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Vol. XLI, 2018
संस्कृत तथा फारसी के क्रियापदों में साम्य
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क्रियापद
संस्कृत तथा फारसी दोनों ही भाषाओं का व्याकरणात्मक होना उनकी अन्यतम विशेषता रही है। भाषा में क्रियापद की व्यवस्था के विषय में यह बात लक्षित होती है कि जिस प्रकार प्राणी के शरीर में जीवनतत्त्व (प्राण) निहित होता है, उसी प्रकार किसी भी भाषा के वाक्य में सारभूत तत्त्व "क्रिया' होती है। संस्कृत में तोयदि किसी वाक्य में एक ही पद है तो वह क्रिया के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता है लेकिन वह क्रियापद अकेले होकर भी अपने स्वरूप में अनेक भावों को छिपाकर रखती है। यास्क ने भी इसी भाव की प्रधानता को इन शब्दों में व्यक्त किया है- 'भावप्रधानमाख्यातम्' ।४२ वैसे आधुनिक आर्यभाषाओं में जिसे क्रिया कहा जाता है उसे संस्कृत व्याकरण में क्रिया न कहकर प्रायः 'आख्यात' कहा गया है । ऋक्प्रातिशाख्य में भी कहा है कि आख्यात वह शब्द है, जिसके द्वारा वक्ता 'करोतीति क्रिया' का कथन करता है। आगे चलकर क्रियावाचक-पद के रूप में उसका निरूपण किया गया है ।१३ परवर्ती आचार्यों के कथनानुसार- 'आख्यायतेऽनेन क्रियाप्रधानभूतेत्याख्यातस्-तिङन्त' ।१४ व्यवहार में हम जिस पद के द्वारा किसी कार्य के करने या होने को व्यक्त करते हैं, उसे 'क्रिया' के नाम से अभिहित किया जा सकता है । जैसे - 'रामः पुस्तकं पठति', यहाँ 'पठति' पद के द्वारा वाक्य में पढ़ने का भाव व्यक्त हो रहा है अतः यह पद क्रिया है। फारसी में क्रिया को 'फेअल' नाम से अभिहित करते हैं। धातु व धातुरूप
संस्कृत भाषा के अधिकांश शब्द धातुओं से निर्मित होते हैं । धातु शब्द । धा धातु तथा तुन् प्रत्यय के योग से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है-रखना । अर्थात् क्रियारूप को धारण करने वाला धातु ही है - 'यः शब्दः क्रियां भावयति प्रतिपादयति स धातुसञः' । संस्कृत का सम्पूर्ण रूप में उपलब्ध व्याकरण 'पाणिनीय व्याकरण' है, पाणिनि अपने व्याकरण में धातु का प्रयोग शब्द की 'मूलप्रकृति' के अर्थ में करते हैं। धातु का अर्थ ही है - शब्दों का मूल या योनि (कारण)। महर्षि यास्क भी कहते हैं – 'सर्वाणि नामानि आख्यातजानि' ।१५ दूसरे शब्दों में कहें तो संस्कृत का लगभग हर शब्द अन्ततः धातुओं के रूप में प्राप्त होता है, अतएव धातुओं का सर्वथा महत्त्व है । धातु का मूल अर्थ भाव है, इस मूल भाव में क्रिया तिरोहित रहती है और उस मूल अर्थ को वहन करने वाला एवं उसकी प्रधानता से संवलित रूप ही 'तिडन्त या धातुरूप' कहा जाता है। भर्तृहरि भी लिखते हैं
'कालानुपाति यद् रूपं तदस्तीति प्रतीयते ।
परितस्तु परिच्छिन्नं भाव इत्येव कथ्यते' ॥१६ सहज शब्दों में कहें तो हिंदी अथवा अंग्रेजी भाषा की भाँति संस्कृत में भी धातुओं से विविध कालों और वृत्तियों को व्यक्त करने के लिए लिंग और वचन के अनुसार रूप बना लिए जाते हैं । अर्थात् कर्ता का पुरुष और वचन तथा क्रिया का काल एवं अर्थ वाच्य के अनुसार उस क्रिया को विभक्तियों (तिङ्प्रत्ययों) द्वारा खास-विशेष साँचों में ढालता है। इस प्रकार जो रूप बनते हैं, उन्हें 'धातुरूप' कहते