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मोहित कुमार मिश्र
SAMBODHI
ह्यगृह< >गीर्
गृह्णाति>गीरद संधा- ग्रह उपादाने९३
फाम- गीर (गिरफ्तन) उदा० सं०- 'सखि, प्रकृतिवक्र: स कस्यानुनयं प्रतिगृह्णाति' ।९४ (हे सखी, स्वभावतः कुटिल वे (दुर्वासा) किसकी प्रार्थना स्वीकारते हैं।) 'गृहाण शस्त्रं यदि सर्ग एष ते...' ।९५ (यदि आपका यही निश्चय है तो शस्त्र ग्रहण कीजिए ।) फा- मर्दुमे माजिन्दरान अज. दरिया यि खज्रि माही मी गीरन्द ।९६ (माजिन्दरान के लोग क्षीर नदी से मछली पकड़ते हैं ।)
सं० । ग्रह' को स्वरूपतः फा० में 'र्गी' (ग्रिफ्तन) हो गया है । जो ध्वनि की दृष्टि से 'गृह' के समान ही है। सं० भूतकालिक 'क्त' प्रत्ययान्त क्रियापद का अत्यन्त सामीप्य उपर्युक्त फा॰धा में विद्यमान है- 'गृहीतम्>गिरफ्तम'। अर्थसाम्य तो दोनों भाषाओं में है, कभी-कभी उपसर्गों के प्रयोग से अर्थपरिवर्तन हो जाता है। ९. चिन्<>चीन्
चिनोति<>चीनद संधा- चिञ् चयने९७ फाल्म- चीन (चीदन) उदा. सं- 'रक्षायोगादयमपि तपः प्रत्यहं संचिनोति' ।९८ (शरीर की रक्षा के लिए योगानुष्ठान से तप को चुनता (कमाता) है ।)
फा- जनहा ए कारगर बर्गहा ए चाय रा मी चीनन्द' ।९९ (कार्यशील स्त्रियाँ चाय की पत्तियों को तोड़ती हैं ।)
संस्कृत चिन्' धातु और फा०म० 'चीन्' का परस्पर ध्वन्यात्मक साम्य है । दोनों में ही अन्त्य वर्ण अनुनासिक है तथा उच्चारण भी समरूप ही है, मात्र हूस्व इकार के स्थान पर फारसी में दीर्घ हो गया है। परन्तु इस प्रकार का परिवर्तन तो समय एवं स्थान के अनुसार होता ही रहता है । दोनों भाषाओं में यह धातु 'चुनना और तोड़ना' अर्थ में प्रयुक्त होती है । १०. तप<>ताब्/तप्
तपति>ताबद/तपीद संधा- तप सन्तापे१०० फाम- ताब/तप्(ताफ्तन/ताबीदन/तपीदन) उदा० सं०– 'तपति तनुगात्रि ! मदनस्त्वामनिशं मां पुनर्दहत्येव' ।१०१ (हे कृशांगि, कामदेव तुम्हें तो निरन्तर तपा रहा है, किंतु मुझे तो जला ही डाल रहा है ।)