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Vol. XLI, 2018
अन्य दर्शनों के ज्ञान की आवश्यकता
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इसी प्रकार सिद्ध जीवों का स्वरूप प्रस्तुत करते हुए आचार्य नेमिचंद्र गोम्मटसार में लिखते हैं कि -
'अट्ठविह कम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा ।।
अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥' - गाथा ६८ अर्थ – सिद्ध अष्टविध क्रमों से रहित, शान्त, निरंजन, नित्य, अष्टगुण सहित, लोकाग्रनिवासी होते हैं।
इसमें भी एक-एक पद के द्वारा एक-एक दर्शन की मान्यता का निराकरण किया गया है, जैसा कि आचार्य नेमिचंद्र ने स्वयं ही अगली गाथा में लिखा है -
'सदसिव संखो मक्कडि बुद्धो णइयाइयो य वैसेसी ।
ईसरमंडलिदंसण-विदूसणटुंकदं एदे ॥' - गाथा ६९ अर्थ – उक्त सभी विशेषण क्रमशः सदाशिव, सांख्य, मक्कड़ी, बुद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, ईश्वरवादी और मांडलिक दर्शन के निराकरणार्थ किये गये हैं।
इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए टीकाकारों ने जो कुछ लिखा है उसे अन्य दर्शनों के ज्ञान बिना कथमपि नहीं समझा जा सकता । यथा - 'अट्ठविहकम्मवियला' पद से याज्ञिक और सदाशिव मत का निराकरण किया गया है । 'सीदीभूदा' पद से सांख्य मत का निराकरण किया गया है। 'णिरंजणा' पद से मस्करी मत का निराकरण किया गया है । 'णिच्चा' पद से बौद्ध मत का निराकरण किया गया है । 'अट्ठगुणा' पद से नैयायिक –वैशेषिक मत का निराकरण किया गया है । 'किदकिच्चा' पद से ईश्वरसृष्टिकर्तृत्ववादी मत का निराकरण किया गया है । 'लोयग्गणिवासिणो' पद से मांडलिक मत का निराकरण किया गया है । (-संस्कृतटीका का सार )
इसी प्रकार अन्य भी सब समझना चाहिए । शास्त्रों के प्रत्येक कथन में कथ्य से अधिक निराकृत्य समाया होता है । उस निराकृत्य को समझे बिना कथ्य का ज्ञान-आनन्द प्राप्त नहीं होता । जैसे कि जीव का स्वरूप समझाते हुए द्रव्यसंग्रह आदि शास्त्रों में जीव के नौ अधिकारों का उल्लेख किया गया है
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्डगदी ॥ - आचार्य नेमिचंद्र, द्रव्यसंग्रह, गाथा २
अर्थ - जीव के नौ अधिकार हैं - जीवत्व, उपयोगमयत्व, अमूर्तिकत्व, कर्तृत्व, स्वदेहपरिमाणत्व, भोक्तृत्व, संसारित्व, सिद्धत्व, ऊर्ध्वगमनत्व ।
यहाँ भी एक-एक विशेषण के द्वारा एक-एक दर्शन का निराकरण किया गया है। यथा – 'जीवो' पद से चार्वाक मत का निराकरण किया गया है । 'उवओगमओ' पद से नैयायिक मत का निराकरण किया गया है । 'अमुत्ति' पद से भट्ट चार्वाक मत का निराकरण किया गया है । 'कत्ता' पद से सांख्य