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Vol. XLI, 2018
संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य
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फा- बे चूँ गू बे मनकारे चन्दी तपीद,
चूँ नीरू बशद जाने सिपस आरमीद। (फिरदौसी) तनूर-ए-शिकम दम बि दम ताफ्तनखूब नीस्ता (पेट की भट्टी (भूख) को बार-बार तपाना ठीक नहीं ।
सं० । तप्' के समान फा० में 'तप्' व 'ताब्' दो धातुएँ हैं जिनमें से 'ताब्' का 'चमकना' अर्थ में और 'तप्' का 'तपाना, तड़पना' अर्थ में प्रयोग होता है। जो सं० तप् से पूर्णतः स्वरूपगत एवं अर्थगत रूप में साम्य रखती हैं। जो कि उपर्युक्त उदाहरण से भी स्पष्ट है । ११. तर्ज/त्रस्<>तर्स
तर्जति/त्रसति>तर्सद संधा- तर्ज भर्त्सने१०२, त्रसी उद्वेगे१०३ फामः- तर्स(तरसीदन)
उदा० सं– 'अंकुशाकारयाऽङ्गुल्या तौ अतर्जयदम्बरात्' ।१०४ __ (शूर्पणखा बाँस के समान अपनी उँगलियों को चमका-चमकाकर राम और लक्ष्मण को आकाश से धमकाने लगी।)
'बलवदत्र भवती परित्रस्ता' ।१०५ (आपकी यह सखी बहुत अधिक भयभीत हो गई है।) फा- अज. मर्ग चेरा तर्सम, क्,ऊ आबे हयात आमद व, ज. ता,ने चेरा तर्सम चून् ऊ सिपरम् आमद । (रूमी)
(अब मैं मौत से क्यों डरूँ जब मेरा अमृततुल्य प्रिय मेरे पास आ गया और तानों से भी क्यों डरूँ जब उसे मैंने ढाल की तरह सीने से लगा लिया ।)
यहाँ स्वरूपतः तज्' से साम्य रखने वाली फा०म० 'त' है। जिसमें अन्तिम वर्ण 'ज्' का ध्वनिगत परिवर्तन 'स्' के रूप में हो गया है, लेकिन संस्कृत त्रस्' धातु से फा० त... मसदर पूर्णतया मिलतीजुलती धातु है । अर्थगत समानता दोनों में ही वही 'भयभीत होना' और 'डराना' है। अतः निःसंकोच कह सकते हैं ये दोनों एक ही मूल से हैं । १२. बन्थ्<> बन्द
बध्नातिा>बन्दम संधा- बन्ध बन्धने१०३ फाम- बन्द(बस्तन) उदा० सं– 'चूतानां चिरनिर्गताऽपि कलिका बध्नाति न स्वं रजः' ।१०७ (आम्रवृक्षों की चिरकाल से विकसित हुई मञ्जरी अपने पराग को नहीं बाँध रही ।)