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Vol. XLI, 2018
आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ : एक परिचय
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और राजीमती के सम्पूर्ण नव भवों का वर्णन प्रथम भाग की लगभग ४००० गाथाओं में किया गया है। परमात्मा नेमिनाथ केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद द्वादश भावनाओं पर देशना देते हैं ।
ग्रन्थ के द्वितीय भाग में परमात्मा की देशना स्वरूप क्रमशः द्वादश भावनाओं का निर्देश किया गया है । दुःख का दूसरा पर्याय संसार है । इस संसार में जीव को अनेक शारीरिक एवं मानसिक दुःखों का सामना करना पड़ता है। दु:ख के प्रतिरोध में प्राणी बलवान नहीं है, तथापि दुःख में दुःखी न होना जीव के हाथों में ही है । दुःख, पीड़ा, यातना में समता के सूत्र अवश्यमेव खोजे जा सकते हैं । कभीकभी समुद्र में भयंकर तूफान उठता है । तूफान की तीव्र गति से बड़े-बड़े वृक्ष, विशालकाय ईमारतें धराशयी हो जाती हैं । समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठती हैं और खूब हलचल मच जाती है। इस स्थिति में मछली, कछुआ, मगरमच्छ आदि जलचर प्राणियों की क्या दशा होती होगी? क्या वे भयंकर तफान की चपेट में आकर अपने प्राणों को गवां देते हैं ? नहीं, महाकाय ईमारतें व वृक्षों को तहसनहस करने वाला तूफान इन जलचर प्राणियों को अंशमात्र भी हानि नहीं पहुँचाते । क्योंकि आत्म-रक्षा हेतु वे समुद्र की गहराई में चले जाते हैं। ऊपरीभाग में तूफान उठने पर भी समुद्र का तल तो निरव शांत ही होता है। भयंकर तूफान वहाँ नहीं पहुंच पाता । पयोदधि के जलचर प्राणी हमें समता के सूत्र प्रदान करते हैं कि जीवन में दुःख, प्रतिकूलता, रोग, शोक, आपत्ति आदि के तूफान उठने पर प्राणी को बाहरी दुनिया में न रहकर अन्तरात्मा की गहराई में चले जाना चाहिए । क्योंकि अन्तरात्मा में तो आनन्द, आनन्द और आनन्द ही है।
सामान्यतया प्रत्येक प्राणी अन्तरात्मा में निवेश नहीं कर सकता है। बाह्यदृष्टि से अन्तर्जगत की यात्रा करना संभव नहीं है । अन्तर्जगत में रमण करने हेतु अन्तर्दृष्टि का उन्मिलन अत्यन्त आवश्यक है, जिसका परम उपाय है भावनाओं का चिन्तन । जीवन में भावनाओं की इस आवश्यकता के कारण मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने द्वादश भावनाओं का विवेचन किया है।
१. अनित्य भावना - इन्द्रपुरी, इन्द्रधनष, जीवन, यौवन, धन, गह, प्रधान, परिजन आदि सब बिजली के समान क्षणिक है। हाथी, घोड़े, सैनिक, लक्ष्मी, प्रिया आदि कोई नित्य रहने वाला नहीं है ऐसा चिन्तन करना अनित्य भावना है । अनित्य भावना से ममत्व का नाश होता है । इस सन्दर्भ में बलि-नरेन्द्र की कथा उल्लिखित है। इस कथा में जीव की निगोद से निर्वाण पर्यंत यात्रा का रोमांचित वर्णन किया गया है।
भौतिक पदार्थों का या स्वजनों का संयोग भले ही अनित्य हो, परन्तु संकट के समय में निश्चित रूप से वे मेरा रक्षण करेंगे। अतः इन पर प्रीति-ममता रखनी चाहिए, ऐसी मिथ्या धारणा को दूर करने के लिए अनित्य भावना के पश्चात् अशरण भावना का विवेचन किया गया है ।
२. अशरण भावना - रोग, वृद्धावस्था, आपत्ति में धन, स्वजन आदि रक्षक नहीं है, त्राता नहीं है - ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है। रोगों में राज्य, वैभव, सैन्य आदि की अशरणता को सूचित करने के लिए कौशांबीपुरी राजा का कथानक दिया गया है। जितशत्रु राजा के कथानक से जरा में जीव