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________________ Vol. XLI, 2018 ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना आच्छादित कर लेती है तथा विक्षेप शक्ति से प्रपञ्चपूर्ण जगज्जाल की रचना करती है । इस प्रकार मायोपाधिक ब्रह्म ही सृष्टि का कारण है। जगत् की कार्य-कारणता का स्पष्टीकरण अद्वैतवेदान्त में अनेक स्थलों पर रज्जु-सर्प के दृष्टान्त के आधार पर किया गया है । इस दृष्टान्त के आधार पर शंकराचार्य का कथन है कि जिस प्रकार अविद्यावश रस्सी में सर्प का मिथ्या अनुभव होने लगता है, उसी प्रकार अविद्या के कारण परमात्मा में जगत् के नानात्व का अनुभव होता है ।१६ अतः जिस प्रकार भ्रान्तिकालिक सर्प रस्सी का विकार या परिणाम नहीं होता, उसी प्रकार जगत् भी ब्रह्म का विकार नहीं है । शंकराचार्य ने इस विषय का विवेचन करते हुए कहा है कि गाढ़ान्धकार में पड़ी हुई रस्सी को सर्प मानता हुआ द्रष्टा भय से कंपित होकर भागने लगता है । किन्तु किसी से यह सुनकर कि 'डरो मत, यह सर्प नहीं है, बल्कि रज्जु है' सर्पज्ञानजन्य भय से मुक्त हो जाता है और काँपना और भागना छोड़ देता है । यहाँ यह द्रष्टव्य है कि जिस प्रकार सर्पज्ञानजन्य भय और उसकी निवृत्ति, इन दोनों अवस्थाओं में सर्प रूप वस्तु में किसी प्रकार का विकार नहीं देखा जाता, उसी प्रकार ब्रह्म में भी किसी प्रकार का विकार सम्भव नहीं है । अतएव अद्वैतवेदान्त में विकारवाद का समर्थन न करके विवर्तवाद का ही अनुसरण किया गया विवर्तवाद के स्वरूप की विवेचना प्रस्तुत करने के लिए वेदान्तपरिभाषा के रचयिता धर्माराजाध्वरीन्द्र ने विवर्त को परिभाषित करते हुए कहा है विवर्तो नाम उपादानविषमसत्ताककार्यापत्तिः ।१० अर्थात् उपादानकारण से विषम कार्य की सत्ता को विवर्त कहते हैं । इस परिभाषा के अनुसार परमार्थ सत्य ब्रह्म से मिथ्या जगत् की सत्ता विषम होने के कारण जगत् ब्रह्म का विवर्त है । अतः मिथ्या जगत् की उत्पत्ति का कारण अधिष्ठान ब्रह्म ही है, न कि जगत् ब्रह्म का तत्त्विक परिवर्तन का स्वरूप है । जगत् के ब्रह्म का तत्त्विक परिवर्तन न होने के कारण ही ब्रह्म और जगत् में विवर्तभाव है ।१९ इस प्रकार अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म को छोड़कर और सभी पदार्थ असत् हैं। इन पदार्थों का आरोप ब्रह्म पर होता है। ब्रह्म आरोप का अधिष्ठान है। माया के विक्षेप के कारण जो सष्टि होती है, वह मायिक है, भ्रान्ति है। ब्रह्म को अधिष्ठान मानकर जितने कार्य जगत् में होते हैं, वे ही नहीं, प्रत्युत समस्त जगत् ही ब्रह्म का विवर्त है। ६. सृष्टि-प्रक्रिया १. समष्टि-व्यष्टिरूप कारणशरीर अद्वैत वेदान्त दर्शन में सृष्टि को दो खण्डों में विभक्त किया गया है - (१) समष्टिरूप (२) व्यष्टिरूप। माया में जब सत्त्वगुण की प्रधानता होती है और रजोगुण एवं तमोगुण की अप्रधानता होती है तब शुद्ध सत्त्वप्रधान उत्कृष्ट उपाधि से आवृत चैतन्य अपने समष्टि रूप में 'ईश्वर' कहलाता है । माया का अधिपति होने के कारण यह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापी है । पुनश्च समष्टिरूप ईश्वर संपूर्ण
SR No.520791
Book TitleSambodhi 2018 Vol 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size20 MB
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