણ કરું તો તે અસ્થાને નહીં લેખાય. ગુજરાત વિદ્યાસભા તરફથી પ્રસિદ્ધ થયેલ “અધ્યાત્મ વિચારણા' અને વડોદરા ઓરિયેન્ટલ ઇન્સ્ટીટ્યૂટ તરફથી પ્રસિદ્ધ થયેલ “ભારતીય તત્ત્વવિદ્યા”. આ બંને પુસ્તિકાઓમાં મેં તે તે વિષયને કાંઈક વધારે વિગતથી યથાસંભવ ઐતિહાસિક દષ્ટિથી અને ઉપપત્તિપૂર્વક ચર્ચા છે. સંભવ છે કે એનું વાચન તત્ત્વાભ્યાસીને ઉપયોગી નીવડે. ઉપસંહાર ૧. હું તત્ત્વજ્ઞાનના અભ્યાસ પરત્વે જે દૃષ્ટિ ધરાવું છું તેનો નિર્દેશ કરવો યોગ્ય છે. તત્ત્વજ્ઞાનનો અભ્યાસી માત્ર સત્ય તરફ જ દષ્ટિ રાખે તો જ એ અભ્યાસમાંથી સારતત્ત્વ મેળવી શકે. તે માટે પ્રથમ તો એણે કોઈ પણ જાતના પૂર્વાગ્રહને વશ ન જ થવું ઘટે. પોતે જે વિચાર સેવતો હોય કે જે નિષ્કર્ષ ઉપર પહોંચ્યો હોય, તેનાથી વિરુદ્ધ મતો, વિચારો કે સ્થાપનાઓ સામે ઉપસ્થિત થાય ત્યારે એણે એના પ્રત્યે એટલો જ આદર કેળવવો જોઈએ, જેટલો પોતાના વિચાર પ્રત્યે હોય. આવા સમત્વ વિના પૂર્વાગ્રહથી છૂટી જ ન શકાય. તત્ત્વજ્ઞાનના અભ્યાસનું ક્ષેત્ર જે રીતે વિસ્તરી રહ્યું છે, તે જોતાં અભ્યાસીએ કોઈ એક જ પરંપરાના તવિષયક સાહિત્યમાં પુરાઈ ન રહેતાં બને તેટલી દૃષ્ટિમર્યાદા વિસ્તારતા જ જવું જોઈએ. તત્ત્વજ્ઞાન શબ્દથી સીધો અર્થ તો ફલિત એટલો જ થાય છે કે તે એક પ્રકારનું સત્યલક્ષી જ્ઞાન છે. પણ જીવન એ માત્ર જ્ઞાનમાં પરિસમાપ્ત નથી થતું. જ્ઞાન એ તો જીવનને દોરનાર એક ૩. ૪. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 ભારતીય તત્ત્વજ્ઞાનની રૂપરેખા 187 ભોમિયા જેવું છે, અથવા આગળ પ્રગતિ કરવાના માર્ગ ઉપર પ્રકાશ પાથરનાર છે. જો તેને પરિણામે જીવનનો બીજો અને મહત્ત્વનો ભાગ જે નૈતિકતા છે તે ન ખીલે તો એ તત્ત્વજ્ઞાન વધ્ય બની રહે. તેથી નિષ્ઠાવાન તત્ત્વજ્ઞો નૈતિકતા યા ચારિત્રની સાથે જ તત્ત્વજ્ઞાનનું મૂલ્યાંકન કરે છે. ૫. મને મારા અતિ અલ્પ અભ્યાસને પરિણામે પણ એવું જણાયું છે કે જુદી જુદી અનેક પરંપરાઓની વિચારસરણીઓ, એને પ્રગટ કરનારી પરિભાષાઓ અને એનાં વર્ગીકરણો ઘણી વાર ઉપર ઉપરથી પરસ્પર વિરુદ્ધ લાગે તોય એના મૂળમાં ઊંડા ઊતરતાં એમાં એક જાતનો સુસંવાદ જ રહેલો હોય છે. જો તત્ત્વજ્ઞ એ મૌલિક સંવાદી સૂરને પકડી લે તો એની આસપાસ બધી વિચારસરણીઓ યોગ્ય રીતે ગોઠવાઈ જાય છે. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રુતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી જૈન ઇતિહાસમાં જેવી રીતે શ્રમણ ભગવંતોના ઐતિહાસિક દસ્તાવેજ કાળબદ્ધ વ્યવસ્થિત રૂપે લખાયા છે તે રીતે શ્રમણી ભગવંતોના દસ્તાવેજ લખાયેલા મળતા નથી. શ્રી સુધર્માસ્વામીજીથી લઈને આજ સુધીની શ્રમણ પરંપરા મળે છે, પણ આર્યા શ્રી ચંદનબાળાજીથી લઈને આજ સુધીના સાધ્વીજી ભગવંતોની શ્રમણી પરંપરા મળતી નથી. હા, તે તે સમયે સાધ્વીજી ભગવંતોએ કરેલા પ્રદાનના ઉલ્લેખ જરુર મળે છે. ઇતિહાસ ઉપર નજર કરતાં ખ્યાલ આવે છે કે શ્રુતસાધનામાં પૂજય સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન પણ નાનું સૂનું નથી. • આપણા સાધ્વીજી ભગવંતોએ નવા ગ્રંથોની રચના કરી છે. • આપણા સાધ્વીજી ભગવંતોએ સાધુ ભગવંતોને ગ્રંથ રચવામાં સહાય કરી છે. (સાધુભગવંત પણ સાધ્વીજી ભગવંતના સ્વાધ્યાય માટે ગ્રંથ બનાવતા હતા) • આપણા સાધ્વીજી ભગવંતોએ જાતે હસ્તપ્રતો લખી છે. • આપણા સાધ્વીજી ભગવંતોએ હસ્તપ્રતો લખાવી છે. (સાધુભગવંત પણ સાધ્વીજી ભગવંતના સ્વાધ્યાય માટે સ્વયં પ્રત લખતા હતા) (૧) સાધ્વીજીઓ દ્વારા ગ્રંથ રચનામાં સહયોગ પ્રસ્તુત લેખમાં સાધ્વીજી ભગવંતોએ નવા ગ્રંથોનાં સર્જન વિષે ઉપલબ્ધ થતા છૂટા છવાયા ઉલ્લેખોને એકત્રિત કરીને ગ્રંથોની રચનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોના પ્રદાનને કાળક્રમે રજૂ કરવાનો ઉપક્રમ છે. ૧ | વિક્રમની બારમી સદીમાં શ્રી જ્ઞાનશ્રી નામના સાધ્વી થયા. તેમણે સંસ્કૃત ભાષામાં ચાયાવતારસૂત્રની ટીકા લખી હતી. ચાયાવતારસૂત્રવૃત્તિ ટિપ્પuf સત્તમાં વૃત્તિકર્તાના રૂપમાં સિદ્ધસાધુનું તથા ટીકાકર્ણીના રૂપમાં જ્ઞાનશ્રી આર્થિકાનું નામ છે. જિનભદ્રસૂરિ તાડપત્રીય ગ્રંથ ભંડાર, જેસલમેરમાં (ગ્રંથાંક ૩૬૪) આની હસ્તપ્રતિ છે. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 શ્રુતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન 189 | વિક્રમની તેરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૨૩૩) સિરિમા મહત્તરા નામના સાધ્વી થયા. તેઓ આચાર્યશ્રી જિનપતિસૂરિજીના આજ્ઞાનુવર્તિની સાધ્વી હતા. તેમણે સંવત્ ૧૨૩૩માં લખેલું ૨૦ ગાથાનું “શ્રીબિનપતિસૂરિવદામUT મળે છે, જેની ભાષા પ્રચલિત લોકગીતોની ભાષા જેવી છે. આ ભાષા તત્કાલીન મારૂગુર્જરનું પ્રાકૃતિક સ્વરૂપ પ્રસ્તુત કરે છે. | વિક્રમની પંદરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૪૪૫ લગભગમાં) મહત્તરા સાધ્વી મહિમાશ્રી નામના સાધ્વી થયા. તેઓ અંચલગચ્છના આચાર્ય શ્રી મેરૂતુંગસૂરિજીના સંપ્રદાયના તેજસ્વી સાધ્વી હતાં. સૂરિજીએ આપને “મહત્તરા” પદથી વિભૂષિત કર્યા હતા. તેમનો સમય સંવત્ ૧૪૪૫ થી ૧૪૭૧નો છે. તેમણે “પવિત્તાનિ અવધૂરિ' રચી છે. મેરૂતુંગસૂરિ રાસમાં તેમનો ઉલ્બ સાંપડે છે. श्री महिमश्री महत्तरा ए, माल्हंतंडे थापिया महत्तरा भारि । સાદ વર ધ કચ્છવ યા ા, માલ્જત નાર પંડ્યારિ (મેરૂતુંગસૂરિ રાસ) આ જ સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૪૪૫ લગભગ) પ્રવર્તિની મેરુલક્ષ્મી નામના સાધ્વી થયા. તેમણે બે સ્તોત્રની રચના કરી છે. સાત શ્લોકનું ‘મતિનાથ સ્તવન' અને પાંચ શ્લોકનું “તારંપાખંડન જિતનાથ સ્તવન'. આ બે સ્તોત્ર આચાર્યશ્રી શીલરતસૂરિજી કૃત ચાર સ્તોત્રોની સાથે મળતા હોવાથી તેમના સમકાલીન માનવામાં આવે છે. આ બન્ને કૃતિઓ પ્રૌઢાવસ્થાની જ છે. આ કૃતિઓ સરસ અને પ્રવાહપૂર્ણ છે. તેમની ભાષા પણ પ્રાંજલ છે. પ્રથમ સ્તોત્રનાં છંદ-વૈવિધ્યથી જાણી શકાય છે કે તેઓ છંદ અને સાહિત્યના જ્ઞાતા પંડિતા સાધ્વી હતા. આ જ સદીના ઉત્તરાર્ધમાં વિક્રમ સંવત ૧૪૭૭માં) ગુણસમૃદ્ધિ મહત્તરા નામના સાધ્વી થયા. તેઓ ખરતરગચ્છના આચાર્યશ્રી જિનચંદ્રસૂરિનાં શિષ્યા હતાં. તેમણે ૫૦૩ પદ્યોમાં જૈન મહારાષ્ટ્રી(પ્રાકૃત)માં ‘ગંગાસુંદરી વરિય” રચ્યું છે. આમાં હનુમાનજીની માતા અંજનાસુંદરીનું ચરિત્ર છે. આની રચના સંવત્ ૧૪૭૭ ચૈત્ર સુદ ૧૩ના દિવસે જેસલમેરમાં થઇ હતી. તેઓ પ્રાકૃત ભાષામાં ગ્રંથરચના કરનારા સર્વ પ્રથમ સાધ્વી કહેવાય છે. તેમનાં વૈદુષ્યની પ્રશંસા ઘણાં જૈન ઇતિહાસકારોએ પોતાના ગ્રંથોમાં કરી છે પંદરમી સદીના ઉત્તરાર્ધમાં (વિક્રમ સંવત ૧૪૯૨ લગભગ) શ્રી જયમાલા નામના સાધ્વી થયા. તેઓ ખરતરગચ્છના આચાર્યશ્રી જિનચંદ્રસૂરિના (૧૪૯૨-૧૫૩૦) શિષ્યા હતા. તેમણે સાત ગાથાનું “શ્રીનિનવનસૂરિજાત' અને “ચન્દ્રમ તવન' રચ્યું છે. તેની હસ્તપ્રત શ્રી અગરચંદજી નાહટાના (બીકાનેર) ગ્રંથભંડારમાં છે. પંદરમી સદીના ઉત્તરાર્ધમાં (વિક્રમ સંવત ૧૪૯૩ લગભગ) શ્રી રાજલક્ષ્મી નામના સાધ્વી થયા. તેઓ પોરવાડવંશના ગેહાની પત્ની વિલ્હણદેના પુત્રી હતાં. તેઓ આચાર્યશ્રી જિનકીર્તિસૂરિના બહેન હતા. તથા તપાગચ્છના શ્રી શિવચૂલા મહત્તરાના શિષ્યા હતા. તેમણે સંવત્ ૧૪૯૩માં Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી SAMBODHI દેલવાડામાં (મેવાડ) વીસ ગાથાની ‘શિવલૂના ગિની-વિજ્ઞસ' રચી હતી. તેને શ્રી નાહટાજીએ કાવ્યસંગ્રહમાં પ્રકાશિત કરી છે. શિવચૂલા ગણિનીને ૧૪૯૩માં મહત્તરા પદ પ્રદાનોત્સવ પર શાહ મહાદેવ સંઘવીએ મોટો ઉત્સવ કર્યો હતો. આ વિજ્ઞપ્તિમાં શિવચૂલા ગણિનીનું ચરિત્ર વર્ણિત છે. | વિક્રમની સોળમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૫૧૩) વિનયચૂલા ગણિની નામના સાધ્વી થયા. સાધ્વી વિનયચૂલા આગમ ગચ્છના આચાર્યશ્રી હેમરતસૂરિનાં શિષ્યા હતા. તેઓ ધર્મપરાયણ અને કાવ્યપ્રવીણ હતાં. તેમનાં શિષ્યાએ અગ્યાર પદ્યોમાં શ્રીમતિસૂરિપુ, કાવ્ય લખ્યું છે, તેનો રચના સંવત ૧૫૧૩ (સન્ ૧૪૫૬)ની આસપાસ મનાય છે. તેમાં હેમરતસૂરિનો પરિચય છે. કાવ્યમાં વિનયચૂલાગણિનીની પ્રશસ્તિ જોઇને એવું લાગે છે કે વિનયચૂલા કૃતિના કર્તા નથી પણ તેમના આગ્રહથી આ રચના રચી હોય, અંતમાં લખ્યું પણ છે 'इति श्रीहेमरत्नसूरिगुरुफागु विदुषीविनयचूलागणिनिर्बधेन कृतम्' શ્રી અભય જૈન ગ્રંથાલય બીકાનેરમાં આની હસ્તપ્રત છે. ફાગુ રચનામાં ‘વિદુષી’ શબ્દના પ્રયોગથી સિદ્ધ થાય છે કે વિનયચૂલા ગણિની ગુણવાન અને કાવ્ય-પ્રવીણ સાધ્વી હતાં. “ફાગુ' કાવ્ય અધિકાંશતઃ સાધુઓ અને શ્રાવકો દ્વારા રચિત જ મળે છે. આચાર્ય હેમરતસૂરિ ફાગુ એક સાધ્વી દ્વારા રચિત હોવાથી વિશેષ ઉલ્લેખનીય છે. પ્રસ્તુત કાવ્યમાં વસંત વર્ણન અથવા વસંત ઋતુમાં ગવાય એવા ગીતોની પ્રધાનતા છે જે ઉત્કૃષ્ટ ભાવોને લઈને છે. વિક્રમની સોળમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૫૪૦ની આસપાસ) પદ્મશ્રી નામના સાધ્વી થયા. એમના ગુરુ અને ગચ્છનું નામ અજ્ઞાત છે. તેમણે નેમિચરિત્રના આધારે વાર ચરિત્રની રચના કરી છે. આની ભાષા પ્રાચીન ગુજરાતી છે અને પદ્ય સંખ્યા ૨૫૪ છે. એમાં પ્રાય: ચૌદ છંદોનો પ્રયોગ થયો છે, એનાથી જણાય છે કે પદ્મશ્રી સાધ્વીજી કાવ્ય, છંદના જાણકાર પંડિતા સાધ્વીજી હતા. વિક્રમની સોળમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૫૯૦ની આસપાસ) આર્થિક રણમતિ નામના સાધ્વી થયા. તેમણે મહાકવિ પુષ્પદંત દ્વારા રચિત “નસદર ચરિક' (યશોધર વરિત) નામનાં અપભ્રંશ ચરિત-કાવ્ય પર સંસ્કૃતમાં ટિપ્પણી લખી, તેના અંતમાં આ વાક્ય લખેલું છે “તિ શ્રીપુખ્તયશોધર વાવ્ય (...દિuT) દ્ધાશ્રીરVતિ સપૂર્ણા'' ટિપ્પણીના આ વાક્યથી ટિપ્પણ ગ્રંથની રચયિત્રી આર્થિક રણમતિ છે તે સિદ્ધ થાય છે. આની રચના સં. ૧૫૬૬માં (ઈ. સન્ ૧૫૦૯) થઈ છે. આર્થિકા રણમતિએ મહાકવિની અપભ્રંશ રચનાનો સંસ્કૃત અનુવાદ કર્યો એ ઉપરથી તેમની વિદ્વત્તાનો પરિચય થાય છે. સોળમી શતાબ્દીના મધ્યકાળમાં આર્યા રમતિ નામના સાધ્વી થયા. તેમણે સંસ્કૃતમાં રચાયેલા “સવિત્વપુલી' ગ્રંથનો ગુજરાતીમાં અનુવાદ કરી સવ્યવસ્વમુવીરાસની રચના કરી છે. આ ગ્રંથમાં સમ્યત્વોત્પાદક આઠ કથાઓ આપેલી છે. આર્યાએ આ રાસ ગુરુવર્યા આર્યા ચંદ્રમતિની આજ્ઞાથી તથા આર્યા વિમલમતીની પ્રેરણાથી રચ્યો હતો. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XL, 2018 શ્રુતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન 191 | વિક્રમની સત્તરમી સદીમાં વિક્રમ સંવત ૧૬૪૪) શ્રી હેમશ્રી નામના સાધ્વી થયા. તેઓ વડ તપાગચ્છના આચાર્યશ્રી ધનરતસૂરિજીના શિષ્ય અમરરતસૂરિજીના શિષ્ય ભાનુમેરુના શિષ્ય શ્રીનયસુંદરના શિષ્યા હતાં તેમણે સંવત્ ૧૬૪૪ વૈશાખ વદ ૭ના મંગળવારે ૩૬૭ કડીના ‘નાવતી મારસ્થાન'ની રચના કરી. આ કથામાં શીલનું માહાભ્ય દર્શાવ્યું છે. તેમણે એક અન્ય કૃતિ “કૌનોવિશીસ્તુતિ' પણ રચી છે. તેની હસ્તપ્રત પ્રવર્તક કાંતિવિજયજી ભંડાર, (નરસિંહજીની પોળ) વડોદરામાં છે. આ કૃતિ ગણિ રતવિજયજીએ સુરતમાં લખી છે. તે શેઠ હાલાભાઇ મગનલાલના નિવાસ ફોફલિયાવાડ, પાટણ (દા. ૪૮ નં ૧૪૦)માં છે. આ જ સદીમાં પ્રવતિની સોમસિદ્ધિ (વિક્રમ સંવત ૧૬૬રના આસપાસ) નામના સાધ્વી થયા. તેઓ નાહર ગોત્રના નરપાલની પત્ની સિંઘાદેનાં પુત્રી હતાં. તેમનું બાળપણનું નામ “સંગારી' હતું. જેઠાશાહના પુત્ર રાજસી સાથે તેમના લગ્ન થયાં. તેમણે અઢાર વર્ષની ઉંમરે લાવણ્યસિદ્ધિ પાસે દીક્ષા અંગીકાર કરી, એમની પાસે જ અભ્યાસ કર્યો અને તેમના પટ્ટધર બન્યાં. તેમણે શત્રુંજય આદિ તીર્થોની યાત્રા કરી હતી. તપ, જપ, સાધના કરીને અંતમાં શ્રાવણ વદ ચૌદસે ગુરુવારે સંથારા સહિત સ્વર્ગવાસિની થયાં. તેમનાં શિષ્યા હેમસિદ્ધિએ “મલ્હાર રાગ'માં “સોમસિદ્ધિનિર્વાઇન તમ્' ૧૮ પદ્યમાં લખ્યું, જેમાં તેમણે પોતાનાં ગુરુણી પ્રત્યે અપાર સ્નેહ પ્રદર્શિત કર્યો છે. વિરત્ના પાત્રટ્ટ નેદ ૩, તુમકું (તો?) પ્રા માથાનો છે ! तुम बिना हुँ क्युं कर रहुं, दुखिया तुं साधारो रे ॥ १५ ॥ આ જ સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૬૬૨ લગભગ) પ્રવર્તિની હેમસિદ્ધિ નામના સાધ્વી થયા. તેમણે સ્વયં પોતાનો કોઇ પરિચય નથી આપ્યો. પરંતુ તેમની બે રચનાઓ તાવળ્યસિદ્ધિપદ્યુતપીત અને સોમસિદ્વિનિર્વતમ્ દ્વારા જાણવા મળે છે કે તેઓ સોમસિદ્ધિની શિષ્યા અને લાવણ્યસિદ્ધિની પ્રશિષ્યાં હતાં. આ બન્ને રચનાઓ “ઐતિહાસિક જૈન કાવ્ય સંગ્રહમાં નાહટાજીએ પ્રકાશિત કરી છે. તેની હસ્તપ્રત અભય જૈન ગ્રંથાલય બીકાનેરમાં છે. આ જ સદીમાં શ્રી વિવેકસિદ્ધિ (વિક્રમ સંવત ૧૬૬૨ના લગભગ) નામના સાધ્વી થયા. તેમણે પોતાના ગુરુણીની સ્તુતિમાં “વિમસિદ્ધિીતમ લખ્યું. આ રચના તેમની પ્રતિભાનું પ્રતીક છે. આ ગીત પ્રકાશિત થયું છે. આ જ સદીના ઉત્તરાર્ધમાં (વિક્રમ સંવત ૧૬૭૦) સાધ્વી વિમલશ્રી નામના સાધ્વી થયા. તેમણે સંવત્ ૧૬૭૦માં બાલોતરા ચોમાસામાં “ઉપાધ્યાય સારની દુની' રચી. આ જ સદીના ઉત્તરાર્ધમાં (વિક્રમ સંવત ૧૬૯૯) શ્રી વિદ્યાસિદ્ધિ નામના સાધ્વી થયા. તેમણે રચેલું “ગુરુ ગીતમ્ “ઐતિહાસિક જૈન કાવ્ય સંગ્રહમાં પ્રકાશિત થયું છે. પ્રારંભની પંક્તિ નહીં હોવાથી ગુરૂણીનું નામ ઉપલબ્ધ નથી થયું, પરંતુ તેનાથી ખબર પડે છે કે તેમનાં ગુરૂણી સાઉસુખા ગોત્રના કર્મચંદની પુત્રી હતાં, અને જિનસિંહસૂરિ (૧૬૦૦-૧૬૭૪)એ એમને પ્રવર્તિની પદ આપ્યું Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી SAMBODHI હતું. આ રચના સંવત્ ૧૬૯૯ ભાદરવા વદ બીજની છે. તેમની પાંચ ગાથાની એક રચના કિનરાનજિીત પણ છે. જે અગરચંદ નાહટા (બીકાનેર)ના સંગ્રહમાં છે. | વિક્રમની અઢારમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૭૨૧) સાધ્વી ગુણશ્રી નામના સાધ્વી થયા. તેઓ અંચલગચ્છના આચાર્યશ્રી ધર્મમૂર્તિસૂરિના સમયમાં થયાં હતાં. મહોપાધ્યાય રતસાગરજીના શિષ્યા હતાં. તેમણે “ વોવીસી'ની રચના કરી. આ રચના સંવત ૧૭૨૧માં કપડવંજમાં ચોમાસામાં કરી હતી. આ સિવાય અંચલગચ્છના કેટલાંય સાધ્વીજી ભગવંતોએ વિક્રમ સંવત ૧૫૦૦થી ૧૭૦૦ની વચમાં કેટલીય વિદ્વત્તાપૂર્ણ રચનાઓ કરી છે. અંચલગચ્છમાં અન્ય ઘણી મહત્તરા સાધ્વીઓનો ઉલ્લેખ પ્રાપ્ત થાય છે, જેમાં તિલકપ્રભા ગણિની, મેલસ્મી, મહિમાશ્રીજી આદિના નામ વિશેષ ઉલ્લેખનીય વિક્રમની વીસમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૯૧૬)માં ઋદ્ધિશ્રી નામના સાધ્વી થયાં. તેમણે ગુજરાતી ભાષામાં સંવત્ ૧૯૧૬માં રચિત “પ્રતાપવા લૂલિંદ રાણ'ની રચના કરી છે. આમાં અજીમગંજના ધર્મપ્રેમી બાબૂ પ્રતાપસિંહજીના ધર્મકાર્યોનો ઉલ્લેખ છે. તે ઐતિહાસિક રાસ સંગ્રહ ભાગ૧માં મુદ્રિત છે." વીસમી સદીમાં પાર્વતી નામના સાધ્વી થયા. તેમણે ચાર કૃતિઓ રચી છે. (૧) વૃત્તમ ઉત્ની (રચના સંવત ૧૯૪૦) (૨) નિતનશુમાર ઢાળ (રચના સંવત ૧૯૪૦) (૩) સુતિ વરિત્ર (રચના સંવત ૧૯૬૧) (४) अरिदमन चोपाई ગ્રંથ રચનાની આ પરંપરામાં સાધ્વીજી શ્રી રતચૂલાશ્રીજી મહારાજનું પણ નોંધપાત્ર પ્રદાન છે. તેઓ ૧૪ વર્ષની ઉંમરમાં દીક્ષા અંગીકાર કરીને સાધ્વીજીશ્રી સુતાજી મહારાજના શિષ્યા બન્યાં. તેમણે પોતાની પ્રખરબુદ્ધિથી એક દિવસમાં સો ગાથા સુધી કંઠસ્થ કરવાની ક્ષમતા વિકસાવી હતી. તેમની આવી અપૂર્વ ગ્રહણ શક્તિ અને ધારણા શક્તિ જોઇને પરમ પૂજય આચાર્યદેવ શ્રી વિજય લબ્ધિસૂરીશ્વરજી મહારાજે તેમને અગ્યાર અંગસૂત્ર કંઠસ્થ કરવા કહ્યું અને તેમણે કંઠસ્થ કરી લીધા. તેમાં વિશાલકાય ભગવતીસૂત્ર એકાશન તપ સાથે કંઠસ્થ કર્યું. તેમણે વિમમwામર અને કેટલાય અષ્ટકો ગુરૂદેવોની સ્તુતિ રૂપમાં રચ્યાં છે. આ સિવાય અનેક પ્રતિભાવંત શ્રમણી ભગવંતો અનેક રીતે શ્રુતસાધનામાં અદ્ધત પ્રદાન કર્યું છે. તેમની નિષ્ઠાને શત શત નમન. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 શ્રતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન 193 193 (૨) સાધ્વીજીઓ દ્વારા શ્રુતસાધના અને શાસન-પ્રભાવનાના કાર્યો પ્રસ્તુત ભાગમાં શ્રુતસાધનામાં પૂજય સાધ્વીજી ભગવંતોનાં પ્રદાન વિષે ઉપલબ્ધ થતા આવા છૂટા છવાયા ઉલ્લેખોને એકત્રિત કરીને કાળક્રમે રજૂ કરવાનો ઉપક્રમ છે. શ્રી સુધર્માસ્વામીજીની પરંપરામાં આર્યા શ્રી ચંદનબાળાજી પછી સ્થવિરાવલિમાં સર્વ પ્રથમ આચાર્યશ્રી સ્થૂલભદ્ર સ્વામિની સાત બહેન સાધ્વીજી ભગવંતોનો ઉલ્લેખ આવે છે. તે જમાનામાં સાધ્વીજી ભગવંતો સીધા આચાર્ય ભગવંતના શિષ્યાઓ બનતા હતાં. (કદાચ એટલે જ તેમની સ્વતંત્ર પરંપરા નથી લખાઈ) તેઓ આચાર્ય શ્રી સંભૂતિવિજયના શિષ્યાઓ હતાં. આચાર્ય શ્રી ભદ્રબાહુસ્વામિજીના શિષ્યો આર્ય શ્રી સુહસ્તિસૂરિજી અને આર્ય શ્રી મહાગિરિસૂરિજી એક પછી એક એમ બંને બાલ્યાવસ્થામાં આર્યા યક્ષાના આશ્રયે પળ્યા છે, માટે પટ્ટાવલી માં આ બંને આચાર્યવયની આગળ આર્ય શબ્દ યોજવામાં આવેલ છે. આર્યા યક્ષાના આગ્રહથી તેમના નાના ભાઈ શ્રીયકમુનિએ ઉપવાસ કર્યો. તેમાં તે કાળધર્મ પામ્યા. આર્યા યક્ષાને આઘાત લાગ્યો. પોતાના અપરાધભાવને દૂર કરવા તેઓએ શ્રી સીમંધર પ્રભુ પાસે પ્રાયશ્ચિત્ત લેવાનો આગ્રહ કર્યો. દેવતાની સહાયથી શ્રી સીમંધર પ્રભુ પાસે ગયા. શ્રી સીમંધર પ્રભુએ તેમને ચાર અધ્યયન ઉપદેશ્યા. આર્યા યક્ષાએ પાછા આવી તે ચાર અધ્યયન શ્રમણસંઘને સંભળાવ્યાં. તે ચાર અધ્યયનોમાં બે અધ્યયન ભાવના અધ્યયન અને વિમુક્તિ અધ્યયનનાં નામે આચારાંગસૂત્રમાં સમાવ્યાં અને બે અધ્યયન રતિકલ્પ અધ્યયન અને વિવિક્તચર્યા અધ્યયનનાં નામે દશવૈકાલિકસૂત્રમાં ચૂલિકારૂપે સમાવ્યાં છે. આર્યા યક્ષાના પ્રભાવે શ્રી સીમંધર પ્રભુ પાસેથી ચાર અધ્યયન મળ્યાં. આર્યા યક્ષાનો સમય વીર સંવત ૧૬૦ છે. (વિક્રમ સંવત પૂર્વ ૩૧૦ વર્ષ એટલે લગભગ આજથી ૨૩૮૩ વર્ષ). પરમાત્મા મહાવીરદેવનાં નિર્વાણ પછી ચારસો વરસ બાદ (વિક્રમ પૂર્વ બીજી સદીમાં) કલિંગરાજ ભિખુરાય ખારવેલ પરમ જૈન થયા. તેમણે કલિંગમાં આચાર્ય સુસ્થિતસૂરિ અને આચાર્ય સુપ્રતિબદ્ધસૂરિની (વીર સંવત ૩૩૦) અધ્યક્ષતામાં કુમારગિરિ પર મોટું શ્રમણ સંમેલન મેળવી બીજી આગમવાચના કરાવી હતી. “હિમવંત સ્થવિરાવલી'માં લખ્યું છે કે, આ મુનિસંમેલનમાં જિનકલ્પીની તુલના કરનાર આર્ય મહાગિરિના શિષ્યો-પ્રશિષ્યો આચાર્ય બલ્લિસ્સહસૂરિ, દેવાચાર્ય, આચાર્ય ધર્મસેન વગેરે બસો શ્રમણો, આ.સુસ્થિતસૂરિ વગેરે ત્રણસો વિકલ્પી શ્રમણો, આર્યા પોઈણી વગેરે ત્રણસો શ્રમણીઓ, રાજા ભિખુરાય, સીવંદ, ચૂર્ણક, સેલક વગેરે સાતસો શ્રાવકો અને પૂર્ણમિત્રા વગેરે સાતસો શ્રાવિકાઓ એકઠાં થયાં હતાં. વાચનામાં અગિયાર અંગો અને દસ પૂર્વેના પાઠોને વ્યવસ્થિત કરવામાં આવ્યા હતા. આર્યા પોઈણીએ શ્રુતની રક્ષામાં પ્રદાન કર્યું છે. | વિક્રમની આઠમી સદીમાં યાકિની નામના મહત્તરા સાધ્વીજી થયા. તેમણે હરિભદ્ર બ્રાહ્મણને Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી SAMBODHI પ્રતિબોધ પમાડી દીક્ષા અપાવી. હરિભદ્ર બ્રાહ્મણ આચાર્ય શ્રી હરિભદ્રસૂરિજી બન્યા. તેમણે ૧૪૪૪ ગ્રંથોની રચના કરી. પોતાના દરેક ગ્રંથમાં તેમણે પોતાની ઓળખ યાકિની મહત્તરા સાધ્વીના ધર્મપુત્ર તરીકે આપી છે. શ્રુત પરંપરાનાં સંવર્ધનમાં યાકિની મહત્તરાનો મોટો ફાળો છે. | વિક્રમની દસમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૯૬૨માં) ગણા નામના સાધ્વીજી થયા. તેમણે ઉપમિતિભવપ્રપંચ કથાની પ્રથમ પ્રત લખી હતી, તેનો ઉલ્લેખ સ્વયં સિદ્ધર્ષિ ગણિએ કર્યો છે. ગણા સાધ્વી દુર્ગ સ્વામીના શિષ્યા હતા. | વિક્રમની અગિયારમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૮૬૦-૧૧૧૦માં) મહત્તરા શ્રી કલ્યાણમતિ નામના સાધ્વીજી થયાં. સાધ્વી કલ્યાણમતિ ખરતરગચ્છના તે સાધ્વી છે જે આ ગચ્છના પ્રથમ મહત્તરા બન્યાં. યુગપ્રધાનાચાર્ય ગુર્નાવલીના અનુસાર કલ્યાણમતિને “મહત્તરા” પદ આચાર્ય વર્ધમાનસૂરિએ પ્રદાન કર્યું હતું. તેમના હાથે જિનેશ્વર અને બુદ્ધિસાગર આ બે ભાઇઓ અને તેમની બહેન કલ્યાણમતિની દીક્ષા થવાનો પણ ઉલ્લેખ છે. જિનેશ્વર અને બુદ્ધિસાગર જન્મજાત બ્રાહ્મણ હતા, એથી કલ્યાણમતિ પણ નિશ્ચિત રૂપથી બ્રાહ્મણકુળમાં જ જન્મ્યા હતાં. ભાઇઓએ અપનાવેલા પથને સમુચિત જાણીને કલ્યાણમતિએ પણ પ્રવ્રજ્યા સ્વીકારી લીધી હતી. જ્ઞાન, ધ્યાન, સ્વાધ્યાયમાં વૈશિસ્ય પ્રાપ્ત કરીને તે “મહત્તરા” પદ પર આરૂઢ થયાં. સંવત્ ૧૦૯૫માં શ્રી ધનેશ્વરસૂરિએ પ્રાકૃતમાં ચાર હજાર ગાથા પ્રમાણ સુરસુંદરી કથા' રચી, તેમાં ગુરૂ બહેનનું અલંધ્ય વચન જ એકમાત્ર કારણ છે, એમ સૂચિત કર્યું છે. સુર સુંદર વથામાં મહત્તરા શ્રી કલ્યાણમતિની પ્રેરણા પ્રધાન કારણ છે. | વિક્રમની બારમી સદીમાં વિક્રમ સંવત ૧૧૭૫માં) આનંદશ્રી મહત્તા અને વિરમતિ ગણિની નામના બે સાધ્વીજીએ મલધારિ પૂજ્ય આચાર્યશ્રી હેમચંદ્રસૂરિજીને વિશેષાવશ્યકભાષ્યની સાડત્રીસ હજાર શ્લોક પ્રમાણ વૃત્તિ રચવામાં સહાય કરી હતી. તેમાં અન્ય પાંચ સાધુ ભગવંતો (પં. અભયકુમાર, ૫. ધનદેવ ગણિ, પં. જિનભદ્ર ગણિ, ૫. લક્ષ્મણ ગણિ, મુનિ વિબુધચંદ્ર) હતા. તેમાં ઉલ્લેખ છે કેઆ બે સાધ્વીજીને સૂરિજીએ ઉચ્ચ અભ્યાસ માટે ધારા મોકલ્યાં હતાં. એ જમાનામાં સાધ્વીજી ઉચ્ચ કોટિનું અધ્યયન કરતાં અને શાસ્ત્રની રચનામાં સહયોગી પણ બનતાં. વિક્રમની બારમી સદીમાં વિક્રમ સંવત ૧૧૬રમાં કલિકાલસર્વજ્ઞ આચાર્ય શ્રી હેમચંદ્રસૂરિજીની ખંભાતનગરે આચાર્યપદવી થઇ. આ સમયે માતા પાહિનીએ ઘણા ઉલ્લાસથી દીક્ષા લીધી. નવા આચાર્યશ્રીની ભાવના અનુસાર આચાર્યશ્રીએ સાધ્વી પાહિનીને પ્રવર્તિનીપદ આપ્યું અને સંઘે પ્રવર્તિનીને સિંહાસન ઉપર બેસવાની અનુમતિ આપી. વિક્રમ સંવત ૧૨૦૭માં માતા પૂજ્ય પ્રવર્તિની પાહિનીજીએ અનશન કર્યું. શ્રાવકોએ પુણ્યમાં ત્રણ કરોડ વાપર્યા અને આચાર્યશ્રીએ ત્રણ લાખ શ્લોકનું પુણ્ય આપ્યું ને પ્રવર્તિનીજી કાલધર્મ પામ્યાં. એમના શબની શિબિકા ત્રિપુરુષ-ધર્મસ્થાનના બાવાઓએ તોડી નાખી એટલે આચાર્યશ્રીએ એ વાત રાજા કુમારપાલને જણાવી. રાજવીએ તેઓને યોગ્ય શિક્ષા કરી. પ્રવર્તિની પાહિનીજીને કારણે જિનશાસનને ત્રણ લાખ શ્લોકની ભેટ મળી. