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सुरेश्वर मेहेर
SAMBODHI
(७) इसके अतिरिक्त यदि ईश्वर साकार है तो वह पूर्व कर्मों अर्थात् अदृष्ट के अधीन होगा क्योंकि किसी को उसके पूर्व कर्मों तथा उनके प्रभावों के आधार पर शरीर प्राप्त होता है । पुनः यदि ईश्वर देहधारी है तो उसके जनक-जननी होंगे। ऐसे मान लें तो ईश्वर को प्रथम कारण नहीं माना जा सकता । इसके अतिरिक्त यदि ईश्वर का शरीर है तो वह किन पदार्थों से बना है ? यदि वह द्रव्य से बना है तो क्या इसका यह अर्थ होगा कि 'द्रव्य' जगत् की रचना से पूर्व विद्यमान था और ईश्वर ने अपने शरीर का निर्माण किया ? उस विषय में यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि ईश्वर ने अपने शरीर का निर्माण बिना किसी भौतिक उपकरण के और बिना किसी उपकरण के कैसे किया ? इसके अलावा यदि ईश्वर का शरीर शाश्वत है तो वह द्रव्य से भिन्न किस पदार्थ से बना है ? यदि ईश्वर का शरीर शाश्वत नहीं है तो किन घटनाओं के कारण उसने अपनी मर्त्य देह का त्याग किया ? इस प्रकार असमाधेय प्रश्नों का अनन्त प्रतिगमन उपस्थित हो जायेगा ।
(८) पुनश्च मूल कारण को शुद्ध चेतन मानने पर यह समस्या सामने आती है कि चेतन से अचेतन जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई ? आदि शंकराचार्य ने इस प्रश्न का उत्तर यह कह कर दिया है कि कारण
और कार्य में कुछ अन्तर अवश्य होता है । यदि कारण और कार्य में पूर्ण समानता स्वीकार की जायेगी तो कार्य-कारण सम्बन्ध ही समाप्त हो जायेगा ।३४ चेतन से अचेतन की उत्पत्ति तथा अचेतन से चेतन की उत्पत्ति के उदाहरण के रूप में आचार्य शंकर ने चेतन मनुष्य से अचेतन केश, लोम तथा नख आदि की उत्पत्ति तथा अचेतन गोबर से चेतन बिच्छू आदि की उत्पत्ति की बात प्रदर्शित की है ।३५
(९) किन्तु उपर्युक्त प्रकार से विवेचन करने पर यह स्पष्टतः शंका उठाई जा सकती है कि अचेतन केश तथा नखों की उत्पत्ति मनुष्य के अचेतन शरीर से होती है और अचेतन गोबर से बिच्छू के अचेतन शरीर की उत्पत्ति होती है । पुनश्च वर्तमान आधुनिक जीवविज्ञान के जीवजनन सिद्धान्त ने भी प्रमाणित कर दिया है कि गोबर में पहले से ही कीटाणु विद्यमान होते हैं जिसके कारण उससे बिच्छू आदि कीड़ों की उत्पत्ति होती है, अन्यथा कदापि नहीं हो सकती । अतः यह उदाहरण चेतन से अचेतन या अचेतन से चेतन की उत्पत्ति के नहीं हो सकते हैं । किन्तु शंकर के कथनानुसार फिर भी अचेतन कारण चेतन कार्य के रूप में परिणत हो जाता है, अत: कारण तथा कार्य में अन्तर तो होता ही है । इस प्रकार से अद्वैतवेदान्ती शंकराचार्य का उत्तर तर्कसम्मत प्रतीत नहीं होता है। उन्होंने जो भी उदाहरण या दृष्टान्त प्रस्तुत किये हैं वे व्यावहारिक सत्ता से हैं जहाँ पर स्वयं शंकर कार्य-कारण सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। कार्य-कारण सिद्धान्त के अनुसार कारण तथा कार्य में इतना अन्तर ही कि जो कारण में अनभिव्यक्त रहता है वह कार्य में अभिव्यक्त हो जाता है। किन्तु इस मत में यह कभी नहीं हो सकता कि कोई ऐसी वस्त उत्पन्न हो जाये जिसका कारण में किसी भी प्रकार का अस्तित्व ही न हो। आचार्य शंकर ने अपने दिये हुए उदाहरणों द्वारा कार्य-कारण सिद्धान्त के विरुद्ध जाने का जैसे प्रयत्न किया है ।
(१०) कार्य-कारण सिद्धान्त चेतन ब्रह्म से अचेतन जगत् की उत्पत्ति पर कदापि घटित नहीं हो सकता है क्योंकि ब्रह्म शुद्ध रूप से चेतन है, उसमें अचेतन तत्त्व अनभिव्यक्त रूप से भी नहीं है। अतः चेतन ब्रह्म से अचेतन जगत् की उत्पत्ति के लिए अद्वैत वेदान्त ने अचेतन जगत् को प्रतीति मात्र