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________________ 116 सत्यव्रत वर्मा SAMBODHI पर केन्द्रित कर, ओंकारवाच्य तथा दीपशिखा के समान ज्योतिष्मान् परमात्मा का हृदयकमल की कणिका में समाहित चित्त से ध्यान करना चाहिए (१.८.८७-९१) । अथवा नाभि से तीन अंगुल नीचे अष्टकोणात्मक, पंचकोणात्मक अथवा त्रिकोणात्मक उत्तम कमल का ध्यान करके उसमें क्रमानुसार अपनी शक्तियों के साथ अग्नि, सूर्य तथा चन्द्रमण्डल का ध्यान करते हुए अग्नि के नीचे धर्म चतुष्टय की कल्पना करके, मण्डलों के ऊपर सत्त्व, रजस् तथा तमस् की भावना करते हुए, स्वशक्ति से परिमण्डित रुद्र का चिन्तन साधक को करना चाहिए (१.८.९२-९५) । हृदयकमल में परात्पर ब्रह्म स्वरूप महादेव तथा नाभिदेश में सर्वदेवात्मक सदाशिव का ध्यान किया जाता है (१.८.१.२-१.८) । विधिपूर्वक की गयी योगसाधना से ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है, जो योग का चरम साध्य है। पूर्वजन्म के योगाभ्यासी को यह सिद्धि शीघ्र प्राप्त हो जाती है, नये अभ्यासी को विलम्ब से । ____ किन्तु योगसाधना का मार्ग निष्कष्टक नहीं है । योग के अनुष्ठान में समय-समय पर नाना विघ्न आते हैं । पुराणकारने ऐसे दस विघ्नों का उल्लेख किया है । निष्ठावान् अभ्यासकर्ता अपनी दृढ़ता तथा गुरू के मार्गदर्शन से उन्हें परास्त कर देता है – नश्यन्त्यभ्यासतस्तेऽपि प्रणिधानेन वै गुरोः (१.८.११६)। इसके अतिरिक्त नये अभ्यासी प्रतिमा, दर्शना आदि स्वल्प सिद्धियों से आकर्षित होकर उनके मोह में फंस जाते हैं। वास्तविक अभिलषित सिद्धियों को प्राप्त करने के लिये उनके जाल से मुक्त होना आवश्यक है – स्वल्पसिद्धिसंत्यागात् सिद्धिदाः सिद्धयो मुनेः (१.९.१६) । पुराणकार ने उन स्वल्प सिद्धियों के स्वरूप का विस्तृत विवरण दिया है (१.९.१४.२१) । उसने उन तथाकथित गुणों । ऐश्वर्यों । सिद्धियों का भी विस्तार से निरूपण किया है, जो वास्तव में योगमार्ग के बाधक है (१.९.२४-५१) । उन विघ्नकारी गुणों की व्यापकता का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि उनका जाल ब्रह्मलोक तक फैला हुआ है। साधक को इन औपसर्गिक - विघ्नकारी - गुणों से सर्वात्मना बचना चाहिये - सन्त्याज्य सर्वथा सर्वमौपसर्गिकमात्मनः (१.९.२३) । वैराग्य का खड्ग से जो उन्हें जीत लेता है, उस महात्मा योगी को नाना शक्तियाँ प्राप्त होती है (१.९.५८-६७)। आत्मविधि के दीपक से अज्ञान के अन्धकार के नष्ट होने पर उसे अपने भीतर साक्षात् ईश्वर का दर्शन होता है - तमो निहत्य पुरुषः पश्यति ह्यात्मनीश्वरम् (१.९.६५)। जो योगी लोकहित के कारण उनका त्याग नहीं कर सकता, उसका जीवन दुःखमय नहीं होता : सोऽप्येवमेव सुखी भवेत् (१.९.५७)। लिङ्गपुराण में अन्यत्र (१.५५.७-२०) मन्त्रयोग, स्पर्शयोग, भावयोग, अभावयोग तथा महायोग, इन पाँच योगों का रोचक विश्लेषण किया गया है। ध्यान से युक्त जप का अभ्यास मन्त्रयोग है, कुम्भक में स्थित होकर ध्यान का अभ्यास स्पर्शयोग है, चित्तशुद्धि प्रदान करनेवाला योग भावयोग है, जिसमें शून्य तथा आभासहीन रूप में स्वरूप का चिन्तन किया जाता है वह अभावयोग है, जिसमें आत्मा की सत्ता भासित होती है वह महायोग है ।१० इन योगों में पूर्व की अपेक्षा बादवाला योग श्रेष्ठ माना गया है। इस दृष्टि से महायोग सर्वोत्तम है। महायोग समस्त आचरणों से मुक्त, वस्तुतः अचिन्त्य है । देवता भी इस ज्ञान को ग्रहण करने में समर्थ नहीं हैं । वह स्वयं संवेद्य स्व साक्षी है। अहंकार-रहित साधक ही उसे जान सकता है (१.५५.१९-२०)
SR No.520791
Book TitleSambodhi 2018 Vol 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size20 MB
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