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Vol. XLI, 2018
लिङ्गपुराण का योगदर्शन
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- अधूरा तथा एकांगी प्रतीत होता है । स्वाध्याय के तीन सुविज्ञात भेदों का उल्लेख करने से उसके स्वरूप को कुछ स्पष्टता अवश्य मिली है । प्रणव का वाचिक जप अधम कोटि का स्वाध्याय है, उद्यांशु जप मुख्य स्वाध्याय तथा मानस जप उत्तमोत्तम स्वाध्याय है (१.८.३९) । योगदर्शन के ईश्वर प्रणिधान को लिङ्गपुराण के शैव परिवेश में 'शिवप्रणिधान' नाम से अभिहित किया गया है। पुराण की शब्दावली में अनन्य भाव से भगवान् शिव का चिन्तन तथा गुरु के प्रति निश्चल भक्ति 'शिवज्ञान' (शिवप्रणिधान) है। ईश्वर का पूर्ण आत्मसमर्पण के साथ स्मरण-चिन्तन करने से कर्तृभाव विचलित हो जाता है और चित्त ईर्ष्या-द्वेष आदि तुच्छ भावों से मुक्त होकर निर्मल हो जाता है। कूर्मपुराण में यमों को 'चित्तशुद्धिप्रदाः'
और नियमों को 'योगसिद्धिप्रदायिनः' कहा गया है । वस्तुतः यम और नियम के सभी भाव चित्त को शुद्ध कर योग-साधना का मार्ग प्रशस्त करते हैं । इतना अवश्य है कि यमों का सम्बन्ध समाज से है जबकि नियम वैयक्तिक आचरण के भाव हैं।
लिङ्गपुराण में 'आसन' का उल्लेख अन्त में हुआ है और उसका स्पष्ट लक्षण भी नहीं किया गया है। इसका कारण सम्भवतः यह है कि इसके तुरन्त बाद पुराण में योगानुष्ठान का वर्णन है, जो समुचित आसन लगाकर ही किया जाता हैः लब्ध्वासनानि विधिवद्योगसिद्धयर्थमात्मवित् (१.८.७८) । अतः आसन को योगाभ्यास से पूर्व स्थान देना उचित ही है ।
आसन तक साधना शरीर के स्तर पर चलती है । उसकी सफलता के लिये प्राण का शोधन आवश्यक है। प्राणशोधन की सर्वोत्तम विधि प्राणायाम है। इसीलिये अन्य योग-ग्रन्थों की भाति लिङ्गपुराण में भी प्राणायाम का विस्तृत विश्लेषण किया गया है (१.८.४५-६७), यद्यपि मान्य क्रम का उल्लंघन कर पुराणकार ने उसे समाधि के बाद स्थान दिया है। उसकी मान्यता के अनुसार प्राणायाम धारणा, ध्यान तथा समाधि का भी हेतु है : सर्वेहेतुश्च प्राणायाम स्मृतः (१.८.४४) । पर्यालोचन में 'हेतु' (प्राणायाम) का हेतुमान् से पूर्व निरूपण करना ही औचित्यपूर्ण है।
कूर्मपुराण तथा लिङ्गपुराण में प्राणायाम का लक्षण लगभग एक समान है। शरीर के भीतर रहने वाली वायु को प्राण कहते हैं, उसे रोकने का नाम आयाम । याम है - प्राणः स्वदेहजो वायुरायामस्तन्निरोधनम् (कूर्म. २.११.३०); प्राणः स्वदेहजो वायर्धमस्तस्य निरोधनम् (लिङ्गपुराण, १.८.४५)। विकल्प के रूप में लिङ्गपुराण में प्राणायाम का दूसरा लक्षण भी किया गया है, यद्यपि तात्पर्यार्थ की दृष्टि से दोनों में अधिक भेद नहीं है : प्राणापाननिरोधस्तु प्राणायामः प्रकीर्तितः (१.८.४६) । प्राण को रोकने का अभिप्राय है श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति को अधिक देर तक रोकना, उसे आयाम (विस्तार) देना, जैसे पूरक और रेचक के बीच कुम्भक द्वारा किया जाता है। लिङ्गपुराण में पहले अवधि के आधार पर प्राणायाम के तीन भेद किया गये हैं - अधम। मन्द, मध्यम, उत्तम । बारह, चौबीस तथा छत्तीस मात्रा (लघु अक्षरों का उच्चारण काल) तक किये जाने वाले प्राणायाम को क्रमशः मन्द, मध्यम तथा उत्तम कहा गया है । इनसे शरीर में क्रमशः प्रस्वेद, कम्पन तथा उत्थान (ऊपर उठने की क्रिया) उत्पन्न होते है । आनन्दजनक योग की प्राप्ति के लिये किये जाने वाला प्राणायाम शरीर में निद्रा, घुर्णन, रोमांच तथा सशब्द सकम्पन पैदा करता है । जिस प्राणायाम के निरन्तर अभ्यास से पसीना बहने