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________________ Vol. XLI, 2018 आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ और मनोविज्ञान 171 तत्त्व के अर्थ का निरन्तर चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा भावना का पर्यायवाची शब्द है । अनु अर्थात् पश्चात् और प्रेक्षा अर्थात् चिन्तन । तत्त्वों के अर्थों के चिन्तन-मनन का सातत्य अनुप्रेक्षा है । नव तत्त्वों में अनुप्रेक्षा को संवर तत्त्व के अन्तर्गत समाविष्ट किया है। संवर का अर्थ है आते हुए कर्मों को रोकना । जिस प्रकार खिड़किया बन्द कर देने से बाहर का कचरा घर में प्रवेश नहीं करता है । उसी प्रकार मन के विचार रूपी द्वारों का नियमन करके आने वाले अनेक दुर्विचारों को संवृत्त करना ही संवर है । जैसे-जैसे चिन्तन गहन बनता जाता है वैसे-वैसे मन विकारों से मुक्त होकर शुभ भावों में एकाग्र होने लगता है। मन के भावों का प्रभाव कर्मबन्ध पर भी पड़ता है। कर्म-साहित्य मानसिक भावों की अतुल शक्ति को स्वीकार करता है । मन के अभाव में केवल काया या वचन से न ही प्राणी उत्कृष्ट कर्मबन्धन कर सकता है और न कर्म-क्षय । कर्म-सिद्धान्त का एक विवेचन है कि मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बन्ध उत्कृष्ट रूप में एक सागर की स्थिति का हो सकता है । वचनयोग मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बन्ध हो सकता है ।घ्राणेन्द्रिय अर्थात् नासिका के मिलने पर पच्चास सागर और चक्षु के मिलते ही सौ सागर की स्थिति का बन्ध हो सकता है और जब अमनस्क पंचेन्द्रिय की दशा में कान मिलते हैं, तो हजार सागर तक का बन्ध हो सकता है, लेकिन यदि मन मिल गया और उत्कृष्ट मोहनीय कर्म का बन्ध होने लगा, तो वह लाख और करोड़ सागर को पार कर जाता है । सत्तर क्रोडाक्रोडी (७० करोड x १ करोड) सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट-मोहनीय कर्म बन्ध मन मिलने पर ही होता है । यह है बन्धन की दृष्टि से मन की अपार शक्ति, इसलिए मन को खुला छोड़ने से पहले मनन करना चाहिए कि वह आत्मा को किसी गहन गर्त में तो नहीं धकेल रहा है? जैन-विचारणा में मन के भाव मुक्ति रूपी मंजिल का राजमार्ग है । जहाँ केवल समनस्क प्राणी ही गतिमान हो सकते हैं। अमनस्क प्राणियों को तो इस राजमार्ग पर चलने का अधिकार ही प्राप्त नहीं होता है । सम्यग्दर्शन के अधिकारी मात्र समनस्क जीव ही होते हैं, जो अपनी साधना के द्वारा मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव अध्यात्म की कक्षा में आगे बढ़ता हुआ जब उत्तरोत्तर अप्रत्याख्यानीय आदि कषायों का नियमन करता है तब देशविरति, सर्वविरति आदि उच्च आध्यात्मिक अवस्थाओं को प्राप्त करता है। चूंकि मन के द्वारा ही क्रोधादि कषायों का संयमन संभव है, इसलिए कहा गया है कि स्थिति-घात, रस-घात, गुण-श्रेणि आदि प्रक्रियाएँ मन का योग होने पर होती हैं । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं, "मन का निरोध हो जाने पर कर्म (बन्धन) भी पूरी तरह रुक जाते हैं, क्योंकि कर्म के आस्रव मन के आधीन हैं, लेकिन जो पुरुष मन का निरोध नहीं करता है, उसके कर्मों (बन्धन) की अभिवृद्धि होती इस प्रकार जैन कर्म-साहित्य में जीव के उत्थान-पतन के प्रबल हेतु मन को अचिन्त्य शक्तिधारक माना है। ___ वेदान्त परंपरा के मैत्राण्युपनिषद् एवं तेजोबिन्दूपनिषद्११ में मानसिक-शक्ति पर प्रकाश डालने
SR No.520791
Book TitleSambodhi 2018 Vol 41
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2018
Total Pages256
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size20 MB
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