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________________ Vol. XLI, 2018 लिङ्गपुराण का योगदर्शन 115 धारणा, ध्यान तथा समाधि योग के आन्तरिक अंग हैं। इनका सामूहिक नाम 'संयम' है । लिङ्गपुराण में धारणा का जो लक्षण दिया गया है - चित्तस्य धारणा प्रोक्ता स्थानबन्धः समासतः (१.८.४२), वह पतंजलि के सूत्र ‘देशबन्धारचित्तस्य' (३.१) की प्रतिध्वनि मात्र है। जैसा कूर्मपुराण में कहा गया है, देह के भीतर हृदयकमल, नाभिचक्र, मूर्छा आदि किसी अंग में अथवा पर्वतशिखर आदि किसी बाह्य लक्ष्य में चित्त को बांधना - एकाग्र करना – धारणा कहलाता है (३.११.३८) । धारणा में चित्त एक विषय में एकाग्रता अवश्य प्राप्त करता है । किन्तु अन्य विषय की वृत्ति उभरकर उसे बाधित कर देती है । विषयान्तर की वृत्ति को हटाकर चित्त को लक्ष्य देश में केन्द्रित करने के प्रयाण भी धारणा की सीमा में आते हैं। लिङ्गपुराण का 'ध्यान' का निरूपण संक्षिप्त होता हुआ भी सारपूर्ण है। उसमें ध्यान का स्वरूप समग्रता से प्रतिबिम्बित है - तत्रै कचित्तता ध्यानं प्रत्ययान्तरवर्जितम् (१.८.४३) । यह योगदर्शन के प्रत्ययैकध्यानं प्रत्ययान्तरवर्जितम् (३.२) से भिन्न नहीं है। किसी एक लक्ष्य/विषय का अवलम्बन कर उसमें चित्त की जो एकतान वृत्ति बनी रहती है और उसमें अन्य किसी वृत्ति का उदय नहीं होता, उसे ध्यान कहते हैं । वृत्ति की एकतानता जितनी अधिक देर तक बनी रहे, उतनी ही उसकी श्रेष्ठता है । अग्निपुराण में ध्यान का ऐसा ही लक्षण किया गया है - ध्येयालम्बनसंस्थस्य सदृशप्रत्ययस्य च । प्रत्ययान्तरनिर्मुक्तः प्रत्ययो ध्यानमुच्यते ॥ ३७४/२ अग्निपुराण ने तो धारणा और ध्यान की भाँति समाधि का भी विस्तृत विवेचन किया है (३७६), किन्तु लिङ्गपुराण में समाधि की चर्चा केवल एक पद्य में सीमित है । जब चैतन्यरूप ध्येय ही भासित होता है और (ध्याता को) देह के अस्तित्व का मान मिट-सा जाता है, ध्यान की वह अवस्था समाधि है : चिद् मासमात्रस्य देहशून्यमिव स्थितम्, समाधिः ... (१.८.४४) । समाधि का यह लक्षण पतंजलि के सूत्र 'तदेवार्थमात्रनिर्मासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः' (३.३) का रूपान्तर ही है। ध्यान ही अपनी विशेष अवस्था में समाधि कहा जाता है । ध्याता जब ध्यान में इतना संलीन होता है कि उसे अपनी सुघ ही न रहे, केवल ध्येय भासित हो अर्थात् ध्याता और ध्येय का भेद समाप्त हो कर ध्येय ही शेष रहता है और ध्यान भी स्वरूप-शून्य सा हो जाता है अर्थात् उसकी प्रतीति नहीं होती, ध्यान की चरम तल्लीनता की वह स्थिति समाधि है। अष्टांग योग के सैद्धान्तिक प्रतिपादन के पश्चात् लिङ्गपुराण में योगाभ्यास की विधि का विस्तृत विवेचन किया गया है, जो पारिभाषिकता से बोझिल है (१.८.७८.११६) । योग के समुचित तथा निर्विघ्न अभ्यास के लिये शान्त एवं बाधा रहित स्थान तथा अनुकूल समय अनिवार्य है । असुविधाजनक स्थान तथा प्रतिकूल समय में योग की एकाग्र साधना सम्भव नहीं है - अदेशकाले योगस्य दर्शनं हि न विद्यते (१.८.७८) । योगाभ्यास के समय चित्त का ईर्ष्या-द्वेष आदि उद्वेगकारी भावों से मुक्त होना आवश्यक है (१.८.८४) सुविधा के अनुसार दृढ आसन लगाकर, सिर को कुछ उन्नत कर, अधखुलीदृष्टि को नासिकाग्र
SR No.520791
Book TitleSambodhi 2018 Vol 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size20 MB
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