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Vol. XLI, 2018 वैशेषिकदर्शन में दुःख का स्वरूप तथा प्रो. पाहिकृत दुःखवर्गीकरण की महत्ता 83 प्रो. पाहिकृत दुःख-वर्गीकरण : एक समीक्षा
प्रो. पाहि के अनुसार लौकिक दुःख का जो वर्गीकरण किया गया है, उसमें सांख्यदर्शन के दुःख वर्गीकरण से पर्याप्त साम्य है । सांख्यदर्शन में जो शारीरिक एवं मानसिक रूप से अनुभूत दुःख है वह आध्यात्मिक दुःख है, जिसे प्रो. पाहि ने मानव के द्वारा अर्जित दुःख कहा है। अन्य मनुष्य एवं प्राणियों के द्वारा उत्पन्न दुःख को सांख्यदर्शन में आधिभौतिक कहा गया है, जिसे प्रो. पाहि ने अनर्जित दुःख कहा है। राज्य, समाज आदि संस्थागत व्यवस्थाओं के कारण उत्पन्न दुःख भी आधिभौतिक अथवा अनर्जित दुःख की ही श्रेणी में समाविष्ट हो सकता है। प्रो. पाहि ने व्यक्तिकृत दुःख को ही अर्जित एवं अनर्जित में वर्गीकृत किया है१३, जबकि संस्थागत व्यवस्थाओं के कारण उत्पन्न दुःख भी एक प्रकार से अनर्जित ही है। सांख्यदर्शन में जिसे आधिदैविक दुःख कहा गया है, उसके अन्तर्गत प्रकृतिकृत दुःख को समाविष्ट किया जा सकता है।
प्रो. पाहिकृत दुःख-वर्गीकरण पर विचार करने पर विदित होता है कि लौकिक दुःख का विभाजन दुःख के जनक कारणों के आधार पर किया गया है, वहीं लोकोत्तर दःख का कथन उसके फल के आधार पर किसी कल्याणकारी लक्ष्य में परिणत होने वाली पीड़ा या व्यथा के लिए किया गया है। प्रो. पाहि ने जिस दुःख को लोकोत्तर दुःख कहा है, उसका अनुभव भी व्यक्ति को ही होता है, किन्तु वह लोकोत्तर तब बन जाता है, जब व्यक्ति उस दुःख से स्वयं करूणित होकर दूसरों के दुःख का निवारण करने के
र होता है। वह दःख उपघातक नहीं होकर मानवता का सर्जक हो जाता है। वस्तुतः लौकिक दुःख ही व्यक्ति की अपनी अलौकिक दृष्टि के कारण मानवीय मूल्यों के सर्जन में सहायक बनता है । अतः प्रो. पाहि ने उस दुःख के फल को आधार बनाकर ही उसे लोकोत्तर दुःख कहा है। इस तरह के लोकोत्तर दुःख के कई रूप हो सकते हैं, यथा परिवार के इष्ट व्यक्ति के वियोगजन्य दुःख के परिणामस्वरूप संसार से वैराग्य, अनिष्ट के संयोजन्य दुःख के परिणामस्वरूप अनासक्ति या समता का अभ्यास आदि । तपस्या या साधना को दुःख की कोटि में लेना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि साधक उसे दुःख नहीं तप समझता है ।
अब प्रश्न यह है कि भारतीय परम्परा में चार्वाकदर्शन को छोड़कर सभी दर्शन कर्म-सिद्धान्त की इस मान्यता को स्वीकार करते हैं कि जैसा कर्म किया जाता है वैसा फल भोगा जाता है। सत्कर्म का फल अच्छा एवं दुष्कर्म का फल बुरा होता है । कर्मसिद्धान्त की यह मान्यता प्रो. पाहि के द्वारा कृत दुःख वर्गीकरण में मात्र अर्जित दुःख पर ही लागू होती है, शेष अनर्जित एवं प्रकृतिकृत दुःख कर्मसिद्धान्त की परिधि से बाहर हो जाते हैं । प्रो. पाहि ने अपने वर्गीकरण में अबाधित लोक प्रतीति को महत्त्व देते हुए अनर्जित दुःख की चर्चा की है, जो अपने आपमें महत्त्वपूर्ण है।
अनर्जित दुःख की अवधारणा अकृत अभ्यागम एवं कृतप्रणाश के दोष से युक्त होते हुए भी व्यवहार में सही प्रतीत होती है। प्रो. पाहि के अनुसार सरकार के द्वारा लगाये गए करों के कारण उत्पन्न दुःख को व्यक्ति के स्वकृत कर्म का फल नहीं कहा जा सकता । इसी प्रकार जाति, धर्म, लिंग, अस्पृश्यता