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XL, 2018 શ્રુતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન 195 ભૂતકાળમાં સાધુભગવંત પણ સાધ્વીજી ભગવંતના સ્વાધ્યાય માટે ગ્રંથ બનાવતા હતા. સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રેરણા અથવા અનુનયથી પ્રેરિત થઈને આચાર્યો અને વિદ્વાન્ મુનિઓએ આગમગ્રંથોને જન-સુલભ ભાષામાં રચના કરીને બધાં માટે ઉપયોગી બનાવ્યા હોય તેવા અનેક ઉદાહરણ ઇતિહાસમાં ઉપલબ્ધ છે. અહીં તેમાંના કેટલાંક ઉલ્લેખ જ પ્રસ્તુત કર્યા છે. | વિક્રમની તેરમી સદીમાં વિક્રમ સંવત ૧૨૨૭માં ગણિની શ્રી અપરાશ્રી નામના સાધ્વીજી થયાં. કુમારપાળ રાજાના સમયમાં રાહડ નામક એક શ્રાવકે સંવત્ ૧૨૨૭માં “શાંતિનાથ ચરિત્રની રચના કરી, તેમાં ગણિની અપરાશ્રીનો ઉલ્લેખ કરાયો છે. તેની એક તાડપત્ર પ્રતિ (સંખ્યા ૧૧૨) સંઘવી પાટણ જૈન જ્ઞાન ભંડારમાં છે. વિક્રમની તેરમી સદીમાં વિક્રમ સંવત ૧૨૪૧માં પ્રભાવતી મહત્તરા નામનાં સાધ્વીજી થયાં. તેમની દીક્ષા વિક્રમ સંવત ૧૨૪૧માં શ્રી જિનપતિસૂરિજીના હાથે ફલૌદીમાં થઇ હતી. તે સમયે તેમનું નામ “ધર્મદેવી' રખાયું. વિક્રમ સંવત ૧૨૬૫માં જાબાલિપુરના વિધિ ચૈત્યાલયમાં જ્યારે સૂરિજીએ મહાવીર પ્રતિમાની સ્થાપના કરી, તે સમયે શ્રી જિનપાલગણિને ઉપાધ્યાય પદ અને પ્રવર્તિની ધર્મદિવીને મહત્તરા' પદથી અલંકૃત કરાયા, તથા તેમનું નામ “પ્રભાવતી' રાખવામાં આવ્યું. ધર્મદિવી એક વિદુષી સાધ્વી હતા, તેમણે સંવત્ ૧૨૬૩ ફાગણ વદ ૪ના દિવસે લવણખેડામાં “પ્રવર્તિની’ પદ આપવાનો પણ ઉલ્લેખ છે. શ્રી જિનવલ્લભસૂરિ કૃત “પિઇવિશુદ્ધિ પ્રશરની ટીકા આચાર્ય શ્રી યશોદેવસૂરિજીએ લખી, તેમાં પણ તેમના નામનો ઉલ્લેખ છે. આની પ્રતિ જિનભદ્રસૂરિ તાડપત્રીય ગ્રંથ ભંડારમાં છે. તેરમી સદીમાં પ્રવર્તિની સાધ્વી શ્રી ચંદ્રકાંતિ થયા. તેઓ આગમિકગચ્છના આચાર્યશ્રી જિનપ્રભસૂરિના પ્રવર્તિની હતા. શ્રી ચંદ્રકાંત મહાસાધ્વીની વિનંતી પર “મલ્લિ જિન' (૧૯માં તીર્થકર) અપભ્રંશમાં રચ્યું. રચના તેરમી સદીના અંતની છે. વિક્રમની ચૌદમી સદીમાં વિક્રમ સંવત ૧૩૦૦માં રતશ્રી ગણિની નામના સાધ્વીજી થયાં. તેઓ યાકિની મહત્તરા જેવા જ બહુશ્રુત, પ્રભાવશાલિની અને વિદુષી સાધ્વી હતા. ચંદ્રગચ્છના આચાર્ય શ્રી હરિભદ્રસૂરિના શિષ્ય સિદ્ધસારસ્વત આચાર્ય શ્રી બાલચંદ્રસૂરિજીએ વિક્રમ સંવત ૧૩૦૦માં વસન્તવિત્નામાવ્ય' રચ્યું તેમાં પોતાને આ મહાન શ્રમણીના ધર્મપુત્ર કહ્યાં છે. આચાર્ય બાલચંદ્રસૂરિજી ઉચ્ચકોટિના વિદ્વાન્ હતા. તેમણે વિવેવમર, ૩પદ્દેશ વેન્ડની ટીવા, વાવઝાયુથનાટક્ક પણ લખ્યા છે. | વિક્રમની પંદરમી સદીમાં વિક્રમ સંવત ૧૪૯૧માં શ્રીધર્મલક્ષ્મી મહત્તરા નામના સાધ્વીજી થયાં. આનંદ મુનિ ઓસવંશીએ સંવત્ ૧૫૭૭ માં મંડવુ (માંડવગઢ)માં થર્પત્ની મદત્તર ભા. ૫૩ પદ્યમાં લખ્યું. તેના અનુસાર ધર્મલક્ષ્મીજી ઓસવાલ વંશના પિતા મેલાઈ (મેલ્ય) અને માતા રામવિની કન્યા હતી. ૭ વર્ષની અલ્પાયુમાં જ સંયમ ગ્રહણ કરવાની બલવતી ભાવના જોઈને શ્રી રતસિંહસૂરિએ આમને સંવત્ ૧૪૯૯માં દીક્ષા પ્રદાન કરી. આપ રતચૂલા મહત્તરાના શિષ્યા બન્યાં. આપે ૧૧ અંગોનું અધ્યયન કર્યું, છ ભાષાઓના જ્ઞાતા બહુશ્રુતી અને સંયમનિષ્ઠ જીવનને જોઈને સંવત્ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMBODHI 196 મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી ૧૫૭૧માં દેલવાડામાં મહત્તરા’ પદ પર સ્થાપિત કર્યા. વિ.સંવત્ ૧૫૧૬માં લખેલી ઉત્તરાધ્યયનની એક પ્રતથી જણાય છે, કે તે રતસિંહસૂરિના શિષ્યા હતાં, તેમને ભણવા માટે ઉક્ત પ્રત લખાયેલી છે. ઐતિહાસિક લેખ સંગ્રહના અનુસાર વિક્રમ સંવત ૧૫૦૦ સ્તન્મતીર્થ (ખંભાત)માં બૃહત્તપાગચ્છના જ્ઞાનસાગરસૂરિ રચિત “વિમર્તરિત્ર મહીલવ્ય' માં પણ તેમનું સંસ્મરણ કર્યું છે. ગ્રંથકારે તેમની “સ્વક્ષાનની, પ્રવીણા, વિધિસંયુતા, સરસ્વતીશ” કહીને સ્તુતિ કરી છે. વિક્રમની સત્તરમી સદીમાં સમૃદ્ધિ ગણિની નામના સાધ્વી થયા. તેમની પ્રાર્થનાથી ઉપાધ્યાય શ્રી સર્વરાજ ગણિએ નાથસાર્ધશતવા ઉપર વૃત્તિની રચના કરી. સોળમી સદીમાં શ્રી દૂલા આર્યા નામના સાધ્વી થયા. તેઓ ભવ વિરક્ત, તપસ્વિની, નિરાસક્ત, સુવિનીત, શ્રુતદેવી જેવા હતાં. તેમની પ્રાર્થનાથી કવિ “ધાહિલીએ પ્રાકૃતઅપભ્રંશ મિશ્રિત ભાષામાં પરિરિ (પાશ્રી)' ચરિત્ર રચ્યું છે. તેની પ્રત પાટણ જૈન ભંડારમાં છે. અઢારમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૭૨૩) શ્રી મહિમાસિદ્ધિ નામના સાધ્વી થયા. તેમની પ્રાર્થનાથી ખરતરગચ્છના ભટ્ટારક આચાર્યશ્રી જિનચંદ્રસૂરિના રાજ્યમાં વાચક કમલહર્ષે સંવત્ ૧૭૨૩ સોજત શહરમાં ‘શવૈકાત્નિ સ અધ્યયનપતિ' ની રચના કરી.’ સાધ્વીજીઓ દ્વારા વિદ્વત્તાપરક કાર્યો અને ગ્રંથ રચના હવે આ લેખમાં અત્યાર સુધી થતા છૂટા છવાયા ઉલ્લેખોને એકત્રિત કરીને સાધ્વીજી ભગવંતોના વિદ્વત્તાપક કાર્યો અને ગ્રંથરચના જેવા ઉત્કૃષ્ટ પ્રદાનને કાળક્રમે રજૂ કરવાનો ઉપક્રમ છે. યૂનાની રાજા સિકંદરની યાત્રાનાં વર્ણનમાં શ્રમણીઓનો ઉલ્લેખ પ્રાપ્ત થાય છે. ભારત પર યૂનાની નરેશ સિકંદરનું આક્રમણ ઈ.પૂ. ૩૨૭માં થયું હતું. યૂનાનીઓની યાત્રામાં શ્રમણ તથા શ્રમણીઓનો ઉલ્લેખ પ્રાપ્ત થાય છે. જયારે સિકંદરનો સેનાપતિ પાછો ફરીને તક્ષશિલાની પાસેથી જતો હતો, ત્યારે યૂનાની પ્રત્યક્ષદર્શિઓએ જાણ્યું કે ‘‘પુરુષોની સાથે સ્ત્રીઓ પણ દર્શન શાસ્ત્રનું અધ્યયન કરતા હતા તથા પોતાની પરંપરાનુસાર અત્યંત સંયમી જીવન જીવતા હતાં.” વિશેષાવમાષ્ય અને નિશીથવૂ ના ઉલ્લેખ અનુસાર મરૂષ્ઠરાજ નામના વિદેશી શક શાસકની સમક્ષ તેની વિધવા બહેને પ્રવ્રુજિત થવાની ઇચ્છા પ્રગટ કરી. શક રાજાની બહેન શ્રમણ ધર્મના સિદ્ધાંતોથી પ્રભાવિત હતી. તે સંસાર ત્યાગીને નિવૃત્તિ માર્ગ અપનાવવા માંગતી હતી. મુરૂષ્ઠરાજ તે સમયના પ્રચલિત ઘણાંય ધર્મ સંપ્રદાયોમાં સહુથી શ્રેષ્ઠ ધાર્મિક સંગઠનમાં પોતાની બહેનને દીક્ષિત કરવા માંગતો હતો. એક સમય મુરૂષ્ઠરાજે પોતાની બારીથી જોયું કે રાજમાર્ગ પર કંઇક કોલાહલ થઇ રહ્યો છે. સેવકોને પૂછવાથી આ જણાયું કે એક કૃશકાય જૈન સાધ્વીએ પોતાના વસ્ત્ર-પાત્રાદિ પાગલ હાથી સામે Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 શ્રતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન 197 ફેકીને પોતાના પ્રાણીની રક્ષા કરી. સાધ્વીની આ નિડરતાથી આજુ-બાજુના નાગરિક ઘણા પ્રભાવિત થયાં અને જય-જયકાર કરતા જૈન ધર્મ તથા સિદ્ધાંતોની પ્રશંસા કરવા લાગ્યાં. આ જોઈને રાજા અતિ પ્રભાવિત થયો અને તેણે પોતાની બહેનને કહ્યું, “હે બહેન આ અગાધ વૈર્યશાલિની સાધ્વીની પાસે તું દીક્ષા લઈ શકે છે. કેમકે આ સાધ્વીનો ધર્મ શ્રેષ્ઠ અને સર્વજ્ઞ પ્રરૂપિત છે.” | વિક્રમ સંવત પૂર્વ પહેલી સદીમાં સરસ્વતી નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ આચાર્ય શ્રી કાલકસૂરિજી મહારાજનાં બહેન હતાં. ઉજ્જયિનીના ગર્દભિલ્લ રાજાએ તેમનું અપહરણ કર્યું હતું. આચાર્યશ્રીએ તેમને મુક્ત કરાવ્યાં તેમનો સમય વીર સંવત ૪૫૩ (વિક્રમ સંવત પૂર્વ ૧૭) છે. વિક્રમની પહેલી સદીમાં આચાર્ય શ્રી સિદ્ધસેનદિવાકરસૂરિજી થયા. તેમની દીક્ષા પછી એમની બહેને પણ દીક્ષા લીધી હતી, જેનું નામ સિદ્ધશ્રી રાખવામાં આવ્યું હતું. દિવાકરજીના સ્વર્ગવાસના સમાચાર તેમને આવી રીતે અપાયા હતા स्फुरन्ति वादिखद्योताः, सम्प्रति दक्षिणापथे ॥ હવે દક્ષિણ પ્રાંતમાં ખજૂવા જેવા વાદીઓ દેખાવા માંડ્યા છે. સાધ્વીજીએ આ સાંભળી તરત જ નિર્ણય આપ્યો કે नूनमस्तङ्गतो वादी, सिद्धसेनो दिवाकरः ॥ ખરેખર સૂર્ય સમા સિદ્ધસેનદિવાકર નામના વાદીનો અસ્ત થયો છે. વિક્રમની અગિયારમી સદીમાં સાધ્વી શ્રી સોમાઈ નામના સાધ્વી થયાં. વિક્રમ સંવત ૧૦૭૯માં આચાર્ય શ્રી આર્યરક્ષિત સૂરિજીએ અંચલગચ્છની સ્થાપના કરી. તે યુગમાં અદ્વિતીય પ્રતિભાના ધણી હતાં. એક વખત આચાર્ય વિહાર કરતા “બૈપાણ” નગરમાં આવ્યાં અને શ્રાવક કોડી અને તેની પુત્રી સોમાઈને પ્રતિબોધ કર્યો. એવી કહેવત છે કે સોમાઈ એક કરોડ મૂલ્યના સોનાના ઘરેણાં પહેરતી હતી. આચાર્યનો ઉપદેશ સાંભળીને તેણે બધું ત્યાગી દીધું અને દીક્ષા ગ્રહણ કરી. સોમાઈ અંચલગચ્છની પ્રથમ મહત્તરા થયાં જેનું નામ સમયશ્રીજી રખાયું. આચાર્ય શ્રી આર્યરક્ષિત સૂરિજીએ એક હજાર એક સો ત્રીસ મહિલાઓને દીક્ષા આપી હતી. મહત્તરા સમયશ્રીજી આમાં પ્રમુખ હતાં. વિક્રમની બારમી સદીમાં શ્રીમતિ, જિનમતિ, પૂર્ણશ્રી, જ્ઞાનશ્રી, જિનશ્રી નામના સાધ્વીઓ થયાં. તે સહુ આચાર્ય શ્રીજિનેશ્વરસૂરિના શિષ્ય આચાર્ય શ્રી જિનદત્તસૂરિનાં શિષ્યાઓ હતાં. આચાર્ય શ્રી જિનદત્તસૂરિએ બાગડ દેશમાં આ પાંચેયને દીક્ષા આપી હતી. સૂરિજીની આજ્ઞાથી આ પાંચે સાધ્વીઓ અધ્યયન માટે ધારાનગરી પણ (મધ્યપ્રદેશ) ગયા હતાં. અધ્યયન કરીને પાછા આવ્યા પછી આ પાંચેયને સૂરિજીએ “મહત્તરા' પદથી વિભૂષિત કર્યા. જિનદત્તસૂરિનો આચાર્ય કાળ વિક્રમ સંવત ૧૧૬૯થી ૧૨૧૧ સુધી છે. વિક્રમની બારમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૧૮૧) સરસ્વતીશ્રી નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી SAMBODHI નિર્ભીક અને પ્રજ્ઞાશીલ સાધ્વી હતાં. તેમના વિષયમાં આ ઘટના પ્રસિદ્ધ છે કે – એકવાર દિગંબર આચાર્ય કુમુદચંદ્ર સાધ્વી સરસ્વતીશ્રીનો તિરસ્કાર કર્યો. તેઓ આચાર્યશ્રી દેવસૂરિજીની પાસે આવ્યાં અને આચાર્યશ્રીને લલકારતાં કહ્યું, “આપની વિદ્વત્તા શું કામની? જે હથિયાર શત્રુને ન જીતી શકે તે હથિયાર શું કામનાં? જેથી પરાભવ વધે એવી સમતા શું કામની?” સાધ્વીશ્રીનો પડકાર સાંભળીને આચાર્યશ્રીએ દિગંબર વાદીઓ સાથે શાસ્ત્રાર્થ કરવા માટે પાટણ સંઘને પત્ર લખ્યો. તેઓ શાસ્ત્રાર્થમાં વિજયી થયા. આચાર્યશ્રીનો મહિમા ચારે બાજુ ફેલાયો. શાસ્ત્રાર્થનો વિષય સ્ત્રી મુક્તિને લઈને હતો. આચાર્યશ્રીને શાસ્ત્રાર્થ માટે પ્રેરિત કરવાવાળા સાધ્વી સરસ્વતીનું નામ ઇતિહાસના પાનાં પર આજે પણ અમર છે. | વિક્રમની પંદરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૪૬૬માં) મહત્તરા શ્રી ચારિત્રચૂલા સાધ્વી અને મહત્તરા શ્રી ભુવનચૂલા સાધ્વી નામના સાધ્વી થયાં. સાધ્વી મહત્તરા શ્રી ચારિત્રચૂલા વિનયી હતાં, ગણની ભક્તિ કરતાં હતાં, શુદ્ધ જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર ધરાવતાં હતાં. સાધ્વી મહત્તરા શ્રી ભુવનચૂલા શાસ્ત્રોમાં નિપુણ હતાં તેમ જ બ્રાહ્મી જેવા કુશળ હતાં. આચાર્યશ્રી ગુણરતસૂરિજીએ “ગુરુપર્વક્રમ”માં અને આચાર્યશ્રી મુનિસુંદરસૂરિજીએ “ગુર્નાવલી” માં ભગવાન મહાવીરસ્વામીથી આરંભીને પોતાના સમય સુધીનો ઇતિહાસ ગૂંચ્યો છે. તેમાં લખ્યું છે કે – આ ગચ્છમાં ગુરુવિનય, ગણભક્તિ, શુદ્ધ જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રવાળાં સાધ્વી મહત્તરા શ્રી ચારિત્રચૂલા, શાસ્ત્રોમાં નિપુણ, બ્રાહ્મી જેવા કુશળ પ્રશંસનીય સાધ્વી મહત્તરા શ્રી ભુવનચૂલા વગેરે તથા આઠ પ્રકારના પ્રભાવકો, મોટા વાદીઓ અને વિવિધ લબ્ધિધરો છે. વિક્રમની પંદરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૪પરમાં) શ્રીધર્મલક્ષ્મી મહત્તરા નામના સાધ્વી થયાં. આનંદ મુનિ ઓસવંશીએ વિક્રમ સંવત ૧૫૭૭ માં મંડવુ (માંડવગઢ)માં થર્મનસ્ક્રીમદત્તર ભાર પ૩ પદ્યોમાં રચ્યો. તેમણે અગિયાર અંગોનું અધ્યયન કર્યું હતું, તેઓ છ ભાષાઓના જ્ઞાતા હતાં, બહુશ્રુત હતાં. તેમનું સંયમનિષ્ઠ જીવન જોઈને વિક્રમ સંવત ૧૫૭૧માં દેલવાડામાં તેમને “મહત્તરા પદ પર સ્થાપિત કર્યા વિક્રમ સંવત ૧૫૦૭ સ્તષ્મતીર્થ (ખંભાત)માં બૃહત્તપાગચ્છના જ્ઞાનસાગરસૂરિ રચિત “વિમર્તરિત્ર મહાવ્ય'માં પણ તેમનું સંસ્મરણ કર્યું છે. ગ્રંથકારે તેમની “સ્વત્નક્ષનનની, પ્રવી, વિધિસંયુતા, સરસ્વતીશ' કહીને સ્તુતિ કરી છે. | વિક્રમની સોળમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૫૦૮) શ્રી ભાવલક્ષ્મી નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ પૂર્વાવસ્થામાં પોરવાલવંશીય પિતા સલાહ અને માતા ઝબકની સુંદરી નામની કન્યા હતાં. તેમણે પોતાના સંસારી ભાઈ શ્રી રતસિંહસૂરિની પ્રેરણાથી સાધ્વી રતચૂલા પાસે પ્રવ્રજ્યા અંગીકાર કરી. શ્રી ઉદયધર્મનાં શિષ્ય ભાવલક્ષ્મી પર “ધુત્ત’ નામની રચના વિક્રમ સંવત ૧૫૦૮માં કરી. જેની હસ્તલિખિત પ્રત પાટણ ભંડારમાં સુરક્ષિત છે. વિક્રમની સોળમી સદીમાં મહત્તરા ઉદયચૂલા નામના સાધ્વી થયાં. તેમનાં જીવન વિષે વિશેષ જાણકારી ઉપલબ્ધ નથી થતી. કેવળ “શ્રીમતી ઘૂનાવાધ્યાય'માં તેમના ગુણોનું વર્ણન છે. તેઓ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XL, 2018 શ્રુતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન 199 કરમાદે'ની પુત્રી હતાં અને અત્યંત મહિમાવંત સાધ્વી હતાં. આપની વાણી અત્યંત મધુર અને પ્રભાવશાલી હતી. યુગપ્રધાન આચાર્ય શ્રી લક્ષ્મીસાગરસૂરિએ આપને શિવચૂલાની પાટ પર સ્થાપિત કરીને “મહત્તરા” પદ પ્રદાન કર્યું હતું. વિક્રમની સત્તરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૬૧૩) કોડિમદે નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ આચાર્યશ્રી વિજયસેનસૂરિજીના માતા હતાં. તેઓ પૂર્વાવસ્થામાં મારવાડના નાડલાઈ ગામ નિવાસી કસ્મશાહની પત્ની હતાં, જે રાજા દેવડની પાત્રીસમી પેઢીમાં થઇ, એવું મનાય છે. એમના પુત્રનું નામ “જેસિંઘ'હતું. તેમણે તપાગચ્છના મહાન ક્રિયોદ્ધારક શ્રી આનંદવિમલસૂરિના પટ્ટધર શિષ્ય શ્રી વિજયદાનસૂરિજીના પાસે વિક્રમ સંવત ૧૯૧૩ જેઠ સુદ ૧૧સે પુત્ર સાથે દીક્ષા અંગીકાર કરી. તે આચાર્યશ્રી વિજયસેનસૂરિના નામથી પ્રખ્યાત થયા. સૂરિજીની તાર્કિકબુદ્ધિ અને યુક્તિપૂર્ણ નિરૂત્તર કરવાની શક્તિથી પ્રભાવિત થઈને અકબર બાદશાહે “સૂસિવાર્ફનું બિરૂદ પ્રદાન કર્યું હતું. આ જ સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૬૩૧) વિમલાશ્રી નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ ઉપાધ્યાય શ્રી વિનયવિજયજી મહારાજના ગુરુ ઉપાધ્યાય શ્રીકીતિવિજય અને વિનયવિજયજી મહારાજના બહેન હતાં. વીરમગામ વિભાગનો વજીર મલેક વીરજી પોરવાડ જૈન હતો. તે ગુજરાતના બાદશાહનો માનીતો હતો અને પાંચસો ઘોડેસવારનો ઉપરી હતો. તેને સહસ્ત્રકિરણ નામે પુત્ર હતો. તે પણ વિરમગામ વિભાગનો વજીર બન્યો. તેને ગોપાળજી, કલ્યાણજી અને વિમળા નામે ત્રણ સંતાન હતાં. તે ત્રણેએ સં. ૧૬૩૧માં અમદાવાદ જઈને આહીરવિજયસૂરિ પાસે દીક્ષા લીધી. ગોપાલજી મુનિ સોમવિજયના નામે અને કલ્યાણજી મુનિ કીર્તિવિજયના નામે આચાર્યશ્રીના શિષ્ય બન્યા. વિમળાબહેને સાધ્વી વિમલાશ્રી નામે ચારિત્ર ગ્રહણ કર્યું. વિક્રમની સત્તરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૬૩૪) સાધ્વી રાજશ્રી નામના સાધ્વી થયાં. તપાગચ્છીય આચાર્ય શ્રી વિજયસિંહસૂરિજીના શ્રી દેવવિજયજીએ વિક્રમ સંવત ૧૭૩૫ શ્રાવણ સુદ તેરસે “ધારા' માં ૪૮ ઢાળ, ૨૪૦ કડીનો રંપરા' રચ્યો. તેની પ્રશસ્તિમાં સાધ્વી રાજશ્રીનું સ્મરણ કર્યું છે. તેમાં લખ્યું છે કે – સાધ્વી રાજશ્રી મારી ધર્મમાતા છે. આ જિનધર્મની સગાઈ છે. साधु पुण्यविजय सखाई, सूधी साध गुरु भाई जी । राजश्री साध्वी मुझ माई, श्री जिनधर्म सगाईजी ॥ તેની હસ્તપ્રત ખંભાતમાં છે. | વિક્રમની સત્તરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૬૫૨) સાધ્વી નયશ્રી નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ આચાર્યશ્રી વિજયસિંહસૂરિજીનાં માતા હતાં. તેઓ પૂર્વાવસ્થામાં મેડતાના ઓસવાલ પરિવારના ચોરડિયા ગોત્રીય શાહ માંડણની પુત્રવધુ અને નથમનજીની ભાર્યા હતાં. તેમનું નામ “નાયક હતું. તેમની દાદી ફૂલા પણ અતિ ઉદાર હૃદયના મહિલા હતાં. નથમલજીથી તેમને પાંચ પુત્ર થયાં. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી SAMBODHI નથમલજી અત્યંત ધાર્મિક પ્રવૃત્તિના વ્યક્તિ હતા. તેમણે તપાગચ્છના શ્રી કમલવિજયજી પાસે એકવીસ અઠ્ઠમ તથા ઘણાંય છ૪, ઉપવાસ ગ્રહણ કર્યા હતાં. પછી પરિવારના છ વ્યક્તિ સાથે જેમાં નાયકદે તથા તેના ચાર પુત્રોએ વિક્રમ સંવત ૧૬૫ર મહા સુદ ૬ના દિવસે પાટણમાં વિજયસેનસૂરિજી પાસે દીક્ષા ગ્રહણ કરી. “નાયકદે'નું દીક્ષા પછી “નયશ્રી” નામ આપ્યું. તેમના તૃતીય પુત્ર કર્મચંદ્ર દીક્ષા પછી કનકવિજય અને આચાર્ય પદ પછી ‘વિજયસિંહસૂરિ'ના નામથી પ્રસિદ્ધિ પામ્યાં. વિક્રમની અઢારમી સદીમાં સહજશ્રી નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ પિતા શ્રીવંત માતા લાલબાઈની પુત્રી હતાં. પૂર્વાવસ્થામાં તેમનું નામ સહજા હતું. તેઓ લાભશ્રીની શિષ્યા સાધ્વી સહજશ્રી બન્યાં. પં. શ્રી સત્યવિજયજી ગણિવરે વિક્રમ સંવત ૧૭૧૦ વૈશાખ સુદિ ૩ ગુરુવારે ક્રિયોદ્ધાર કરી સંવેગી માર્ગ સ્વીકાર્યો ત્યારે સાધ્વી સહજશ્રીએ પણ સંવેગીપણું સ્વીકાર્યું હતું. એટલે વર્તમાન તપાગચ્છના શ્રમણીસંઘની દાદી ગુણી તે સાધ્વી સહજશ્રી છે, એમ કહીએ તો સપ્રમાણ છે. વિક્રમની ઓગણીસમી સદીમાં શ્રી સુંદરશ્રીજી નામના સાધ્વી થયાં. નાકોડા તીર્થની પ્રસિદ્ધિ અને ઉત્ક્રાંતિ સત્તરમી શતાબ્દી પછી બે સૈકા સુધી અટકી ગયેલી. ત્યારબાદ પં. હિતવિજયજી ગણિના આજ્ઞાવર્તિની સાધ્વીશ્રી શણગારશ્રીજીના શિષ્યા સાધ્વીશ્રી સુંદરશ્રીજીની સારી એવી જહેમતથી તીર્થની જાહોજલાલી વધી. તીર્થ સ્મૃતિરૂપે અહીં સાધ્વીજી મહારાજની મૂર્તિ પધરાવવામાં આવી છે. વિક્રમની વીસમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૯૭૩-૨૦૨૨) શ્રીરંજનશ્રીજી નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ સાધ્વીશ્રી તીર્થશ્રીજીની સંસારી પુત્રી અને શિષ્યા પણ હતાં. વિક્રમ સંવત ૨૦૧૭માં એમના જ સદુપદેશથી સમેતશિખર મહાતીર્થનો જીર્ણોદ્ધાર થયો. ઇતિહાસમાં આપનું આ પ્રદાન અપૂર્વ છે. વિક્રમની એકવીસમી સદીમાં વિશિષ્ટ પ્રતિભા ધરાવતાં, વિશેષરૂપે શ્રુતસાધનામાં ઉદ્યમ કરનારાં અનેક શ્રમણી ભગવંતો વિચરે છે. તેમાંના કેટલાંક પૂજયોનો ઉલ્લેખ અહીં પ્રસ્તુત છે. વિક્રમની વીસમી સદીમાં વિક્રમ સંવત ૧૯૮૯) શ્રી મૃગેદ્રાશ્રીજી નામના સાધ્વી થયાં. સાધ્વીશ્રી મૃગેંદ્રાશ્રીજીએ તેર વરસની ઉંમરમાં શ્રી તિલકશ્રીજી પાસે દીક્ષા લીધી. તેઓ વર્તમાન તપાગચ્છીય સાધ્વીઓમાં આ સર્વશ્રેષ્ઠ આગમ અભ્યાસી મનાતાં હતાં. તેમણે પાલીતાણા આદિમાં ૨૦૦-૨૫૦ સાધ્વીજીઓને જીવસમાસ આદિનું ગંભીર અધ્યયન કરાવ્યું હતું. આ જ સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૯૯૦) સાધ્વી શ્રી નિરૂપમાશ્રીજી નામના સાધ્વી થયાં. સાધ્વી શ્રી નિરૂપમાશ્રીજી અનેક આગમ-ગ્રંથોના વિજ્ઞાતા હતાં. ભારતવર્ષના શ્રમણી-સંઘમાં તેમના પરિવારની એક અપ્રતિમ વિશેષતા છે કે એક જ પરિવારમાં ચાર સાધ્વીઓ “શતાવધાની છે. તેમના નામ છે (૧) સાધ્વી શ્રી મયણાશ્રીજી (૨) સાધ્વી શ્રી શુભોદયાશ્રીજી (૩) સાધ્વી શ્રી અમિતગુણાશ્રીજી (૪) સાધ્વી શ્રી અમિતગુણાશ્રીજી. સાધ્વી શ્રી નિરંજનાશ્રીજી તેમની કૃતોપાસના ઉલ્લેખનીય છે. તેઓ સંસ્કૃત, પ્રાકૃત, કાવ્ય, ન્યાય આદિની ઉચ્ચકોટિના Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XL, 2018 શ્રુતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન 201 અધ્યેતા હોવા સાથે તેમણે પચીસ હજાર શ્લોક કંઠસ્થ હતાં. તેમણે સ્થાને સ્થાને જ્ઞાન ભંડારો ખોલાવડાવ્યાં, ખુલેલાં જ્ઞાનભંડારોને વ્યવસ્થિત કરવામાં પણ તેમનું મહત્ત્વપૂર્ણ યોગદાન રહ્યું. વિક્રમ સંવત ૨૦૩૪માં ૧૦૭ ડિગ્રી તાવમાં પણ ૨000 ગાથાઓનો સ્વાધ્યાય કરતાં કાળધર્મ પામ્યાં. સાધ્વીશ્રી નિર્મલાશ્રીજી સાધ્વીશ્રી નિર્મલાશ્રીજીએ વિક્રમ સંવત ૧૯૫૮માં મોટા-મોટા મિનિસ્ટર, જજ આદિ ગણમાન્ય લોકોની સામે શતાવધાનના પ્રયોગ કર્યા. તેઓ ભારતના મહિલા સમાજમાં આવો પ્રયોગ કરનારા સર્વપ્રથમ હતાં. સાધ્વી શ્રી હેમગુણાશ્રીજી, સાધ્વી શ્રી દિવ્યગુણાશ્રીજી, સાધ્વી શ્રી હર્ષગુણાશ્રીજી આદિ વર્તમાનમાં શ્રી સુવર્ણાશ્રીજીની શિષ્યાઓ શ્રી હેમગુણાશ્રીજી અને દિવ્યગુણાશ્રીજી પ્રાચીન હસ્તલિખિત પ્રતોના સંશોધન અને સંપાદનનું મહત્ત્વપૂર્ણ કાર્ય કરી રહ્યાં છે. આ શૃંખલામાં તેમના દેવેંદ્રસૂરિ વિરચિત “શ્રીલાનો વેશમતિ', માણિક્યચંદ્રસૂરિ વિરચિત “શ્રી શાંતિનાથદ્યરિતમદાવ્ય'ના બે ભાગ અને શોભનમુનિ કૃત ‘રવિતિસ્તુતિ' પર વૃત્તિ “જિ-પીયૂષ-પસ્વિની' ગ્રંથ પ્રકાશિત થયાં છે. પુસ્તક અવલોકનથી એમની સંપાદન કલા અને વિદ્વત્તાના દર્શન થાય છે. પોતાના સંસારપક્ષીય માતા સાધ્વી શ્રી રમ્યગુણાશ્રીજી છે. “ય' નામથી જ બંને સાધ્વીજીઓ લેખન અને સંપાદન કરે છે. સાધ્વી હર્ષગુણાશ્રીજીએ સચિત્ર વર્માન્જના પાંચ ભાગોનું આલેખન પણ કર્યું છે. આ જ સમુદાયના સાધ્વી શ્રી મહાયશાશ્રીજીએ “સુરસુરીશ્વરિય'ની સંસ્કૃત છાયા લખી છે, તથા સાધ્વી શ્રી જિનયશાશ્રીજી નવતત્ત્વ સુમંત્રિા ટા'નો અનુવાદ કરી રહ્યાં છે. આ બધા વિદુષી સાધ્વીઓ આચાર્ય શ્રી વિજય મુનિચંદ્રસૂરિજી મ.