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________________ 84 धर्म चन्द जैन SAMBODHI आदि के कारण भेदभाव से उत्पन्न दुःख को स्वकृत कर्मजन्य कहना युक्तिसंगत नहीं । मोटरवाहन चालक की असावधानी से किसी व्यक्ति की मृत्यु होने एवं मरण पूर्वकालीन दुःख तथा मृत्यु के कारण उस पर आश्रित व्यक्तियों एवं उसके प्रियजनों का दुःख स्पष्टया अनर्जित है। प्रो. पाहि द्वारा किया गया दुःखवर्गीकरण तर्क एवं व्यवहार पर आधारित है, जो प्रचलित कर्म-सिद्धान्त की मान्यताओं को चुनौती देता है तथा कर्मवाद के सिद्धान्त को अपर्याप्त घोषित करता है, क्योंकि समस्त दुःख पूर्वकृत अधर्म के फल से नहीं होता, अन्य कारणों से भी दुःख की प्राप्ति होती है। कर्मसिद्धान्त को लेकर यहाँ दो बिन्दु उभरते हैं - एक तो यह कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है तदनुसार ही उसे दुःख-सुख प्राप्त होते हैं । दूसरा यह कि जो कोई भी सुख-दुःख प्राप्त होते हैं वे अपने कर्मानुसार ही होते हैं । इनमें से प्रथम बिन्दु की मान्यता में प्रो. पाहि द्वारा प्रतिपादित वर्गीकरण से कोई बाधा नहीं है, क्योंकि अजित दुःख अपने कर्म के अनुसार ही प्राप्त होता है। किन्तु समस्या तब उठती है जब अन्य के द्वारा उत्पन्न दुःख को भी अपने ही कर्मफल के रूप में स्वीकार किया जाता है। यहाँ पर जैनदर्शन के उस कथन का उल्लेख करना उचित होगा, जिसमें कहा गया है कि दुःख आत्मकृत होता है, पर कत नहीं ।१४ दसरा निमित्त कारण तो हो सकता है. किन्तु दःखी होना या न होना अपने पर निर्भर करता है। क्योंकि आत्मा ही उसका उपादान कारण है, वैशेषिक दर्शन के शब्दों में कहें तो आत्मा ही समवायी कारण है। हमें एक जैसे निमित्तों का प्रभाव भिन्न-भिन्न आत्माओं पर अलग-अलग दिखाई देता है। साधनाकाल में तीर्थंकर महावीर पर अनेकविध उपसर्ग एवं कष्ट आए, किन्तु उन्होंने उन निमित्तों को प्रभावहीन बना दिया, स्वयं अडोल एवं अविचल रहे । दूसरी बात यह है कि अपने अदृष्ट या वेदनीय कर्म शेष हैं तो उन निमित्तों के प्रभाव से दुःख का वेदन भी होगा ही । इस तरह जिसे अनर्जित दुःख कहा जा रहा है, कर्मसिद्धान्तानुसार वह भी तभी घटित होता है, जब अधर्म स्वरूप अदृष्ट या कर्म का उदय उसमें कारण बनता है। सम्भव है कर्मसिद्धान्त की यह मान्यता आत्मोत्थान को दिशा देने के लिए स्वीकृत की गई हो । यहाँ पर यह अवश्य ध्यातव्य है कि दुःख का उत्तरदायित्व यदि व्यक्ति स्वयं पर नहीं लेगा, तो वह उससे कभी मुक्त नहीं हो सकेगा । जिन दुःखों की उत्पत्ति स्वयं की भूलों एवं दोषों से होती है, उनका निराकरण करने का दायित्व मनुष्य का स्वयं का है। इस उत्तरदायित्व की ओर ध्यान दिलाना ही कर्मसिद्धान्त का प्रमुख लक्ष्य प्रतीत होता है, किन्तु कर्मसिद्धान्त के व्याख्याकारों ने अनर्जित दुःखों को भी स्वयं के अधर्म या पाप का फल स्वीकार कर प्रत्येक दुःख को स्वयं के कर्म के साथ जोड़ दिया है । यहाँ पर यह बात स्पष्ट करनी आवश्यक है कि दुःख चाहे स्वकृत पाप का फल हो अथवा अन्य व्यक्तिकृत व्यवहार, विचार, परिस्थिति आदि से उत्पन्न हो अथवा प्राकृतिक आपदाओं के कारण उत्पन्न दुःख हो, हर परिस्थिति में दुःख पर विजय व्यक्ति को स्वयं प्राप्त करनी होती है । वैशेषिक एवं न्याय दर्शन तो जब तक शरीर है तब तक दुःख का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, किन्तु जैन, बौद्ध आदि दर्शन एवं भगवद्गीता में समता की ऐसी साधना दी गई है, जो दुःख की परिस्थितियों में भी व्यक्ति को दुःखी नहीं होने देती । दुःख की परिस्थिति में भी दुःख का अनुभव न होने देना मनुष्य
SR No.520791
Book TitleSambodhi 2018 Vol 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size20 MB
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