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Vol. XLI, 2018
वैशेषिकदर्शन में दुःख का स्वरूप तथा प्रो. पाहिकृत दुःखवर्गीकरण की महत्ता
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भी भयभीत या दुःखी हो सकता है। अतः दुःख में प्रमा, अप्रमा दोनों ही निमित्त हो सकते हैं, किन्तु दुःख का अनुभव आत्मा को तभी होता है जब अधर्म नामक अदृष्ट का उदय हो ।
सुख के अनुभव में धर्म तथा दुःख के अनुभव में अधर्म कारण बनता है । अधर्म के साथ दिक्, काल आदि भी कारण होते हैं, अतः अधर्मादि शब्द का उल्लेख है ।५ अधर्मादि की अपेक्षा रखकर आत्मा एवं मन का संयोग होने पर आत्मा में ही समवाय सम्बन्ध से दुःख उत्पन्न होता है । यहाँ आत्मा एवं मन का संयोग असमवायी कारण है, आत्मा समवायी कारण है तथा शेष सब निमित्त कारण हैं। दुःख को अमर्ष, उपघात एवं दैन्य की उत्पत्ति का निमित्त कारण कहा गया है । अमर्ष का तात्पर्य है - असहिष्णुता । दुःख से असहिष्णुता की उत्पत्ति होती है, आत्मा को उपघात का एवं दीनता का अनुभव होता है । यहाँ पर यह भी स्पष्ट करना उचित होगा कि दुःख से द्वेष का भी जन्म होता है। अमर्ष एक प्रकार का द्वेष ही है । प्रशस्तपादभाष्य में द्रोह, क्रोध, भय, अक्षमा, अमर्ष को द्वेष के ही प्रकार या भेद कहा गया है।
दुःख एवं सुख का जन्म अदृष्ट के अनुसार होता है । वह अदृष्ट धर्म एवं अधर्म के भेद से दो प्रकार का है। धर्म अदृष्ट से सुख तथा अधर्म अदृष्ट से दुःख उत्पन्न होता है । इसलिये सुख दुःख की उत्पत्ति मात्र पदार्थों के ज्ञान से नहीं होती, अपितु धर्म एवं अधर्म भी उसमें कारण होते हैं। सांख्यदर्शन में त्रिविध दुःख एवं वैशेषिक दर्शन
वैशेषिकदर्शन में दुःख के उस प्रकार के भेदों का कोई उल्लेख नहीं है, जिस प्रकार सांख्यदर्शन में तीन प्रकार के दुःख निरूपित हैं । सांख्य दार्शनिक ईश्वरकृष्ण ने तीन प्रकार के दुःख कहे हैं, जिनका उल्लेख वाचस्पति मिश्र कृत सांख्यतत्त्वकौमुदी में स्पष्टतः हुआ है । वे दुःख हैं - १. आध्यात्मिक २. आधिभौतिक ३. आधिदैविक ।
आध्यात्मिक दुःख वह है जो आन्तरिक उपाय से साध्य है । यह दुःख शारीरिक एवं मानसिक के भेद से दो प्रकार का है। शरीर में होने वाली पीड़ा, व्याधि आदि शारीरिक दुःख है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या विषाद, अभीष्ट विषय के दिखाई न देने आदि से मानसिक दुःख होता है । वैशेषिकदर्शन में यह मानसिक दुःख पृथक् विवेचित नहीं है । प्रशस्तपाद, उदयन, श्रीधर, व्योमशिव भी इसकी चर्चा नहीं करते हैं । हाँ, काम को वे इच्छा के अन्तर्गत, क्रोध को द्वेष के अन्तर्गत सम्मिलित करते हैं। ईर्ष्या का पृथक् से कथन करते हैं । वस्तुतः ये सभी आत्मा के लिए उपघातक होने से दुःख रूप ही है । सांख्यदर्शन में आधिभौतिक एवं आधिदैविक दुःख को बाह्य उपाय साध्य निरूपित किया गया है । अन्य मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप आदि के निमित्त से उत्पन्न दुःख आधिभौतिक है तथा यक्ष, राक्षस आदि के कारण उत्पन्न दुःख आधिदैविक है ।१० प्राकृतिक भूकम्प, बाढ़ आदि के द्वारा जन्य दुःख का भी इसमें समावेश किया जा सकता है । यह तीनों प्रकार का दुःख अन्तःकरण में रहकर चेतनाशक्ति का अभिधात करता है ।११ वैशेषिकदर्शन में प्रयुक्त उपघात शब्द एवं सांख्यदर्शन में प्रयुक्त अभिघात शब्द अर्थ की दृष्टि से समान हैं ।