________________
94
सुरेश्वर मेहेर
SAMBODHI
४. मायावाद
निर्विशेष ब्रह्म से सविशेष जगत् की उत्पत्ति को स्पष्ट करने के लिए शंकराचार्य ने मायावाद की स्थापना की । यह माया तत्त्व ब्रह्म के समान त्रिकालाबाधित न होने के कारण सत् नहीं है तथा प्रत्यक्ष प्रतीयमान होने के कारण असत् भी नहीं है । यह सत् असत् से परे अनिर्वचनीय है ।१२ शंकराचार्य ने जगत् और ब्रह्म की द्वैत बुद्धि का हेतु अविद्या को बतलाया है । शंकराचार्य का मायावाद के प्रतिपादन के सम्बन्ध में कथन है कि लोगों की अनेक प्रकार की तृष्णाओं एवं जन्म-मरण आदि दुःखों का कारण अविद्या ही है। इस अविद्या का विषय जीव है। अविद्या के कारण ही जीव को परमार्थ सत्य आत्मस्वरूप का बोध न होने पर नानारूपात्मक जगत् ही परमार्थ रूप से सत्य भासता है। अविद्यानिवृत्ति होने पर जीव को आत्मस्वरूप का बोध होता है । जीव की यही स्वरूपस्थिति उसकी ब्रह्मरूपता है । इस अविद्या को जगत की उत्पन्नकी बीजशक्ति का रूप प्रदान किया गया है ।१३ यह बीज शक्ति परमात्मा की शक्ति है । इस अविद्यारूप बीज शक्ति का विनाश केवल आत्मविद्या के द्वारा ही सम्भव है । शंकराचार्य ने परमेश्वर को मायावी तथा जगत् को माया कहा है । इन्द्रजाल के अर्थ में 'माया' शब्द का प्रयोग करके शंकराचार्य ने यह सिद्ध किया है कि जिस प्रकार इन्द्रजाल की सत्यता केवल द्रष्टाओं के लिए ही है, उसी प्रकार नानारूपात्मक जगत् की सत्यता भी परमात्मा के लिए न होकर केवल अज्ञानी के लिए ही है, आत्मस्थिति के लिए नहीं । इस माया को अतिगम्भीर, दुरवग्राह्य एवं विचित्र सिद्ध करते हुए आचार्य शंकर का कथन है कि यह समस्त संसार, यह बतलाने पर भी कि प्रत्येक जीव ब्रह्म-रूप है, "मैं ब्रह्मरूप हूँ", ऐसा नहीं समझता । इसके विपरीत देहेन्द्रियादि रूप अनात्म तत्त्व को ही ग्रहण करता है । इस प्रकार अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया ही जगत् के परमार्थ रूप से सत्य मानने का कारण है । अद्वैत सिद्धान्त के अनसार वास्तविक परमार्थ सत्य तो अद्वैत ब्रह्म ही है और जगत् माया है। परन्तु जगत् मायिक होने पर भी शशशृङ्ग के समान पूर्णतया असत् नहीं है। इसीलिए शांकर अद्वैतवाद के अन्तर्गत जगत् की व्यावहारिक सत्ता स्वीकार की गई है ।
शंकर ने जगत्सम्बन्धी विचार को स्पष्ट ढंग से समझाने के लिए त्रिविध सत्ताओं को उपयोग किया है - पारमार्थिकी, प्रातिभासिकी तथा व्यावहारिकी। पारमार्थिकी सत्ता वह है जिसमें वस्तु का अस्तित्व त्रिकाल में अबाधित होता है । ऐसी सत्ता एकमात्र ब्रह्म की है । प्रातिभासिकी सत्ता के द्वारा किसी वस्तु का केवल आभास होता है । यथा- किसी वस्तु को अन्धकार में सर्प समझकर भयभीत होना और पुनः निरीक्षण करके उसके सही स्वरूप को पहचान कर भय से मुक्त होना । व्यावहारिकी सत्ता के अस्तित्व को संसार में व्यवहार के लिए सत्य स्वीकार किया जाता है जो स्वप्नभ्रम से भिन्न है ।
५. विवर्तवाद
अद्वैतवेदान्त में माया की दो शक्तियों का वर्णन किया गया है – (१) आवरण और (२) विक्षेप। आवरण शक्ति सत्य-ब्रह्म की तिरोधानकर्वी एवं ब्रह्मसाक्षात्कार की बाधक है१४ और विक्षेप शक्ति नानारूपात्मक मिथ्या जगत् की निर्मात्री है ।१५ अर्थात् आवरण शक्ति से माया ब्रह्म के शुद्ध स्वरूप को