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SAMBODHI
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हेमवती नन्दन शर्मा नित्यं जगन्नैव विकारवत् तत् ।
प्रबोध्यवंशो विवमौ गुरुणाम् ॥ गुरुवंश यह उपदेश देकर शोभित हुआ कि जीव नित्य है, प्रकृति भी नित्य है और संसार का कारण ईश्वर भी नित्य है परन्तु संसार अनित्य और विकारी है । वीर रस :
श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् के रचयिता आचार्य रमाकान्त उपाध्याय ने वीर रस का वर्णन प्रसंगानुसार किया है जिसका एक उदाहरण यहाँ दृष्टव्य है -
झटिति झङ्कृतिझम्पकृतिर्यति
र्धनरवो मृगराजसमक्रमः । करणरावकरोद्गत खड्गकं
निजकेरणबभञ्जसशिञ्जनम् ॥ यतिवर दयानन्द ने फुर्ती एवं झटके के साथ घन-गर्जन करते हुये सिंह के समान बल दिखाते हुये, करणराव के हाथ की तलवार को अपने हाथ से पकड़कर झट से तोड़ दिया । गुण-विमर्श :
आचार्य वामन ने गुण के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि "काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मागुणाः"७ अर्थात् काव्य के शोभाकारक धर्म को गुण कहते हैं । गुणों के भेद :
गुण के भेद - निरूपण व्यापक आधार पर किया गया है । इस सम्बन्ध में आचार्यों के पांच वर्ग है । प्रथम वर्ग में दंडी, वामन, वाग्भट्ट आदि हैं, जिन्होंने गुण के दस भेद माने हैं । द्वितीय वर्ग में आनन्दवर्धन मम्मट, पं. विश्वनाथ व जगन्नाथ है, जिन्होंने पूर्वोक्त दस गुणों का अन्तर्भाव माधुर्य, ओज तथा प्रसाद तीन गुणों में कर लिया । प्रसाद गुण :
प्रसाद का अर्थ है - प्रसन्नता या विकसित होना, इसके मूल में चित्त की व्यापकता या व्याप्ति निहित है। श्रवण मात्र से ही जो रचना चित्त में व्याप्त हो जाये, उसे प्रसाद गुण कहते हैं । सरलता, सर्वजन सुलभता तथा सहज ग्राह्यता इसकी विशेषताएँ हैं -
श्रीदयानन्दचरितमहाकाव्यम् में से प्रसाद गुण का एक उदाहरण दृष्टव्य है -