સા.ની પ્રેરણા અને માર્ગદર્શનમાં સાહિત્ય-ક્ષેત્રમાં પ્રગતિ કરી રહ્યાં છે. સાધ્વી શ્રી રતચૂલાશ્રીજી વિક્રમ સંવત ૨૦૦૬-૨૦૭૩) ધોલેરા નિવાસી શ્રી રતીલાલ જેઠાલાલ જવેરી અને શાંતાબેનને ત્યાં વિક્રમ સંવત ૧૯૯૨માં અમદાવાદમાં તેમનો જન્મ થયો. તેમણે ચૌદ વર્ષની ઉમરમાં વિક્રમ સંવત ૨૦૦૬ વૈશાખ વદ ૬ પાલીતાણામાં આચાર્ય શ્રી રાજયશસૂરિજીના હાથે દીક્ષા અંગીકાર કરીને શ્રી સુવ્રતાજીના શિષ્યા બન્યાં. તેઓ બાલ્યવયથી જ પ્રતિભાસંપન્ન હતાં. પોતાની પ્રખરબુદ્ધિથી દિવસમાં સો ગાથા સુધી કંઠસ્થ કરવાની ક્ષમતાથી તેમણે જ્ઞાનના ક્ષેત્રમાં અત્યધિક પ્રગતિ કરી. તેમની આવી અપૂર્વ ગ્રહણ અને ધારણા શક્તિ જોઇને આચાર્યદેવે અગિયાર અંગસૂત્ર કંઠસ્થ કરવા કહ્યું અને તેમણે ૧૧ અંગશાસ્ત્ર કંઠસ્થ કરી લીધા. તેમાં વિશાલકાય ભગવતીસૂત્ર એકાશના તપ સાથે કંઠસ્થ કર્યું. સંસ્કૃત અને પ્રાકૃત ભાષા પર તેમની માતૃભાષા જેવો અધિકાર હતો. તેમણે પોતાના સંઘનાં જ નહીં, પણ અનેક સ્થાનકવાસી સાધ્વીઓને પણ કઠિનથી કઠિન ગ્રંથોનો અભ્યાસ સરલતાપૂર્વક કરાવ્યો છે. તેમની Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી SAMBODHI “વિક્રમભામ” નામની રચના એક ઉચ્ચકોટિની વિદ્વદ્રોગ્ય રચના છે. આ સિવાય તેમણે કેટલાય અષ્ટકો પણ ગુરૂદેવોની સ્તુતિ રૂપે રચ્યાં છે. સાધ્વીશ્રી લક્ષ્મીશ્રીજીએ ગુજરાતી ભાષામાં અનેક સ્તુતિ સ્તવનની રચના કરી છે. સાધ્વીશ્રી ભવ્યરત્નાશ્રીજીએ પરમ પૂજય આચાર્ય દેવ શ્રી વિજય રામચંદ્રસૂરીશ્વજી મહારાજાના સમ્યગ્દર્શન વિષયનાં વ્યાખ્યાનોનો સંસ્કૃતમાં અનુવાદ કર્યો છે. સાધ્વી શ્રી ચંદનબાળાશ્રીજી તેઓ સાધ્વી શ્રી રોહિતાશ્રીજીનાં શિષ્યા છે. વિપરીત પરિસ્થિતિમાં શરીરની અનેક બિમારીઓ વચ્ચે તેમણે અમદાવાદમાં રહીને શાસ્ત્રોનું સંપાદન કર્યું છે અને અઘરાં ગણી શકાય તેવાં પૂજય ઉપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજી મહારાજનાં ગ્રંથોનો અનુવાદ કર્યો છે. સાધ્વી શ્રીજિનતાશ્રીજી મ., સાધ્વી શ્રી મધુરહંસાશ્રીજી મ., સાધ્વી શ્રી ધન્યહંસાશ્રીજી મ. પરમ પૂજય સાધ્વીજી શ્રીહર્ષદેખાશ્રીજીમ.ના શિષ્યા સાધ્વીજી શ્રીજિનતાશ્રીજી મ. સા. શ્રી મધુરહંસાશ્રીજી મ. સા. શ્રી ધજહંસાશ્રીજી મ. બ્રાહ્મી, ગ્રંથ અને શારદા લિપિના જાણકાર છે. આ સાધ્વીજી ભગવંતો ઉકેલવામાં કઠિન જણાતા સંયુક્તાક્ષરોને પણ આસાનીથી વાંચી શકે છે. જૈન ધર્મના ચારેય ફિરકામાં ૧૦,૦૦૦ સાધ્વીજી ભગવંતોમાં બ્રાહ્મી, ગ્રંથ અને શારદા લિપિના જાણકાર સાધ્વીજી ભગવંતો આંગળીના વેઢે ગણી શકાય તેટલાં હશે. તેમાં પણ શારદા લિપિમાં લિવ્યંતર કરનાર તો પ્રાયઃ પ્રથમ આ બે સાધ્વીજી ભગવંતો હશે. લક્ષણસંગ્રહ નામના ન્યાયના ગ્રંથોનું સાદ્યત લિપ્યુતર સા. શ્રી મધુરહંસાશ્રીજી મ.(વર્ષ ૨૧) અને સા. શ્રી ધજહંસાશ્રીજી મ.(વર્ષ ૧૪)એ કર્યું છે. વિષયની કે ન્યાયની ભાષાની અતિ અલ્પ જાણકારી હોવા છતાં તદ્દન અપરિચિત લિપિને ઉકેલવાનો પ્રયાસ કરવો એ સહેલું કામ નથી. બન્ને સાધ્વીજી ભગવંતો ઉકેલવામાં કઠિન જણાતા સંયુક્તાક્ષરોને પણ આસાનીથી વાંચી શકે છે આવી તો અનેક પ્રતિભાઓ શ્રમણી સંઘમાં વિરાજે છે. તે દરેકનો પરિચય નથી તેથી તેમનો ઉલ્લેખ થઈ શક્યો નથી. શ્રમણી સંઘમાં કોઈ યાકિની મહત્તરા છે, તો કોઇ પાહિની દેવી છે. કોઈ સિદ્ધશ્રી છે, તો કોઈ સરસ્વતી છે. સાધ્વીજી ભગવંતોએ માતા થઇને, બહેન બનીને કે પછી પુત્રી થઈને અનેક મહાપુરુષોની ભેટ ધરી છે. સાધ્વીજી ભગવંતો મહાપુરુષોનો પ્રેરણા સ્ત્રોત બન્યાં છે. તેમના પ્રદાનને વાંચીને સાધ્વીજી ભગવંતોની પ્રતિભાનું જતન, સંરક્ષણ અને સંવર્ધન કરવાની ભાવના જન્મ, ઓછામાં ઓછું સાધ્વીજી ભગવંતો પ્રત્યેનો સમાદર વધે તેવા પ્રયાસો થાય એ અપેક્ષા અસ્થાને નહીં ગણાય. - સાધ્વીઓની ગુણગરિમાના પ્રતિ અહોભાવ વ્યક્ત કરતા આચાર્ય શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિએ કહ્યું છે – 'दासोऽहम् सर्वसाधूनाम् साध्वीनां च विशेषतः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રુતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન (૪) સાધ્વીજીઓની મૂર્તિ હવે પ્રસ્તુત લેખમાં સાધ્વીજી ભગવંતોની મૂર્તિ તથા પાદુકા વિષે ઉપલબ્ધ થતા છૂટા છવાયા ઉલ્લેખોને એકત્રિત કરીને કાળક્રમે રજૂ કરવાનો ઉપક્રમ છે. Vol. XI, 2018 203 સાધારણપણે સાધ્વીજી ભગવંતોની મૂર્તિ તથા પાદુકા બનતી નથી. તેમ છતાં ત્રણ વિશિષ્ટ પ્રભાવશાળી સાધ્વીજીની મૂર્તિ મળે છે. પૂજ્ય મૂલચંદજી ગણિવરના સમુદાયના મુનિવર શ્રીયશોવિજયજીના સંગ્રહમાં વિક્રમ સંવત ૧૨૦૫ની મહત્તરા સાધ્વીજીની મૂર્તિ વિરાજમાન છે. તેમના વિષે વિશેષ માહિતી મળતી નથી. વિક્રમની તેરમી સદીમાં(વિક્રમ સંવત ૧૨૫૫) દેમતિ ગણિની નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ વિશિષ્ટ પ્રભાવશાલિની સાધ્વી હતાં. પાટણ (ગુજરાત)ના અષ્ટાપદજીના મંદિરમાં આપની મૂર્તિ પ્રતિષ્ઠિત છે. તે ઉપર ‘“વિ.સંવત્ ૨૯ તિજ વવિ ?? બુધવાર તેમતિ રળિની મૂર્તિ (.)?'' લખેલ છે. સંભવ છે કે, આ દેમતી ગણિની તે બ્રહ્માણગચ્છના આ.વિમલસૂરિની સાધ્વી મીનાગણિનીની શિષ્યા નંદાગણિની, તેમની શિષ્યા લક્ષ્મીદેમતી હોય.૧૧ વિક્રમની તેરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૨૭૬) આર્યા પદ્મસિરિ નામના સાધ્વી થયાં. આર્ય પદ્મમિસિરનો જન્મ વિક્રમ સંવત ૧૨૬૮માં ખંભાતના કોટ્યાધિપતિ શ્રેષ્ઠીને ત્યાં થયો હતો. જ્યારે તે આઠ વર્ષના હતા, ત્યારે એકવાર દાદાજી સાથે ઉપાશ્રયમાં ગુરુમહારાજના દર્શન માટે આવી, તેમનું તેજસ્વી લલાટ અને સૌમ્ય, શાંત મુખાકૃતિને જોઇને ત્યાં બિરાજમાન ધર્મમૂર્તિ ગુરુએ શાસન માટે તે બાલિકા માંગી. શાસનની અતિશય પ્રભાવનાનો વિચાર કરીને પરિવારજનોએ પદ્મશ્રી ગુરુમહારાજને સમર્પિત કરી દીધી. આઠ વર્ષની કન્યાને દીક્ષા આપીને તેનું નામ આર્યા પદ્મસિરિ રાખ્યું. આર્ય પદ્મસિરિના તેજસ્વી આભામંડલથી પ્રભાવિત થઈને શ્રાવિકાઓ અને કન્યાઓનાં ટોળે ટોળા તેમની પાસે દીક્ષા લેવા માટે આવવા લાગ્યાં. અલ્પ સમયમાં જ આ સાતસો શિષ્યાઓના ગુરુણી બની ગયાં. જ્ઞાનનો ક્ષયોપશમ એટલો સ્પષ્ટ તથા નિર્મલ હતો કે ગૂઢમાં ગૂઢ તત્ત્વજ્ઞાનને તે સરળ રૂપમાં સમજાવતા હતા. સૂરિ મહારાજે એમને ક્રમશઃ ‘પ્રવર્તિની’ અને પછી ‘મહત્તરા’ પદથી અલંકૃત કર્યાં. અઠ્ઠાવીસ વર્ષની ઉંમરમાં વીસ વરસ સંયમ તથા ચારિત્રનું પાલન કરીને તે વિક્રમ સંવત ૧૨૯૬ માં સમાધિપૂર્વક સ્વર્ગવાસિની થયાં. આ અસીમ ઉપકારોની સ્મૃતિમાં સંભવતઃ તેમના કાળધર્મના બે વર્ષ પછી વિક્રમ સંવત ૧૨૯૮માં પ્રતિમા સ્થાપિત કરાયી.૧૨ માતરના દેરાસરમાં સં. ૧૨૯૮ની આર્યા પદ્મશ્રીની મૂર્તિ છે. તેમનું સાધ્વી પદ્મલક્ષ્મી એવું નામ પણ મળે છે. ખેડા જિલ્લાના ‘માતરતીર્થ’(ગુજરાત)માં સુમતિનાથ પ્રભુના વિશાળ જિનાલયમાં ‘આર્યા પદ્મશ્રી'ની આરસની પ્રતિમા છે. તેની નીચે શિલાલેખ પર ‘આર્યાં પત્તિરિ' વિ. સંવત્ ૧૨૬૮' અંકિત Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 મુનિ વૈરાગ્યરતિવિજય ગણી SAMBODHI છે. જિનાલય પ્રદક્ષિણાની ચોથી દેરીમાં આ મૂર્તિ પ્રતિષ્ઠિત છે. સાધ્વી પદ્મશ્રીની ૮૦૦ વર્ષ પ્રાચીન આ પ્રતિમા તે સમયની છે, જ્યારે કોઈ સાધુ પ્રતિમાની પણ પ્રતિષ્ઠા કરાતી ન હતી, કોઈ-કોઈ યુગપ્રધાન આચાર્યની પ્રતિમા જ પ્રતિષ્ઠાપિત કરાતી હતી, આવામાં સાધ્વીની મૂર્તિનું નિર્માણ તેમનાં અલૌકિક વ્યક્તિત્વને પ્રગટ કરે છે. વિક્રમની તેરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૨૮૮) સાધ્વી જિનસુંદરી ગણિની નામના સાધ્વી થયાં. વિધિપક્ષના શ્રાવક શેઠ શુભંકર પોરવાડની પરંપરામાં અનુક્રમે સેવાક, યશોધન, બાટૂ, દાહડ, સોલાક, ચાંદાક, અને પૂર્ણદેવ થયા. તેમાં શેઠ યશોધનનો પુત્ર સુમદેવ હતો. તેના પુત્ર દીક્ષા લીધી, જે આચાર્ય શ્રી મદનપ્રભસૂરિની પાટે આચાર્ય શ્રી ઉદયચંદ્રસૂરિ નામથી ખ્યાતિ પામ્યા. શેઠ પાસવીરના બીજા પુત્ર હરિચંદે દીક્ષા લઇને આચાર્ય શ્રી જયદેવસૂરિ નામથી પ્રસિદ્ધ થયા. ચાંદાકની પુત્રી નઉલીએ દીક્ષા લીધી, જેનું નામ સાધ્વી જિનસુંદરી ગણિની હતું. પૂર્ણદેવના પુત્ર અને પુત્રીએ દીક્ષા લીધી, તેમાં પુત્રનું નામ પં.ધનકુમાર ગણિ અને પુત્રીનું નામ સાધ્વી ચંદનબાલા રાખ્યું હતું. સાધ્વી જિનસુંદરી ગણિની એમના સમયમાં ભારે પ્રતિષ્ઠિત હતાં. આચાર્ય શ્રી દેવનાગે વિક્રમ સંવત ૧૨૮૮માં તેમની માટે મુનિ શીલભદ્ર પાસે પં.ગોવિંદ ગણીના “કર્મસ્તવ' ઉપર ટીકા લખાવી હતી. આચાર્ય શ્રી રતસિંહસૂરિજીના સમયે તપગચ્છની વૃદ્ધશાખામાં સાધ્વી રતચૂલા મહત્તરા, વિવેકશ્રી પ્રવર્તિની વગેરે સાધ્વીઓ વિદુષી તેમજ વ્યાખ્યાત્રી હતાં. ખંભાતના સં. હરિપતિના પૌત્ર સંશાણરાજે વિક્રમ સંવત ૧૫૫રમાં શત્રુંજય તીર્થનો છ'રી પાળતો યાત્રાસંઘ કાઢ્યો ત્યારે તેની સાથે સાત મંદિરો હતાં. તેણે ત્યાં આચાર્ય શ્રી રતસિંહસૂરિ અને સાધ્વી રતચૂલા મહત્તરાની ચરણપાદુકાઓની પ્રતિષ્ઠા કરાવી. વિક્રમની સત્તરમી સદીમાં (વિક્રમ સંવત ૧૬૦૦ના લગભગ) શ્રી રૂપાઈ નામના સાધ્વી થયાં. તેઓ ભટ્ટારક આચાર્ય શ્રી વિજયદેવસૂરિના આજ્ઞાનુવર્તિની સાધ્વી હતાં. આ સાધ્વીનું ચિત્ર સુવર્ણની શાહીમાં લખાયેલ કલ્પસૂત્રની એક પ્રત પ્રાપ્ત થઈ છે, જેમાં એક બાજુ આચાર્ય વિરાજમાન છે, બીજી બાજુ એ કની પાછળ એક એમ ત્રણ સાધ્વીઓ ના ચિત્ર છે. આચાર્યના ચિત્ર પર ‘મારવીવિઝવેવસૂરીશ્વરપુરૂખ્યો નમઃ' તથા સાધ્વીના ચિત્ર ઉપર “સાહીશ્રીરૂપા' અંકિત છે. ૫ વિક્રમની અઢારમી સદીમાં અને ત્યાર પછી ખરતરગચ્છના અનેક સાધ્વીજી ભગવંતોની ચરણપાદુકા પ્રતિષ્ઠિત થઈ છે. તેની સ્વતંત્ર નોંધ કરી નથી. સંદર્ભ : ૧. આ સિવાય શ્રમણ પરંપરાનું સંવર્ધન અને સંરક્ષણ, ગ્રંથોના સર્જનમાં સહાય, હસ્તપ્રત લેખન, નોંધપાત્ર Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XL, 2018 શ્રુતસાધનામાં સાધ્વીજી ભગવંતોનું પ્રદાન 205 સાધ્વીજી ભગવંતો, સાધ્વીજી ભગવંતોની મૂર્તિ તથા પાદુકા આ મુદ્દાઓને ધ્યાનમાં રાખીને નોંધ તૈયાર કરી છે. યથાવસર તે પણ પ્રગટ થશે. સિરિર્નસરપુરે વિશ્ચમવસદસત્તર વરસે. વીરfનાનકવરેજયમંગળસુંદરીવરિયં ૬૦રૂાા – હી. ૨. કાપડિયા, જૈન સંસ્કૃત સાહિત્યનો ઇતિહાસ, જૈન પરંપરાનો ઇતિહાસ ભાગ-૩, પ્રકરણ-૪૯, પત્ર ૧૫૦ ૩. જૈન ગુર્જર કવિઓ ૧/૧૫૩/૨૪૪ ભાગ ૧, પૃ.૧૬૦ ૪. “નાહટા'. ઐતિહાસિક જૈને કાવ્ય સંગ્રહ, પૃ. ૨૧૨-૨૧૩ ૫. જૈન ગુર્જર કવિઓ ભા.૬ કર્તાઅંક-૧૪૨૮, કૃતિઅંક ૫૦૦૧ ૬. જૈન ગુર્જર કવિઓ ભા.૬ કર્તાઅંક-૧૪૨૮, કૃતિઅંક ૫૦૦૧ તયોજિની ન્યાતનાની મહત્તા વૃતા – શ્રી જિનવિજયજી સંપાદિત, ખરતરગચ્છ બૃહદ્ ગુર્નાવલિ પૃ. ૫. પથ ની રીંછું ઉમાસનું ઇ, સાંસદેવ પ્રસન્ન | સંવત્ ૧૩ પૂરૂ, નાનું વૈદુ પરિબં! II ૨૮ – ઐ. જૈ. ગૂર્જર કાવ્ય સંચય, પૃ. ૨૧૫-૨૨૦ મૈકિંડલ ઈ. એન. ટી. શ. રીડ ઍશિયેટ ઇંડિયા- મૃ. ૬૮ જૈન પરંપરાનો ઇતિહાસ ભાગ-૨, પ્રક. ૩૫, પૃ. ૪૯ નૈનધર્મ શ્રી મનૉ વા વૃદ૬ તિહાસ, પ્રારા - શ્વેતાશ્વર પરમ્પરા વૌ શ્રમણિય પૃ.૨૨૭, જૈન પરંપરાનો ઇતિહાસ ભાગ-૨, પ્રક. ૩૫, પૃ. ૪૯ પાઠશાળા, પુસ્તક ૩૬, આ. પ્રદ્યુમ્નસૂરિ, નૈનધર્મ વતી શ્રમનોં એ વૃહત્ તિદાસ; પ્રરણ-શ્વેતાશ્વર પરમ્પરા કી શ્રમાિયા પૃ. ૩૨૮, જૈન પરંપરાનો ઇતિહાસ ભાગ-૨, પ્રકરણ-૩૫, પત્ર ૪૩૮-૪૩૯ જૈન પરંપરાનો ઇતિહાસ, ભાગ-૨, પ્રકરણ-૩૮, પત્ર ૨૬૦, ૩૦૮ ૧૪. જૈન પરંપરાનો ઇતિહાસ, ભાગ-૩, પ્રકરણ-૪૪, પત્ર ૧૪ ૧૫. રૈનધર્મ શ્રમણોં માં બૃહદ્ તિહાસ, પ્રહરખ-શ્વેતામ્બર પરમ્પરા સૌ શ્રમણિય પૃ. ૨૮૪ $ $ $ $ ? સંદર્ભ ગ્રંથ સૂચિ: જૈન પરંપરાનો ઇતિહાસ ભાગ ૧-૪, ત્રિપુટી મહારાજ ૨. જૈન ગુર્જર કવિઓ ભાગ ૧-૯, મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઇ, જયંત કોઠારી ૩. જૈન સાહિત્યનો સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ, મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઇ ४. जैनधर्म की प्रमुख साध्वियाँ एवं महिलाएँ, डॉ. हीराबाइ बोरदिया जैनधर्म की श्रमणिओं का बृहद् इतिहास डॉ. साध्वीजी विजयश्री आर्या Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રઘુવિલાસમાં નિરૂપિત જીવનબોધ ભાઈલાલભાઈ જી. પટેલ ભારતીય સંસ્કૃત સાહિત્યમાં દ્વિમુખી પ્રતિભા સંપન્ન જૈનાચાર્ય એવા રામચન્દ્રસૂરિ હેમચન્દ્રાચાર્ય (ઇ.સ. ૧૦૮૯-૧૧૭૩)ના પટ્ટ-શિષ્ય હતા. એવો ઉલ્લેખ કવિએ પોતાના નાટક રઘુવિલાસ' નાટકની પ્રસ્તાવનામાં કર્યો છે. આ ઉપરાંત નાટ્યશાસ્ત્રના ઇતિહાસને ગૌરવ અપાવનાર નાટ્યદર્પણ ગ્રંથનું એમનું અને એમના ગુરુભાઈ ગુણચન્દ્રસૂરિ સાથેનું કર્તૃત્વ સવિશેષ પ્રસિદ્ધ છે. તેમના જીવન તથા સાહિત્ય પ્રદાન વિશેની વિગતો તેમના જુદા-જુદા ગ્રંથોમાંથી મળી આવે છે. ડૉ. ભો. જે. સાડેસરા તેમને પૂર્વ જીવનના ચારણ બતાવે છે. તેમની શીધ્ર કાવ્ય રચવાની કલાથી પ્રસન્ન થઈ મહારાજા સિદ્ધરાજ જયસિંહએ તેમને કવિ કટ્ટારમલ્લ ની ઉપાધિથી વિભૂષિત કર્યા હતા. આ ઉપરાંત પોતાની જાતને કવિ ગર્વથી શતપ્રબંધર્તા તરીકે ઓળખાવે છે. જો કે તેમના ૩૮ ગ્રંથો જ ઉપલબ્ધ થતા હોવાથી આ શત શબ્દ વિપુલતાનો વાચક હોવાનું વિદ્વાનો માને છે. એમનો જન્મ ઇ.સ. ૧૧૦૦ની આસપાસ થયાનું મનાય છે. આમ અહીં રામચન્દ્રકૃત “રઘુવિલાસમાં નિરૂપિત જીવન બોધ તારવવાનો આ લેખનો આશય હોવાથી તેમના જીવન વિશેની અપ્રાસંગિક ચર્ચા ટાળવામાં આવી છે. રામચન્દ્રસૂરિ જૈન મુનિ હોવાથી તેઓ ભારતીય સંસ્કૃતિ અને સંસ્કારોના વાહક, ચિંતક, સંવર્ધક, રક્ષક અને પ્રચારક-પ્રસારક હતા. તેઓ ભારતીય જીવનદષ્ટિને ઉંડાણથી સમજયા હતા. આથી તેમની કૃતિઓમાં ભારત વર્ષના લોકોની જીવન જીવવાની કલા (The Art Of Living) સહજ રીતે છતાં સાંકેતિક રીતે ગૂંથાઈ છે. જેથી તેમની વાણીમાં અનેક ગૂઢ રહસ્યો પ્રગટ થતા જોવા મળે છે. આદર્શ જીવન : કવિએ પ્રસ્તુત નાટકમાં (રઘુવંશી) રાજા નામના ઉચ્ચ ગુણોનું વર્ણન કરતા ઉચ્ચ જીવન મૂલ્યોનું દિશા સૂચન કર્યું છે. આચરણનું મહત્ત્વ : स्वता स्तवो न कश्चन गुरुलघुवोऽपि न कश्चन् । उचिताऽनुचिताचारवश्ये गौरव-लाघवे ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 Vol. XLI, 2018 રઘુવિલાસમાં નિરૂપિત જીવનબોધ પોતાની જાતે કોઈ નાનો કે મોટો નથી, પણ યોગ્ય અયોગ્ય આચારને કારણે નાના-મોટાપણું પામે છે. કોઈ માણસ સ્વભાવથી ઉદાર (મહાન) પ્રિય કે અપ્રિય નથી હોતો, પણ માણસને તેના કર્મો જ સંસારમાં મોટો કે નાનો બનાવે છે. પોતાના કર્મોથી માણસ નીચે-નીચે કે ઉપર-ઉપર જાય છે. કૂવો ખોદનારો નીચે ઉતરે છે. મહેલ બનાવનાર ઉપર જાય છે. આમ જીવનમાં આચરણનું જ મહત્ત્વ છે. માવા પરમો થકા (આચાર શ્રેષ્ઠ ધર્મ છે.) વૃત્તિ દિ સહિત સતામ્ 9 (આચરણ જ પૂજનીય છે.) जातिमात्रेण किं कश्चित् हन्यते पूज्यते कवचित् । व्यवहारं परिज्ञाय वध्यः पूज्योऽथवा भवेत् ॥ (કેવળ જાતિને લીધે શું કોઈને મારી નાખવામાં આવે છે? કેવળ જાતિને લીધે શું કોઈને સન્માનવામાં આવે છે? અથવા આચરણ બરાબર જાણીને જ જે તે વ્યક્તિ મારી નાખવા લાયક અથવા સન્માનવા લાયક બને છે ?) વંશ, કુળ અને જાતિથી કોઈ માણસ મોટો બની શકે નહી, યોગ્ય આચરણ જ માણસને કીર્તિ અપાવે છે. આમ જીવનમાં આચરણનું મહત્ત્વ સમજી યોગ્ય આચરણ કરતા શીખો, કોઈપણ ઉપદેશ કે સિદ્ધાંતનો પ્રચાર તેના આચરણ દ્વારા જ થઈ શકે છે. સ્ત્રી સ્વભાવને જાણો : ददाति रागिणी प्राणानादत्ते द्वेषिणी पुनः । रागो वा यदि वा द्वेषः कोऽपि लोकोत्तरः स्त्रियाः ॥ (પ્રેમ ધરાવતી સ્ત્રી પ્રાણ આપે છે, પણ દ્વેષ કરનારી (પ્રાણ) હરી લે છે. સ્ત્રીઓનો રાગ-દ્વેષ લોકોત્તર હોય છે.) કવિ સ્ત્રીઓના રાગ-દ્વેષની વિશેષ અસર દર્શાવતા કહે છે કે સ્ત્રી જો પ્રેમ કરતી હોય તો પુરૂષ માટે પ્રાણ આપનારી બને છે, પણ જો તે પુરૂષ પ્રત્યે દ્વેષ કરતી હોય તો પ્રાણ હરનારી બને છે. આમ દરેક પુરૂષના જીવન ઉત્કર્ષ-અપકર્ષમાં સ્ત્રીનું બહું મોટુ યોગદાન હોય છે. સમયને ઓળખો : कालज्ञता हि नाम परमोविवेकः ।० | (સમય પારખે એ જ મોટો વિવેક છે.) જીવનમાં સમયને જે માણસ ઓળખે છે તે સફળ થાય છે. સમયનો સદુપયોગ કરતાં શીખો. 1 હાનિ ? સમયબ્યુતિ '' Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAMBODHI ભાઈલાલભાઈ જી. પટેલ (નુકસાન શું છે? સમય બરબાદ થાય તે) अदीर्घसूत्रं लक्ष्मीः स्वयं याति निवासहेतोः ॥२ (જે સમય ન બગાડે, કામમાં દીર્ઘસૂત્રી ન હોય તેની પાસે લક્ષ્મી આવે છે.) અને વળી કહ્યું श्वः कार्यमघ कुर्वीत पूर्वाणे चापराणिकम् । __न हि प्रतीक्षते मृत्यु कृतमस्य न वा कृतम् ॥ (કાલનું કામ આજે કરો, બપોરનું કામ સવારે કરો કેમ કે, મૃત્યુ કાર્ય પૂરૂ થવાની પ્રતીક્ષા નહીં અને વળી, कः कं शकतो रक्षितुं मृत्युकाले रज्जुछेदे के घटं धारयन्ति ।१४ (મૃત્યુ સમયે કોણ કોને બચાવે છે. દોરડ તૂટી જાય ત્યારે ઘડાને કૂવામાં પડતો કોણ રોકી શકે છે ?) અને વળી, समये हि सर्वमुपकारि कृतम् । ५ (સમયે કરેલ બધા જ કાર્ય ઉપકારક હોય છે.) આમ માણસ જીવનમાં સમયને ઓળખી કાર્ય કરે તો તે જીવનમાં ચોક્કસ સફળ થાય છે. સેવકની લાચારી : कुस्वामी च हुताशश्च द्वावध्येतौ सहोदरौ । एकः सेवकसन्तापी स्वभावः कथमन्यथा ॥ (ખરાબ સ્વામી અને અગ્નિ બે સગા ભાઈ છે, એ નક્કી વાત છે. બાકી બંનેનો સેવકને સંતાપ આપવાનો એક સરખો સ્વભાવ છે.) અને વળી કહ્યું છે કે ये सदा सरुजो ये च भृत्या भृत्याद्विषि प्रभौ । ७ जीवितं मरणं तेषां मरणं जी (અહીં નોકર પ્રતિદર્પ કરનાર સ્વામી હોય તો જે લોકો સદા રોગી ને નોકર હોય તેઓને માટે જીવન એ મરણ છે તથા મરણ એમના માટે જીવન બને છે.) અને વળી, અહીં દર્પ કરનાર સ્વામી દ્વારા નોકરની અવદશાનું વર્ણન કર્યું છે. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 209 Vol. XLI, 2018 રઘુવિલાસમાં નિરૂપિત જીવનબોધ कष्टोऽयं भृत्यभावः।