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संपादकीय
संबोधि के पाठकों एवं सुधीजनों को नववर्ष की वेला में अभिनंदन करते हुए ४१वें अंक को आपके करकमलों में देना मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी। इस अंक में संबोधि की परम्परानुसार अंग्रेजी, हिन्दी एवं गुजराती तीनों भाषाओं में उत्कृष्ट एवं मौलिक शोध लेख प्रस्तुत करने के प्रयास किये गये हैं। इस बार हम इसमें पर्शियन लिपि का भी उपयोग करना चाहते थे लेकिन तकनीकी कारणों से तत्तद् लेखकों की इच्छा पूर्ति नहीं कर सके है ।
प्रो. दीप्ति त्रिपाठी (निवर्तमान निदेशक, राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन, नई दिल्ली) ने ब्रिटिश कोलम्बिया यूनिवर्सीटी में आयोजित विश्व संस्कृत सम्मेलन में अपने बीज रूप उद्बोधन में प्रारम्भ में ही संस्कृत और बाद में अंग्रेजी भाषा में उद्बोधन किया था जिसे इस अंक में यथावत् Reflections on Manuscriptology: Forays into Indian Paradigms of Knowledge Management शीर्षक के अन्तर्गत प्रस्तुत करने में हमें आनन्द की अनुभूति हो रही है । अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर ऐसे अवसर बहुत कम ही आते हैं जब देववाणी संस्कृत को ऐसा विशिष्ट सन्मान मिल पाया हो । डॉ. बलराम शुक्ल ने फारसी भाषा में लिखित जमी कृत यूसुफ जुलैक्खा का संस्कृतान्तरण बहुत सुंदर प्रस्तुत किया है । इस प्रकार के मौलिक लेख बहुत कम ही लिखे जाते हैं। डॉ. सुषीम दूबे ने अपने लेख में अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शैव एवं अन्य दर्शनों में चेतना का संक्षिप्त प्रारूप प्रस्तुत किया है । डॉ. चारुलता वर्मा द्वारा लिखित रामकथा के मुरारी संस्करण पर टिप्पण्यात्मक लेख पठनीय है । संस्कृत ग्रंथों में वृक्षों का विशद वर्णन प्रो. धनंजय वासुदेव द्विवेदी के लेख में मिलेगा । मेरे स्वयं द्वारा प्रस्तुत अहमदाबाद में जैन समाज की प्रगति का लेखा जोखा संभवतः अथ से अद्यावधि पर्यंत देने का प्रयास किया गया
हिन्दी भाषा के लेखों में प्रो. धर्मचंद जैन ने वैशेषिक दर्शन में दुःख का स्वरूप तथा प्रो. पाहि कृत दुःख के वर्गीकरण की महत्ता बहुत अच्छी प्रकार से वर्णित की है। साध्वी श्री प्रियाशुभांजनाश्रीजी ने आचार्य हेमचंद्रसूरि कृत भवभावना ग्रंथ का संक्षेप में उत्तम परिचय दिया है । डॉ. सुरेश्वर मेहेर ने