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वीरसागर जैन
मत का निराकरण किया गया है। 'सदेहपरिमाण' पद से नैयायिक, मीमांसक एवं सांख्य मत का निराकरण किया गया है । 'भोत्ता' पद से बौद्ध मत का निराकरण किया गया है । 'संसारित्व' पद से सदाशिव मत का निराकरण किया गया है। 'सिद्धत्व' पद से भट्ट एवं चार्वाक मत का निराकरण किया गया है। 'ऊर्ध्वगमनत्व' पद से मांडलिक मत का निराकरण किया गया है । (बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा २ की टीका)
कहने की आवश्यकता नहीं है कि जो व्यक्ति अन्य दर्शनों से परिचित नहीं होगा, वह इन्हें कथमपि नहीं समझ सकता । इसी प्रकार के और भी असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं, पर सबका अभिप्राय यही है कि अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना शास्त्रों के कथनों को ठीक से नहीं समझा जा सकता। मेरा स्वयं का भी अनुभव है कि मैंने जब से अन्य दर्शनों का कुछ ज्ञान प्राप्त किया है, तब से मुझे जैन दर्शन के कथनों का ज्ञान अधिक स्पष्ट होने लगा है, अतः आप भी अन्य दर्शनों का थोडा बहुत ज्ञान अवश्य प्राप्त करें ।
कुछ लोग कहते हैं कि हमें तो अध्यात्म का ज्ञान करना है, अतः हमें अन्य दर्शनों के ज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है, किन्तु ऐसी बात बिलकुल नहीं है । आध्यात्मिक ग्रंथों को समझने के लिए भी अन्य दर्शनों का ज्ञान बहुत आवश्यक है । 'समयसार' जैसे आध्यात्मिक ग्रन्थ में भी स्थान-स्थान पर अन्य दर्शनों का बहुत उल्लेख हुआ है, जिसे अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना कथमपि नही समझा जा सकता है । यथा
SAMBODHI
(क) गाथा ११७,१२२, ३४० में स्पष्ट नाम लेकर सांख्यदर्शन का उल्लेख है - पसज्जदे संखसमओ. इत्यादि ।
ईश्वर सृष्टि कर्तृत्ववादी दर्शन का निराकरण है ।
(ख) गाथा ३२१,३२२ (ग) गाथा ३४७ में बौद्ध दर्शन का निराकरण है ।
(घ) एक अन्य गाथा में द्विक्रियावादी दर्शन का निराकरण है ।
समयसार के हिंदी - वचनिकाकार पं. जयचंदजी छाबड़ा ने ऐसे स्थलों को अपने भावार्थों में अन्य दर्शनों की अपेक्षाएं स्पष्ट करके विस्तार से लिखा है (देखिए समयसारकलश १३१, १८३ का भावार्थ ) । जरा सोचिए, यदि वे अन्य दर्शनों के ज्ञाता न होते तो बात को कैसे स्पष्ट करते ?
अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना हम “नम: समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावा भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ||" जैसे आध्यात्मिक श्लोक को भी ठीक से नहीं समझ सकते, क्योंकि इसमें भी अन्य मतों की विवक्षा से ही कथन है । ( - देखिए समयसारकलश १ का भावार्थ ) । बहुत क्या कहें, एक णमोकार मन्त्र को भी अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना ठीक से नहीं समझा जा सकता ।
द्रव्यसंग्रह के आध्यात्मिक टीकाकार ब्रह्मदेवसूरि ने तो प्रत्येक गाथा का शब्दार्थ, नयार्थ, आगमार्थ और भावार्थ के साथ मतार्थ भी समझना आवश्यक बताया है । यथा
"एवं शब्दनयमतागमभावार्थो यथासम्भवं व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यः । " ( गाथा २ )
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