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लिङ्गपुराण का योगदर्शन
सत्यव्रत वर्मा
पंचलक्षण से सम्बन्धित सामग्री से अतिरिक्त प्राय सभी पुराणों में कुछ ऐसे विषयों का भी निरूपण हुआ है, जो पुराण की मूल प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं । इस पुराणेतर सामग्री को पुराणों में समाविष्ट करने के अन्य कुछ भी कारण रहे हों, ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों के सम्पादकों, संशोधकों ने उनकी लोकप्रियता और स्वीकार्यता को देखते हुए, उनमें धर्म, नीति, समाज-व्यवस्था, साहित्य, कलाशिल्प आदि से सम्बन्धित ऐसी सामग्री भर दी है, जिसे वे जन-जन तक पहुचाने को लालायित थे । भागवत, मत्स्य, पद्म, गरुड, विष्णुधर्मोत्तर आदि में इस प्रकार की विषय-वस्तु प्रचुरता से समाहित है। अग्निपुराण में यह समावेशी प्रक्रिया पराकाष्ठा को पहुँच गयी है। उसमें ज्ञान-विज्ञान की विविध विधाओं तथा अन्य विधाओं का इस विस्तार से प्रतिपादन किया गया है कि वह पुराण की अपेक्षा एक विश्वकोष बन गया है । लिङ्गपुराण' में भी पुराणेतर सामग्री को उदारता से ग्रहण किया गया है, जो इसकी परम्परा से प्रतिबद्धता तथा लोकप्रियता का परिचायक है । वर्णाश्रम धर्म, प्रायश्चित्त, दण्डविधान, शौचाशौच, कालगणना, देवार्चनविधि आदि से अतिरिक्त कतिपद्य दार्शनिक सिद्धान्त भी उसके बृहत् क्लेवर में अनुस्यूत हैं । शैव पुराण होने के नाते उसकी चिन्तन धारा में महेश्वर परब्रह्म, पुरातन पुरुष, परमेश्वर, परमज्योति, सर्वदेवमय, वस्तुतः सर्वस्व हैं । समूचा विश्व लिङ्ग का स्वरूप है और सभी कुछ उसमें समाहित है। लिङ्गपुराण का सृष्टि-उत्पत्ति का विवरण बहुधा सांख्य सा अनुगामी है। सांख्य के समानधर्मा योग का निरूपण लिङ्गपुराण का यह योगशास्त्र निश्चय ही परम्परा तथा प्राचीन ग्रन्थों से प्रेरित है। कूर्म पुराण में उपलब्ध योगदर्शन के विवरण के साथ उसका साम्य अकारण नहीं हो सकता । परम्परा का अनुगामी होने पर भी लिङ्गपुराण के विवरण में कुछ नवीनता एवं भिन्नता है, जिसका परीक्षण-मूल्यांकन निस्सन्देह उपयोगी होगा ।
लिङ्गपुराण में योग का निरूपण उसके प्रयोजन/उद्देश्य के कथन से आरम्भ होता है । उसके अनुसार योग साधना का चरम उद्देश्य परमार्थ तत्त्व के ज्ञान की प्राप्ति है, जो चित्त की एकाग्रता से ही सम्भव है। पुराण की शैव विचारधारा के अनुसार चित्त की वह एकाग्रता भगवान् शिव के अनुग्रह से आती है । उस अनुग्रह का स्वरूप इतना दुर्बोध है कि ब्रह्मा आदि देवता भी उसे नहीं जान सकते ।