SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 112 सत्यव्रत वर्मा SAMBODHI गया है : नियमस्यापि वै मूलं यम एव न संशयः (१.८.११) । ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणकार की दृष्टि में अहिंसा, सत्य आदि के सम्यक् अभ्यास के बिना 'नियम के भावों को आत्मसात् करना सम्भव नहीं है। योग के इस द्वितीय अंग के प्रति पुराणकार का कुछ ऐसा अनुराग है कि उसने सोलह भावों को नियम के अन्तर्गत माना है और उनकी पृथक्-पृथक् दो वर्गों में गणना की है। उनमें योगदर्शन के पांच प्रसिद्ध नियम भी अन्तर्हित है और केवल उन्हीं के स्वरूप की व्याख्या की गयी है, जो उनके सर्वोपरि महत्त्व का परिचायक है । शौचमिज्या तपो दानं स्वाध्यायोयस्यनिग्रह ॥ १.८.२९ व्रतोपवासमौनं च स्नानं च नियमा दश । नियमः स्यादनीहा च शौचं तुष्टिस्तपस्तथा ॥ १.८.३० जपः शिवप्रणीधानं पद्मकाद्यं तथासनम् । १.८.३१ उपर्युक्त भावों का आधार शौच अथवा शुद्धि है । बाह्य (शारीरिक) तथा आभ्यन्तर भेद से शौच दो प्रकार की है, किन्तु आभ्यन्तर (मानसिक) शुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है (शौचमाभ्यन्तरं वरम्, १.८.३२) जिसके बिना बाह्य शुद्धि मात्र औपचारिक क्रिया है, यद्यपि उसके महत्त्व का निषेध सम्भव नहीं है । बाह्य/शारीरिक शुद्धि से चित्त की मलिनता का परिमार्जन नहीं हो सकता (अवगाह्यापि मलिनो ह्यन्तः शौचविवर्जितः, १.८.३४) । उसके लिये साधक को बाह्य शुद्धि के पश्चात् आन्तरिक शुद्धि के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिये (तस्मादाभ्यन्तरं शौच सदा कार्यं विधानतः, १.८.३५) । पुराणकार की कवित्वपूर्ण भाषा में मन पर अविचल वैराग्य का लेप कर, आत्मज्ञान के सरोवर में स्नान करने से आन्तरिक शुद्धि को कान्ति प्रकट होती है । आन्तरिक शुद्धि से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है । आत्मज्ञानाम्भसि स्नात्वा सकृदालिप्य भावतः । सुवैराग्यमृदा शुद्धः शौचमेव प्रकीर्तितम् ॥ १.८.३६ शुद्धस्य सिद्धयो दृष्टा नैवाशुद्धस्य सिद्धयः । १.८.३७ __ लिङ्गपुराण में शेष नियमों का अपेक्षाकृत संक्षिप्त प्रतिपादन हुआ है। उसके अनुसार न्यायपूर्वक अर्जित धन से सन्तुष्ट रहना तथा खोए धन की चिन्ता न करना सन्तोष है । चान्द्रायण आदि व्रतों के विवेकपूर्ण आचरण को पुराण में शत्रु तप कहा गया है। कूर्मपुराण में दी गयी तप की परिभाषा अतिवादी है । उसके विधान के अनुसार उपवास, चान्द्रायण आदि कठोर व्रतों के नियमित पालन से शरीर को सुख देना 'उत्तम तप' है (२.११.२१) । वस्तुतः सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में अविचल रहकर वासनाओं को क्षीण करना ही सच्चा तप है । यद्यपि कूर्मपुराण ने भी प्रणव के जप को स्वाध्याय माना है, किन्तु उसके साथ सत्साहित्य के अध्ययन का विधान कर उसने उसे कुछ पूर्णता देने का प्रमाण किया है (२.११.२२) । लिङ्गपुराण का स्वाध्याय का विवरण - स्वाध्यायस्तु जपः प्रोक्तः प्रणवस्य (१.८.३९)
SR No.520791
Book TitleSambodhi 2018 Vol 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy