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________________ 80 धर्म चन्द जैन SAMBODHI डॉ. विश्वम्भर पाहि ने वैशेषिकदर्शन में प्रतिपादित दुःख गुण का महत्त्वपूर्ण वर्गीकरण किया है, जो नूतन दृष्टि से युक्त है। दुःख के वर्गीकरण की चर्चा से पूर्व यह विचार कर लिया जाये कि वैशेषिकदर्शन में दुःख का क्या स्वरूप है एवं उसकी पदार्थ के रूप में क्या स्थिति है? वैशेषिक दर्शन में दुःख का स्वरूप प्रशस्तपादभाष्य में दुःख को उपघात लक्षण वाला कहा गया है- उपघातलक्षणं दुःखम् । प्रतिकूल वेदनीय होने के कारण दुःख से आत्मा उपहत होता है । दुःख का अनुभव आत्मा को होता है । दुःख की उत्पत्ति में अधर्म स्वरूप अदृष्ट एक कारण है तथा विष आदि अनभिप्रेत विषयों की सन्निधि में होने वाले इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के साथ आत्मा एवं मन का संयोग दूसरा कारण है । इन दोनों कारणों के होने पर ही आत्मा को दुःख का अनुभव होता है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि अधर्म से युक्त आत्मा दुःख का समवायिकारण है। विष आदि अनभिप्रेत पदार्थ निमित्त कारण हैं तथा इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष एवं आत्मा व मन का संयोग असमवायी कारण है । इस प्रकार दुःख एक कार्य है जो उत्पन्न होने से अनित्य है । वैशेषिकदर्शन में इसे पदार्थ-व्यवस्था के अन्तर्गत गुण की कोटि में रखा गया है, जो आत्मा नामक द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से रहता है । न्यायदर्शन में दुःख को आत्मा, शरीर आदि द्वादश प्रमेयों में स्थान दिया गया है तथा बाधनालक्षणं दुःखम् सूत्र के द्वारा इसे बाधना, पीड़ा अथवा ताप के रूप में परिभाषित किया गया है । दुःख प्रतिकूल वेदनीय होता है- प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम् तथा सुख अनुकूल वेदनीय होता है- अनुकूलवेदनीयं सुखम् । प्रशस्तपादभाष्य में दुःख को वर्तमान में उपलब्ध विष आदि अप्रिय या प्रतिकूल बाह्य पदार्थों से उत्पन्न मानने के साथ अतीत में देखे या जाने गए सर्प, व्याघ्र, चौर आदि के स्मरण से तथा एतादृक् भावी पदार्थों के संकल्प से भी दुःख की उत्पत्ति स्वीकार की गई है । तात्पर्य यह है कि दुःख उत्पन्न करने में अतीत, वर्तमान एवं भावी पदार्थों के क्रमशः स्मरण, इन्द्रिय-प्रत्यक्ष एवं संकल्प भी दुःख के कारण होते हैं । यहाँ पर यह ध्यातव्य है कि प्रशस्तपादभाष्य में इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष को दुःख का कारण निरूपित करते समय पक्षधर्मता ज्ञान, सादृश्य ज्ञान एवं शाब्दबोध को दुःख की उत्पत्ति में कारण नहीं कहा गया है, किन्तु दुःख की उत्पत्ति में ये भी उसी प्रकार कारण हो सकते हैं, जिस प्रकार इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष कारण होता है। उदाहरण के लिये कोई फैक्ट्री में धूम की उठती हुई अविच्छिन्न धारा को देखकर दुःखी एवं भयभीत हो सकता है । भय, शोक आदि भी दुःख के ही रूप हैं, क्योंकि वैशेषिकदर्शन में इनकी गणना पृथक् से नहीं की गई है। इनमें भी प्रतिकूल वेदन होता है एवं उपघात का अनुभव होता है, अतः ये भी दुःख ही हैं। किसी को गोयरे (एक भुज परिसर्प) से भय लगता है तो वह तत्सदृश अन्य भजपरिसर्प को देखकर भी भयभीत हो सकता है। यह सादश्य ज्ञान के कारण उत्पन्न भय है। कोई 'चोर आया', 'भूकम्प आया', 'चक्रवाती तूफान आने वाला है' आदि शब्दों को सुनकर भी भय का अनुभव कर सकता है । अतः ज्ञान या प्रमिति के जितने साधन हैं वे दुःख की उत्पत्ति में भी निमित्त कारण बन जाते हैं । दुःख की उत्पत्ति तो भ्रान्त ज्ञान से भी हो सकती है। कोई रस्सी को सर्प समझकर
SR No.520791
Book TitleSambodhi 2018 Vol 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size20 MB
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