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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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आदिपुरुष प्रादोश जिन आदि सुबुधि करतार
धर्म धुरन्धर परम गुरु नम् प्रादि अवतार
सृष्टि के सृजनहार, पृथ्वी के प्रथम अवतार, आदिब्रह्मा
कलाशपति शिव
और
बाबा आदम
भगवान
आदिनाथ
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c) प्रकाशकाधीन
अनिल पाकेट बुक्स ईश्वर पुरी मेरठ शहर
अनल
भगवान श्रादिनाय
लेखक
प० वसन्तकुमार जैन शास्त
मूल्य तीन रुपये
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पाठक वन्द
दो शब्द ..
महान् आत्माग्रो की विशेषतायें क्या थी? वै क्या, जन्म से ही
(*
महान् आत्मा होती है ? उन्होंने ऐसा क्या कार्य किया - जिससे वे महान् आत्मा बन गई ? क्या हम भी महान् श्रात्मा बन सकते हैं ? प्रादि प्रश्न एक आध्यात्मिक सुखशान्ति के हेतु आवश्यक प्रश्न है।
प्रस्तुत पुस्तक मे आपको उपरोक्त सभी प्रश्नो का सहज, सरल और निष्पक्ष उत्तर मिलेगा । श्राध्यात्मिकरस, भौतिक वादियो के लिये एक कडवी दवा होती है । परन्तु यहाँ वही कडवी दवा मीठे मीठे बतासे मे रख कर पिलाई जा रही है ।
उपन्यास, लेख, निबन्ध सभी ज्ञान की वृद्धि के कारण भूत तथ्य होते है | पर अनैतिकता के पोषक लेख उनको दूषित बना देते हैं । श्रत जीवन मे नैतिकता को प्राथमिकता देते हुये उत्कृष्ट लेख ही पढना योग्य है ।
इसी तथ्य की पुष्टी के लिए आपके कर कमलो में यह पुस्तक प्रस्तुत की जा रही है । आशा है कि इसका अध्ययन करके शाति का प्रास्वादन करेंगे।
( रानीमिल मेरठ )
विनीत
प० वसतकुमार जन शास्त्री (शिवाड - राजस्थान )
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भगवान आदिनाथ
(प्रमुख)
आदिनाथ कहो या ऋषभदेव कहो। दोनो नाम एक ही हैं। ऋषभदेव के विषय मे ऋगवेद मे तथा पुराणो मे पुष्कल विचार सामग्री उपलब्ध होती है । श्रीमद् भागवत महापुराण के अनुसार महाराज नाभि के यहा मरूदेवी की कुक्षी से स्वय विष्णु ने अवतार ग्रहण किया था । श्रमरण मुनियों के धर्मों का निर्देश करना उनके इस अवतार का मुख्य प्रयोजन था । यथा- 'बर्हिषि तत्मिनेव विष्णुदत्त | भगवान् परमर्षिभिः प्रसादित्त नाभे प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शमित कामो वात्तरशताना श्रमणानामृषीणामुध्वंमन्थिना शक्लयातनुरवत तार 1, श्रीमद् भागवत महापुराण, ५/३/२०'
ब्रह्माण्डपुराण में प्रियव्रत को चराावली का उल्लेख करते हुए कमश प्रियव्रत से प्राग्नीघ्र, आग्नीध से नाभि, और नाभि से क. भ की उत्पत्ति का वर्णन किया है । वही यह उल्लेख भी हुआ हैं कि ऋषभ समस्त क्षत्रियो के पूर्वज है उनके सो पुत्र हैं, जिनमे भरत ज्येष्ठ (बडे ) हैं । यथा
