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________________ Vol. XLI, 2018 लिङ्गपुराण का योगदर्शन आत्मवत्सर्वभूतानां हितायैव प्रवर्तनम् । अहिंसैव समाख्याता या चात्मज्ञान सिद्धिदा ॥ १-८.१२ 111 यद्यपि लोक मंगल की उदात्त भावना में सर्वविध हिंसा का अभाव स्वतः अन्तर्निहित है, उसे स्थूल शब्दों में न कहकर प्रकारान्तर से व्यक्त करने से अहिंसा की धारणा को अपूर्व गौरव मिला है । अहिंसा को 'परम धर्म तथा सुख का अक्षय स्रोत मानना उसके गौरव की सच्ची स्वीकृति है । अग्निपुराण ने हिंसा के दस भेद बताकर प्रकारान्तर से अहिंसा की व्यापकता का संकेत किया है । (३७२ / ५-६) । अहिंसा को इस उच्च भावभूमि में प्रतिष्ठित कर शास्त्रविहित हिंसा को अहिंसा मानना वदतोव्याघात से कम नहीं है : विधिना तादृशी हिंसा सा त्वहिंसा इति स्मृता (१.८.२० ) । स्पष्टतः परम्परा की जकड़ से बचना सरल नहीं है । लिङ्गपुराण में सत्य के परम्परागत स्वरूप को ग्रहण किया गया है, जिसका आधार मन, वचन और कर्म का तादात्म्य है । 'मनस्यन्त् वचस्यन्यत्' की तथाकथित व्यावहारिकता हेय है । जैसा देखा, सुना, अनुमित तथा अनुभूत किया, उसे यथावत्, ननु नच के बिना प्रकट करना, सत्य है । सत्य को लोकहित से जोड़कर पुराणकार ने उसे बृहद् आयाम दिया है ।" उसके अनुसार वास्तविक सत्य वही है जो लोक के लिये हानिकारक अथवा पीडादायक न हो ( परपीडावर्जितम्) । जो किसी के लिये अहितकारी हो, वह सत्य यथार्थ होता हुआ भी सत्य नहीं है । इस दृष्टि से किसी के दोषों का कथन भी, उसके लिये पीडादायक होने के कारण उचित नहीं है : परदोषान् परिज्ञाय न वदेदितिचापरम् (१.८.१४) । अग्निपुराण के 'सत्य' के निरूपण में भी 'भूतहित' की भावना प्रमुख है : यद् भूतहितमत्यन्तं वचः (३६२/६) । लोकहित को सत्य की कसौटी मानने से उसका अवमूल्यन अथवा ह्रास नहीं हुआ है बल्कि नयी परीक्षा में तप का उसका स्वरूप और उज्जवल बन गया है । कूर्मपुराण में सत्य और गौरव की विराट् कल्पना की गयी है : सत्येन सर्वमाप्रोति सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम् (१.११.१६), सब कुछ सत्य में समाहित है । ऐसी कोई वस्तु संसार नहीं है, जिसे सत्य से प्राप्त न किया जा सके । T विपत्काल में भी मन, वचन, कर्म किसी प्रकार भी पराये धन का स्पर्श न करना अस्तेय है (१.८.१५) । लिङ्गपुराण में ब्रह्मचर्य पर संन्यासी तथा गृहस्थ की दृष्टि से पृथक् पृथक् विचार किया गया है । संन्यासी के लिये पुराण में कठोर विधान है। उसके लिये ब्रह्मचर्य यह है कि शारीरिक प्रवृत्ति तो दूर, मैथुन की मानसिक कामना भी न की जाए (मैथुनस्याप्रवृत्ति हि मनोवाक्कायकर्मणा, (१.८.१६), जबकि गृहस्थ के लिये, केवल अपनी स्त्री के साथ रति भी ब्रह्मचर्य के पालन के समान है (स्वदारे विधिवत्कृत्वा निवृत्तिश्चान्यतः सदा, १.८.१८ ) । इस प्रसंग में नारी की शव, अंगार आदि से तुलना करके उसकी छीछालेदर का क्या औचित्य है ? लिङ्गपुराण में अपरिग्रह को परिभाषित नहीं किया गया है, किन्तु अग्निपुराण ने उसे कठोरता की चरम सीमा तक पहुँचा दिया है, जिससे अपरिग्रह की प्राचीन अवधारणा की झलक मिलती है (३८२/१६-२४) । योगसाधना में यम का इतना महत्त्व है कि लिङ्गपुराण में उसे नियम का भी मूलाधार माना
SR No.520791
Book TitleSambodhi 2018 Vol 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size20 MB
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