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साध्वीश्री प्रियाशुभांजनाश्री
SAMBODHI
की अशरणता तथा नंदराजा, कुचिकर्ण, तिलक श्रेष्ठी एवं सगर चक्रवर्ती के कथानकों से मृत्यु में क्रमशः धन, गोधन, धान्य एवं पुत्रों की अशरणता व्यक्त की गई है। अन्त में गजपुर राजपुत्र का कथानक उपसंहार के रूप में दिया है।
स्वजन आदि की अनित्यता, अशरणता जानने पर भी ऐसा भ्रम होना संभव है कि भले ही रोग, जरा आदि को रोकने में स्वजन, धन आदि असमर्थ हैं, लेकिन जब रोग आदि दुःखों का आक्रमण होगा तब उन दुःखों के प्रतिकार में वे जरूर मेरी सहायता करेंगे । अतः मुझे उनसे प्रीति रखनी चाहिए। इस भ्रम को दूर करने के लिए अशरण भावना के बाद एकत्व भावना का वर्णन किया गया है ।
३. एकत्व भावना - जीव अकेला कर्म बांधता और अकेला ही फल भोगता है । वह एकाकी जन्म लेता है और एकाकी ही परभव में चला जाता है - ऐसी अनुप्रेक्षा करना एकत्व भावना है । जीव के एकत्व का भान कराने हेतु मधुराजा का कथानक दिया गया है।
__ यद्यपि भौतिक पदार्थ और स्वजन-सम्बन्धी मुझे दुःख-वेदन में सहयोग न दें, तथापि वे मेरे ही है। इस विपर्यास को नष्ट करने के लिए एकत्व भावना के पश्चात् अन्यत्व भावना का प्रतिपादन किया
४. अन्यत्व भावना - कोई तेरा नहीं, न तू किसी का है – ऐसा चिन्तन करना अन्यत्व भावना है । इस भावना में मुख्य रूप से शरीर आदि पर – पदार्थों पर पुनः पुनः मनन किया जाता है। शरीर, स्वजन आदि के अन्यत्व का स्पष्टीकरण धन श्रेष्ठी के कथानक से समझाया गया है ।
धन, स्वजनों आदि पर रहा हुआ ममत्व जीव को अनेक पाप कर्मों में प्रवृत करता है । इन पाप कर्मों के कारण जीव को चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है । अतएव अन्यत्व भावना के पश्चात् संसार भावना का विशद वर्णन किया है । यथा नाम तथा ग्रंथ का मुख्य प्रतिपाद्य भव अर्थात् संसार भावना ही है।
५. संसार भावना - नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति एवं देव गति - इन चार गति रूप संसार के स्वरूप पर निदिध्यासन करना संसार भावना है। संसार भावना के वर्णन में मुख्यतया चारों गतियों के दुःखों पर प्रकाश डाला गया है। साथ ही बताया है कि मनुष्य व देव गति में मिलने वाले भौतिक सुख-दुःख आकीर्ण है । इस भावना में २९ कथाएँ निर्दिष्ट हैं, जिसमें भिन्न-भिन्न दृष्टियों को प्रधान कर संसार के नैर्गुण्य को प्रस्थापित किया गया है ।
छोटी-सी भूल न जाने कब किसको कहाँ भ्रमित कर दें । अनित्य आदि भावनाओं के द्वारा स्वजन आदि की अनित्यता, अशरणता, अन्यता, आत्मा का एकत्व एवं संसार की असारता ज्ञात होने पर भी एक शरीर प्राणी को भटका सकता है । कष्ट में संसार पीडित प्राणी यदि शरीर में सुख की गवेषणा करें, तो भी वह अक्षय सुख को प्राप्त नहीं कर सकता है । अतः शरीर में पवित्रता व सुखों की आशंका को दूर करने हेतु छठ्ठी अशुचि भावना का प्रतिपादन किया गया है ।