'प्राग्नीध ज्येष्ठदायाद काम्यापुत्र महावलम् । प्रियव्रतोऽभ्यसिचत् त जम्बूद्वीपेश्वर नृपम् ॥ तत्यपत्रा बभ्रुवुर्हि प्रजापति सभा नव । ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तम्य किं पुरुषोऽनुज. नामेनिसर्ग वक्ष्यामि हिमा ऽस्मिन्नि दोषत | नाभिस्त वजनयत् पुत्र मत्देव्या महाप्युतिम् ॥ पार्थिवश्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् । मृषभाद् भरतो पक्षो वीर पुत्रशता ॥ -ब्रह्माण्ड पुराण, पूर्व २/१४
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शिवपुराण मे स्वय शिद ने ऋषभ को अपना अवतार कहा
है। यथा
इत्थप्रभव ऋपभोऽवतारी हि शिवस्य मे । सता गतिर्दीनबन्धुर्नवा कथित रत्तव ।।
शिव पुराण ४/४८ ऋगवेद के प्रथम मण्डल मे ऋपभदेव के लिये एक सूक्त मे उन्हे प्रजात्रो को धनादि से प्रसन्नता प्रदान करने वाला राजा कहा है और इन्द्र को कृषि जीषियो का स्वामी बताया गया है । यथा
आ चर्षणिप्रा वृषभो जनाना राजा कृष्टीना पुरुहूत इन्द्र । स्तुत श्रवस्यन्नवसोप मद्रिग युक्त्वा हरि वृषणा याद्यर्वाड ॥
ऋक १/२३/१७७
प्रत
।
रामह णव कमल कोमल मणहरवर वल कति सोहिल्ज , उसहस्स पायकमल ससुरासुर वदिय सिरसा ॥
- देव मनुष्य जिनकी वन्दना करते है । वह कोटि सूर्यों की प्रभा के समान है, उन्हे नित्य त्रिकाल वन्दना है।
--मुनि श्री विद्यानन्द जी (श्री पुरुदेव भक्ति गगा से साभार)
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-: जयमंगलम् :
घोरतर ससार वारा शिगत तीर । नीराजना कार रागहर । ते । मारवीरेशकर को दण्ड भग करसार । शिव साम्राज्य सुखसार । ते ॥
जय मगल नित्य शुभ मगलम् । जय विमल गुण निलय पुरुदेव । ते॥
जय मगलम् ॥
हे घोरातिघोर ससार सागर-पारतीरगामिन । पारातिक्य दीप से अर्चा करने वालो के रागहारिन । विश्व विजयी कामदेव के कोदण्ड (पुष्प चाप) को भग करने वाले । सारभूत शिव साम्राज्य के सुख भोक्ता । आपकी जय हो, नित्य मगल हो।
हे विमल गुणो के निवास स्थान भगवान पुरुदेव (आदिनाथ) आपको जय हो । आप जय और मगल स्वरूप हैं, नित्य शुभ मगल आत्मा हैं ।
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१-धन्य धन्य मरुदेवी कुति
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उत्तम और अत्युत्तम
आर्य क्षेत्र के मध्य मे नाभि के सदृश शोभायमान यह नवनिर्मित नगरी सत्यत सर्वोत्तम ही है। इसीलिए तो यह सर्वप्रिय है। सर्वप्रिय होने के कारणभूत ही तो इसका कोई भी शत्रु नहीं है-और कोई भी शत्रु न होने से यह युद्ध से भी रहित है। युद्ध की आशका यहाँ न होने से ही तो इस नवनिर्मित अनुपम नगरी का नाम 'अयोध्या' रखा गया है । अयोध्या नगरी आज सजी सजाई दुल्हन की तरह लग रही है । शरमाई सी, अलकाई सी, अगडाई । सी यह नगरी स्वत ही मन को मोह रही हैं। रगविरगी कलियो
से शोभित, मन्द सुगन्ध पवन से सुरभित, सुमधुर चहचहाते-विहग गरण से चर्चित, और मदमाती, इठलाती, सरसराती स्वच्छ शीतल नीर सहित सरिता से मण्डित यह नगरी इन्द्र की पुरी को भी मात दे रही है।
प्रथम तो अयोध्या ही ऐसी-अनुपमा-नगरी, इसपर भी ठीक | इसके मध्य मे अनेक पताओं से मण्डित भव्य विशाल और मनोज्ञ