८ (આ સેવક હોવાનો ભાવ કષ્ટદાયક છે.) અને વળી, सेवां लाघवकारिणी कृतस्त्रियः स्ववृत्ति स्त्रिवृत्ति विदुः । (ડાહ્યા માણસો હલકી પાડનારી સેવાને કૂતરાની જેવી આજીવિકા તરીકે સાચી રીતે જ ઓળખે છે.) આપણી સમાજ વ્યવસ્થામાં નોકરી કરતા નોકર કે સેવકના બધા ગુણોને વિપરીત રીતે જોવામાં આવે છે. નોકર કે સેવકને ક્યારેય યશ મળતો નથી. સેવકોએ ઘણી મુશ્કેલીઓ અને યાતનાઓમાંથી પસાર થવાનું હોય છે. ફરજ પાલન તરફ કોઈ લક્ષ આપતું નથી. સારૂ કામ કરતા શાબાશી ન મળે પણ કદાચ ભૂલ થાય તો સારૂ કામ ધોવાઈ જાય અને ઠપકો મળે તથા ગુસ્સાનો ભોગ બનવું પડે એ તો અલગ. સેવકના સદ્ગુણો દુર્ગુણ ગણાય છે. જો તે ખમી લે તો ઘણું ખરૂ હલકા કૂળનો ગણાય છે. આ બધા પરથી કહી શકાય છે કે ચાકરીની ફરજ ઘણી ગહન છે. યોગીઓ પણ તેનો પાર પામી શકતા નથી. એમ ભર્તુહરિ કહે છે. ૨૦ પતિવ્રતા સ્ત્રી : पतिदेवताः कुलपुत्रिका भवन्ति ।२१ કુલિન કન્યા પતિને જ દેવતા માનતી હોય છે.) જીવનમાં જીવનસાથી સારો મળે તે સુખી જીવનનો આધાર છે. જો પત્ની પતિની ઇચ્છા પ્રમાણે અનુગમન કરનારી હોય તો અહીં જ સ્વર્ગ છે. જ્યાં દુઃખોની નિવૃત્તિ થાય સંતોષ મળે તે ઉત્તમ) પત્ની છે. જે પવિત્ર હોય, પતિને ચાહનારી હોય, સત્ય બોલનારી હોય તે પત્ની સાચી) પત્ની છે. एषा मे हृदयम्२२ जीवः उच्छ्वासः प्राण एव च । रूपसंन्नमग्राम्यं प्रेमप्रायं प्रियवंदम् कुलीनमनुकूलं च कलत्रं कुत्र लभ्यते ॥ (આ (પત્ની) છે મારૂ હૃદય. આ જ મારો જીવ મારો ઉચ્છવાસ મારા પ્રાણ પણ એ જ રૂપથી હોય સમૃદ્ધિ, વળી પાછી પ્રેમ ભરીને એમાં પાછી મીઢા બોલી, કુલીન તો ખરી જ, અહોહો અનુકૂળ પણ, આવી ... આવી પત્ની ક્યાં મળે છે? (મળે તો એને મનભરીને ચાહી લો નહી તો મોડુ થઈ જશે.) નસીબની પ્રબળતા : न भाव्यमन्यथा भवति ।२३ (થવાનું અન્યથા થતું નથી). Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 ભાઈલાલભાઈ જી. પટેલ SAMBODHI સંસારમાં મનુષ્ય બળવાન નથી પણ તેનું ભાગ્ય બળવાન હોય છે. જે થવાનું હોય છે તેને મોટા મોટા મહારથીઓ પણ રોકી શકતા નથી. સંસારમાં માણસની ઉન્નતિ કે અધોગતિમાં પણ ભાગ્યે જ સર્વોપરિતા ધરાવે છે. ભાગ્યથી જ વિષ્ણુ ભગવાન શેષનાગ પર સૂઈ જાય છે. જે પક્ષી દૂર સુધી જોઈ શકે છે તે નજીકમાં રહેલી જાળને જોઈ શકતાં નથી. કારણ કે ભાગ્યે જ બળવાન છે. વિજ્ઞાન વિકસ્યું હોવા છતાં માનવને બચાવી શકતું નથી. માણસનું આયુષ્ય પણ નક્કી કરી શકતું નથી. અને વળી કહ્યું છે કે प्रतिकूलतामुपगते हि विधौ विफलत्वमेति बहुसाधनता ।२४ (ભાગ્ય પ્રતિકૂળ હોય ત્યારે બધી વસ્તુ નિષ્ફળ થઈ જાય છે.) અને વળી કહ્યું છે કે यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितन्मार्जितुं कः क्षमः ।२५ (વિધાતાએ કપાળ ઉપર જે લખ્યું છે તેને ભૂંસવા કોણ સમર્થ છે?) સંદર્ભ: નોંધ- ગુજરાત સાહિત્ય અકાદમી, ગાંધીનગર અને હિન્દુ રિસર્ચ ફાઉન્ડેશન હિંમતનગર દ્વારા તા. ૨૯, ૩૦ માર્ચ ૨૦૧૮ના રોજ આયોજિત વિશ્વ ભાષા સાહિત્ય અને રામકથા વિષય પર આયોજિત આંતરરાષ્ટ્રીય શોધ સંગોષ્ટિમાં સદર પેપરનું રીડીંગ કર્યું. सूत्रधार श्री सिद्धहेमचन्द्राभिधानशब्दानुशासनविधानवेधसः । श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रस्य शिष्यं रामचन्द्रभिजानासि ? ॥. रामचन्द्रसूरि : रघुविलास (नाट्यसाहित्य माला भाग : ३), संपादक : प. पू. आ. दे. श्रीमद्विजययोगतिलकसूरीश्वरः। अनुवादक: डॉ. महेन्द्र दवे । प्रकाशक : वीरशासनम् । प्रकाशनवर्षम् : वीर सं. २५३५, वि. सं. २०६५ आवृत्तिः प्रथमा, अंक: २, पृ. २ श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्र विनिर्मितेऽस्मिन् । नाट्याङ्गभेदभरिते शुचि दर्पणेऽत्र ॥ नाट्यदर्पण १.२ पृ. ५ रामचन्द्र-गुणचन्द्र नाट्यदर्पणम् । व्याख्याकारः पं. थानेशचन्द्र उप्रेती । प्रकाशक : परिमल पब्लिकेशन्स, दिल्ली । संस्करण : प्रथम १९८६ યજ્ઞશેષ' (લેખસંગ્રહ) સ્વ. ડૉ. ભોગીલાલ જયચંદભાઈ સાંડેસરા, પ્રકાશક : ગુજરાતી સાહિત્ય સભા तुष्टेन सर्व समक्षं कविकटारमल्ल इति बिरुदं दत्तम् । रत्नमंदिर गणि, उपदेश तरंगिणी, पृ. ६२ | (ક). શ્રી. એલ. બી. ગાંધી, “નલવિલાસ” પ્રસ્તાવના, પૃ.૩૩ (ખ). શ્રી મો. દ. દેસાઈ, “જૈન સાહિત્યનો સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ', પૃ. ૩૧૧ (ગ). પ્રો. હી. ૨. કાપડિયા, “જૈન સાહિત્યનો સંક્ષિપ્ત ઇતિહાસ', ખંડ – ૧, પૃ. ૧૮૧ (ઘ). શ્રી મુનિ ચતુરવિજયજી, જૈન સ્તોત્ર સંગ્રહની પ્રસ્તાવના, પૃ. ૩૧૧ ૩. 5 ર Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩. Vol. XLI, 2018 રઘુવિલાસમાં નિરૂપિત જીવનબોધ 211 ૬. એજન રઘુવિલાસ, અંક ૪ શ્લોક ૭૬, પૃ. ૩૬ કાલિદાસ : કુમારસંભવ (મહાકવિકાલિદાસ સમગ્ર ગ્રંથાવલિ – ૨) સંપાદક : ડૉ. ગૌતમ પટેલ, પ્રકાશક : નીલમ પટેલ, અમદાવાદ આવૃત્તિ : પ્રથમ માર્ચ ૨૦૧૪, ૬:૧૨, પૃ. ૧૧૫. ભટ્ટ નારાયણ : હિતોપદેશ, સંપાદક ડૉ. નારાયણ એમ. કંસારા, પ્રકાશક : સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર, .અમદાવાદ આવૃત્તિ : બીજી ૨૦૦૬-૦૭, મિત્રલાભ શ્લોક : ૨૧, પૃ. ૧૭ એજન રઘુવિલાસ, અંક ૪.૮૬, પૃ. ૨૮ ૧૦. એજન રઘુવિલાસ, અંક ૧, પૃ. ૩૨ ભર્તુહરિ નીતિશતક, સંપાદક : પ્રા. સુરેશ જ. દવે, પ્રકાશક : સરસ્વતી પુસ્તક ભંડાર, અમદાવાદ, આવૃત્તિ : અદ્યતન ૨૦૦૫-૦૬, શ્લોક ૧૦૩, પૃ. ૮૩ ૧૨. એજન હિતોપદેશ મિત્રલાભ શ્લોક : ૧૯૩ વેદવ્યાસ, મહાભારત भासः स्वप्नवासवदत्तम् । व्याख्याकार : आचार्य श्रीशेषराज शर्मा रेग्मी । प्रकाशकः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन વારાણસી / ૬.૨૦, પૃ. ૨૨ માઘઃ શિશુપાલવધ, સંપાદક : પ્રા. નીતીન રતિલાલ દેસાઈ, પ્રકાશક : યુનિ. ગ્રંથનિર્માણ બોર્ડ, અમદાવાદ ગુજરાત, આવૃત્તિ : પ્રથમ ૨૦૦૧, ૯.૪૩, પૃ. ૧૪૫ એજન રઘુવિલાસ, અંક ૪.૭૫, પૃ. ૨૫ એજન રઘુવિલાસ, અંક ૮.૧૮૭, પૃ. ૫૮ શ્રી હર્ષ રસાવલી, સંપાદક : ડૉ. નરોત્તમ પી. શાસ્ત્રી, પ્રકાશક : પાર્શ્વ પબ્લિકેશન્સ, અમદાવાદ, આવૃત્તિ પ્રથમ ૧૯૯૯, અંક – ૧, પૃ. ૭૦ विशाखादत्तः मुद्राराक्षस । संपादक : डॉ. पुष्पा गुप्ता । प्रकाशक : ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली ३.१४, पृ. १५३ ૨૦. એજન ભર્તુહરિ નીતિશતક, શ્લોક: પ૮, પૃ. ૨૫ એજન રઘુવિલાસ, અંક ૮, પૃ. ૬૫ त्रिविक्रमभट्टः नलचम्पू । व्याख्याकारः पं. श्री परमेश्वर दीन पाण्डेय । संपादकः श्री राजेन्द्रप्रसाद कोठयारी, પ્રાશ વવસ્વાસુરમરતી, પ્રાશન : વારાણસી, ૨.૨૨, ૨૨, પૃ. ૨૨-૨૨૬ ૨૩. એજન રઘુવિલાસ, અંક ૧, પૃ. ૩૬ ૨૪. એજન શિશુપાલવધ, ૯.૬, પૃ. ૧૩૮ ૨૫. એજન નીતિશતક Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન સંપ્રદાયમાં સ્તવન'નું માહામ્ય ભગવાન એસ. ચૌધરી ભારતીય સાંસ્કૃતિક પરંપરાને હજારો વર્ષથી જીવંત રાખનારા પરિબળોમાં એક મોટામાં મોટું પરિબળ ધર્મતત્ત્વ છે. ભારતીય સાંસ્કૃતિક ઇતિહાસમાં બ્રાહ્મણ પરંપરા અને જૈન પરંપરાનું યોગદાન મહત્વનું રહ્યું છે. શિલ્પ સ્થાપત્ય, ચિત્રકલા, તત્ત્વજ્ઞાન, વિવિધ વિદ્યાઓ, સાહિત્ય વગેરે વિષયમાં ભારતનો સાંસ્કૃતિક વારસો પણ મૂલ્યવાન છે. મધ્યકાલીન જૈનગુર્જર કવિઓએ રાસ-રાસો, પ્રબંધ, ફાગુ, ચરિત, બારમાસી, સ્તવન, છંદ, સજઝાય, આરતી, પૂજા, દુહા, આધ્યત્મિક પદો, વગેરે અનેક પ્રકારના સ્વરૂપોની રચનાઓ કરી છે. જૈન ભક્તિસાહિત્યમાં પ્રભુભક્તિ, ગુરુભક્તિ, દેવદેવીઓનીભક્તિ, વગેરે વિષયની રચનાઓ સાંપડે છે. અહી આપણે માત્ર પ્રભુભક્તિનો જ વિષય લઈશું. પ્રભુભક્તિ માટે સ્તવન, થોય, મોટી પૂજા, વગેરે પ્રકારની રચનાઓ થયેલી જોવા મળે છે. પ્રભુભક્તિ એટલે તીર્થંકર પરમાત્માની ભક્તિ. “તીર્થકર' શબ્દ જૈનોમાં વિશિષ્ટ અર્થમાં પ્રયોજાય છે. તારે તે તીર્થ અને તીર્થ પ્રવર્તાવે તે તીર્થકર’ એવી વ્યાપક વ્યાખ્યા આપવામાં આવી છે. તીર્થકર માટે અરિહંત', “અહંત', “જિનેશ્વર' જેવા પર્યાયવાચી શબ્દો પણ પ્રયોજાય છે. અને પ્રભુ, ભગવાન, પરમાત્મા, પરમેશ્વર જેવા રૂઢ શબ્દો પણ પ્રયોજાય છે. જેમણે પોતાના તીર્થકર નામકર્મના ઉદયથી જેઓએ તીર્થ પ્રવર્તાવ્યું છે એવા ચરમશરીરી અરિહંત પરમાત્માની ભક્તિ જીવને મુક્તિ તરફ લઈ જાય છે. કાળ ગણના પ્રમાણે વર્તમાન અવસર્પિણીમાં ચોવીસ તીર્થંકરો થઈ ગયા. એમાં પહેલા તે ભગવાન ઋષભદેવ અને છેલ્લા તે મહાવીર સ્વામી તદુપરાંત હાલ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં વિચરતા સિમંધરાદિ વીસ વિહરમાન તીર્થકરો પણ છે. ગત ચોવીસી અને અનાગત ચોવીસી તીર્થકરોના નામ પણ ઉપલબ્ધ છે. અને તેમની ભક્તિ માટે પણ સ્તવનોની રચના થાય છે. બધા તીર્થકરો સ્વરૂપની દષ્ટિએ એક સરખા છે. એમની ભક્તિનું રહસ્ય ઘણું ઊંડું છે. દેવદેવીઓની ભક્તિ ભૌતિક, ઐહિક સુખની અપેક્ષાએ થઈ શકે છે. જિનેશ્વર ભગવાનની ભક્તિ એક Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 જૈન સંપ્રદાયમાં “સ્તવન'નું માહાભ્ય 213 માત્ર મોક્ષની અભિલાષાથી કરવાની હોય છે. એ ભક્તિ દ્રવ્યપૂજા અને ભાવપૂજા એમ ઉભય પ્રકારે થાય છે. દ્રવ્યપૂજામાંથી ભાવપૂજા પ્રતિ જવાનું હોય છે. મધ્યકાલીન જૈનપરંપરાનું અવલોકન કરીએ તો કેટલા બધા કવિઓએ પોતાની પ્રભુભક્તિને અભિવ્યક્ત કરી સ્તવનોની રચના કરી છે. વિક્રમ સંવતના પંદરમાં શતકથી અઢારમા અને ઓગણીસમા શતક સુધીમાં વિનયવિજયજી, લાવણ્યસમયજી, સમયસુંદરજી, જીનરતજી, યશોવિજયજી, રામવિજયજી, જ્ઞાનવિમલજી, ભાણવિજયજી, જિનવિજયજી, પદ્મવિજયજી વગેરે જેવા ૬૦થી પણ વધારે સાધુકવિઓએ સ્તવનચોવીસીની રચના કરી છે. જે પ્રકાશિત થઈ ગયેલ છે. ચોવીસી એટલે પ્રત્યેક તીર્થકર માટે એક સ્તવન, એ રીતે ચોવીસ તીર્થકર માટે ચોવીસ સ્તવનની રચના તે સ્તવનચોવીસી. ઉપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજીએ એક નહી પણ ત્રણ ચોવીસીની રચના કરી છે, જે કવિ તરીકેના એમના સામર્થની પ્રતીતિ કરાવે છે. જૈનોમાં આ સ્તવનો ઉપરાંત મોટી પૂજાઓ પણ ગવાય- ભણાવાય છે. મધ્યકાળમાં જૈન સાધુકવિઓએ બધું મળીને ત્રણ હજારથી વધુ સ્તવનો લખ્યાં છે. સ્વરૂપની દૃષ્ટિએ કે ગુણલક્ષણોની દૃષ્ટિએ જોઈએ તો બધા તીર્થકરો સરખા જ છે. જૈન મંદિરોમાં જિનેશ્વર ભગવાનની પ્રતિમાઓ એકસરખી જ હોય છે. નીચે એમનું લાંછન જોઈએ તો જ ખબર પડે કે તે ક્યા ભગવાનની પ્રતિમા છે. વળી પ્રભુભક્તિના સિદ્ધાંતની દૃષ્ટિએ જોઈએ તો કોઈપણ એક જિનેશ્વર ભગવાનની સ્તુતિમાં બધા જ ભગવાનની સ્તુતિ આવી જાય છે. હરીભદ્રસૂરિએ કહ્યું છે : जे एग पुईया ते सव्वे पूईया हुति એકની પૂજા બધામાં આવી જાય છે. આથી જ શાંતિનાથ ભગવાનના મંદિરમાં ઋષભદેવ ભગવાનનું સ્તવન ગાઈ શકાય છે. અને પાર્શ્વનાથ ભગવાનના મંદિરમાં વિમલનાથ કે અન્ય કોઈ તીર્થકર ભગવાનનું સ્તવન પણ લલકારી શકાય છે. હવે પ્રશ્ન એ થાય છે કે જો સ્વરૂપની દૃષ્ટિએ આ એકત્વ હોય તો ચોવીસ સ્તવનોમાં કવિ કેવી રીતે વૈવિધ્ય લાવી(આણી) શકે? પરંતુ એમાંજ કવિની કવિત્વ શક્તિની ખરી કસોટી છે. આપણે જોઈ શકીએ છીએ કે આટલી બધી ચોવીસી લખાઈ છે, પણ કોઈ પણ કવિની સ્તવન રચનામાં પુનરુક્તિનો દોષ એકંદરે જોવા મળતો નથી. ઉપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજીએ તો ત્રણ ચોવીસી અને અન્ય કેટલાંક સ્તવનો લખ્યા છે. અને છતાં એમાં પુનરુક્તિનો દોષ કયાંય જોવા મળતો નથી. આ ઉપરથી જોઈ શકાય છે. કે મધ્યકાલીન જૈન ગુજરાતી સ્તવન સાહિત્ય કેટલું બધું સમૃદ્ધ હશે. સ્તવનોમાં રચયિતાની પ્રભુ પ્રત્યેની પ્રીતિ, શ્રધ્ધા, યાચના, શરણાગતિ ઈત્યાદી વ્યક્ત થાય છે. આત્મનિવેદન, પ્રાથના, વિનય વગેરે રજૂ થાય છે અને પરમાત્માના ગુણોનું સંકીર્તન પણ થાય છે. કેટલાંક કવિઓએ પોતાના સ્તવનોમાં તત્ત્વજ્ઞાનની છણાવટ પણ ગૂંથી લીધી છે. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 ભગવાન એસ. ચૌધરી SAMBODHI હરિભદ્રસૂરીએ પ્રભુભક્તિના પાંચ પ્રકાર આપ્યા છે. ૧-વિષાનુષ્ઠાન -ગરાનુષ્ઠાન ૩અનનુષ્ઠાન ૪-તદહેતુઅનુષ્ઠાન પ-અમૃતાનુષ્ઠાન ભક્તની ભક્તિ પ્રથમ બે પ્રકારની તો ના હોવી જોઈએ એની ભક્તિ પરાભક્તિ સુધી પહોચે તો જ તે મોક્ષપ્રાપક બની શકે. સામાન્ય ભક્તિ તો પુણ્યબંધનું નિમિત્તે બની શકે અને તે સ્વર્ગનું સુખ અપાવી શકે. ઉપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજીએ શ્રી અરનાથ ભગવાનના સ્તવનમાં કહ્યું છે : ભક્તને સ્વર્ગ, સ્વર્ગથી અધિક જ્ઞાનીને ફળ દેઈ રે. કયાકષ્ટ વિના ફળ લહીએ મનમાં ધ્યાન ધરે ઈ રે. તેવી જ રીતે ઉપાધ્યાય શ્રી યશોવિજયજીએ શ્રી ઋષભદેવ ભગવાનના સ્તવનમાં કહ્યું છે મુક્તિથી અધિક તુજ ભક્તિ મુજ મન વસી. જેહશું સબળ પ્રતિબંધ લાગો, ચમક પાષાણ જેમ લોહને ખેચશે, મુક્તિને સહજ તુજ ભક્તિ રાગો. સાચી ભક્તિમાં એટલું બળ છે કે પ્રથમ દર્શન વિશુદ્ધિ અપાવે છે, અને અનુક્રમે મુક્તિ પણ અપાવે છે. આમ ભક્તિ પરંપરાએ જ્ઞાનનું કારણ બને છે અને જ્ઞાન પરંપરાએ મોક્ષનું કારણ બને છે. આટલા બધા કવિઓએ આટલા બધા સ્તવનોની રચના કરી છે. તેમ છતાં છેલ્લા ત્રણસોચારસો વર્ષની સ્તવન પરંપરા જોતાં તો જૈન મંદિરોમાં મુખ્યત્વે યશોવિજયજી, આનંદધનજી, પદ્મવિજયજી, મોહનવિજયજી, ઉદયરતજી, વિનયવિજયજી વગેરેના સ્તવનો અત્યંત લોકપ્રિય રહ્યા છે. એના કેટલાક કારણોમાંનું એક મુખ્ય કારણ તે એની રચના પ્રચલિત લોકપ્રિય ઢાળમાં છે. ગેયત્વથી ભાવની વૃદ્ધિ થાય છે. મધુર કંઠે ગવાયેલી રચના હદયને સ્પર્શી જાય છે. ઋષભદેવ જિન સ્તવનમાં ઋષભદેવનું મહત્વ ગાયું છે. “ઋષભ- જિનેશ્વર પ્રીતમ માહરો રે ઓર ન ચાહું રે કંત. રીઝયો સાહિબ સંગ ન પરિહરે રે ભાંગે સાદિ-અનંત.” સંભવ માત્રથી દેવ હોય, તે સર્વની સેવા બતાવીને શ્લેષથી સંભવનાથ નામની પણ સાર્થકતા કરી બતાવી છે. શ્રી પધ-પ્રભુ સ્તવનમાં આત્મા પરમાત્મા વચ્ચેના અંતરની વાત રજૂ થઈ છે. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 215 Vol. XL, 2018 જૈન સંપ્રદાયમાં સ્તવન'નું માહાભ્ય “પદ્ય-પ્રભુ જિન તુજ મુજ આંતરું રે! કિમ ભાંજે ભગવંત ! કર્મ-વિપાકે કારણ જોઇને રે કોઈ કહે મતિમંત પ.” હે પદ્મપ્રભુ ! જિનેશ્વરદેવ! મારી અને આપની વચ્ચે એ આંતરું છે જે છેટું છે, તે હે ભગવંત ! કેમ કરીને ભાંગે? તે આંતરાનું કારણ બતાવે છે, બુદ્ધિમાન કેટલાક પુરુષો વ્યતિરેકથી કારણોની તપાસ કરીને એ આંતરું કર્મના વિપાકથી પડ્યું છે.” એમ કહે છે શ્રી મલ્લિનાથ જિન સ્તવનમાં કહેવાયું છે કે “સેવક કિમ અવગણીએ? હો મલ્લિ-જિન ! એ અબ શોભા સારી? અવર જેહને આદર અતિ દિયે, તેહને મૂલ નિવારી હો !” આ ઉપરાંત મુનિ સુવ્રત જિન સ્તવનમાં આ પ્રમાણે વાત કરી છે – મુનિ અને સુવ્રત, શબ્દમાંથી રાગ, દ્વેષ, મોહ, વિના કેવળ આત્મતત્ત્વ જ્ઞાનમાં લીન થઈને મુનિ પણાનો, અને સારા સારા વ્રતોનો ધ્વની ઉઠે છે. તેથી આ સ્તવનમાં આત્માને મુનિ અને સુવ્રતધારી બનાવવાનો મુનિસુવ્રત નામમાં શ્લેષથી ધ્વની છે. આનંદધનજી, યશોવિજયજી, દેવચંદ્રજી વગેરેની નીચેની પંક્તિઓ ક્યારેક સાંભળવા મળે તો હૈયું ભક્તિરસથી તરબોળ બની જાય છે. “ઋષભ જિનેશ્વર પ્રીતમ માહરો રે ઓરે ન ચાહું રે કંત. “અમીયભરી મૂર્તિ રચી રે, ઉપમા ન ધટે કોય, શાંત સુધારસ ઝીલતી રે, નિરખત તૃપ્તિ ન હોય, વિમલ જિન, દીઠાં લોયણ આજ મારાં સિધ્યા વાંછિત કાજ.” ધાર તલવારની સોહ્યલી, દોહ્યલી ચૌદમાં જીન તણી ચરણસેવા. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 SAMBODHI ભગવાન એસ. ચૌધરી સેવો ભવિયાં વિમલ જિનેસર, દુલહા સજ્જન સંગાજી, એહવા પ્રભુનું દરિશણ લહેવું, તે આલસમાંહિ ગંગાજી. તોરણથી રથ ફેરી ગયા રે હાં, પશુઆં શિર દેઈ દોષ મેરે વાલમાં. અહીં તો ઉદાહરણરૂપે કેટલી પંક્તિઓ જ છે. આવી તો સેંકડો મનોરમ પંક્તિઓ જૈન સ્તવન સાહિત્યમાંથી સાંપડશે કે જેમાં કવિના અંતરની સ્વાભાવિક સઘન ઊર્મિઓ લયબદ્ધ શબ્દદેહ પામી હોય. જૈન સ્તવન સાહિત્યનો ખજાનો ભરપૂર છે. જૈન સ્તવન સાગરમાં વર્ણ, જાતિ, સંપ્રદાયના ભેદ ભૂલીને જે કોઈ ડૂબકી લગાવે એના હાથમાં સાચા મૌક્તિક આવ્યા વગર રહે નહી. સંદર્ભ: ૧. મધ્યકાલીન ગુજરાતી સાહિત્યનો ઈતિહાસ, ડૉ.રમેશ ત્રિવેદી, આદર્શ પ્રકાશન, ગાંધીમાર્ગ, અમદાવાદ, ચોથી આવૃત્તિ-૨૦૦૪ ૨. સાંપ્રત સહ ચિંતન રમણલાલ ચી.શાહ, આર.આર. શેઠની કંપની, અમદાવાદ, પ્રથમ આવૃત્તિ, ૧૯૯૯ ૩. શ્રી આનંદધન ચોવીશી, સાર્થ, પ્રકાશક, શ્રી ચીમનલાલ અમૃતલાલ વકીલ અને શ્રી બાબુલાલ જેશીંગલાલ મહેતા Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ – ૩, જૂન ૧૯૭૬) રમેશ ઓઝા એ વખતની વાત છે, જ્યારે ઇ.સ. ૧૯૧૭ની છઠ્ઠી જુલાઈએ, પૂનામાં ભાંડારકર ઓરિએન્ટલ રિસર્ચ ઇન્સ્ટિટ્યૂટની સ્થાપના થઈ ચૂકી હતી. પૂનાની ડેક્કન કોલેજનો, મૂલ્યવાન જૂની જૈનહસ્તપ્રતોનો સરકારી ગ્રન્થભંડાર આ ઇન્સ્ટિટ્યૂટમાં ખસેડવામાં આવ્યો હતો. સંસ્થાને આર્થિક દૃષ્ટિએ સધ્ધર કરવાની તાતી જરૂર હતી, તેથી ભાંડારકર ઇન્સ્ટિટ્યૂટના સ્થાપકોનું એક મંડળ મુંબઈ જૈન સમાજને મળવા ગયું હતું. એ વખતે ત્યાં મુંબઈમાં પૂ. પ્રવર્તક કાન્તિવિજયજીનો ચાતુર્માસ ચાલતો હતો. સાથે એમની સેવામાં એક આજાનબાહુ, વિદ્વાન યુવા જૈનમુનિ જિનવિજયજી (ઇ.સ. ૧૯૧૭માં) પણ હતા, પૂ. પ્રવર્તક કાન્તિવિજયજી અનેક જૈનભંડારોના સમુદ્ધારક તેમ જ કિંમતી ગ્રન્થોના પ્રકાશક હતા. મુનિશ્રી જિનવિજયજીએ પૂર્વે (ઇ. સ. ૧૯૧૬) વડોદરામાં પૂ. કાન્તિવિજયજીની પુનિત સ્મૃતિ રૂપે જૈનભંડારોમાં અત્રતત્ર પડેલી ઐતિહાસિક સાધનસામગ્રીને પ્રગટ કરવા મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજીની સાક્ષીએ “પ્રવર્તક કાન્તિવિજય જૈન ઐતિહાસિક ગ્રન્થમાળા' શરૂ કરી હતી. પૂનાથી આવેલા જૈન મંડળને મુનિશ્રી જિનવિજયજીએ ત્યાંની મુંબઈની જૈન સંસ્થા દ્વારા સદ્ગત શ્રી લાલભાઈ કલ્યાણભાઈ ઝવેરીની મદદથી ૨૫,000/- રૂ.ની વ્યવસ્થા કરી આપી હતી. મુનિશ્રીએ પૂનાના ડેક્કન કૉલેજના સમૃદ્ધ જ્ઞાનભંડારને જોવાની ઇચ્છા વ્યક્ત કરી, જૈન મંડળે મુનિશ્રીને પૂના આવવા આમંત્રણ પાઠવ્યું. થોડા સમયમાં, ઈ.સ. ૧૯૧૮માં, પ્રબળ જ્ઞાનપ્રાપ્તિની જિજ્ઞાસાને તોષવા, પૂ. પા. પ્રવર્તકજી મહારાજની અનુમતિ લઈ મુનિ જિનવિજયજી મુંબઈથી પગપાળા પૂના ગયા. પૂના વિદ્યાનું કેન્દ્ર હતું. દુર્લભ હસ્તપ્રતો જોઈને મુનિશ્રીને અકથ્ય આનંદ થયો. અનેક વિદ્વાનોનો પણ ત્યાં પરિચય થયો. અહીં લોકમાન્ય ટિળક, પ્રો. રાનડે, પ્રો. ઘોંડો કેશવ કર્વે, પ્રો. બેલ્વલકર જેવા વિદ્વાનોનો પરિચય થયો. પ્રો. રસિકલાલ છો. પરીખ એ વખતે ત્યાંની ફર્ગ્યુસન કૉલેજમાં ભણતા હતા ને ભાંડારકર ઇન્સ્ટિટ્યૂટની હસ્તપ્રતોની વર્ણનાત્મક સૂચિ તૈયાર કરવામાં મુનિજીને મદદ કરતા હતા. સંસ્કૃત-પ્રાકૃત ભાષાના વિદ્વાન તેમજ ભાષાવિજ્ઞાનના અભ્યાસી ડૉ. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 રમેશ ઓઝા SAMBODHI પાંડુરંગ ગુણે જર્મનીની લેસિંગ યુનિ.ની પીએચ.ડી. (ઇ.સ. ૧૯૧૩)ની ઉપાધિ પ્રાપ્ત કરી, અહીંની ન્યૂ ઇંગ્લીશ સ્કૂલમાં જર્મન ભાષા શીખવતા હતા. મુનિ જિનવિજયજીને એમનો પણ ઘનિષ્ઠ પરિચય થયો. મુનિજીએ ડૉ. ગુણેને, જૈન ભંડારોમાં અપભ્રંશ ભાષા-સાહિત્યની સચવાયેલી અસંખ્ય હસ્તપ્રતોનો ખ્યાલ આપ્યો. ડૉ. ગુણે પણ મુનિશ્રી સાથે ઉત્સાહથી આ વિદ્યાકાર્યમાં જોડાયા. ત્યાં મુનિશ્રીના વડોદરા નિવાસી મિત્ર અને સુહૃદ શ્રી ચિમનલાલ દલાલના અવસાનના સમાચાર મળ્યા. શ્રી દલાલ વડોદરાની “ગાયકવાડ ઑરિએન્ટલ સિરીઝ’ના મુખ્ય સંપાદક હતા. શ્રી દલાલનું એક અધૂરું રહેલું ‘ભવિસ્મયજ્ઞકહા'નું સંપાદનકાર્ય, મુનિજીએ સિરીઝના મુખ્ય વ્યવસ્થાપક શ્રી કુડાલકરને સૂચના આપીને, ડૉ. ગુણેને સોંપ્યું. મહાકવિ પુષ્પદંતની ‘તિસદ્દીલખણ મહાપુરાણ” અને કવિ સ્વયંભૂકૃત “પઉમચરિઉ તેમ જ હરિવંશપુરાણની પ્રતો પણ પૂનાના આ સંગ્રહમાં સુરક્ષિત સચવાયેલી હતી. વિદ્વાન પંડિત શ્રી નાથુરામજી પ્રેમી પણ પૂના આવતા અને મુનિશ્રીને ત્યાં વિદ્યાવ્યાસંગ અર્થે રોકાતા. જૈન સાહિત્યના વિપુલ સાહિત્ય-પ્રકાશન-સંશોધન અંગે મુનિશ્રીએ “જૈન સાહિત્ય સંશોધક' નામનું ત્રમાસિક શરૂ કર્યું. એ સૈમાસિકમાં પંડિત નાથુરામજીએ “પુષ્પદન્ત અને એનું મહાપુરાણ' વિશે વિસ્તૃત પરિચયાત્મક લેખ લખ્યો અને અપભ્રંશ સાહિત્યના એક મહાકવિના ગ્રન્થનો વિદ્વાનોને પરિચય કરાવી આપ્યો. આ રૈમાસિકનો ઉદ્દેશ જૈન સાહિત્ય-ઇતિહાસ, તત્ત્વજ્ઞાન વગેરે વિશે હિન્દી, ગુજરાતી તેમજ અંગ્રેજીમાં સચિત્ર લેખો પ્રગટ કરવાનો હતો. મૌલિક સંશોધનાત્મક લેખો, પ્રાચીન કૃતિઓ તેમજ જર્મન કે અંગ્રેજી ભાષામાં પ્રગટ થયેલા સંશોધનાત્મક લેખોના અનુવાદો એમાં પ્રકાશિત થતા હતા. .