________________
96 सुरेश्वर मेहेर
SAMBODHI विश्वप्रपंच का कारण होने से 'कारणशरीर' तथा आनन्द की प्रचुरता के कारण 'आनन्दमय कोश' नाम से अभिहित भी है । जब माया के सत्त्वगुण की प्रधानता अर्थात् सात्त्विकता मलिन हो जाती है तब मलिनसत्त्वप्रधान निकृष्ट उपाधि से उपहित चैतन्य व्यष्टिरूप में 'प्राज्ञ' या 'जीव' कहलाता है ।
जीव अल्पज्ञ तथा स्वल्प शक्ति संपन्न होता है। इस जीव की व्यष्टिरूप उपाधि, अहंकार आदि का कारणरूप होने से कारणशरीर एवं आनन्द के आधिक्य व चैतन्य को कोश के समान ढंक लेने के कारण 'आनन्दमय कोश' नाम से नामित होती है । अद्वैत वेदान्त के अनुसार ईश्वर एवं जीव दोनों ही माया से आवृत उस चैतन्य की अनन्त अभिव्यक्तियाँ या सूक्ष्मतम अवस्थाएँ हैं । इसमें समस्त सूक्ष्म एवं स्थूल प्रपञ्चों का क्षय हो जाने के कारण इसे 'सुषुप्ति' अवस्था कहा जाता है। इस सषप्ति में जब स्वप्न और जागरण विलीन हो जाते हैं तब ईश्वर और जीव दोनों अज्ञान से अभिभूत होकर एक विशिष्ट आनन्द की अनुभूति करते हैं । वस्तुतः ईश्वर और जीव एक ही हैं, केवल उपाधिभेद से अलग-अलग प्रतीत होते हैं ।२० यही प्रतीति ही सृष्टि का बीज अथवा सार है । २. सूक्ष्मशरीरोत्पत्ति
इस सृष्टिप्रक्रिया में सर्वप्रथम सूक्ष्मशरीर की उत्पत्ति होती है । तमोगुणप्रधान विक्षेप शक्ति से युक्त अज्ञान से उपहित चैतन्य अर्थात् ईश्वर से सर्वप्रथम आकाश की उत्पत्ति होती है। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल एवं जल से पृथ्वी की उत्पत्ति क्रमशः होती है । इन आकाशादि पञ्च भूतों में अपने-अपने कारणों के गुणों के आधार पर ही सत्त्व, रजस एवं तमस गण प्रधान रूप से उत्पन्न होते हैं । वेदान्त में ये आकाशादि सूक्ष्म महाभूत, तन्मात्र व अपञ्चीकृत भूत के रूप में कथित हैं । इनमें आकाश के सात्त्विक अंश से श्रोत्र, वायु के सात्त्विक अंश से त्वक्, अग्नि के सात्त्विक अंश से चक्षु, जल के सात्विक अंश से रसना एवं पृथ्वी के सात्त्विक अंश से घ्राण - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । आकाशादि पञ्चभूतों के समष्टिरूप सात्त्विक अंश से बुद्धि, मन, चित्त व अहंकार - चार वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं । इनमें बुद्धि की निश्चयात्मिका वृत्ति, मन की संकल्प-विकल्पात्मिका वृत्ति, चित्त की अनुसंधानात्मिका वृत्ति और अहंकार की अभिमानात्मिका वृत्ति होती है । ये वृत्तियाँ प्रकाशात्मक होती हैं । निश्चयात्मिका बुद्धि पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ से युक्त होकर 'विज्ञानमय कोश' एवं विमर्शात्मा मन उन पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ से युक्त होकर 'मनोमय कोश' कहलाते हैं ।२९
पुनश्च आकाशादि सूक्ष्म महाभूतों के रजस् अंश से अलग-अलग व्यष्टि रूप में क्रमशः वाणी, हाथ, पैर, गुदा व जननेन्द्रिय- पञ्च कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। आकाशादि पञ्चभूतों के उसी रजस् अंश के समष्टि रूप में क्रमशः प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान - पञ्च वायु की सृष्टि होती है। उपरोक्त पञ्च कर्मेन्द्रियों के साथ युक्त होकर पञ्च वायु 'प्राणमय कोश' कहलाते हैं । विज्ञानमय, मनोमय एवं प्राणमय- ये तीनों सम्मिलित रूप में सूक्ष्मशरीर का निर्माण करते हैं । इस सूक्ष्मशरीर के १७ अवयव होते हैं- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रिया, पाँच प्राणवायु, बुद्धि एवं मन । इस शरीर में ज्ञान, क्रिया और इच्छा - तीन शक्तियाँ होती हैं। इन्हीं समष्टि से आवृत चैतन्यात्मा 'सूत्रात्मा' या 'हिरण्यगर्भ' या 'प्राण'