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सत्यव्रत वर्मा
SAMBODHI
लगे और उससे संविन्मूर्छा-ज्ञानमयी अनमनी अवस्था – उत्पन्न हो और शरीर हल्का होकर उड़ने की स्थिति में आ जाए, वह उत्तमोत्तम प्राणायाम है (१.८.४८-५०) । लिङ्गपुराण में प्राणायाम के पुनः दो भेद किये गये हैं - सगर्भ, अगर्भ । जिस प्राणायाम में प्रणव का जप साथ-साथ चलता है, उसे सगर्भ प्राणायाम कहते हैं । जो प्राणायाम प्रणव-तप के बिना किया जाता है, वह अगर्म प्राणायाम है (१.८.५१)।
प्राणायाम के अनुष्ठान के फल का लिङ्गपुराण में विशद् निरूपण किया गया है । प्राणायाम के नियमित अभ्यास से चित्त का क्षोभ (व्यसन) शान्त हो जाता है, मन, वाणी और शरीर के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं, श्वास-प्रश्वास की गति व्यवस्थित हो जाती है तथा शान्ति, प्रशान्ति, दीप्ति तथा प्रसाद नामक दिव्य सिद्धिया प्राप्त होने लगती हैं (१.८.५५-५७) । प्राणायाम द्वारा प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान तथा नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय, इन दस वायुओं को सिद्ध करने पर प्रसाद नामक सर्वोच्च सिद्धियां प्राप्त होती हैं, जो तुरीया सिद्धि का ही दूसरा नाम है। प्राणायाम चित्त के दोषों को भस्म करनेवाली अचूक ज्वाला है-दोषान् विनिर्दहेत् सर्वान् प्राणायामदसौ यमो (१.८.७५) । प्राणायाम का सर्वोत्तम फल, जैसा पतंजलि ने कहा है, यह है कि उसके नियमित अभ्यास से ज्ञान को आवृत करने वाले व्यामोह । अज्ञान का आवरण क्षीण हो जाता है, जिससे क्रमशः आत्म-अनात्म के भेद का प्रकाश प्रकट होता है। ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् (२.५२) । इसीलिये प्राणायाम को परम तप कहा जाता है : प्राणायामः परमं तपः । अग्निपुराण की शब्दावली में सौ वर्ष से अधिक तक एक-एक मास के अन्तराल से कुश की नोक पर स्थित जल की बूंद पीने का तप करना और प्राणायाम का अभ्यास करना-ये दोनों तप समान
पतंजलि ने प्राणायाम को योगसिद्धि का कारण माना है, किन्तु आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्राणायाम की रेचक, पूरक, कुम्भक आदि क्रियाओं से शरीर श्रान्त तथा मन संक्लेश-युक्त हो जाता है। मनः संक्लेश मुक्ति का कारण नहीं हो सकता । अतः प्रत्याहार प्राणायाम
यम, नियम, आसन और प्राणायाम योग के बाह्य अंग है। धारणा, ध्यान, समाधि उसके आन्तरिक अंग है । इन दोनों का संयोजन तत्त्व 'प्रत्याहार' है । लिङ्गपुराण में केवल एक पद्य में प्रत्याहार का परिचय दिया गया है । स्वभावतः अपने-अपने विषयों में विचरण करनेवाली इन्द्रियों को उनके विषयों से लौटाना, विमुख करना और उसके फलस्वरूप उन्हें वश में करना प्रत्याहार है ।
निग्रहो ह्यपहृत्याशु प्रसक्तानीन्द्रियाणि च ।
विषयेषु समासेन प्रत्याहारः प्रकीर्तितः ॥ (१.८.४२) योगसाधना में प्रत्याहार के महत्त्व के कारण पतंजलि ने उसके स्वरूप का मार्मिक विश्लेषण किया है - स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार (२.५४) । योगाभ्यास के कारण चित्त के विषयों से विमुख होने पर इन्द्रियों को भी, विषयों के साथ सम्बन्ध होने पर भी, उनका ज्ञान नहीं होता । फलतः वे अपने विषयों से स्वयं को अलग कर लेती हैं, उनका विषयों से आहरण हो जाता है। योग की शब्दावली में इस स्थिति को प्रत्याहार कहते हैं ।