સ. ૧૯૧૯માં અખિલ ભારત પ્રાચ્ય વિદ્યાપરિષદ (ઑલ ઇન્ડિયા ઑરિએન્ટલ કૉન્ફરન્સ)નું પહેલું અધિવેશન પૂનામાં મળ્યું. જર્મનીની ગોરિંજન યુનિ. દ્વારા પીએચ.ડી.ની ડિગ્રી (ઇ.સ. ૧૮૮૫) પ્રાપ્ત કરીને, મુંબઈ યુનિ.ના કુલપતિ (ઇ.સ. ૧૮૯૩) રહી ચૂકેલા આંતરરાષ્ટ્રીય ખ્યાતિ ધરાવતા પુરાતત્ત્વવિદ ડૉ. રામકૃષ્ણ ગોપાળ ભાંડારકર એ અધિવેશનના પ્રમુખ હતા. ડૉ. પિશલની જેમ પ્રાકૃત ભાષાના પ્રૌઢ પંડિત અને જર્મનીમાં જૈન સાહિત્યના અધ્યયન-સંશોધનના પ્રમુખ પુરસ્કર્તા ડૉ. હર્મન યાકોબી પણ આ અધિવેશનમાં હાજર હતા. જો કે યાકોબી અનેક વાર વિદ્યાભ્યાસ અર્થે ભારત આવતા રહેતા. ઇ.સ. ૧૮૭૪માં જર્મન વિદ્વાન બ્યુલરે ઊંટ ઉપર મુસાફરી કરીને જેસલમેરના ગ્રંથો તપાસ્યા ત્યારે ડૉ. હર્મન યાકોબી પણ સાથે હતા. દેશ-વિદેશના પ્રાચ્યવિદ્યા સંશોધન અંગેનું આ પહેલું સંસ્થાકીય સંમેલન હતું. આ સંમેલનમાં મુનિશ્રીએ પણ પૂર્ણ સહયોગ આપ્યો. પરિષદમાં એમણે “હરિભદ્રાચાર્યસ્ય સમયનિર્ણય:' નામે એક સંસ્કૃત નિબંધ રજૂ કર્યો. નિબંધ આધુનિક સંશોધન પદ્ધતિ અનુસાર, પ્રૌઢ સંસ્કૃત ગદ્યમાં હતો. પ્રો. યાકોબી, પ્રો. પાઠક અને ડૉ. સતીષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણે તાત્ત્વિક ચર્ચા કરી, એ લેખમાં હરિભદ્રસૂરિનો સમય ઇ.સ. ૭૦૧ થી ૭૭૧ સુધીનો છે, એવું મુનિજીએ અકાટ્ય પ્રમાણો દર્શાવીને સિદ્ધ કર્યું છે. યાકોબીએ હરિભદ્રસૂરિકૃતિ પ્રાકૃત ગ્રંથ “સમરાઈથ્ય કહા'નું સંપાદન અગાઉ કર્યું હતું. મુનિજીએ સિદ્ધ કરેલા હરિભદ્રસૂરિના સમયનિર્ણય વિશેનો તર્કબદ્ધ લેખ સાંભળીને ત્યાં હાજર રહેલા Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vol. XL, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮– ૩, જૂન ૧૯૭૬) 219 ડૉ. યાકોબીએ પોતાનો મત બદલીને, મુનિજીના સમર્થનમાં એમનો મુક્તકંઠે સ્વીકાર કર્યો હતો. પંડિત સુખલાલજીએ જયારે “સમદર્શ આચાર્ય હરિભદ્ર' વિશે મુંબઈ યુનિવર્સિટીમાં વ્યાખ્યાનો આપ્યાં ત્યારે આ વિદ્યાવર્ધક હકીકતની નોંધ લીધી હતી. ઉત્તરકાળમાં મુનિજીએ ચિત્તોડમાં હરિભદ્રસૂરિ સ્મૃતિમંદિર (સ્મારક) ઊભું કર્યું હતું. પૂનાની જૈન સાહિત્ય સંશોધક સમિતિએ મુનિશ્રીના અન્ય સંપાદિત ગ્રન્થો પણ પ્રગટ કર્યા : ‘ખરતર ગચ્છ પટ્ટાવલિ સંગ્રહ’, ‘આચારાંગ સૂત્ર', “કલ્પ-વ્યવહાર-નિશીથ સૂત્રાણિ, ‘જીતકલ્પસૂત્ર', વિજયદેવમાહાભ્ય' આદિ. ઇ.સ. ૧૯૨૦માં મુનિશ્રી ઇન્ફલુએન્ઝાના વરમાં સપડાયા. અમદાવાદથી પં. સુખલાલજીએ શ્રી રમણીકલાલ મોદી અને એમનાં પત્ની તારાબેનને મુનિજીની સારવાર માટે પૂના મોકલ્યાં. દંપતીએ ઠીક સારવાર કરી. મુનિજી સ્વસ્થ થયા. પૂનાનું તેમનું નિવાસસ્થાન લોકમાન્ય ટિળકના નિવાસ પાસે હતું. ઇતિહાસ, પ્રાચ્ય સંસ્કૃતિ તેમ જ સંશોધન પરત્વે ટિળકનાં રસ-રુચિ તેમ જ જ્ઞાન અગાધ હતાં. મુનિજીનો એમનાથી પરિચય થાય એ સહજ હતું. ટિળકના સ્વાધીનતા અંગેના વિચારો તેમજ રાજનૈતિક વિચારોથી મુનિજી પ્રભાવિત થયા. દેશ જ્યારે પરાધીન હોય ત્યારે આમ નિષ્ક્રિય સાધુજીવન કે બાહ્ય ત્યાગી જીવન મુનિજીને કઠતું હતું. તેઓ કોઈ નવા માર્ગની શોધમાં હતા. ત્યાં ઇ.સ. ૧૯૧૯માં પૂનાની સર્વેટ્સ ઑફ ઇન્ડિયા સોસાયટીના ભવનમાં મુનિજી મહાત્મા ગાંધીને મળી ચૂક્યા હતા. ગાંધીજીએ અસહકારનું આંદોલન આરંભ્ય. અંગ્રેજી શિક્ષણના બહિષ્કાર સાથે, રાષ્ટ્રીય શિક્ષાપદ્ધતિ ઊભી કરવાના વિચારને ગાંધીજી અમદાવાદમાં મૂર્તિરૂપ આપવા માગતા હતા. રાષ્ટ્રીય વિદ્યાપીઠ સ્થાપવાનો ગાંધીજીનો વિચાર હતો. એ વખતે ગાંધીજીએ મુનિશ્રી જિનવિજયજીને યાદ કર્યા. જો કે મિત્રો દ્વારા મુનિશ્રીને એ માહિતી મળી ચૂકી હતી કે ટૂંક સમયમાં સ્થપાનારી વિદ્યાપીઠમાં પોતાને ફાળે મહત્ત્વની ભૂમિકા આવવાની છે. આસો સુદ તેરસનો દિવસ હતો. મુંબઈ ગાંધીજીને મળવા જવાનું હતું. એક વિદ્યાર્થી સાથે ટ્રેઈનની ટિકિટ મંગાવી. પોતે જે રૂમમાં રહેતા હતા. તેમાં કેટલાંક પુસ્તકો અને થોડો સામાન હતો. એ જેમનો તેમ રાખીને તાળું મારીને ચાવી વિદ્યાર્થીને આપી દીધી. પોતે સાધુવેશમાં જ ગાડીમાં બેસી મુંબઈ ઊપડ્યા. જીવનનો આ નવો વળાંક હતો. જયારે સાધુજીવનના માર્ગે પ્રયાણ કર્યું ત્યારે પણ એ દિવસ આસો સુદ તેરસનો હતો. મુંબઈ બોરીબંદર સ્ટેશને ઊતર્યા. ઘોડાગાડી કરી ગોરેગાંવ ચંદાવાડી ગયા. સાથે એમના ઘનિષ્ઠ મિત્ર નાથુરામજી પ્રેમી હતા. ગાંધીજીને મળવાનો સંદેશો જેમના દ્વારા મળ્યો હતો, તે શેઠશ્રી જમનાલાલજી બજાજ પણ સાથે જ હતા. બીજે દિવસે મણિભવનમાં ગાંધીજીને મળ્યા. ગાંધીજીએ ક્ષેમકુશળના સમાચાર પૂછ્યા. મુનિજીને મળીને વિદ્યાપીઠની યોજના બનાવવા અંગે વાત કરી. એ જ દિવસે પોતાની સાથે અમદાવાદ આવવા ગાંધીજીએ મુનિજીની રેલવેની ટિકિટનો પ્રબંધ કરાવ્યો. કોલાબા સ્ટેશનથી, બીજા વર્ગના કમ્પાર્ટમેન્ટમાં, ગુજરાત મેલમાં અમદાવાદ જવાનું નક્કી થયું. ગાંધીજીની રિઝર્વ સીટ પણ સાથે જ હતી. ગાંધીજી આણંદ સ્ટેશને ઊતરીને ડાકોર, શરદપૂનમના મેળામાં અસહકારના આંદોલન અંગે લોકોને જાગ્રત કરવા એક સભાને સંબોધવા ગયા. ત્યાં આણંદ સ્ટેશને અમદાવાદથી અનેક લોકો Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 રમેશ ઓઝા SAMBODHI આવ્યા હતા. એમાં ગાંધીજીના એક અંતેવાસી સી. એફ. એન્ડ્રુઝ પણ હતા. ગાંધીજીએ મુનિશ્રીનો પરિચય એન્ડઝને કરાવ્યો. બીજે દિવસે ગાંધીજી અમદાવાદ આવ્યા. મુનિજીને એમની સાથે ગાડીમાં બેસાડ્યા. સાબરમતી આશ્રમમાં ગયા. ગાંધીજીએ પોતાના બેઠક રૂમમાં જ મુનિશ્રીનો સામાન મુકાવ્યો ને કસ્તૂરબાને મુનિશ્રીના આહારવિહાર વિશે ઝીણી ઝીણી બાબતો સમજાવી. આશ્રમના અન્ય શ્રેષ્ઠીઓ તેમ જ વિદ્વજનોને મુનિજીનો, સાહિત્ય અને તત્ત્વજ્ઞાનના ઊંડા અભ્યાસી તરીકે પરિચય કરાવ્યો. વિશેષમાં કસ્તુરબાને કહ્યું, “મુનિજી પૂનામાં સાહિત્ય અને શિક્ષણની વિશિષ્ટ પ્રવૃત્તિ કરી રહ્યા છે, ત્યાં વિદ્વાનોમાં આદરપાત્ર છે, અને આપણે જે રાષ્ટ્રીય વિદ્યાપીઠ ઊભી કરવા જઈ રહ્યા છીએ, એમાં તેઓ પોતાની સેવા આપવા માગે છે, એટલે એમને અહીં આમંત્રિત કર્યા છે.” રાષ્ટ્રીય વિદ્યાપીઠના અનુસંધાનમાં શ્રી કિશોરલાલ મશરૂવાળા, શ્રી નરહરિ પરીખ, શ્રી ઇન્દુલાલ યાજ્ઞિક, શ્રી રા. વિ. પાઠક, શ્રી રસિકલાલ પરીખ વગેરે સાથે ચર્ચા-વિચારણા થતી રહી. મુનિજી પોતાના સાધુજીવનના આચાર-વ્યવહાર બદલવા માગતા હતા, પોતાના મનોમંથનને અનુકૂળ રહેવા સાધુવેશ તેમજ આહારવિહારમાં પરિવર્તન લાવવા ઝંખતા હતા. દેશના એક સામાન્ય સેવક તરીકે વિદ્યાપીઠમાં જોડાવા માગતા હતા. વિદ્યાપીઠમાં જોડાતાં પહેલાં પૂના જઈને જાહેર વક્તવ્ય દ્વારા એ પોતાનો મનોભાવ જાહેર કરવા માગતા હતા. ગાંધીજીએ એમ કરવા મુનિજીને અનુમતિ આપી. અનુમતિ લઈને, મુનિજી પહેલાં કાઠિયાવાડના વઢવાણ પાસેના લીમડી ગામે ગયા. મુનિજીના સુહૃદમિત્ર અને સાથી પ્રજ્ઞાચક્ષુ પંડિત સુખલાલજી નાદુરસ્ત તબિયતને કારણે લીમડીમાં રોકાયા હતા. મુનિજીએ પંડિતજીને રાષ્ટ્રીય વિદ્યાપીઠ સંદર્ભે ગાંધીજી સાથે થયેલા વિચાર-વિમર્શની તેમજ ભાવિ કાર્યક્રમ અંગે બધી વાત કરી. ઇ.સ. ૧૯૨૦ની ઑક્ટોબરની ૧૯મી તારીખે રાષ્ટ્રીય વિશ્વવિદ્યાલય (ગુજરાત વિદ્યાપીઠ)ની સ્થાપના થઈ. પ્રાચીન ઇતિહાસ અને સાહિત્યના અધ્યયન-સંશોધન માટે વિદ્યાપીઠમાં “ગુજરાત પુરાતત્ત્વ મંદિરની શરૂઆત થઈ. નામકરણ પણ મુનિજીએ જ કર્યું. માત્ર બત્રીસ વર્ષના યુવા મુનિને સંસ્થાના આચાર્ય તરીકે નિયુક્ત કર્યા. મુનિશ્રીએ કૉલેજ કે વિશ્વવિદ્યાલયમાં ક્યારેય અભ્યાસ કર્યો નહોતો કે એ સંસ્થાઓની કોઈ ઉપાધિ (ડિગ્રી) એમની પાસે નહોતી. મુનિજીની વિદ્વદ્ સંશોધકની પ્રતિભા તેમજ ગાંધીજીની કોઠાસૂઝ નીતરતી પરખને કારણે જ આ વિદ્યાકીય ઘટના બની. પોતાના સાધુવેશ તેમ જ આહાર-વિહાર-વિચારમાં જરૂરી ફેરફારો કરી મુનિજી રાષ્ટ્રસેવક બનીને પુરાતત્ત્વ મંદિરના નિયામક નિમાયા. અહીં પુરાતત્ત્વ મંદિરમાં રહીને ગ્રન્થાવલીરૂપે અનેક મહત્ત્વપૂર્ણ ગ્રંથોનું પ્રકાશન કર્યું. મુનિજીના વિદ્યાતપને લીધે આ વિદ્યાકેન્દ્રને સારી એવી પ્રતિષ્ઠા મળી. શ્રી રસિકલાલ પરીખ પુરાતત્ત્વમંદિરના મંત્રી નિયુક્ત થયા. બૌદ્ધ વિદ્વાન શ્રી ધર્માનંદ કોસાંબી, પંડિત બેચરદાસ દોશી (ભાષાવિદ્ ડૉ. પ્રબોધ પંડિતના પિતાજી), શ્રી કાકા કાલેલકર, શ્રી કિ.ઘ. મશરૂવાળા, શ્રી મૌલાના સૈયદ અબુઝફર નદવી, શ્રી રા. વિ. પાઠક, પંડિત સુખલાલજી સંઘવી જેવા વિશિષ્ટ વિદ્વાનો અને સંશોધકો વિદ્યાપીઠમાં હતા. વિદ્યાકેન્દ્રની પ્રતિષ્ઠાથી આકર્ષાઈને, અધ્યયન-સંશોધનની જાણકારી માટે ભારતીય વિદ્યા (Indology)ના જર્મન વિદ્વાન ડૉ. શુબિંગ (પીએચ.ડી.), પ્રો. વૉલર સાથે Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮– ૩, જૂન ૧૯૭૬) 221 વિદ્યાપીઠમાં (ઈ.સ. ૧૯૨૫) આવ્યા હતા. ડૉ. વૉલધેર તેમજ શુબિંગ જર્મનીની હેમ્બર્ગ યુનિ.માં ભારતીય સાહિત્ય અને સંસ્કૃતિ વિભાગમાં હતા અને જર્મનીના તે સમયના વિદ્વાનોમાં જૈન સાહિત્યના મહાન વિદ્વાન ગણાતા હતા. પં. સુખલાલજી અને પં. બહેચરદાસ દોશી એ વખતે સિદ્ધસેન દિવાકરકૃત ન્યાયગ્રન્થ “સન્મતિ તર્ક તથા તે ઉપરની અભયદેવસૂરિની વિરાટ ટીકા “વાદ મહાર્ણવ'નું સંપાદન કરતા હતા. વિદ્યાકીય સંશોધનની કાર્યશૈલી જોઈને પ્રો. શુબ્રિગે પોતાના શિષ્યોને તાલીમ માટે વિદ્યાપીઠમાં મોકલવાની ઇચ્છા વ્યક્ત કરી હતી. તેઓ મુનિજીના સાનિધ્યમાં રહ્યા હતા. મુનિજીને જર્મનીની મુલાકાત માટે નિમંત્રણ પાઠવ્યું હતું. પ્રો. શુબિંગનાં પુત્રી મિસ સાના શુબિંગ પાસેની અપ્રગટ ડાયરીમાંનું એક અવતરણ, જર્મન સંશોધક ડૉ. ડબલ્યુ. એચ. બોલી (Bollee)એ ડૉ. ભોગીલાલ સાંડેસરાને મોકલેલું. તે મુનિ જિનવિજયજીના તપસ્વી વ્યક્તિત્ત્વને આ રીતે વ્યક્ત કરે છે : (Visit and lecture in Ahmedabad) "Jinavijaya was in the chair. I knew him already as the soul of a very well equipped institute in which he leads his scholarly life. He too, like Mody befroe him, after a long time visited Hambarg. Jinavijaya, a Rajput by birth (which explains his tall stature) has been told by Gandhi in person to pay attention not only to the spiritual life, but also to practical ends." પુરાતત્ત્વમંદિરનો કાર્યભાર સંભાળતાં-સંભાળતાં મુનિજી અધ્યયન-સંશોધનમાં રત રહેતા. અધ્યયનશીલ છાત્રો માટે કેટલીક અભ્યાસપોથીઓ તેમણે તૈયાર કરી. મોગ્દલાન થેરકૃત પાલિ શબ્દકોશ “અભિધાનપ્પ દીપિકા', “પાલિ પાઠાવલી', “પ્રાકૃત કથાસંગ્રહ, પ્રાચીન ગુજરાતી ગદ્યસંદર્ભ' જેવાં છાત્રોને ઉપયોગી ગ્રન્થોનું સંપાદન કર્યું. વિદ્યાપીઠે સંસ્કૃત સાથે પ્રાકૃત અને પાલી ભાષા વિના જૈન-બૌદ્ધ જેવી આર્ય ધર્મની બે શાખાઓ વિશેનું અધ્યયન થઈ નહીં શકે એમ માની એ બે ભાષાઓના અધ્યયનની અનિવાર્યતા પ્રમાણી. તેથી કોપન હેગન યુનિ.(જર્મની)ના પ્રો. ડેનિસ એન્ડર્સને (પીએચ.ડી.) પાલી ભાષા માટે તૈયાર કરેલી “Pali Readers'ને આધારે મુનિ જીએ ‘પાલિ પાઠાવલી' (ઇ.સ. ૧૯૨૨-વિ.સં.૧૯૭૮) તૈયાર કરી. ઇ.સ. ૧૯૨૧ (સં.૧૯૭૭)ની શ્રાવણી પૂનમે ગુજરાત વિદ્યાપીઠમાં આર્યવિદ્યા વ્યાખ્યાનમાળા અન્વયે “પુરાતત્ત્વ સંશોધનનો પૂર્વ ઇતિહાસ વ્યાખ્યાન આપ્યું. ભારતમાં આધુનિક દૃષ્ટિકોણથી પુરાતત્ત્વનું સંશોધન કેવી રીતે શરૂ થયું, એનો રસમય-રસપ્રદ શૈલીમાં મુનિજીએ પરિચય આપ્યો છે. આ વ્યાખ્યાન શ્રેણી અન્વયે આઠ વ્યાખ્યાનો આપ્યાં. આ જ વરસે નાગપુરમાં મળેલા કોંગ્રેસ અધિવેશનમાં મુનિજી ગાંધીજીની સાથે ગયા. ત્યાં મળેલી જૈન પૉલિટિકલ કૉન્ફરન્સના અધ્યક્ષ થયા. પૂનાના જૈનોએ સમેતશિખર તીર્થની યાત્રા માટે સ્પેશિયલ ટ્રેઈનનો પ્રબંધ કર્યો હતો. મુનિજી સંઘની સાથે ગયા. બિહારનાં જૈન તીર્થોનાં દર્શન કર્યા. ત્યાંથી કલકત્તા ગયા. ત્યાંના જૈન સંઘે તેમનું સંમાન કર્યું, માનપત્ર આપ્યું. વિદ્યાપીઠમાં રહીને તેમણે પુરાતત્ત્વમંદિર ગ્રંથાવલીનું સંપાદન કરી, મૂલ્યવાન ગ્રંથો પ્રગટ કર્યા. “પુરાતત્ત્વ' ત્રૈમાસિક પ્રગટ કર્યું. શ્રી રસિકલાલ પરીખ “પુરાતત્ત્વ'ના સંપાદક-તંત્રી થયા. પૂર્વે Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 રમેશ ઓઝા SAMBODHI શ્રી પરીખ ઇ.સ.૧૯૧૬માં પૂનામાં મુનિશ્રી પાસે હેમચંદ્રનું પ્રાકૃત વ્યાકરણ ભણ્યા હતા. મુનિશ્રીની સરળતા, ઉદારતા, તેજસ્વીતા, વિદ્વત્તા તેમજ સંશોધનદષ્ટિથી આકર્ષાયા હતા. આ પુરાતત્ત્વમંદિરમાં શ્રીમદ્ રાજચંદ્ર જ્ઞાનભંડારને આમેજ કર્યો હતો. સંસ્કૃત, પ્રાકૃત, પાલિ ભાષાના સાહિત્યગ્રંથો તેમજ અંગ્રેજી, જર્મન, ફ્રેન્ચ, હિન્દી, બંગાળી, ગુજરાતી સંશોધન વિષયક પુસ્તકો તેમ જ જર્નલોનો અમૂલ્ય ખજાનો અહીં હતો. જ્ઞાન અને સંશોધનક્ષેત્રે, મુનિજીને કંઈક નવું કરવાની અદમ્ય ઝંખના રહેતી હતી. આ ઝંખના જ એમને ઉત્તમ ગ્રંથોનું વાચન-મનન-ચિંતન-સંપાદન કરાવવામાં પ્રેરકબળ બની રહી. ગૃહત્યાગ કરીને, સાધુજીવન અંગીકાર કર્યાને વીસ વરસ થઈ ગયાં હતાં. શુષ્ક સાધુજીવન છોડી, ગાંધીજી સાથે સક્રિય રાષ્ટ્રસેવક થયા. ગૃહત્યાગ વખતે માને છોડીને આવેલા. એક રાતે ગુજરાતી ભાષામાં રચાયેલો જૈનરાસ વાંચતા હતા. એમાં એક પ્રસંગ હતો. માતાના પુત્રવિયોગના વિલાપનું એમાં વર્ણન હતું. વાંચ્યું. હૃદયમાં તીવ્ર વેદના જાગી. “માનાં દર્શન કયારે કરું ? મા હશે ? ક્યાં હશે ?” પુસ્તક બાજુમાં મૂકી દીધું. પોતે સાક્ષાત રૂદનમાં ડૂબી ગયા. હૃદયની વિહ્વળતા માટે શબ્દો નહોતા. રાત્રે ઊંઘ ન આવી. બીજે જ દિવસે વિ. સં. ૧૯૭૮ (ઇ.સ. ૨૦૨૨) મહા વદ નોમને સોમવારે કોઈને કંઈ પણ કહ્યા વિના એકલા બપોરે અમદાવાદ સ્ટેશનેથી ઉપડતી અઢી વાગ્યાની અજમેર જતી ગાડીમાં બેસી ગયા. હૃદયમાં વિસ્મૃત જનની અને જન્મભૂમિના દર્શનની ઉક્ટ તાલાવેલી હતી. બીજે દિવસે સવારે અજમેર સ્ટેશન ઉપર ઉતર્યા. ચિતોડ-ખંડવા લાઈનની ગાડીમાં બેસી એમની જન્મભૂમિ રૂપાયેલી જવા આગળ વધ્યા. ખાદીનો લાંબો ભગવો ઝભ્યો ને ખાદીનું ધોતિયું પહેર્યા હતાં. માથું ખુલ્યું હતું. હાથમાં નેતરની મોટી સોટી હતી. શણનો મોટો થેલો ખભે લટકાવેલો હતો. એમાં પાથરવા માટેની શેતરંજી, ઓઢવાનો કામળો અને લોટો-પ્યાલો રાખ્યાં હતાં. અનેક વિચારો આવતા ગયા. વીસ વરસે ગામમાં કોઈ પરિચિત હશે? કોને મળું? મા હશે કે નહીં? હશે તો કયાં હશે? કોની પાસે ? વિચારોના ચકરાવામાં પોતે ખૂંપવા લાગ્યા. એ વખતે રૂપાયેલીમાં ઠાકુર શ્રી ચતુરસિંહજી હતા. તેઓ વિદ્વાન અને વિદ્યાપ્રેમી હતા. પંડિત ગૌરીશંકર ઓઝાએ મુનિજીની કૃતિઓનો ચતુરસિંહજીને પરિચય કરાવેલો એવી મુનિજીને ખબર હતી. જો કે મુનિજી ક્યારેય ચતુરસિંહજીને પ્રત્યક્ષ મળ્યા નહોતા. એમને મળવું કે માતાની શોધ કરવી? જે ઘર છોડ્યું હતું તે હશે કે નહીં? મનમાં વિચારોની ભીડ હતી, રૂપાવેલી સ્ટેશન સૂમસામ હતું. સ્ટેશન માસ્તરે ટિકિટ માગી. આપી. અજાણ્યા મુસાફરને તે ટીકી ટીકીને જોવા લાગ્યો. એણે પણ પૂછતાછ કરી. મુનિજીએ નમ્રતાથી ઉત્તર આપ્યો. રૂપાયેલી સ્ટેશનથી ગામ અઢી-ત્રણ માઈલ દૂર હતું. ચાલતાં ચાલતાં પોતાના હોઠ પર હાથ ગયો – એક મેદાન આવ્યું. ગિલ્લી-દંડો રમતાં જમણાં હોઠ પર ગિલ્લી વાગેલી. લોહી આવેલું. યતિ દેવહંસજીએ દવા લગાડેલી. સઘળું સ્મૃતિપટ ઉપર તરવરી રહ્યું. ગામમાં પ્રવેશ કર્યો. ગામની વચ્ચે નાની બજાર આવી. ત્યાં ચારભૂજાજીના વૈષ્ણવ મંદિરના દરવાજા પાસે ચબૂતરા પર થેલો મૂકીને મુનિજી બેઠા. ત્યાં એક પૂજારી જેવો લાગતો બ્રાહ્મણ બેઠો હતો. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vol. XLI, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ – ૩, જૂન ૧૯૭૬) 223 તેમણે મેલું ધોતિયું પહેર્યું હતું. મુનિજીએ તેને નમસ્કાર કર્યા. પૂછ્યું “આ મંદિરના પૂજારી તમે છો?' બ્રાહ્મણે અચરજથી મુનિજી સામે જોયું. પૂછ્યું, “ક્યાંથી આવો છો ? કોણ છો ?' મુનિજીએ કહ્યું, અમદાવાદથી આવું છું. શિક્ષક છું.” મુનિજીએ પાસેના ઉપાશ્રય સામે જોઈને પૂજારીને પૂછ્યું, ‘ઉપાશ્રયમાં કોઈ યતિજી છે ?” પૂજારીએ કહ્યું, “કોઈ યતિ નથી.' મુનિજીએ પૂછ્યું, “ઉપાશ્રય ખાલી પડ્યું છે, તો એનો વહીવટ કોણ કરે છે?” પૂજારીએ કહ્યું, “ઓસવાલ મહાજન કરે છે.” પછી તો મુનિજીએ બાજુની મહાજનની દુકાન વિશે, એના માલિક વિશે, એના નામ વિશે પૃચ્છા કરી. પૂજારી નવાઈ પામ્યો. તેણે પૂછ્યું, “આ પહેલાં કદી અહીં આવ્યા છો ?” મુનિજીએ કહ્યું કે પોતે તેવીસ વર્ષ ઉપર અહીં એક જૈન યતિ જોડે રહેલા. તે ખૂબ વૃદ્ધ હતા, વૈદ્ય હતા. પછી ક્યારેય આવવાનું થયું નથી. આ રીતની વાત બ્રાહ્મણ સાથે ચાલતી હતી ત્યાં ગઢમાંથી એક માણસ આવ્યો. કુંવરસાહેબનો નોકર હતો. એણે કડક અવાજમાં પૂજારીને કહ્યું, “પૂજારીજી, આ અજાણ્યો માણસ ક્યાંથી આવ્યો છે? એના સમાચાર ગઢમાં કુંવરસાહેબને મળી ગયા છે. એમણે તાબડતોબ આ અજાણ્યા માણસને ગઢમાં હાજર થવા કહ્યું છે.” પૂજારી મૂંગો થઈ ગયો. મુનિજી પણ સ્તબ્ધ થઈ ગયા. એણે તો ફરીથી હુકમ કર્યો. “ચાલો, ઠાકુરસાહેબનો હુકમ છે કે જે માણસ હમણાં સ્ટેશનેથી ગામમાં આવ્યો છે, તેને ઝડપથી હાજર કરો.” મુનિજી પરિસ્થિતિ પામી ગયા. ભારતને સ્વતંત્રતા અપાવવા ગાંધીજીએ દેશવ્યાપી આંદોલન કરેલું. અંગ્રેજ સત્તાને ઉખેડીને ફેંકી દેવાની વાત હતી. અસહકારના આંદોલનના પડઘા દેશી રાજયોમાં પણ પડ્યા હતા. દેશી રાજ્યોની સ્થિતિ ગુલામોના પણ ગુલામ જેવી હતી, તેથી અંગ્રેજ સત્તાની વિરુદ્ધ કોઈ હિલચાલ દેશી રાજ્યોમાં ન થાય એની સીધી કે આડકતરી સૂચનાઓ બધાં દેશી રાજ્યોમાં અંગ્રેજ શાસકો દ્વારા આપવામાં આવી હતી. આ પ્રકારના રાજ્યોમાં તેમજ જાગીરદારી વિસ્તારોમાં આ સૂચનાઓનું કડક પાલન થતું હતું. કોઈ આંદોલનનો પ્રચાર કરવા આવે કે કોઈ અજાણ્યો માણસ જેતે વિસ્તારમાં પ્રવેશે નહીં તેનું ધ્યાન રખાતું. ઠાકુરસાહેબને રૂપાયેલી સ્ટેશન પરથી બાતમી મળી ગઈ હતી, કે કોઈ અજાણ્યો લાગતો માણસ રૂપાલી આવે છે, એનું કોઈ સગું ત્યાં નથી એટલે એમણે મુનિજીને પૂછપરછ માટે ગઢમાં બોલાવ્યા. ચબૂતરે થેલો મૂક્યો. પૂજારીને તે સાચવવા કહ્યું, પોતે નોકર સાથે ગઢમાં ગયા. મુનિજીએ બાળપણમાં ગઢ જોયેલો હતો. અંદર કયારેય ગયા નહોતા. મુનિજીનું મન વિલક્ષણ કુતૂહલથી પરેશાન હતું. દરવાજાની અંદર તૂટેલી સીડી હતી. મુનિજી સીડી ચઢી, એક ઓરડાની પાસે ગયા. નોકરે ત્યાં જ ઊભા રહેવા કહ્યું : પોતે કુંવરસાહેબને જાણ કરવા ગયો. થોડીવારમાં તે આવ્યો. મુનિજીએ અંદર કુંવરસાહેબ પાસે જવા હુકમ કર્યો. કુંવરસાહેબ જૂની ખુરશી પર બેઠા હતા. મુનિજીએ બે હાથ જોડી નમ્રતાપૂર્વક નમસ્કાર કર્યા. કુંવરસાહેબ અંદરના ભાગમાં ઊભેલા બે માણસો સાથે કંઈક વાતચીત કરતા હતા. કુંવરસાહેબે તીક્ષ્ણ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 રમેશ ઓઝા SAMBODHI વેધક નજરે મુનિજી સામે જોયું. કુંવરસાહેબે નમસ્કારની નોંધ સુધ્ધાં લીધી નહીં. બે એક મિનિટ પછી, પેલા માણસો સાથે વાત કરીને, કુંવરસાહેબે મુનિ સામે ધારી ધારીને જોતાં પૂછ્યું, “તમે ક્યાંથી આવ્યા છો ?' મુનિજી – “અમદાવાદથી”. કુંવરસાહેબ – ‘ત્યાં શું કરો છો?' મુનિજી – ‘થોડું લખવા-વાંચવાનું અને થોડું વિદ્યાર્થીઓને ભણાવવાનું કુંવરસાહેબ – “માસ્તર છો ?” મુનિજી – ‘માસ્તર તો નથી પણ આમ જ વિદ્યાલયમાં કામ કરું છું.” કુંવરસાહેબ – ‘વિદ્યાલયનું નામ શું છે? કોણ ચલાવે છે એ ?' મુનિજી – ‘મહાત્મા ગાંધીએ એની સ્થાપના કરી છે, ગુજરાતની એ ખૂબ જાણીતી સંસ્થા છે.” મહાત્મા ગાંધીજીનું નામ સાંભળીને તેઓ સાવધ થઈ ગયા. મુનિજીને નીચેથી ઉપર સુધી જોઈ લીધા. મુનિજીના પહેરવેશને ધ્યાનથી જોયો ને પૂછ્યું, ‘તમારું નામ શું છે? તમે ક્યાં રહો છો?” મુનિજીએ પોતાનું નામ બતાવ્યું. અમદાવાદમાં રહે છે એમ કહ્યું. કુંવરસાહેબને “જિનવિજય' નામ ખૂબ અટપટું લાગ્યું. એટલે બે-ત્રણ વાર નામ પૂછ્યું. બાજુના ઓરડામાં ચતુરસિંહજી ઠાકરસાહેબ બેઠા હતા. કુંવર ઠાકુરનું નામ લક્ષ્મણસિંહ હતું ને ચતુરસિંહજીના એ જયેષ્ઠ પુત્ર હતા. ચતુરસિંહજી કુંવર ઠાકુરને ઊંચા અવાજે કોઈની સાથે વાત કરતાં સાંભળતા