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Vol. XLI, 2018
ब्रह्मकारणतावाद एवं सृष्टि : एक आलोचना तथा व्यष्टि से आवृत चैतन्य 'तेजस' कहलाता है । सूक्ष्मशरीर की यह अवस्था स्वप्नावस्था कहलाती
३. पञ्चीकरण
सूक्ष्मशरीर की उत्पत्ति के पश्चात् पञ्चीकरण प्रक्रिया द्वारा स्थूल पञ्च महाभूतों की उत्पत्ति होती है । वेदान्तसार के प्रणेता सदानन्द योगीन्द्र के अनुसार पञ्चीकरण की परिभाषा -
"पञ्चीकरणं त्वाकाशादिपञ्चस्वेकैकं द्विधा समं विभज्य तेषु दशसु भागेषु प्राथमिकान्पञ्चभागान्प्रत्येकं चतुर्धा समं विभज्य तेषां चतुर्णा भागानां स्वस्वद्वितीयार्धभागपरित्यागेन भागान्तरेषु संयोजनम् ।"
अर्थात् आकाश आदि पाँच सूक्ष्मभूतों के सर्वप्रथम दो-दो भाग किये जाते हैं जिससे प्राप्त दस भागों में से प्रथम पाँच भागों का पुनः चार-चार भागों में विभाजित किया जाता है। परिणामस्वरूप एक सूक्ष्मभूत अपने पाँच भागों में विभक्त हो जाता है ।
१/२ + १/८ + १/८ + १/८ + १/८ = १ पुनः इन सब भागों में से अपने-अपने आधे भाग को छोड़ कर अन्य सूक्ष्मभूत का एक-एक अष्टमांश (१/८ भाग) दूसरे चारों भागों में मिला दिया जाता है। परिणामस्वरूप प्रत्येक महाभूत में आधा अपना तथा शेष चार सूक्ष्मभूतों की १/८ अंश मिलने पर प्रत्येक आकाशादि भूत पूर्णता को प्राप्त करके पञ्चीकृत महाभूत की संज्ञा को प्राप्त करते हैं । उपनिषदों में वर्णित त्रिवृत्करण सिद्धान्त के आधार पर आचार्य शंकर ने पञ्चीकरण सिद्धान्त को अपनाया है। इन्हीं पञ्चीकृत महाभूतों से स्थूल सृष्टि का निर्माण होता है । पञ्चीकृत स्थूल भूतों में क्रमशः आकाश में शब्दय वायु में शब्द और स्पर्शय अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूपय जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रसय एवं पृथ्वी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध अभिव्यक्त होते हैं। ४. स्थूलशरीरोत्पत्ति
पञ्चीकृत महाभूतों से भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्यम् - सप्त ऊर्ध्ववर्ती भुवन तथा अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल, पाताल – सप्त अधोवर्ती भुवन, समुदाय १४ भुवनों या लोकों का निर्माण होता है । साथ-साथ समस्त ब्रह्माण्ड, चतुर्विध स्थूलशरीर एवं अनेक पोषणयोग्य भोग्य पदार्थों की सृष्टि होती है ।२४ चार प्रकार के स्थूलशरीर हैं -
• जरायुज – गर्भाशय से उत्पन्न अर्थात् पिण्डज, यथा- मनुष्य, पशु प्रभृति । • अण्डज - अण्डों से उत्पन्न होने वाले, यथा- पक्षी, सर्प इत्यादि । • स्वेदज - धूप या पसीने से उत्पन्न होने वाले जीव, यथा- मच्छर, खटमल, जुएँ आदि । • उद्भिज्ज – धरती को फाड़ कर उत्पन्न होने वाले, यथा- पेड़, पौधे, लता आदि ।