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________________ 89 Vol. XLI, 2018 आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ : एक परिचय ६. अशुचि भावना - खून, माँस, मज्जा, हड्डी, शुक्र आदि घृणित पदार्थों से बना यह शरीर परम पवित्रता का स्थान नहीं है - ऐसी अनुप्रेक्षा करना अशुचि भावना है । इस संदर्भ में कदंबविप्र की कथा निर्दिष्ट है। दुःखाकीर्ण संसार तथा अशुचिपूर्ण शरीर के निश्चय के पश्चात् धर्मध्यान ही श्रेयस्कर प्रतीत होता है। यह धर्मध्यान लोक-स्वभाव भावना के चिन्तन से सिद्ध होता है । एतदर्थ सातवें क्रम में लोकस्वभाव भावना का निरूपण किया है । ७. लोकस्वभाव भावना - माता मरकर भवांतर में पुत्री होती है । पुत्री मरकर माता बनती है । पुत्र, पिता तथा पिता-पुत्र में परिवर्तित हो जाता है । इस लोक में अनंतबार शत्रु-मित्र व मित्र-शत्रु बन जाता है। इस प्रकार लोक के परिवर्तनशील स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करना लोकस्वभाव भावना है । लोक के स्वभाव को सुस्पष्ट करने के लिए यहाँ सुकोशल मुनि का कथानक उल्लिखित है । धर्मध्यान को पुष्ट करने के लिए लोक-स्वभाव भावना के पश्चात् आठवीं आस्रव भावना का प्रतिपादन किया है। ८. आस्रव भावना - राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्पर्शेन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ, हिंसादि अव्रत और मन-वचन-काया का योग कर्मों के प्रवेशद्वार हैं - ऐसा बार-बार चिन्तन करना आस्रव भावना है । इस भावना में प्रत्येक कषाय, प्रत्येक इन्द्रिय एवं प्रत्येक अव्रत पर भिन्न-भिन्न कथाएँ निर्दिष्ट है। आस्रवों के प्रवेश का निरोध आस्रवों की विरति रूप संवर के द्वारा होता है । अतएव आस्रव भावना के अनन्तर संवर भावना निर्दिष्ट है । ९. संवर भावना - तप, प्रशम, ध्यान, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र आदि के द्वारा आस्रवों को रोकने का चिंतन करना संवर भावना है । इस भावना पर विजय राजा व चिलातिपुत्र के दृष्टान्त दिये गये हैं। नवीन कर्मों के आगमन को रोकने के साथ-साथ पूर्व संचित कर्मों का क्षय भी आवश्यक है। इसी उद्देश्य से दसवें क्रमांक पर निर्जरा भावना प्रतिपादित है। १०. निर्जरा भावना - बाह्य एवं अभ्यंतर, तप पूर्व संचित कर्मों का नाश करते हैं, जिसे निर्जरा कहते हैं । इस भावना में निर्जरा के भेद-प्रभेद व उपायों पर चिन्तन-मनन किया जाता है । इस सन्दर्भ में अतिमुक्तक मुनि व कुरुदत्त महर्षि के कथानक निरूपित हैं। ___ जो जीव तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा करता है उसे भी उत्तम गुणों पर बहुमान रखना आवश्यक है, अन्यथा तपश्चर्या से भी इष्ट फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है । एतदर्थ निर्जरा भावना के पश्चात् उत्तम गुण भावना कही गई है। ११. उत्तम गुण भावना - अरिहंत, सिद्ध, साधु आदि उत्तम गुण धारक पुरुषों के गुणों पर
SR No.520791
Book TitleSambodhi 2018 Vol 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size20 MB
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