હતા. એમણે નોકરને બોલાવી મુનિજીને પોતાની પાસે બોલાવ્યા. નોકરે કુંવર ઠાકુરને કહ્યું કે આને અન્નદાતા એમની પાસે બોલાવે છે. મુનિજી ઠાકુર ચતુરસિંહજીના ઓરડામાં પ્રવેશ્યા. મુનિજીએ ચતુરસિંહજીને નમસ્કાર પાઠવ્યા. ઠાકુર ચતુરસિંહજી ઊંચા ઝરૂખાના ચોતરા પર ગાદી-તકિયાના આસન પર બેઠા હતા. બે પુસ્તકો એમની પાસે પડ્યાં હતાં. મુનિજીએ બાળપણમાં એમને જોયેલા હતા, પણ મુનિજીના દીદાર એવા હતા કે ઠાકુર એમને ઓળખી શકે તેમ નહોતા. ચતુરસિંહજીએ મુનિજીને પ્રણામ કરી, પ્રણામનો સ્વીકાર કર્યો. એમને ચોતરા પરની શેતરંજી પર બેસવા કહ્યું. ચતુરસિંહજીનાં વ્યવહાર-વર્તન ઉપરથી જ લાગતું હતું કે તેઓ વધુ પીઢ, સંસ્કારી અને અનુભવી હતા. પોતે વિદ્યાપ્રેમી હતા. વિદ્વજનો પ્રત્યે આદર રાખનારા હતા. ઇતિહાસનાં પુસ્તકો વાંચવામાં એમને રસ હતો. અજમેરના મહામહોપાધ્યાય હીરાચંદજી ઓઝા સાથે એમને ઘનિષ્ઠતા Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ - ૩, જૂન ૧૯૭૬) 225 હતી. મુનિજી એમને મળ્યા એ પહેલાં મુનિજીના નામ કે વિદ્વકાર્યોથી તેઓ પૂરતા વાકેફ હતા, પણ ક્યારેય મુનિશ્રીને પ્રત્યક્ષ મળ્યા ન હતા, મુનિશ્રીના વ્યક્તિત્ત્વનો તેથી કોઈ અંદાજ નહોતો. એમની વાણીમાં કુંવર ઠાકુર જેવી કરડાકી નહોતી. મુનિજીએ આસન લીધું. ચતુરસિંહજીએ વિનમ્રતાથી પૂછ્યું, “આપ ક્યાંથી પધારી રહ્યા છો ? આપનું નિવાસસ્થાન કયાં છે ?” મુનિશ્રીએ કુંવરસાહેબને કહી હતી તે સઘળી વાત કહી. પોતાનો પરિચય આપ્યો. હકીકતો સાંભળી ચતુરસિંહજી સ્તબ્ધ થઈ બોલ્યા, “શું આપ એ જ મુનિ જિનવિજયજી છો જે અમદાવાદ ગુજરાત પુરાતત્ત્વ મંદિરના આચાર્ય છે ?' મુનિજીએ ધીમેથી કહ્યું, “હા ઠાકરસાહેબ, એ જ મુનિ જિનવિજય છું અને આપની આ રૂપાયેલીમાં જન્મ્યો છું. હું આપનો પ્રજાજન છું.” આ સાંભળીને ઠાકુર સાહેબ એકદમ ગાદી પરથી ઊભા થઈ ગયા. એમનો કંઠ ભરાઈ આવ્યો. આંખમાં આંસુ ઝળકવા લાગ્યાં. બે હાથ જોડી મુનિજીના પગમાં માથું ટેકવીને ગદ્ગદ્ અવાજે કહેવા લાગ્યા. “મુનિ મહારાજ, આ તુચ્છ મનુષ્ય પર આજે આપે કેવી અકલ્પિત અને અસંભવ કૃપા કરી છે. કોઈ સૂચના કે સંકેત આપ્યા વિના એક અજાણ્યા અને અપરિચિત સંતની જેમ આપે અહીં પધારીને મને કૃતાર્થ કરવાની દયા કરી છે...” એમના વિવિધ ઉદ્ગારોમાં ભાવના હતી. કૃતાર્થતા હતી, હર્ષનાં આંસુની ધારા હતી. ચહેરો લાગણીશીલ હતો. મુનિજી જ્યાં બેઠા હતા ત્યાંથી વિનમ્રતાથી ઊભા કરી, જે ગાદી પર પોતે બેઠા હતા તેના પર પરાણે બેસાડ્યા. પેલો નોકર એક ખૂણામાં ઊભો ઊભો બધું જોતો હતો. આ બધું એની કંઈ સમજમાં બેસતું નહોતું. કુંવરસાહેબ આની સાથે કેવી કડકાઈથી વાત કરતા હતા ને અહીં તો ઠાકુર સાહેબ ખુદ એના પગમાં પોતાનું માથું મૂકીને આનો હાથ પોતાના માથા પર રાખી રહ્યા હતા. ભાવવિભોર ઠાકુરસાહેબ થોડા સમય પછી સ્વસ્થ થયા. પ્રસન્ન ચહેરે એમણે પૂછ્યું, “આજ આમ અચાનક આવી રીતે આપનું અહીં પધારવાનું થયું, એ અંગે કંઈ વાત છે ?' મુનિજીએ કહ્યું, “બે-ત્રણ દિવસ અગાઉ વિધિના કોઈ અજ્ઞાત સંદેશાએ એવો ઉત્કટ માનસિક નિર્દેશ કર્યો કે હું મારી જન્મભૂમિ રૂપાહેલીનું દર્શન કરું અને આપની મુલાકાત લઉં.” ઠાકુરસાહેબે ત્યાં જે ઊભા હતા તેમને ભેગા કર્યા. મુનિજીની સૌને ઓળખ કરાવી. કુંવરસાહેબ ખૂબ શરમાયા. બે હાથ જોડીને માફી માગવા લાગ્યા. ઠાકુર સાહેબે કહ્યું, “મુનિજી, આપનો સામાન ક્યાં છે?' મુનિજીએ કહ્યું કે સામાનમાં તો એક થેલો છે. એ થેલો હું સ્ટેશનથી ગામમાં આવ્યો ત્યારે મંદિર પાસે ચોતરા પર મૂક્યો છે. ઠાકુરસાહેબે પેલા માણસને તે સામાન લઈ આવવા કહ્યું. નોકર સામાન લઈ આવ્યો. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 રમેશ ઓઝા SAMBODHI મુનિજીએ યતિજી મહારાજનો ઉપાશ્રય ખાલી હોય તો તેમાં જઈને રહેવાની ઇચ્છા દર્શાવી. ઠાકુરસાહેબે ગદ્ગદ્ કંઠે કહ્યું, “આપ અમારા પૂજનીય મહેમાન છો, આપના રહેવાની બધી વ્યવસ્થા ગઢમાં થશે.” ગઢમાં, ઉપરની બાજુ, ઓરડામાં મુનિજીની રહેવાની વ્યવસ્થા કરવામાં આવી. સાંજે મુનિજીએ ભોજનમાં માત્ર પાશેર દૂધ જ લીધું. મુનિજીએ થોડો આરામ કર્યો. બેએક કલાક પછી ઠાકુરસાહેબ આવ્યા. મુનિજીના ચરણસ્પર્શ કર્યા. પ્રણામ કરીને ગાલીચાની એક કોરે પલાંઠી વાળીને, બંને હાથ ખોળામાં રાખીને આમાન્યા સાથે બેઠા. ઇતિહાસ ઠાકુરસાહેબનો શોખનો વિષય હતો. એ વિષયનાં પુસ્તકો તેઓ વાંચતા, મુનિજીના ઘણા લેખો એમણે વાંચ્યા હતા. અજમેર રહેવાસી ગૌરીશંકર ઓઝાએ મુનિજીનો પૂર્વ પરિચય આપેલો. મુનિજી વિદ્યાપીઠમાં પુરાતત્ત્વ મંદિરના આચાર્ય તરીકે નિયુક્ત થયા છે તે હકીકતની પણ ઠાકરસાહેબને ગૌરીશંકર ઓઝા દ્વારા જાણ થઈ હતી – એ બધી વાત ઠાકરસાહેબે મુનિજીને કરી. મુનિજીએ રૂપાયેલી છોડ્યા પછી જીવનચક્ર કેવું ફરતું રહ્યું તેની સઘળી વાત ઠાકરસાહેબને કરી. મુનિજીએ રૂપાયેલી આવવાનું પ્રયોજન સ્પષ્ટ કરતાં કહ્યું, “મારો અહીં ઓચિંતા અને અપરિચિત રૂપે આવવાનો ઉદ્દેશ મારી મા વિશે અને સાથે સાથે મારા પિતા તેમજ દાદાના જીવન અંગેની હકીકતો જાણવાનો છે, જેની કદાચ આપને યથાર્થ માહિતી હશે... રૂપાયેલી છોડ્યા પછી મને અહીંની કોઈ વ્યક્તિ મળી નથી કે મને મારી માતાના કોઈ સમાચાર મળ્યા નથી. મેં આ દિશામાં કોઈ પ્રયત્ન કર્યો નથી. હું એક મૂર્જિત માણસની જેમ આટલાં વર્ષ મારા પૂર્વ જીવનના વિસ્મરણનો ભોગ બન્યો હતો. ‘નષ્ટો મોહઃ સ્મૃતિલબ્ધા', - આ સંસ્કૃત ઉક્તિ પ્રમાણે મારામાં મારાં માતા-પિતાની સ્મૃતિની ચેતના ફરી જાગૃત થઈ છે અને હું આજ એ જ ચેતનાનું શરણું લઈને અહીં ચાલ્યો આવ્યો છું.” ઠાકુરસાહેબ વિસ્મિત થયા, રાત પડી ગઈ હતી, ઠાકરસાહેબે એમને આરામ કરવા કહ્યું અને સવારે મુનિજીની માતાની પાસે જે ચાકર હતો તે હયાત હતો એટલે તેને બોલાવી આપવા કહ્યું. ઠાકુર સાહેબ પ્રણામ કરીને જતા રહ્યા. મુનિજી પણ પથારીમાં સૂતા. મહા મહિનો હતો. ઠંડી ઘણી હતી, સવારે દાતણ-પાણી કરી મુનિ પરવારીને બેઠા. બે કલાક પછી દૂધનો એક કળશો ભરીને માણસ આવ્યો. આવશ્યકતા અનુસાર દૂધ પીને બાકીનું પાછું મોકલી આપ્યું. દશેક વાગ્યે ઠાકુરસાહેબે મુનિજીને પોતાના ઓરડામાં બોલાવ્યા. પ્રણામ કરીને ઠાકુર સાહેબે પોતાની બેઠકની ખાસ ગાદી પર મુનિજીને બેસાડ્યા. ઠાકરસાહેબે સાંજની પૃચ્છાના જવાબમાં મુનિજીના પિતાની તેમજ અન્યોની જેટલી માહિતી હતી તેટલી સંક્ષેપમાં કહી સંભળાવી. મુનિજીએ તે માહિતી નોંધી લીધી. ઠાકુર સાહેબે મુનિજીની માતા પાસે જે નોકર રહેતો હતો તેને બોલાવ્યો. એનું નામ અજિતાજી હતું. તે સાઠ-પાંસઠ વર્ષનો હતો. એ તો મુનિજીને ન ઓળખી શક્યો પણ મુનિજી એને ઓળખી ગયા. ઠાકુર સાહેબ એમનો નિત્યક્રમનો સમય થવાથી ઓળખ કરાવીને જતા રહ્યા. મુનિજી અજિતાજીને લઈને પોતાના ઓરડે આવ્યા. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vol. XLI, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮– ૩ જૂન ૧૯૭૬) 227 મુનિજીએ અજિતાજીને પોતાની સઘળી ઓળખ આપી, અને પોતાનાં માતાજી વિશે કેટલીક વાત પૂછી, અજિતાજીએ વિગતવાર બધી વાત મુનિજીને કરી. અજિતાજીએ મુનિજીને કહ્યું કે આપને (રિણમલને) શોધવા ઓસવાલ મહારાજને માતાએ બે વાર મોકલ્યો પણ આપનો કોઈ પત્તો લાગ્યો નહીં. આપ બાનેડથી કોઈ સાધુજમાત સાથે જતા રહ્યા છો અને બાડના લોકોને એની કશી જાણ નથી એવા સમાચાર મળ્યા હતા. માને એથી અત્યંત દુ:ખ થયું હતું. અજિતાજીએ કહ્યું કે માતાજી ઘણા દિવસો સુધી રડતાં રહ્યાં. એમણે ખાવા-પીવાનું છોડી દીધું હતું. એમને કોઈ મળવા આવતું તો એ કંઈ પણ બોલતાં નહોતાં. બાજુમાં મુનિજી (રિણમલ)ના દાદાના કાકાના પુત્ર એટલે કે ભાઈ રહેતા હતા, તે માતાજીની સાર-સંભાળ રાખતા હતા. બે-ત્રણ વર્ષ પછી ઇન્દ્રાજી એમને પુષ્કરની યાત્રા કરવા લઈ ગયા હતા. તે ત્રણ વર્ષ પછી “એકલસિંગા કી ઢાણી” (જગ્યાનું નામ છે) થી એમના કોઈ સંબંધી આવ્યા હતા ને માતાજીને ત્યાં લઈ ગયા હતા. ઇન્દ્રાજી એમને ત્યાં મૂકવા સાથે ગયા હતા. એકલસિંગા કી ઢાણી એક નાનું ગામડું છે. જ્યાં મુનિજી (રણમલ)ના પિતાના નજીકના કોઈ ભાઈ રહેતા હતા. તે જ માતાજીને ત્યાં લઈ ગયા હતા. અજિતાજીએ કહ્યું કે માતાજી એક જ વાર જમતાં અને દિવસ-રાત ભગવાનના નામની માળા ફેરવ્યા કરતાં હતાં. ખુબ ઓછું બોલતાં માતાજી રૂપાયેલી હતાં ત્યાં સુધી અજિતા' એમની સેવામાં હતો. રૂપાયેલી છોડતી વખતે અજિતાજીને ૪૦૦૫૦૦ રૂપિયાનાં ઘરેણાં આપતાં ગયાં હતાં. માતાજી એકલસિંગા કી ઢાણી નજીક આગૂંચા(ગામ) ગયા પછી એમના કોઈ સમાચાર ન હતા. અજિતાના મુખે માની આવી દશાનું વર્ણન સાંભળીને મુનિજીનું હૃદય વેદનાથી વીંધાઈ ગયું. મુનિશ્રીએ અજિતાજીને દશ રૂપિયા આપ્યા ને આગૂચા જઈને માતાજીને તપાસ કરી આવવા કહ્યું. અજિતાજી એ સમયે ઊંટ સવારી કરીને આગંચા ગયો. મુનિજીએ ઠાકુર સાહેબ સાથે એ દિવસે વધુ વાતચીત કરી નહીં. એમનું મન અંતરની અવ્યક્ત વેદનાના ભારથી દબાયેલું હતું. મુનિજી મંથન અનુભવતા હતા. વિધાતાએ શા માટે મા-દીકરાને આવા ક્રૂર કષ્ટદાયક યોગનો ભોગ બનાવ્યાં? – આ પ્રશ્નનું કોઈ સમાધાન આ સાધુને જડ્યું નહીં. જે જનનીએ આ માનવજીવન આપ્યું અને પોતાના લોહીથી ઉત્પન્ન દૂધ પાઈને ઉછેર કરીને મોટો કર્યો, ૧૧-૧૨ વર્ષ સુધી પોતાની એકદમ નજીક રાખી બેહદ સ્નેહ, મમત્વ અને વત્સલતાથી સર્વ રીતે પાલન-પોષણ કર્યું, તે અનાથ અને અસહાય માતાની સારસંભાળ લેવાને માટે પોતાનું ભ્રમિત મન આજ સુધી કેમ કંઈ વિચારી શક્યું નહીં” – એવા અનેક વિચારોથી મુનિજીનું મન અત્યંત ખિન્ન થઈ ગયું. મુનિજીએ તે સાયંકાળ દૂધ પીધું નહીં, ઓરડામાં એકલા સૂનમૂન થઈને પડ્યા રહ્યા. ઊંઘની કોઈ શક્યતા નહોતી. સ્મરણોએ એમના મનનો જબરો કબજો લઈ લીધો હતો. ગુરુ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 રમેશ ઓઝા SAMBODHI દેવહંસજી સાથે બાનેડ જવા નીકળ્યા, તેની આગલી રાત્રિનું સ્મરણ થયું. માતા ગુરુમહારાજને પ્રણામ કરીને ઘેર આવી હતી. બીજા દિવસે રિણમલ્લ (મુનિ પોતે) ગુરુ સાથે જવાનો હતો. માતાએ તેને એની સોડમાં સુવાડ્યો હતો. મા રાતભર રડતી, ડૂસકા મારતી રહી હતી. એના પ્રેમ અને આંસુઓથી નવડાવતી રહી હતી. આજે મુનિજીને નાનો રિણમલ્લ દેખાયો. એ રિણમલ્લ હવે મુનિ હતો. મુનિની બંધ આંખો સામે માની કરુણામૂર્તિ ઊભી હતી – મૂક, અનિમેષ જોઈ રહેલી. તીક્ષ્ણ અવાજે મુનિને પૂછી રહી હતી, “ભાઈ રિણમલ્લ, જેણે તને જન્મ આપીને લાલન-પાલન કરીને મોટો કર્યો હતો એવી કોઈ તારી મા પણ (તારી) આ દુનિયામાં હતી ?' માનસિક પરિતાપથી કાળજું શેકાતું જતું હતું. રાત આખી ઊંઘ વગર પસાર થઈ. સવારથી અજિતાજીના આવવાની મુનિજી રાહ જોતા હતા. બે વાગ્યા અજિતાજી આવ્યો. મુનિજીને અજિતાજીના ચહેરા પરથી જ લાગ્યું કે કંઈ સારા સમાચાર નથી. તો પણ મુનિજીએ માનપૂર્વક એને પાસે બેસાડ્યો અને શાંતિપૂર્વક પૂછ્યું, “કહો ભાઈ, શા સમાચાર લાવ્યા છો ?' અજિતાજીની આંખોમાં આંસુ હતાં. આદ્ર અવાજે એણે કહ્યું, “મહારાજ, લગભગ બે વરસ પહેલાં સંવત ૧૯૭૬ના વૈશાખ વદ સાતમને દિવસે મા સાહેબ દેવલોક પધાર્યા છે.” મુનિજીના હૃદય પર વજાઘાત થયો. વધારે કંઈ પૂછવાની એમને ઇચ્છા ન થઈ. મુનિજીએ અજિતાજીને કહ્યું, “ભાઈ, તમે હજી જમ્યા નહીં હોવ, માટે જમી લો. પછી હું તમને બોલાવીશ.” અજિતાજી ભારે હૈયે, આંખમાંથી આંસુ સારતો, રડતો રડતો ત્યાંથી ઊઠીને ગયો. બપોર પછી ઠાકુર સાહેબ, મુનિજીને મળવા એમના ઓરડામાં આવ્યા. એમનું મન પણ ખિન્ન હતું. મુનિજી પોતાને સ્વસ્થ કરવા મથતા હતા. એમણે બીજી વાતો કરવા માંડી, પણ ઠાકુર સાહેબે કહ્યું, બે એક વર્ષ પહેલાં પધાર્યા હોત તો માતાજીને મળવાનું થયું હોત.” મુનિજીએ કહ્યું, “કોઈ દુર્ભાગ્યની પાપદૃષ્ટિને કારણે એવો યોગ આવ્યો નહીં. આમ તો માતાનું સ્મરણ અનેકવાર થતું હતું અને જન્મભૂમિ રૂપાહેલીની યાદ પણ બરાબર આવતી હતી પણ અત્યાર સુધી જે પ્રકારની જીવનચર્યામાં બંધાયેલો હતો તેના કારણે મારે આ સ્મરણોને મનથી વિસ્મૃત કરવા પ્રયત્નબદ્ધ રહેવું પડ્યું હતું.' મુનિજીએ જૈન ધર્મની સાધુ દીક્ષા ગ્રહણ કરી અનેક કઠોર નિયમોનું પાલન કર્યું. વાહન દ્વારા પ્રવાસ સર્વથા વર્ય હતો. પગપાળા ભ્રમણ કરતા. ભ્રમણ-વિસ્તાર માળવા, મહારાષ્ટ્ર ને ગુજરાતનો પ્રદેશ હતો. રાજસ્થાનમાં વિચરવાનો કોઈ પ્રસંગ થયો નહીં. કોઈ ગૃહસ્થને પત્ર લખવાનું કે વ્યાવહારિક સંપર્કો રાખવાનું પણ નિષિદ્ધ હતું. આ ઉદાસીન ચર્ચામાં માતા, પિતા, ભાઈ વગેરેના સાંસારિક સંબંધોનું સ્મરણ કરવું. એના તરફ પ્રેમભાવ રાખવાનું કે મોહ, મમત્વનું ચિંતન કરવાનું ત્યાજ્ય હતું. આ કારણોથી માતાની સ્મૃતિ થવા છતાં મુનિજી એને સતેજ થવા દેતા નહીં, પણ મુનિજીના વિચારોમાં પરિવર્તન આવતું ગયું, મનોવૃત્તિ ચર્યામાંથી વિરક્ત થઈ એમ જીવનમાર્ગને Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vol. XL, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮– ૩, જૂન ૧૯૭૬) 229 બદલવાનો ગંભીર વિચાર કર્યો. વિવિધ તરેહના મનોમંથન અને આંતરિક ખળભળાટ પછી મહાત્મા ગાંધી દ્વારા રાષ્ટ્રની સ્વતંત્રતા માટેના આંદોલનને પોતાના જીવનધ્યેયની સિદ્ધિનું ઉત્તમ સાધન માનીને ગુજરાત વિદ્યાપીઠની રાષ્ટ્રીય શિક્ષણ યોજનામાં જોડાયા. મુનિજીએ લાંબા મનોમંથન પછી સાધુવેશ અને સાધુ જીવનની યોગ્ય ચર્યાનો પરિત્યાગ કર્યો. એ બંધનમાંથી મુક્ત થવાથી માતાનાં દર્શન કરવાનો પ્રયાસ કર્યો. વિધાતાને આ પ્રયત્ન મંજૂર નહોતો. પોતે નિષ્ફળ ગયા. ‘ઈશ્વરેચ્છા બલિયસી' એવું સમજીને એમણે મનને શાંત કર્યું. ચારેક વાગ્યે તેઓ ઉપાશ્રયમાં ગયા. નાનપણમાં જે ઉપાશ્રયમાં તેઓ યતિવર શ્રી દેવહંસજીની સેવા કરવા જતા હતા ત્યાં કોઈ રહેતું નહોતું. પહેલાં હતી તે લાકડાની મોટી પાટ એ જ સ્થિતિમાં પડી હતી – જ્યાં યતિજી સૂતા હતા, ત્યાંથી ઉતરવા જતાં એમના જમણા પગનું હાડકું તૂટી ગયું હતું. મુનિજી શ્રદ્ધાપૂર્વક એ પાટ પર માથું ટેકવી, જીવનપથ પર ચાલતા પ્રેરિત કરનાર સ્વર્ગવાસી ગુરુને શ્રદ્ધાંજલિ સમર્પિત કરી, બીજે દિવસે સવારે સાડા નવ વાગ્યે ચાળીસ-પચાસ છોકરાંને મીઠાઈ વહેંચી, મુનિજીએ પોતાની એક ભાવના વ્યક્ત કરી. ‘બાળકોને ભણવા માટે રૂપાયેલીમાં નાનું મકાન બનાવવા કેટલો ખર્ચ થાય ?' – એ અંગે મુનિજીએ ઠાકરસાહેબને પૂછયું. ઠાકુરસાહેબે સંમતિ દર્શાવી, ત્રણસો-ચારસોનો અંદાજ આપ્યો. મુનિજીએ કહ્યું કે જો નાનો જમીનનો ટુકડો મળે તો પોતે ૫૦૦ રૂ. મોકલી આપે. ઠાકુર સાહેબ એથી પ્રસન્ન થયા. પછીથી મનનો અવ્યક્ત અને અસ્પષ્ટ સંકલ્પ ઇ.સ. ૧૯૬૯માં સાકાર થયો. સંકલ્પબળને આધારે ૩૦,૦૦૦માં સુંદર મકાન બનાવ્યું. માતાના નામ પરથી એનું “રાજકુંવરી બાલમંદિર' નામાભિધાન થયું. બીજે દિવસે માની ચિરવિદાયના દુઃખદ સમાચારનું હૃદયદ્રાવક સ્મરણ લઈને મુનિજી અમદાવાદ જવા રવાના થયા. ઠાકરસાહેબે એમના નિવાસસ્થાનની ખાસ બગીમાં બેસાડીને એમને ભાવભરી વિદાય આપી. મુનિશ્રી રેલવે દ્વારા અમદાવાદ ગુજરાત પુરાતત્ત્વ મંદિરે પાછા પહોંચ્યા. તે દિવસ મહા સુદ ચૌદશનો હતો. મુનિજીની જન્મતિથિ હતી. મુનિજીએ આયુષ્યના ૩પમા વર્ષમાં પ્રવેશ કર્યો હતો. આ મુનિ જિનવિજયજી પૂર્વાશ્રમમાં રાજપૂત હતા. એમનો જન્મ વર્તમાન રાજસ્થાનના, અજમેર-ચિત્તોડ રેલવે લાઈન પરના ભિલવાડા જિલ્લાના હુરડા તાલુકાના રૂપાયેલી ગામમાં, પંચાંગની ગણતરી પ્રમાણે વિક્રમ સંવત ૧૯૪૪ના મહા સુદ ૧૪ના દિવસે, એટલે ઇ.સ. ૧૮૮૮ની ૨૭મી જાન્યુઆરીએ લગભગ સૂર્યોદય પછી થયો હતો. બાળપણનું નામ કિશનસિંહ અથવા રણમલ્લ હતું. માતા લાડમાં “રિણમલ” કહેતાં. પિતાનું નામ બિરધીસિંહજી (બડદસિંહ) હતું. પિતા પરમાર વંશીય ક્ષત્રિય કુળના હતા. માતાનું નામ રાજકુંવરી (રાજકુમારી) હતું. માતા સિરોહી રાજ્યના એક દેવડા વંશીય ચૌહાણ જાગીરદારનાં પુત્રી હતાં. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 રમેશ ઓઝા SAMBODHI રણમલના જન્મ વખતે, પિતા બિરધીસિંહ રૂપાયેલીમાં સ્થાયી થયા હતા, પણ એ પહેલાંની એમના વંશજોની ગાથા શૌર્ય અને બલિદાનોની છે. બિરધીસિંહ મૂળે પરમારવંશીય ક્ષત્રિય. અવંતિનાથ મુંજ અને ભોજના વિદ્યાવિલાસી અને પરાક્રમી વંશજ હતા. ઇ.સ. ૧૮૫૭માં ભારતીય સૈનિકો, જે અંગ્રેજ સૈન્યમાં હતા, તેમણે હંગામો મચાવ્યો. આ હંગામામાં અજમેર પાસેના નસીરાબાદની છાવણીમાં, બિરધીસિંહના સગાં-સંબંધીઓ હતાં. એમાંનાં બે-ચાર જણે, બિરધીસિંહના દાદા સંગ્રામસિંહની એકલસિંગા નામે ગામની જાગીરમાં આશ્રય લીધો. અંગ્રેજોએ એથી એકલસિંગાને ઘેરો ઘાલ્યો. યુદ્ધ થયું. સંગ્રામસિંહ ઉપરાંત એમના પરિવારના કેટલાક મોભીઓ મૃત્યુ પામ્યા. બિરધીસિંહ, એમના પિતા તખ્તસિંહજી તેમ જ બીજી કેટલીક વ્યક્તિઓ સાથે ત્યાંથી ભાગ્યા. હવે ત્યાં રહી શકાય એમ નહોતું. અંગ્રેજ સરકારે “દેખો ત્યાં ઠાર કરો'નો અને ગામને બાળી નાખવાનો હુકમ કર્યો હતો. રણમલ (કિશનસિંહ)ના પિતા બિરધીસિંહ તેમ જ દાદા તખ્તસિંહજીએ સાધુનો વેશ ધારણ કર્યો. ગુણવેશે પુષ્કર તીર્થ, આબુ, દ્વારકા, તારંગા તેમ જ ગિરનાર જેવાં સ્થળોએ વર્ષો સુધી રહ્યા. ઇ.સ. ૧૮૫૭ની ઘટના ભૂલાતી ચાલી. એ પછી પિતા-પુત્ર પોતાની જાગીર તેમ જ પરિવારની શોધ સંભાળ લેવા પુષ્કર તીર્થ આવ્યા. તખ્તસિંહજીનું શરીર જરા જીર્ણ થયું હતું. સંકટોનો તાપ જીરવી જીરવીને મન પણ ખિન્ન થઈ ગયું હતું. રૂપાયેલીથી કેટલાક લોકો પુષ્કર તીર્થ યાત્રાએ ગયેલા. ત્યાં એ યાત્રાળુઓએ તખ્તસિંહને ઓળખી લીધા. એમણે તખ્તસિંહજીને અજ્ઞાતવેશમાં રૂપાયેલી આવવા આગ્રહ કર્યો, પણ તખ્તસિંહજીએ પોતાનું શેષજીવન ભગવદ્ સ્મરણમાં, પુષ્કરતીર્થમાં જ ગાળવાનો વિચાર દર્શાવ્યો. જો કે તખ્તસિંહજીએ પોતાના પુત્ર બિરધીસિંહજીને રૂપાહેલી મોકલ્યા, એ રીતે ઇ.સ. ૧૮૫૮થી પિતા સાથે ભૂગર્ભમાં રહેલા બિરધીસિંહ, વીસ વર્ષ પછી ઇ.સ. ૧૮૭૮માં ગૃહસ્થનાં કપડાં ધારણ કરી, રૂપાયેલી ગયા. રૂપાયેલીમાં નિવાસ દરમિયાન બિરધીસિંહ સામે એક સંકટ તો હતું જ. અંગ્રેજ સિપાઈઓ સામે જે રાજપૂત યોદ્ધાઓએ ભાગ લીધો હતો, એમાંનો કોઈ રૂપાયેલીમાં વસે છે, એવી ખબર ઉદયપુરના દરબારમાં પહોંચે તો મુસીબત ઊભી થાય. રૂપાહેલીના રહીશો તેથી બિરધીસિંહ પ્રત્યે સદ્ભાવ હોવા છતાં ડરના માર્યા દૂર રહેવાનું પસંદ કરતા હતા. આવી પરિસ્થિતિમાં બિરધીસિંહ પણ મનથી ઉદ્વિગ્ન રહેતા હતા, તેથી તેઓ થોડો સમય અજમેર પાસે કાશોલા ગામે રહ્યા. કાશોલા બિરધીસિંહના કાકા નાહરસિંહજીનું સાસરું હતું. નાહરસિંહ તો ૫૭ના વિદ્રોહમાં માર્યા ગયા હતા, પણ એમનો પરિવાર ત્યાં હતો. બિરધીસિંહના પિતા તખ્તસિંહજીએ તેમને નાહરસિંહના પરિવારની ભાળ લેવાની જવાબદારી સોંપી હતી. થોડો સમય કાશોલા રહ્યા પછી નાહરસિંહના પુત્ર ઇન્દ્રસિંહજીને લઈને બિરધીસિંહ રૂપાહેલી આવ્યા. રૂપાવેલી તેમના નાનાનું ગામ હતું. જો કે બચપણમાં કયારેક એ અહીં આવ્યા હશે. એમનો જન્મ તો એકલસિંગાવાળી ઢાણીમાં થયો હતો. એમનાં માતા તો સંવત ૧૯૧૪માં પહેલાં મૃત્યુ પામ્યાં હતાં. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vol. XL, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ – ૩, જૂન ૧૯૭૬) 231 કાળક્રમે રૂપાહેલીના લોકો રાજકીય ભયથી મુક્ત થયા હતા. બિરધીસિંહને સીમ અને જંગલની રક્ષા કરવાનું કામ મળ્યું હતું. એમનો આજીવિકાનો પ્રશ્ન ઉકેલાઈ ગયો હતો. એ અરસામાં બિરધીસિંહનું લગ્ન બનેડાના રાણાવત હમીરસિંહજીની પુત્રી રાજકુંવર સાથે થયું. એમનાથી એક પુત્ર થયો. એનું નામ પન્નાસિંહ હતું. થોડા સમયમાં રાજકુંવરનું અવસાન થતાં રૂપાહેલીના ઠાકુર સવાઈસિંહજીની પુત્રી આનંદકુંવર પન્નાસિંહને પોતાની સાથે લઈ ગયાં હતાં ને ત્યાં જ પાલન-પોષણ કર્યું હતું. થોડા સમયમાં જ, સિરોહી મહારાવ સાથે બિરધીસિંહનો પરિચય થયો. મહારાવે સિરોહી રાજયની સેવા માટે એમની નિયુક્તિ કરી. પિંડવાલા અને વસંતગઢ વચ્ચે એક નાની જાગીર હતી. ત્યાંના જાગીરદાર અને બિરધીસિંહને પ્રેમાળ સંબંધ થઈ ગયો હતો. એ જાગીરદારને વીસ-બાવીસ વર્ષથી એક માત્ર દીકરી સિવાય કોઈ સંતાન નહોતું. જાગીરદારે બિરધીસિંહ સાથે એમની દીકરીનો વિવાહ કર્યો. બિરધીસિંહ પણ આ સંબંધ થાય એમ ઇચ્છતા હતા. બિરધીસિંહનાં આ બીજી વારનાં લગ્ન હતાં. પ્રથમ પત્ની મૃત્યુ પામ્યાં, એમનું નામ રાજકુમારી હતું. એ ઉપરથી વિવાહિત કન્યાનું નામ પણ “રાજકુમારી જ રાખ્યું. જાગીરદારના મૃત્યુ પછી જાગીર અને ઘરબાર તો રાજકુમારીના કાકાના દીકરાઓએ કબજે કરી લીધાં હતાં, પણ દાયકામાં એક વિશ્વાસુ ખાનદાન સેવક તેમ જ દસ-વીસ હજારનાં ઘરેણાં-ગાંઠાં રાજકુમારીને મળ્યાં હતાં. લગ્ન પછી બિરધીસિંહે રાજકુમારીને રૂપાયેલી રાખ્યાં. પોતે સિરોહી રાજ્યની સેવામાં લાગી ગયા. અવારનવાર પોતે રૂપાયેલી આવતા-જતા રહેતા. આ સમયગાળામાં બિરધીસિંહ અને રાજકુમારીથી એક પુત્ર પ્રાપ્ત થયો. આ પુત્ર તે કિશનસિંહ. બાળપણમાં સૌ એને લાડમાં “રણમલ્લ’ કહી બોલાવતાં. આ રણમલ્લ તે જ આપણા મુનિ જિનવિજયજી. | મુનિજીએ એમનાં બાળપણનાં આછાં સંસ્મરણોની નોંધ કરી છે. એમના પિતાજી બિરધીસિંહ સિરોહી રાજ્યનાં જંગલોમાં, રાજસેવામાં રોકાયેલા હતા. એમને સંગ્રહણીનો ભારે મોટો રોગ લાગુ પડ્યો હતો. મુનિજી લખે છે : એક વખત “સંધ્યા થઈ હતી. મા ઘરમાં દેવમૂર્તિ સામે દીવો કરી પ્રાર્થના કરતાં હતાં. હું મા પાસે હાથ જોડી બેઠો હતો. ત્યાં પિતાજીની ઘોડીનો હણહણાટ સંભળાયો. મા એકદમ ઊભાં થઈ ગયાં. મારા હાથ પકડીને કહ્યું, “બેટા, જો તો કોની સવારી આવી રહી છે. ત્યાં તો પિતાજી આંગણા આગળ આવી ગયા હતા. પિતાજીએ માને બૂમ મારી. પિતાજી ખૂબ થાકેલા હતા. શરીર ક્ષીણ થઈ ગયું હતું. માતાએ પોતાના સેવકને કહ્યું. “જાઓ ! ઝડપથી ખાટલો લાવો અને અહીં ઢાળો' ) ઘર નાનું હતું. કાચી માટીનું હતું. એને બે નાના ઓરડા હતા. સામે મોટું આંગણું હતું. સામે બીજું પણ એક મકાન હતું. ત્યાં મેડો હતો. મુનિજીનાં માતુશ્રી ત્યાં સૂતાં હતાં. ચોકમાં લીમડાનું ઝાડ હતું. લીમડાના થડની આજુબાજુ માટી ને ગારનો બનાવેલો ચોતરો હતો. સેવકે પિતાજીનો ખાટલો લીમડાના ઝાડ નીચે ઢાળ્યો. પિતાજીએ બાળક કિશનનાં માતાને સંબોધીને કહ્યું, “ખૂબ મુશ્કેલીથી તમારી પાસે આવી શક્યો છું. કદાચ ભગવાન હવે મને તેની પાસે બોલાવી લેશે.” વાતાવરણ ભારે થઈ ગયું. બાળક કિશન તરફ ફરીને પિતાજીએ કહ્યું, “બેટા ! દૂર કેમ ઊભો છે ? મારી પાસે આવ. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 રમેશ ઓઝા SAMBODHI આ વખતે હું બીમાર છું. આથી તારે માટે કશું સારું ખાવા-પીવાનું લાવી શક્યો નથી. પણ આ થોડાંક બોર લાવ્યો છું તે ખા !” એ વખતે રૂપાયેલીમાં એક સિદ્ધહસ્ત વૈદ્ય અને મર્મજ્ઞ જ્યોતિર્વિદ યતિ દેવહંસજી, ત્યાંના ઉપાશ્રયમાં ઠાકુર ચતુરસિંહજીના આગ્રહથી સ્થાયી થયા હતા. ઠાકુર ચતુરસિંહજી સંગ્રહણીના જૂના રોગી હતા. અનેક વૈદ્યો પાસે ઇલાજ કરાવ્યા હતા, પણ છેવટે થાકીને, મારવાડના ખ્યાતનામ વૈદ્ય અમરસિંહજીની ભલામણથી, એમના ગુરુ દેવીસિંહજીના ચરણે પડી, તેમને રૂપાયેલી આમંત્ર્યા. ચતુરસિંહજીને એમનાં ઔષધ અને સારવારથી પૂર્ણ આરોગ્ય પ્રાપ્ત થયું. બિરધીસિંહજીની બીમારીના સમાચાર સાંભળી દેવીસિંહજી એમને ઘેર પધાર્યા. રાજકુમારીએ ચરણમાં મસ્તક નમાવ્યું. બાળક કિશનસિંહ પણ નમ્રતાપૂર્વક એમને પગે લાગ્યો. યતિજીની નિર્મળમધુર દૃષ્ટિ બાળક પર પડી. પૂછ્યું, “બેટા ! તારું નામ શું?' બાળકે નતમસ્તકે પ્રણામ કરી, ઉત્તર આપ્યો, “રણમલ્લ'. વાહ, વાહ ! નામ તો બહુ સરસ છે!” એમ કહી લીમડા નીચે, પલંગમાં સૂતેલા બિરધસિંહજીને તપાસવા લાગ્યા. ઉપચાર કર્યો, બિરધીસિંહને ઠીક પણ લાગ્યું. છતાં રોગ નિર્મૂળ ન થયો. ઔષધોપચાર માટે અજમેર સિવાય કયાંય મોસંબી મળતી નહિ, ત્યારે યતિજી પોતે અજમેર જઈને મોસંબીનો ટોપલો લઈ આવેલા. વિશ્વવિકૃત મુનિ જિનવિજય પોતાના બાળપણનાં સંસ્મરણોમાં નોંધે છે : “એ મોસંબીની રસદાર પેશીઓ ગુરુજીએ સૌથી પહેલાં મને ખાવા આપી. આવી રીતે ખૂબ વાત્સલ્યથી ગુરુજીએ મોસંબી ખવરાવી હતી, મોસંબીના મીઠા રસનો (અને ગુરુના પ્રેમરસનો) મેં જીવનમાં સર્વપ્રથમ અનુભવ કર્યો. એ પછી મેં મારા હાથે રસ કાઢીને પિતાજીને પીવરાવ્યો !” | બિરધીસિંહજીનું શરીર રોગમાંથી વળ્યું નહીં. સહૃદયી વૈદ્ય દેવીસિંહજી બિરધીસિંહજીનું ચિત્ત પ્રસન્ન રાખવા પ્રયત્ન કરતા હતા. એક દિવસ બિરધીસિંહજીએ, બાળક કિશનસિંહ સામે દૃષ્ટિ રાખીને, પથારીમાં સૂતાં-સૂતાં જ વૈદ્ય મુનિ દેવીસિંહને કહ્યું, “આ બાળકને આપના શરણમાં સોંપું છું. એને એવા આશીર્વાદ આપો કે અમારા કુળનો ઉદ્ધાર થાય !” દૃષ્ટિવંત જયોતિષી એવા મુનિશ્રીએ બાળકનું ભવિષ્ય ભાખતાં, અર્ધનિમિલીત નેત્રે બિરધીસિંહને કહ્યું, ‘ઠાકુર ! તમારો પુત્ર નસીબદાર છે; એ તમારા વંશ અને કુળનું ગૌરવ વધારશે.” ગુરુમુખેથી બાળક કિશનસિંહ અંગેની ભવિષ્યવાણી સાંભળીને, પથારીમાં સૂતેલા પિતા બિરધીસિંહજી અને બાજુમાં ઊભેલાં માતા રાજકુમારીની આંખમાં હર્ષનાં આંસુ વહેવા લાગ્યાં. ત્રણેક દિવસ પછી બિરધીસિંહજીનું અવસાન થયું. ગામનાં લોકો અંત્યેષ્ટિમાં હાજર રહ્યાં. ગામથી પૂર્વ દિશામાં માનસી નદી પાસે એમને અગ્નિદાહ આપવામાં આવ્યો. બિરસિંહજીના મૃત્યુ પછી, કિશનસિંહની માતા રાજકુમારીને સાંત્વન આપવા ગુરુજી એમને ત્યાં જતા. ગુરુજીએ રણમલને પોતાની પાસે ભણવા મોકલવા અંગે રાજકુમારીને કહ્યું, રણમલે ગુરુજી પાસે ભણવાનું શરૂ કર્યું. ગુરુજીએ કક્કો શિખવ્યો. જૈનધર્મના કેટલાક પાઠ શિખવ્યા. શુદ્ધ ઉચ્ચારણ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vol. XLI, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ – ૩, જૂન ૧૯૭૨) 233 માટે કાતંત્ર વ્યાકરણ શિખવ્યું. પ્રાકૃત ભાષાનાં સૂત્રો શિખવ્યાં. રાતે મા પાસે ને દિવસે ગુરુ પાસે એમ કિશનસિંહનો ક્રમ થઈ ગયો. સંવત ૧૯૫૬ (ઈ.સ. ૧૯૦૦)માં ભયંકર દુકાળ પડ્યો. ગુરુજી કિશનસિંહની માતાને અનાજ મોકલતા. મા અનાજ દળીને રોટલીઓ બનાવીને, રણમલ દ્વારા ગુરુજીને મોકલતાં, ગુરુજી વૈદ્ય હતા. દવાના પૈસા નહોતા લેતા, પણ દવા લઈ જનાર પાસેથી અનાજ મેળવીને, ગરીબો માટે ભોજન તૈયાર કરાવતા. આ ક્રમ પાંચ-છ મહિના ચાલ્યો. ગુરુજીની ઉંમર એ વખતે આશરે સો વર્ષની હતી. એક દિવસ ગુરુજી પડી ગયા. પૂંઠનું હાડકું તૂટી ગયું. પોતે વૈદ્ય હતા, તૂટેલા હાડકાનો કોઈ ઇલાજ નહોતો. ગુરુજીને પણ જીવનનો અંત નજીકમાં જ લાગવા માંડ્યો. અનેક લોકો મળવા આવતા. ચિતોડ જોડેના ધનચંદ યતિ ગુરુજીને મળવા આવ્યા. એમણે ગુરુજીને પોતાની સાથે લઈ જવા વિનંતી કરી. ગુરુજીની ઇચ્છા પણ ચિતોડ જેવી પુણ્યભૂમિમાં દેહ છૂટે એવી ઇચ્છા હતી. જેઠ મહિનાની નિર્જળા એકાદશીએ ગુરુએ ત્યાં જવા વિચાર્યું. ગુરુજીએ રણમલને પોતાની સાથે આવવા કહ્યું. રણમલે માની રજા લીધી. મા ગુરુજીને મળવા ગયાં. મળ્યાં. ગુરુજીએ રણમલને પોતાની સેવા માટે સાથે લઈ જવા કહ્યું, પછી કોઈ મહાજન સાથે રણમલને પાછો મોકલી આપવા કહ્યું. રણમલની માતાએ ગુરુ સાથે જવાની સંમતિ આપી. ગુરુ સાથે જવાની આગલી રાતે રણમલ મા પાસે સૂતો હતો. આખી રાત મા રણમલના મોં તેમજ શરીર ઉપર પ્રેમથી હાથ ફેરવતી રહેતી હતી. દીકરાને છાતી સરસો ચાંપીને રડતી રહેતી. મા વ્યાકુળ હતી. ઘડી પલંગમાં બેસતી, ઘડીક પુત્ર રણમલનું માથું ખોળામાં લેતી, વહાલમીઠાં ચુંબનો લેતી. ઘડી આડી પડતી. આંખમાં ચોધાર આંસુ વહેતાં હતાં. મા કશું બોલતી નહોતી. પુત્રના શરીરે હાથ ફેરવતી હતી. પુત્ર પણ ચૂપ હતો – વરસતા વરસાદમાં વૃક્ષો વર્ષારસનો અભિષેક ઝીલતાં હોય એમ. નિયતિની અકળ, અવ્યક્ત, ન્યારી લીલાનો સંકેત મા અનુભવતી હતી – જાણે એને ખ્યાલ આવી ગયો હતો કે હવે પછી પુત્રનું મોં કદાચ ફરી જોવા નહીં મળે. માએ રણમલને તૈયાર કરીને સવારે ઉપાશ્રયમાં ગુરુદેવ પાસે મોકલ્યો. ધનચંદ યતિ સાથે ગુરુજી સાંજે, બાનેડ (ચિતોડ પાસે) જવાના હતા. સાથે સેવામાં રણમલ પણ જવાનો હતો. સામાન તૈયાર કર્યો. જો કે સામાન ઝાઝો નહોતો. ઠાકરસાહેબે ગુરુ માટે એક ખાસ પ્રકારની ગાડીની વ્યવસ્થા કરી હતી. જતી વખતે રણમલ માતાને પગે લાગ્યો. માએ કહ્યું, “બેટા રાજીખુશીથી જા. ગુરુ મહારાજની સેવા કરજે. તને ત્યાંથી પાછો મોકલે ત્યારે તું જલદી પાછો આવી જજે.' એમ બોલતાં બોલતાં મા રડતી હતી, સાડીના પાલવથી આંસુ લૂછતી હતી. રાગ અને ત્યાગ વચ્ચે હૈયું ઝૂરતું હતું. માના આશીર્વાદ રણમલે માથે ચઢાવ્યા. ગુરુજીને ખૂબ કાળજી સાથે ખાટમાં લઈને ચિતોડની - ગાડીના ડબ્બામાં સુવાડ્યા. ગુરુ મહારાજ નવકાર મંત્રનો જાપ કરતા હતા. પાસે રણમલ બેઠો હતો. સવારે ચિતોડ સ્ટેશન આવ્યું. સૂર્યના પ્રકાશમાં ચિતોડનો કિલ્લો અને રાણા કુંભાનો વિજયસ્તંભ નજરે પડ્યા. ગુરુ મહારાજે રણમલને ચિતોડના કિલ્લા વિશે તેમ જ ત્યાં કેવા મહાન મહાત્માઓ તેમજ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 રમેશ ઓઝા SAMBODHI મહાપુરુષો થઈ ગયા છે એનું પુણ્ય સ્મરણ કર્યું. રણમલને આ ભવ્ય દર્શન તેમ જ સ્મરણ જીવનની આખર સુધી પ્રેરણા આપતાં રહ્યાં. જ્યાં પહોંચવાનું હતું તે બાનેડ સોળ માઈલ દૂર હતું. ત્યાં પહોંચવા કોઈ વાહન-વ્યવહાર નહોતો. પાંચ વાગ્યે સાંજે ત્યાં પહોંચ્યા. ગુરુજી માટે ત્યાં રહેવા માટે સારી વ્યવસ્થા નહોતી. રણમલ ગુરુજીની સેવા કરવામાં જીવનસાર્થક્ય સમજતો. એકાદ મહિનામાં ગુરુજીની શક્તિ ક્ષીણ થઈ ગઈ. એક દિવસ ધનચંદ યતિને થયું કે હવે ગુરુજી કદાચ દેહ છોડી દેશે. એ રાતે રણમલને બોલાવીને ગુરુએ કહ્યું. “બેટા, રણમલ, તું વિદ્યા પ્રાપ્ત કરજે, તું મોટો વિદ્વાન બનીશ, અને તે સારો ભાગ્યશાળી માણસ બનીશ. હવે આ દુનિયાથી હું વિદાય લઉં છું.” ગુરુજીએ ધનચંદ યતિને કહ્યું, “આ રણમલની સારી રીતે સંભાળ રાખજો.આટલું કહી ગુરુજી મૌનમાં સરકી ગયા, છ-સાત મિનિટ પછી એમણે છેલ્લા શ્વાસ છોડ્યા. બાનેડ ગામમાં જ એમના પાર્થિવ દેહને અંતિમ સંસ્કાર અપાયા. રણમલ અનાથ થઈ ગયો. રણમલને વારંવાર મા યાદ આવવા લાગી. તેને યતિ ધનચંદના પરિવાર સાથે રહેવું પસંદ નહોતું. બીજો વિકલ્પ નહોતો. રણમલયતિ ધનચંદના ખેતરમાં દિવસ-રાત રહેતો. ખેતીમાં મદદ કરતો. રાત્રે ખેતરમાં બનાવેલા ડાગળામાં સૂઈ રહેતો. માને ગુરુમહાજનના અવસાનના સમાચાર મળ્યા. માએ તેને રૂપાયેલી જવા એક મહાજનને સંદેશો મોકલ્યો. યતિ ધનચંદને એમ હતું કે રણમલ જો રૂપાયેલી જશે તો સ્વર્ગસ્થ પતિવર શ્રી દેવીહંસજીનો સામાન અને રૂપિયા રૂપાહેલીના મહાજન માગી લેશે, તેથી એ મહાજનને યતિ ધનચંદે સમજાવીને પાછો મોકલ્યો. મા અને નાનો ભાઈ બાદલ ખૂબ યાદ કરે છે એવા સમાચાર મહાજને રણમલને આપ્યા. બાદલ બીમાર હતો. થોડા દિવસ પછી ફરી સમાચાર આવ્યા કે નાનો ભાઈ બાદલ મૃત્યુ પામ્યો છે. રણમલને ફરી માની વિહ્વળતા અને અસહાયતાએ હચમચાવી મૂક્યો, પણ રણમલને થયું કે હવે રૂપાયેલી જઈને પોતે શું કરશે? નિસહાય સ્થિતિમાં રૂપાયેલી જવાને બદલે કયાંક જઈને સારી વિદ્યા પ્રાપ્ત કરીને, હોશિયાર થઈને મા પાસે જવાનું રણમલે મનોમન વિચાર્યું. મહાજનને રણમલે રૂપાયેલી જવાની ના કહી. દોઢેક મહિના પછી, જૈનોના ઓસવાલ સમાજનાં ગામોમાં મૃત-વ્યક્તિ પાછળ થતા ભોજન સમારંભોમાં મંડપ્પા, ભીડર, કાનોડમાં – મોટે ભાગે રણમલને ઉદયપુર અને ચિતોડ જિલ્લાઓમાં – રણમલને ફરવાનું થયું. ઇ.સ. ૧૯૦૨ (સં. ૧૯૫૮)ની વૈશાખી પૂર્ણિમાએ, સુખાનંદ (મધ્યપ્રદેશ, મહાદેવ નામની જગ્યાએ ભરાયેલો મેળો જોવા રણમલ (કિશનસિંહ) એક સેવકના આગ્રહથી ગયો. ત્યાં ખાખી બાવાઓની જમાતના મહારાજ શિવાનંદ ભૈરવનો રણમલને પરિચય થયો. આખાયે મેળામાં આ જમાત તેમ જ શિવાનંદ ભૈરવના તંબૂ સૌનું આકર્ષણ હતાં. શિવાનંદ સેવકના પરિચયમાં હતા. સેવક પાસેથી રણમલ (કિશનસિંહ) વિશે માહિતી મેળવી, એની હસ્તરેખાઓ જોઈ “રણમલ વિદ્યાપુરુષ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ - ૩, જૂન ૧૯૭૬) 235 થશે, એવી આગાહી શિવાનંદે કરી. રણમલ પણ એમનાથી પ્રભાવિત થયો. વિ.સં. ૧૯૫૮ની વૈશાખી પૂર્ણિમાએ શિવાનંદ ભૈરવ પાસે ભૈરવી દીક્ષા લઈને રણમલ ‘કિશન ભૈરવ થયો. કિશનના અભ્યાસ માટે એક પંડિતની જોગવાઈ કરવામાં આવી. પંડિત એને “સારસ્વત વ્યાકરણ શીખવતા. એ જમાત સાથે રણમલે જાવદ, નીમચ, મંદસોર, પ્રતાપગઢ, જાવરા, સેલાના, રતલામની યાત્રા કરી. ત્યાં ક્ષિપ્રા નદીને કિનારે ઉજ્જૈનમાં પડાવ નાંખ્યો. ત્યાં કિશને જોયું કે જમાતના બાવાઓમાં ખટપટ ચાલતી હતી, કેટલાક વ્યસની હતા, કેટલાક અસંસ્કારી હતા, તેમ જ કેટલાકની ભાષા અભદ્ર હતી. આવા અભદ્ર વાતાવરણમાં આ ભદ્રશીલ માટે અભ્યાસ દરમિયાન પંડિત સાથે જ વાત-ચીત કરવાનો એકમાત્ર આધાર હતો. ત્યાં પંડિત કોઈ કારણસર પોતાના વતન ગયા, પાછા ફર્યા નહીં. રણમલની વિદ્યા પ્રાપ્ત કરવાની અદમ્ય ઝંખના અધૂરી રહી. જમાત વચ્ચે રણમલને એકલતાનો તેમ જ ત્રાસનો અનુભવ થવા લાગ્યો. જમાતના બાવાઓ રણમલની તેજસ્વિતાની ઇર્ષા કરવા લાગ્યા. આ દીક્ષા લઈને એમણે ભૂલ કરી છે, એવું લાગ્યું. પોતાને જીવનો ખતરો લાગ્યો. ત્યાં પોતાના સાથી સેવક સાથે વિચાર કરી પોતે એક અંધારી રાતે ભાગી છૂટ્યા. બીજા દિવસે ક્ષિપ્રા નદીમાં સ્નાન કરી, શરીરે ચોળેલી ભભૂતિનું વિસર્જન કર્યું. લંગોટ, કફની, કમંડળ, નદીમાં વહેતાં કર્યાં. સેવકનાં વસ્ત્રો ધારણ કર્યા. મહાકાલેશ્વર મંદિરે દર્શન કરી, ઉજ્જૈનથી રતલામ તરફ જવા રવાના થયા. ક્યાં જવું નક્કી નહોતું. પ્રશ્નો થયા : “હું કોણ છું, શું કરવું જોઈએ, શું કરી રહ્યો છું ?' – એમણે સેવકને પૂછ્યું – પાછા બાનસેન જવું છે કે ઉદયપુર? બાનસેન જવાની એમની ઇચ્છા નહોતી, પણ બાનસેન જોડે મંડપિયા ગામમાં રહેતા જ્ઞાનચંદ યતિને કિશનસિંહ પ્રત્યે સદૂભાવ હતો. પતિપત્નીનો એમના પ્રત્યેનો વ્યવહાર સારો હતો. એક વખતે જ્ઞાનચંદ યતિએ પોતાને ત્યાં વિદ્યાભ્યાસ માટે આમંત્રણ આપ્યું હતું. કિશનસિંહે સેવકને જ્ઞાનચંદ યતિ વિશે વાત કરી અને રતલામ જવા ઇચ્છા વ્યક્ત કરી. બંને રતલામ ગયા; પણ ત્યાં સમાચાર મળ્યા કે જ્ઞાનચંદ યતિ તો મંદસોર ગયા છે. સેવક સાથે કિશનસિંહ મંદસોર ગયા. ત્યાં પન્નાલાલજી યતિ ખૂબ જાણીતા હતા. જૈન સંપ્રદાયના ખરતરગચ્છના પિપળીયા શાખાના હતા, વૈદ્ય હતા. કિશનસિંહ એમને મળ્યા. ત્યાં એક બીજા યતિજી આવ્યા હતા. એ યતિજીએ કિશનસિંહની વિદ્યાપ્રીતિ પ્રત્યેનો અનુરાગ જાણીને, તેમને યતિ જ્ઞાનચંદ પાસે લઈ જવાની વાતને સમર્થન આપ્યું. જ્ઞાનચંદ યતિ મંડપિયા ગામે હતા. યતિ સાથે તેઓ રાતે ગાડીમાં નિમ્બાહેડા ગયા ને ત્યાંથી પગપાળા મંડપિયા ગયા. યતિ જ્ઞાનચંદે એમને પ્રેમથી આવકાર્યા, ભોજન કરાવ્યું. ત્યાં જ્ઞાનચંદજીની ખેતીવાડી સંભાળવાની જવાબદારી કિશનસિંહે નિભાવી. કિશનસિંહે જ્ઞાનચંદજી પાસે રહી પૂજા-અર્ચના, મંત્રો, સ્તુતિ, સ્તવન કંઠસ્થ કરી લીધાં. એક મંદિરની પ્રાણપ્રતિષ્ઠા માટે ગંગાપુર ગયા. ત્યાં યતિવેશ ધારણ કર્યો. જૈનોને ત્યાંથી ભિક્ષા લાવવાનું કામ કિશનસિંહને સોંપાયું. ત્યાં ચેલાજી મહારાજ નામ ધારણ કર્યું. મૂર્તિપૂજા તેમજ દર્શનાર્થીઓને માંગલિક સંભાળવાનું કાર્ય તેમણે સંભાળ્યું. મંડપિયામાં રહી કલ્પસૂત્રનો અભ્યાસ કર્યો. ચાતુર્માસ માટે કિશનસિંહ બડનગર યતિ જ્ઞાનચંદ સાથે ગયા. ત્યાંથી યતિ જ્ઞાનચંદે કિશનસિંહને માંગલિક તેમજ કલ્પસૂત્રનો લાભ શ્રાવકોને મળે એ હેતુથી બદનાવર મોકલ્યા. ત્યાં કિશનસિંહે જૂની હસ્તપ્રતોની નકલ કરવાનો અભ્યાસ કર્યો Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 રમેશ ઓઝા SAMBODHI બદનાવરમાં ધર્મકાર્ય કરતા હતા ત્યારે સમાચાર મળ્યા કે ત્યાંથી પંદરેક માઈલ દૂર દિગ્દાન ગામમાં એક જૈન સાધુએ બાવન દિવસના ઉપવાસ કર્યા છે. હજારો શ્રાવકો દર્શન માટે જાય છે. એક મહાજન દંપતી સાથે, એ મહાન તપસ્વી જૈનમુનિનાં દર્શન કરવા ગયા. જૈનમુનિને મળ્યા. મુનિએ એમની સાથે ધર્મજ્ઞાન, અભ્યાસ વિશે સંવાદ કર્યો. કિશોરસિંહે યતિ દેવહંસજી પાસે પોતે ઉવસગ્ગહર સ્તોત્ર, નમિઉણ સ્તોત્ર, ભક્તામર સ્તોત્ર શીખેલા એ વાત કરી. ત્યાં રહીને કિશનસિંહે દશવૈકાલિક સૂત્રનો મુખપાઠ કંઠસ્થ કર્યો. બે-ત્રણ વર્ષથી યતિઓ તેમજ ખાખી બાવાઓની સંગતથી કિશનસિંહના મનમાં જે વિરક્તિનો ભાવ હતો તે વધુ દૃઢ થયો. દીક્ષા લેવાનો વિચાર કર્યો. દિઠાણના મહાજનો આગળ આ પ્રસ્તાવ રજૂ થયો. મહાજનોએ દીક્ષા મહોત્સવનું આયોજન કર્યું. સમારોહ થયો. અનેક મહાજનોને ભોજનનું આમંત્રણ અપાયું. ઘોડા તેમજ હાથી ઉપર સવારી નીકળી. વિ.સં. ૧૯૫૯ના આસો સુદ તેરસને દિવસે પૂર્ણ વિધિવિધાન દ્વારા મુંડન કરાવીને, જૈન સાધુનો વેશ ધારણ કરીને, પંદર વર્ષના બાળ સાધુનું નામ કિશનલાલ' રાખવામાં આવ્યું. સ્થાનકવાસી જૈન સંપ્રદાયની દીક્ષા લઈને કિશનલાલે સાધુવેશે સંપ્રદાયના નિયમો પ્રમાણે ચાતુર્માસ સિવાય, આઠ મહિના જુદાં જુદાં ગામો કે નગરોમાં પગપાળા વિહાર કર્યો. ઇ.સ. ૧૯૦૪ (સંવત ૧૯૬૦)માં તેમને ધાર જવાનું થયું. એ વખતે ત્યાં ભોજના વિખ્યાત સરસ્વતી મંદિરને તોડીને બનાવેલી મસ્જિદનો ઘુમ્મટ નીચે પડી ગયો હતો. એમાંથી એક શિલાલેખ મળ્યો હતો. સરકારે એનો સંગ્રહ કરેલો. પુરાતત્ત્વવેત્તા શ્રી રા. ગો. ભાંડારકરના પુત્ર શ્રીધર ત્યાં આવેલા. શ્રીધરે જૈન સાધુ (કિશનલાલ)ને બોલાવ્યા. જૈન સાધુએ તે શિલાલેખ વાંચી બતાવ્યો ને ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રનો આધાર આપ્યો. ધાર પાસેની ઉજૈન નગરીના મહાકાલ મંદિરના દર્શનની ઇચ્છા જૈન સાધુ (કિશનલાલ) રોકી ન શક્યા. વર્ષો પહેલાં, બાલ્યકાળમાં ગુરુ દેવહંસજી પાસે રહીને તેમણે સિદ્ધસેન દિવાકરનો “કલ્યાણ મંદિર સ્તોત્ર કંઠસ્થ કર્યો હતો. સિદ્ધસેન દિવાકરે આ સ્તોત્રની રચના આ મંદિરમાં બેસીને કરી હતી. પાર્શ્વનાથની મૂર્તિ અહીં પ્રગટ થયેલી, જૈનો તેને અવંતી પાર્શ્વનાથ તરીકે પૂજે છે, પણ મંદિરમાં પ્રવેશતાં પૂજારીએ તેમને રોક્યા, ને કહ્યું, “ટૂંઢિયા મહારાજ નદીમાં જઈને પહેલાં મોં ધોઈ આવો, મુખપટ્ટી ઉતારી દો ને રજોહરણ બહાર મૂકો.' કિશનલાલને પૂજારીના વ્યવહારથી ગુસ્સો ચઢ્યો, દર્શન કર્યા વિના તેઓ પાછા ફર્યા. જૈન સાધુઓમાં જ્ઞાનની અપેક્ષાએ, તપ કે ઉપવાસની પ્રતિષ્ઠા વધુ હતી. વરસના એંસી દિવસો તો એમના કઠોર ઉપવાસ રહેતા, એથી જૈન સાધુની સમાજમાં પ્રતિષ્ઠા રહેતી, પણ કિશનલાલને આ બધું અનુકૂળ ન લાગ્યું. સાત-આઠ વર્ષ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના સાધુજીવન પછી એક રાતે સ્થાનકવાસી સાધુજીવનનો પરિત્યાગ કર્યો. ઉજ્જૈનથી નાગદા રેલવે પર, ચારેક માઈલ ચાલ્યા. સાંજ પડી ગઈ. વરસાદની મોસમ હતી. ભૂખ કકડીને લાગી હતી. વરસાદને કારણે શરીર ભીંજાયેલું હતું. શરીર કાંપતું હતું. એક નાનું ગામ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vol. XLI, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ - ૩, જૂન ૧૯૭૬) 237 આવ્યું. એક ખેડૂતના ઘર પાસે, પશુઓને બાંધેલાં હતાં. એના છાપરા નીચે લપાઈને બેઠા. આછું અંધારું હતું. ખેડૂતની પત્ની બહાર આવી. કિશનસિંહ પર નજર પડી. તે ભૂત સમજી ભાગી. એની ચીસ સાંભળી ખેડૂત ફાનસ લઈ બહાર આવ્યો. જોયું, પૂછ્યું, “ભાઈ, કોણ છો ?' કિશનસિંહે કહ્યું, “અજાણ્યો મુસાફર છું. ઉજ્જૈન જતો હતો. રસ્તામાં ભૂલો પડ્યો. વરસાદમાં રાત ગાળવાના આશયથી અહીં છાપરા નીચે બેઠો છું. ખેડૂત એને અંદર લઈ ગયો. જુવારનો રોટલો અને દૂધનો કટોરો આપ્યો. જેણે સાધુ જીવનના આઠ વરસ સુધી સૂર્યાસ્ત પછી પાણીનું ટીપું પણ લીધું નહોતું, એ ચર્યાનો આજે ભૂખ સંતોષીને ભંગ કર્યો. કિશનસિંહને અમદાવાદના જૈન મૂર્તિપૂજક સંપ્રદાય વિશે ખાસ્સી જાણકારી હતી. ત્યાં વિદ્વાનો તેમજ વિદ્યાપ્રાપ્તિ અંગેની સુવિધા હતી. કિશનસિંહ અમદાવાદ આવ્યા. રાત્રે એક દુકાનના છાપરા નીચે સૂઈ રહ્યા હતા. પોલીસને શંકા ગઈ. એમને પકડી લીધા. પૂછપરછ કરી. છોડી મૂક્યા. કોઈ સહારો નહોતો. એક હોટલમાં ચાર આનાના રોજ ઉપર વાસણ માંજવા-ધોવાનું કામ કર્યું. જેથી પેટની ચિંતા ન રહે. વિદ્યાપ્રાપ્તિની ક્યાંક જોગવાઈ થાય તો સારું – એ માટે અનેક ધાર્મિક સંસ્થાઓમાં ફર્યા – રઝળ્યા. એમને ભાળ મળી કે પાલનપુરમાં અધ્યયન માટે સારી સુવિધા છે, તેઓ ત્યાં ગયા. ત્યાં પણ નિરાશા મળી. પાલીના ઉપાશ્રયોમાં પંડિતો ભણાવે છે એવી માહિતી મળતાં પાલી ગયા. ઈ.સ. ૧૯૧૦ (વિ.સં. ૧૯૬૬)માં શ્વેતામ્બર મૂર્તિપૂજક જૈન ફિરકાના કેટલાક મુનિવરોનાં દર્શન થયાં. એમાં એક સાધુરત્ન હતાં – પંન્યાસ સુંદરવિજયજી, સરળતા, સમત્વશીલતા તેમ જ સંયમની મૂર્તિ ! કિશનસિંહ પ્રભાવિત થયા. શિષ્યત્વ સ્વીકાર્યું. બાવીસ વર્ષની વયે ઈ.સ. ૧૯૧૧ (સંવત ૧૯૬૭)માં પાલી પાસેના ભાખરી ઉપર બનેલા જૈનમંદિરમાં એમણે સંવેગી દીક્ષા લીધી. “મુનિ જિનવિજય' તરીકે ઓળખાયા. ત્યાંથી મુનિ જિનવિજય ખ્યાવર ગયા. ત્યાં સમાજકલ્યાણના ઉદ્ગાતા આચાર્ય વિજય વલ્લભસૂરિનો ભેટો થયો. તેમની સાથે ચારેક પંડિતો હતા. તેઓ ગુજરાત જતા હતા. જ્ઞાનતૃષા સંતોષવા મુનિજી તેમની સાથે પાલનપુર ગયા. ત્યાંથી વડોદરા આવ્યા. મુનિજીનાં સંશોધન અને સ્વાધ્યાય સતત ચાલુ હતાં. રસરુચિની પરિપક્વતા વધતી જતી હતી. ટોડરમલને વાંચ્યા પછી રાજસ્થાન તેમજ મેવાડના ઇતિહાસ સંદર્ભે વધુ જિજ્ઞાસા થઈ. સરળ અને શાંત પ્રકૃતિ ધરાવતા સુંદરવિજયજીનો સંપર્ક થયો, એથી જિનવિજયજીને વિદ્વત્તા સાથે વિદ્યાપ્રાપ્તિની સગવડ મળી. ઇ.સ. ૧૯૧૨ (સં. ૧૯૬૮)માં સુરત ખાતે સમભાવી સંત, સાહિત્યસમુપાસક પ્રવર્તક શ્રી કાન્તિવિજયનો સંપર્ક થયો. કાન્તિવિજયજી વિદ્યાનુરાગી ને વિદ્વત્તા તેમ જ વિદ્વાનને પ્રેરણા આપનાર હતા. પાટણ અને અન્યત્ર પ્રાચીન ગ્રંથભંડારોનો લાભ એમની સહાય-સગવડથી પ્રાપ્ત થયો. ચતુરવિજયજી, જેઓ કાન્તિવિજયજીના શિષ્ય હતા. તેમનો સંપર્ક મુનિજીને થયો. તેઓ સંશોધનપ્રિય હતા, અનેક જૈન ગ્રંથ ભંડારોના સમુદ્ધારક હતા, સાથે-સાથે આગમ પ્રભાકર મુનિજી પુણ્યવિજયજીના પરમ સહૃદય બન્યા. એમની નિર્મળ પ્રીતિ ને જ્ઞાનભક્તિ મુનિજી માટે પ્રેરક બળ હતું. મુનિ જિનવિજયજીએ ઈ.સ. ૧૯૧૨ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 રમેશ ઓઝા SAMBODHI (સં. ૧૯૬૮)ના ચાતુર્માસ શ્રી કાન્તિવિજયજી સાથે સુરતમાં, ઇ.સ. ૧૯૧૩ (સં. ૧૯૬૯)નો ડભોઈમાં તેમજ ઈ.સ. ૧૯૧૪ (સં. ૧૯૭૦)નો ચાતુર્માસ પાટણમાં કર્યો. ચાતુર્માસ પછી પાટણના એક ધનિક શેઠે કેસરિયાજી (મેવાડ)ની યાત્રાનો સંઘ કાઢ્યો એમાં જોડાયા. ઈ.સ. ૧૯૧૫ (સં. ૧૯૭૧)માં મહેસાણા ચાતુર્માસ કર્યો. ત્યાંથી પાલનપુરી ગયા ને ફરી પાછો ઇ.સ. ૧૯૧૬ (સં. ૧૯૭૨)ના ચાતુર્માસ પાટણમાં કર્યો. પાટણનો ગ્રંથભંડાર એમનું તીર્થ હતું. એ પરિચય પાછળથી વડોદરાની ગાયકવાડ ઓરિયેન્ટલ સિરીઝનાં સંપાદનો વખતે વધુ ગાઢ બન્યો. વૈયાકરણ શાકટાયન વિશેનો પ્રથમ લેખ મુનિજીએ પાટણમાં લખ્યો. એ લેખ હિન્દી માસિક “સરસ્વતી' (જાન્યુ., ૧૯૧૬)માં પ્રગટ થયો. પાટણના ગ્રંથભંડારમાંથી મળેલી પ્રાચીન ગુજરાતીની હસ્તપ્રત નેમિનાથ જૈન કોન્ફરન્સ હેરલ્ડ'માં પ્રકાશિત થયો. મુનિજીની લખવા-વાંચવાની તીવ્ર જિજ્ઞાસા એટલી પ્રબળ કે સમયનો યોગ્ય ઉપયોગ કરવો પડે. રાત્રે જૈન સાધુથી દીવાથી વંચાય નહીં, કરવું શું? એમણે પંડિત સુખલાલજી પાસે બેટરી મંગાવી. પંડિતજીએ નોંધ્યું છે કે તિલકમંજરીના કર્તા ધનપાલ વિશેનો લેખ મુનિ જિનવિજયજીએ પાટણમાં બેટરીના પ્રકાશમાં લખેલો. જિનવિજયજીનો એ પછી વડોદરા નિવાસ થતાં, ત્યાં જૈન ભંડારોમાં અત્ર-તત્ર વેરાયેલી પડેલી ઐતિહાસિક સાધનસામગ્રીનું યોગ્ય સંપાદન કરી પ્રગટ કરવાના પુણ્ય હેતુથી શ્રી પ્રવર્તકજીની પુનિત સ્મૃતિમાં “પ્રવર્તક કાન્તિવિજય જૈન ઐતિહાસિક ગ્રંથમાળા'નો આરંભ કર્યો. મુનિજીએ પાટણ ગ્રંથભંડારમાંથી જેની એક માત્ર સંપૂર્ણ તાડપત્રીય પ્રતિ મળી હતી તે, સોમપ્રભાચાર્યકૃત કુમારપાલપ્રતિબોધ' (પ્રાકૃત ગ્રંથોનું સંપાદન આ સિરીઝ અન્વયે કર્યું. આ ગ્રન્થમાંના અપભ્રંશ અંશોનું અધ્યયન કરીને જર્મન વિદ્વાન ડો. આલ્સફોર્ડ પોતાનો શોધપ્રબંધ તૈયાર કર્યો હતો. આ ગ્રંથમાળા અન્વયે મુનિજીએ “કૃપારસકોશ', “વિજ્ઞપ્તિત્રિવેણી', ‘શત્રુંજય તીર્થોદ્વાર પ્રબંધ', પ્રાચીન જૈન લેખસંગ્રહ ભાગ ૧-૨', “જૈન ઐતિહાસિક ગુર્જર કાવ્યસંચય', દ્રૌપદીસ્વયંવર નાટક' આદિ ઐતિહાસિક તથા સાહિત્યિક ગ્રંથોનાં સંપાદનો કર્યા. આ સંપાદનોમાં મુનિ જિનવિજયજીની વિશદ, અભ્યાસપૂર્ણ પ્રસ્તાવનાઓ તેમ જ ખૂબ જ મહત્ત્વની સંદર્ભનોંધો છે. મુનિજીની વિરલ પર્યેષક પ્રતિભાનો પરિચય એનાથી થાય છે. આપણે આગળ જોયું એમ ઈ.સ. ૧૯૧૭(સં.૧૯૭૩)માં પ.પૂ. કાન્તિવિજયજી સાથે મુંબઈ ચાતુર્માસ નિમિત્તે હતા, ત્યાંથી પૂના ગયેલા. ત્યાં “જૈન સાહિત્ય સંશોધક સમિતિની સ્થાપના કરી. ત્યાંથી ગૂજરાત વિદ્યાપીઠ આવેલા. વિદ્યાપીઠના નિવાસ દરમિયાન પૂનાની સંસ્થાઓ સાથે મુનિશ્રી જોડાયેલા રહ્યા. ઇ.સ. ૧૯૨૦ (વિ.સ.૧૯૭૭)માં “જૈન સાહિત્ય સંશોધક સૈમાસિક શરૂ કર્યું એ સુવિદિત છે. લગભગ પાંચ વર્ષ આ પત્રિકાનું પ્રકાશન ચાલ્યું. પંડિત સુખલાલજીએ પત્રિકા વિશે આ રીતે નોંધ કરી છે : “જૈન સમાજના કોઈ પણ પંથમાં આ કોટિની પત્રિકા આજ સુધી પ્રગટ થઈ નથી. આ પત્રિકામાં જૈન સાહિત્ય મુખ્ય હોવા છતાં એની પ્રતિષ્ઠા જૈનેતર વિદ્વાનોમાં વધારે છે. એનું કારણ એની તટસ્થતા તેમજ ઐતિહાસિક પરિપૂર્ણતા છે.” જૈન સાહિત્ય સંશોધક સમિતિ દ્વારા મુનિજીનાં સંપાદિત પુસ્તકોની યાદી આ લેખના અંતમાં મૂકી છે. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ – ૩, જૂન ૧૯૭૬) 239 આપણે એ પણ જોયું કે ઈ.સ. ૧૯૨૫માં જર્મન વિદ્વાન ડો. શુઝિંગ ભારત આવ્યા ત્યારે મુનિજીને મળવા ખાસ વિદ્યાપીઠની મુલાકાતે આવેલા. ગુજરાત પુરાતત્ત્વ મંદિર તેમ જ વિદ્વમંડળીનાં કાર્યો વિશે તેમણે નોંધ કરેલી. એમણે મુનિજીને જર્મની પધારવા આમંત્રણ આપેલું. ઇ.સ. ૧૯૨૮માં મહાત્મા ગાંધીજીની અનુમતિ લઈને મુનિજી મે માસમાં મુંબઈથી સ્ટીમર દ્વારા પૅરિસ થઈને લંડન ગયા. જો કે મહાત્મા ગાંધીએ વિદ્યાપીઠની પુનર્રચના કરીને પ્રતિજ્ઞાપત્ર ભરવાનું ફરજિયાત કર્યું. એમાં એમણે વિદ્યાપીઠ સંદર્ભે કહ્યું કે, કેવળ અહિંસાથી જ ભારત સ્વરાજ્ય પ્રાપ્ત કરી શકાશે. મુનિજી બંધનો પ્રત્યે વિદ્રોહી હતા, તેથી વિદ્યાપીઠની સેવાઓથી મુક્ત થવા જ માગતા હતા. તેઓ લંડન દોઢ વર્ષ (જૂન, '૨૮થી ડિસે. '૮૮) રહ્યા. ત્યાંથી એમણે શ્રી મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈ પર પત્રો લખ્યા. જે જૈનયુગ'ના અંકોમાં પ્રગટ થયા છે. જર્મનીમાં મુનિજી વિવિધ વિશ્વવિદ્યાલયોમાં પ્રાચ્ય વિદ્યાના વિદ્વાનોને મળ્યા. મુનિજીને લાગ્યું કે ભારત સંબંધી વિચાર-વિનિમય માટે એકાદ કેન્દ્રની જરૂરિયાત છે, તેથી તેમણે મુસ્લિમ મિત્રની સહાયતા લઈને “હિંદુસ્તાન હાઉસ' સંસ્થાનની સ્થાપના કરી. એનું ઉદ્ઘાટન ૨૪ ઓગસ્ટ, ૧૯૨૮ના રોજ શ્રી શિવપ્રસાદ ગુપ્તાને વરદહસ્તે થયું. સાથે સાથે ભારત-જર્મની વચ્ચે મિત્રતા વધારવા “ઇન્ડોજર્મન સેન્ટર' જેવી સાંસ્કૃતિક સંસ્થાની સ્થાપના કરી. ઈ.સ.૧૯૨૯ના ડિસેમ્બર મહિનામાં ભારત પાછા ફરીને મુનિજી શ્રી મહાદેવભાઈ દેસાઈની પ્રેરણાથી લાહોર કોંગ્રેસ અધિવેશનમાં ગયા. પૂર્ણ સ્વાધીનતાના પ્રસ્તાવનો સ્વીકાર કર્યો. ફરી જર્મની જવાનો વિચાર હતો, પણ ગાંધીજીએ ભારતમાં એમની આવશ્યકતા વધુ છે એમ કહ્યું, તેથી ભારતમાં જ રહ્યા. ૧૨ માર્ચે (૧૯૩૦) ગાંધીજી સાથે નમક સત્યાગ્રહમાં ‘દાંડીકૂચમાં પંચોતેર સ્વયંસેવકો સાથે પોતે જોડાયા. અમદાવાદના સ્ટેશને જ એમને ગિરફતાર કરવામાં આવ્યા. છ માસની કારાવાસ જેલ થઈ. એક રાત વરલી જેલમાં ને પછી નાસિક જેલમાં લઈ જવામાં આવ્યા. ત્યાં શ્રી જમનાલાલ બજાજ, શ્રી નરીમાન, ડો. ચોક્સી, શ્રી રણછોડભાઈ શેઠ, શ્રી મુકુંદ માલવિયા સાથે હતા. ત્યાં જ શ્રી ક. મા. મુનશીનો પરિચય થયો. મુન્શી સાથેની ચર્ચાના ફળસ્વરૂપે, પાછળથી જે ભારતીય વિદ્યાભવનની સ્થાપના થઈ એનાં બીજ અહીંથી રોપાયેલાં હતાં. ઇ.સ. ૧૯૩૦ની વિજયાદશમીએ જેલમાંથી છૂટ્યા. કલકત્તાના જૈન સાહિત્યાનુરાગી શ્રી બહાદુરસિંહ સિંઘીના આમંત્રણથી ઈ.સ. ૧૯૩૦ (વિ.સં. ૧૯૪૭)માં કલકત્તા ગયા. ત્યાંથી ટાગોરની સંસ્થા “શાંતિનિકેતન' ગયા. ત્યાં ક્ષિતિમોહન સેનને મળ્યા. શાંતિનિકેતનથી પાછા ફરતાં સિંઘીજીના આગ્રહથી, શ્રી સિંઘી જૈન ગ્રંથમાળા શરૂ કરવાનું નક્કી કર્યું. એ માટે સિંધી જૈન જ્ઞાનપીઠની સ્થાપનાની યોજના તૈયાર કરી. ઇ.સ. ૧૯૩૦ના ડિસેમ્બરમાં શાંતિનિકેતનમાં ‘સિંઘી જૈન જ્ઞાનપીઠ' તેમ જ “સિંઘી જૈન ગ્રંથમાળા'નો પ્રારંભ કર્યો. પહેલો ગ્રંથ પ્રબંધ ચિંતામણિ' (ઇ.સ. ૧૯૩૩) પ્રગટ કર્યો. શાંતિનિકેતન મુનિજી ત્રણ વર્ષ રહ્યા. ત્યાંનું વાતાવરણ અનુકૂળ ન રહેતાં, સ્વાથ્ય ઉપર અસર થઈ. ત્યાં ક. મા. મુનશીએ મુંબઈમાં ભારતીય વિદ્યાભવનની સ્થાપના કરી. શ્રી ક. મા. મુનશીના આગ્રહથી મુનિજી વિદ્યાભવન સાથે જોડાયા. સિંઘી જૈન ગ્રંથમાળાનું કાર્યાલય પણ વિદ્યાભવનમાં ખસેડ્યું. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 રમેશ ઓઝા SAMBODHI અમદાવાદ ગુજરાત સાહિત્ય સભાએ મુનિજીને વ્યાખ્યાન (૧૭ જુલાઈ ૧૯૩૩) માટે આમંત્રણ આપ્યું. મુનિજીએ પ્રાચીન ગુજરાતના સાંસ્કૃતિક ઇતિહાસની સાધનસામગ્રી' વિષય ઉપર સંશોધનાત્મક વ્યાખ્યાન આપ્યું. ઈ.સ. ૧૯૩૬માં ગુજરાતી સાહિત્ય સંમેલનના ઇતિહાસ અને પુરાતત્ત્વના અધ્યક્ષ તરીકે મુનિજીને આમંત્રણ મળ્યું. મહાત્મા ગાંધી એના પ્રમુખ હતા. વિભાગીય અધ્યક્ષ તરીકે મુનિજીએ “ગુજરાતની ઇતિહાસ સંશોધન પ્રવૃત્તિનું સિંહાવલોકન' વિષય ઉપર વક્તવ્ય આપ્યું, અને ગુજરાતમાં ઇતિહાસના અધ્યયન અને સંશોધનની આવશ્યકતા તરફ સૌનું ધ્યાન દોર્યું. ઇ.સ. ૧૯૩૫-૩૬માં રાજસ્થાનમાં પ્રસિદ્ધ તીર્થ કેસરિયાજીના અધિકાર સંદર્ભે એક વિવાદ ખૂબ ઉગ્ર સ્વરૂપે થયો હતો. અનેક જૈનપત્રોમાં એની ચર્ચા અંગે માહિતી પ્રગટ થતી હતી. એના ઉકેલ માટે ઉદયપુર રાજ્ય દ્વારા એક આયોગ રચવામાં આવ્યું હતું. જૈન શ્વેતાંબર કૉન્ફરન્સના આગ્રહથી મુનિજી વિવાદના ઉકેલ માટે મધ્યસ્થી થયા. સમાધાન માટે તાત્ત્વિક આધારો કે હકીકતોની, યથાર્થ રજુઆતને કારણે બંને પક્ષો મુનિજીથી પ્રભાવિત થયા ને પ્રશ્ન હલ થયો. ઇ.સ. ૧૯૩૯માં ક.મા. મુનશીએ ભારતીય વિદ્યાભવનની સ્થાપના કરી, મુનિજીને સાથે લીધા. મુનિજીએ “ભારતીય વિદ્યા' નામે એક ત્રમાસિક શોધ પત્રિકાનું પ્રકાશન કર્યું. વર્ષો સુધી એ પત્રિકાના સંપાદક મુનિજી રહ્યા. ઇ.સ. ૧૯૩૮માં વડોદરામાં મુનિજીએ “ગુજરાતનો જૈનધર્મ' વિષય ઉપર વ્યાખ્યાન આપ્યું. ઇ.સ. ૧૯૩૯માં રાજસ્થાન હિન્દી સાહિત્ય સંમેલનનું પ્રથમ અધિવેશન ઉદયપુરમાં ભરાયું. મુનિજીએ હિન્દી ભાષાના મહત્ત્વ તેમજ રાજસ્થાનના ગૌરવપૂર્ણ ઇતિહાસ વિશે વ્યાખ્યાન આપ્યું. આચાર્યશ્રી જિનહરિસાગરના નિમંત્રણથી મુનિજી ૩૦ નવે. ૧૯૪૨ના રોજ જેસલમેર ગયા. ત્યાં પાંચ મહિના રહ્યા. ૨૦૦ ગ્રંથોની પ્રતિલિપિ તૈયાર કરાવી. ૧ મે ૧૯૪૭ના દિવસે પાછા અમદાવાદ આવ્યા. ત્યાંથી મુંબઈ જઈ ફરી પોતાના કામમાં લાગી ગયા. ઇ.સ. ૧૯૪૫-૪૬માં ક.મા. મુનશી સાથે ઉદયપુરના મહારાણાની ઇચ્છા પ્રમાણે “પ્રતાપ વિશ્વવિદ્યાલયની યોજના બનાવી પણ દેશી રાજયોના વિલીનીકરણમાં તે સંસ્થા વિલીન થઈ ગઈ. એ વખતે ક.મા.મુનશી ઉદયપુરના સલાહકાર તરીકે નિયુક્ત થયા હતા. મુનશીજી સાથેના એમના ગાઢ સંબંધોને કારણે મેવાડના મહારાણા તેમજ રાજકીય ક્ષેત્રે કાર્ય કરતા મહાનુભાવો સાથે મુનીજીના સંબંધો થયા. જિનવિજયજીના વિચારો બદલાયા, શરીરશ્રમ. અન્ન ઉત્પાદન અને સ્વાવલંબન પ્રતિ જોક વધ્યો. માતાની સેવા ન કરી શક્યા, પણ માતૃભૂમિની સેવા કરવાની ઇચ્છા થઈ. રાણા પ્રતાપ, મીરાંબાઈ તેમજ આચાર્ય હરિભદ્રસૂરિની ભૂમિ પ્રત્યે વિશેષ આકર્ષણ હતું. ચિતોડ પાસે ચંદેરિયામાં ૨૮ એપ્રિલ, ૧૯૫૦ના રોજ - રાજસ્થાન પ્રાચ્યવિદ્યા પ્રતિષ્ઠાન – સર્વોદય સાધના આશ્રમની સ્થાપના કરી. એ સમયગાળામાં રાજસ્થાન પુરાતત્ત્વ મંદિરની યોજના તૈયાર કરી અને ૧૩ મે, ૧૯૫૦ના રોજ સંસ્થાની સ્થાપના કરી અને મુનિજીની શક્તિ બે પ્રકારનાં કામોમાં વહેંચાઈ ગઈ. ખેતી કરવી અને આવાસ ઊભાં કરવાં તેમ જ પુરાતત્ત્વ ભંડારની પ્રવૃત્તિ તેમ જ કાર્યોને વેગ આપવો. ઈ.સ. ૧૯૫૨માં મુનિની જર્મનીની વિશ્વવિખ્યાત ઑરિએન્ટલ સોસાયટીના આદરપાત્ર સદસ્ય તરીકે પસંદગી થઈ. ઇ.સ. ૧૯૬૧માં ભારત સરકારે મુનિજીને પદ્મશ્રીની ઉપાધિથી નવાજ્યા. ભારતીય વિદ્યા Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 પુરાતત્ત્વાચાર્ય મુનિ શ્રી જિનવિજયજી (૨૭, જાન્યુ. ૧૮૮૮ – ૩, જૂન ૧૯૭૬) 241 અને પુરાતત્ત્વની, સામાન્યતઃ રાજસ્થાનના પુરાતત્ત્વ તેમ જ જૈન વિદ્યાની પ્રાચીન સામગ્રી, એનું અધ્યયન-પ્રકાશનનું વિશાળ, મૌલિક અને ઐતિહાસિક કાર્ય મુનિજીએ કર્યું. મુનિજી માત્ર વિદ્વાન કે પુરાતત્ત્વવિદ નહોતા, તે સ્વંય આંદોલન હતા. સંસ્થા હતા. વીર પ્રકૃતિના હતા. એમના વિદ્યાતપનું આ સમ્માન હતું. ઈ.સ. ૧૯૫૮માં રાજસ્થાન સરકાર દ્વારા જોધપુરમાં નવીન ભવનનું ઉદ્ઘાટન તત્કાલીન મુખ્યમંત્રી શ્રી મોહનલાલ સુખડિયાના હાથે થયું. જે વિદ્યાકેન્દ્ર ભારતીય વિદ્યા અને પુરાતત્ત્વ સંબંધિત હસ્તપ્રતો તેમ જ મુદ્રિત ગ્રંથો માટે દેશભરમાં જાણીતું થયું. મુનિજી ઇ.સ. ૧૯૬૭માં એ સંસ્થાના સંચાલક તરીકેની જવાબદારીમાંથી મુક્ત થયા. મુનિજીએ ઇ.સ. ૧૯૫૦માં સ્થાપેલા સર્વોદય આશ્રમને રાજસ્થાનની સંત વિનોબાની પદયાત્રા વખતે તેમને અર્પણ કરી દીધો. આશ્રમ સામે મુનિજીએ નિવાસસ્થાન બનાવ્યું તેમજ સર્વદેવાયતન મંદિર બનાવ્યું. જેમાં વૈદિક, જૈન તથા બૌદ્ધ દેવદેવીઓની સ્થાપના કરી. સર્વ ધર્મ સમભાવનું એ સુંદર વ્યાવહારિક પ્રતીક બની રહ્યું. રાજસ્થાન સાહિત્ય અકાદમી (સંગમ), ઉદયપુર મુનિજીને એમની સરસ્વતી સાધના માટે મનીષી” ઉપાધિથી અલંકૃત કર્યા. એ સમ્માન ૧૯ નવે., ૧૯૬૪ના દિવસે અપાયું. કટોકટી વખતે મુનિજીએ એમને મળેલો પદ્મશ્રીનો ઇલ્કાબ સરકારને પરત કર્યો હતો. કર્મ અને શ્રમમાં અનોખી નિષ્ઠા સેવી, અવિરત વિદ્યાના ઉપાસક એવા સંસ્થા સ્વરૂપ મુનિજીએ બીજી જૂન, ૧૯૭૬ના રોજ અમદાવાદના પોતાના નિવાસસ્થાન “અનેકાન્ત વિહાર'માં ૮૮ વર્ષની ઉંમરે પોતાનો દેહ છોડ્યો. એમની ઇચ્છા પ્રમાણે એમનો પાર્થિવ દેહ ચિતોડ જોડે એમના ચંદેરિયા આશ્રમમાં લઈ જવાયો હતો. ૩ જૂન, ૧૯૭૬ પાર્થિવ દેહ ચંદેરિયા પહોંચ્યો. ૪ જૂનની સવારે ચિતોડ સ્થિત હરિભદ્રસૂરિ સ્મૃતિ મંદિરના વિશ્રામ ભવનમાં દેહ લાવવામાં આવ્યો. દેશભરમાંથી વરિષ્ઠ મહાનુભાવોએ શ્રદ્ધાંજલિ આપી. છેવટે સર્વોદય આશ્રમમાં ચંદનકાષ્ઠની ચિતા તૈયાર કરી, અંતિમ વિધિ થયો. મુનિજીના દેહાવસાનથી સમગ્ર વિશ્વના આ ક્ષેત્રના વિદ્વદૂજનોમાં ઘેરા શોકની લાગણી ફેલાઈ ગઈ. દેશ-વિદેશના વિદ્વાનોએ શ્રદ્ધાંજલિ અર્પણ કરી. કવિવર શ્રી ઉમાશંકર જોશીએ એક જગ્યાએ વાતવાતમાં કહેલું તે યોગ્ય છે : ગુજરાતને બે પ્રકાંડ ઇતિહાસ સંશોધક મળ્યા – એક ગિરનારની ગુફાથી નીકળ્યા અને બીજા અરવલ્લીની ગિરિ કંદરાથી. આ બે સંશોધકો તે પં. ભગવાનદાસ ઇંદ્રજી અને મુનિ જિનવિજયજી. બંનેએ શાળા-કોલેજનું શિક્ષણ પ્રાપ્ત કર્યું નહોતું છતાં બંનેએ માત્ર રાષ્ટ્રીય નહિ, પણ આંતરરાષ્ટ્રીય ખ્યાતિ પ્રાપ્ત કરી. બંને વ્યવહારદક્ષ અને માનવતાવાદી હતા. મુનિ જિનવિજયજીનો અક્ષરદેહ I. વાનસ્થાન પુરાતન સ્થમાના ૨. ત્રિપુરામારતી નથુતવ (સંપા.) ૨. મૃત પ્રપા (સંપા.) Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 રમેશ ઓઝા SAMBODHI ॐ3) 2 बालशिक्षा-व्याकरण (संपा.) प्रमाण-मंजरी यन्त्रराज-रचना महर्षिकुलवैभवम् (मूल व वृत्ति) ग्रन्थांक ६ व ५९ वृत्ति दीपिका राजविनोद महाकाव्य तर्कसंग्रह प्राकृतानन्द (संपा.) कान्हड़दे-प्रबन्ध १२. उक्ति-रत्नाकर (संपा.) १३. क्यामखां रासा १४. ___ कूर्मवंशयशप्रकाश (लावारासा) १५. श्रृङ्गारहारावली कृष्णगीति नृत्तसंग्रह कारकसम्बन्धोद्योत शब्दरत्न-प्रदीप चक्रपाणिविजय महाकाव्य बांकीदास रो ख्यात दुरागपुष्पाञ्जलि दशकण्ठवध नृत्यरत्न कोश – (ग्रन्थांक २४ व २५) कर्ण-कुतूहल २६. राजस्थानी-साहित्य-संग्रह (भाग-१) २७. वासवदत्ता कथा २८. ईश्वरविलास महाकाव्य २९. पद्यमुक्तावली ३०. राजस्थान में संस्कृत साहित्य की खोज जुगविलास वीरवाण कवीन्द्रकल्पलता गोरा-बादल पद्मिनी चौपई (संपा.) ३५. वसन्तविलासफागु २०. २५. my CW Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XLI, 2018 पुरातत्वाचार्य मुनि श्री. निवि४५० (२७, न्यु. १८८८ - 3, ठून १८७६) 243 ३६. ३७. ३८. ३९. ४०. ४१. ४३. ४६. ४८. ४९. स्वयंभूच्छन्द पदार्थरत्नमञ्जूषा चान्द्रव्याकरण गोरा-बादिल-चरित्र (श्री हेमरतन विरचित) रसदीर्घिका भगतमाल वस्तुरत्न कोश काव्यप्रकाश (भाग १ व २) । मुंहता नैणसी री ख्यात रघुवर जस प्रकाश राजस्थानी-साहित्य-संग्रह भाग-२ राजस्थानी-साहित्य-संग्रह भाग-३ श्रीभुवनेश्वरीमहास्तोत्रम् सूरजप्रकाश रत्नपरीक्षादि सप्तग्रन्थ-संग्रह (સામગ્રી સંપાદનકર્તા શ્રી ભંવરલાલ નાહટા છે.) वृत्तिजातिसमुच्चय कविदर्पण नेहतरंग एकाक्षरनामकोश संग्रह हम्मीर महाकाव्यम् मत्स्यप्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन इन्द्रप्रस्थ-प्रबन्ध वृद्धिविलास रुक्मिणी-हरण सन्तकवि रज्जब भक्तमाल सटीक पश्चिमी भारत की यात्रा विन्हैरासो सोढ़ायण नन्दोपाख्यान (संपा.) राठौड वंश री विगत एवं वंशावली कविकौस्तुभ (संपा.) ५२. ५३. ५४. ५६. ५७. ५८. m ६१. m mm. ६२. ६३. ६४. ६५. ६६. ६७. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 રમેશ ઓઝા SAMBODHI II. सिंघी जैन ग्रन्थमाला 3 ) ७ ११. १२. १३. १५. १६. १७. १८. प्रबन्ध चिन्तामणि भाग-१ प्रबन्ध चिन्तामणि भाग-२ हिन्दी भाषान्तर प्रबन्धकोश (प्रथम भाग) विविधतीर्थकल्प (प्रथम भाग) पुरातनप्रबन्ध संग्रह (मूलपाठ) प्रभावक चरित (प्रथम भाग-मूल ग्रन्थ) जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह (प्रथम भाग) सन्देशरासक कथाकोष प्रकरण भाग १-२ कुवलयमाला दि लाईफ ऑफ हेमचन्द्राचार्य देवानन्द महाकाव्य श्रकलकग्रन्त्रयम् भानुचन्द्रगणिचरित ज्ञानबिन्दु प्रकरण बृहत्कथाकोश रिष्ट समुच्चय दिग्विजयमहाकाव्य लीलाबाई (लीलावती) शतकत्रयादि-सुभाषित संग्रह धर्मोपदेशमाला विवरण धर्माभ्युदय महाकाव्य भद्रबाहु संहिता ज्ञानपंचमी कथा पउमसिरीचरिउ धूर्ताख्यान (प्राकृत) श्री हरिभद्राचार्यविरचित धूर्ताख्यान (संस्कृत) श्री संघतिलकाचार्यविरचित धूर्ताख्यान बालावबोध (गूर्जर) छन्दोनुशासन काव्यप्रकाश खण्डन उक्तिव्यक्ति प्रकरण V १९. २०. २१. २२. २३. My २४. 20 २५. २७. २८. २९. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 ३०. ३५. Vol. XLI, 2018 पुरातत्वाचार्य मुनि श्री निवि४य (२७, न्यु. १८८८ - 3, ठून १८७६) राजसिद्धान्त ३१. विविधगच्छीय पट्टावली संग्रह ३२. खरतरगच्छ बृहद् गुर्वावलि ३३. कुमारपाल चरित संग्रह ३४. कीर्तिकौमुदी आदि वस्तुपालप्रशस्ति संग्रह सुकृतसंकीर्तन ३६. जम्बूचरित ३७. विज्ञप्ति लेख-संग्रह ३८. विवेकविलास टीका - भानुचन्द्र गणि कृत ३९. वासवदत्ता टीका - सिद्धिचन्द्रोपाध्याय विरचित पुरातन रास-भासादि संग्रह (हिन्दी भाषान्तर) पुरातन प्रबन्ध संग्रह (हिन्दी भाषान्तर) जयपाहुडनाम (निमित्त शास्त्र) भद्रबाहु संहिता ४४. नर्मदा सुन्दरी कथा - महेन्द्र सूरि जिनदत्ताख्यानद्वय काव्यप्रकाश खण्डन धर्मोपदेश माला ४८. राजसिद्धांत – आचार्य कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र कान्तिविजयजी इतिहासमाला-श्री जैन आत्मानन्द सभा १. कृपारसकोश २. शत्रुञ्जय तीर्थोद्धार प्रबन्ध ३. प्राचीन जैन लेख संग्रह, भाग १-२ जैन ऐतिहासिक, गुर्जरकाव्य संचय द्रौपदी स्वयंवर (नाटक) विज्ञप्ति त्रिवेणी – १८८४ ई. IV. गायकवाड ओरियण्टल सीरीज . कुमारपाल प्रतिबोध v. गुजरात विद्यापीठ पुरातत्त्व मन्दिर . प्राचीन जैन लेख संग्रह १९२९ ई. ४५. ४. 3 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 રમેશ ઓઝા SAMBODHI VI. जैन साहित्य संशोधन समिति, पूना १. खरतरगच्छ पट्टावली संग्रह २. आचारांग सूत्र ३. कल्प-व्यवहार-निशीथ सूत्राणि जीतकल्पसूत्र विजयदेव माहात्म्य जैन साहित्य संशोधन समिति, पूना १. अभिधान दीपिका – पालि शब्द कोश २. प्राकृत कथा संग्रह पालि पाठावली ४. प्राचीन गुजराती गद्य-सन्दर्भ VIII. सर्वोदय साधन आश्रम, चन्देरिया (चितौडगढ) १. मेरी जीवन प्रपंच कथा - मुनि जिनविजय २. मेरे दिवगंत मित्रों के कुछ पत्र IX. पत्रिका – सम्पादन व प्रकाशन १. भारतीय विद्या २. जन जागृति (हिन्दी-गुजराती), पूना जैन साहित्य संशोधक (त्रैमासिक) पुरातत्त्व _x. लेख वसन्त रजत महोत्सव स्मारक ग्रन्थ - १९२७ जैन इतिहासनी झलक धनपाल विषयक लेख नेमिनाथ राजीमती बारामासा जैन श्वेताम्बर कोन्फरन्स हेराल्ड वैयाकरण शाकटायन (प्रथम लेख) सत्त्वपरिपूर्ण समदर्शी जीवन – ज्ञानांजलि, मुनि श्री पुण्यविजयजी अभिवादन ग्रन्थ वडोदरा, १९६९ ८. हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णय – अखिल भारतीय प्राच्य-सम्मेलन, बम्बई, १९४४ ॐ 3 ) Page #256 -------------------------------------------------------------------------- _