भवन-जिसे देवतानो ने निर्मित किया-तो और भी आकर्षक हो गये है दूर से ही भान हो जाता है कि यही यहा के शासक का महल है । भान भी सत्य ही है । क्योकि यह भवन यहां के कुशल और नीतिज्ञ शासक-महाराजा 'नाभि' का प्रावास-गृह है। महल के ठीक मध्य में एक विशाल और मनोज्ञ साज-सज्जा से सुसज्जित सभा मण्डप (हॉल) है जिसमे अवकाश के समय महाराजा अपनी रानी एवं अन्य सलाहकारो के साथ विचार-विमर्श किया करते
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(=)
हैं । इसके दाई ओर एक और कक्ष है, जो तो ऐसा लग रहा है कि जिसे मानो इन्द्र ने अपना स्वयं का कक्ष लाकर यहां रख दिया हो। इस कक्ष मे आप दिवारो पर छन पर, फर्स पर अर्थात प्रत्येक स्थान पर अपना मुख दर्पण के सदृश देख सकते हो ।
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मालाए, झाडफनूम, झालरे, प्राकृतिक प्रकाश, घोर तुरभित महल से यह कक्ष ऐसा लग रहा है कि मानो स्वर्ग यही है । यही है महाराज नाभि का शयन कक्ष । जहाँ महाराज 'नाभि अपनी अतिप्रिय महारानी 'मरुदेवी' के साथ विश्राम करते है ।
महारानी मरुदेवी के रूप-सौन्दर्य का वर्णन लेखनी लिख सकने मे असमर्थ है | क्योकि ऐमा अनुपम सौन्दर्य देखने के पश्चात भी अवाक् दर्शक चाहे वह सुरपति ही क्यो न हो उस सौन्दर्य को लेखनी से बद्ध नही कर पाता । करे भी कैसे ? उस सौन्दर्य को लिखा कैसे जाये ? किसकी उपमा ते उसे रचा जाये ? इतना अनुपम सौन्दर्य जिसका वर्णन, अवर्णनीय है उसे कैसे कहा जाये ? श्रत आचार्य जिनसेन के शब्दो मे
सुयशा मुचिरायुश्च सुप्रजाश्च सुमगला । पतिवत्नी च या नारी सा तु तामनुवर्णिता || समतुप्रविभक्तांग मित्यस्या वपुरुजितम । स्त्री सर्गस्य प्रतिच्छन्द भावेनेव विधिर्व्यघात | इतना ही कहा जाना योग्य है ।
भोग भूमि का समय प्राय नष्ट हो गया । कल्प वृक्ष P रहे- इसी कारण महलो का आवास हो रहा है । महल भी देव द्वारा निर्मित | क्योकि उस वक्त का मानव क्या जाने कि मह कैसे बनाये जाते हैं । अर्धनग्न मानव, विकार से दूर और विज्ञान से रहित बड़ा ही अजीब सा लग रहा था । यद्वातद्वा विकार क लहर दौडती भी नजर आ रही है। मानव अब भूख भी महसूर करने लगा है और प्यास भी। फिर मी मानव अभी व्याकुल
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हुआ था।
झिलमिल सितारो से जड़ी रजनी रानी दुल्हन बनी अनुपम साडी ओढे जैसे थिरक रही हो प्रेम बरसा रही हो, उमग की धडकन के तार बजा रही हो । और जैसे मानो अपने आप मे लाज की मारी सिकुडी जा रही हो । शान्त वातावरण और शीतल मन्द सुगन्ध पवन कही दूर पर क्षितिज की ओट से विद्युत की चमक भी कभी कभी दिखाई दे रही थी। ऐसे सुहावने समय मे · .....।
हाँ । हा । ऐसे सुहावने समय मे मरुदेवी अपने प्रियतम महाराजा 'नाभि के साथ शयन कर रही थी। दिल धडक रहा था मीठा मीठा, और चेहरा मुस्करा रहा था। नेत्र की पलके अर्धविकसित थी और अंग प्रत्यग अन्दर ही अन्दर नृत्य कर रहा था। महाराज नाभि ने करवट बदल ली थी और गहरी निद्रा मे डूब चुके थे । पर रानी " रानी मुस्कराती जा रही थी। जमे जग रही हो। जैसे उसे सभी कुछ बातो का भान हो । पर रानी तो निद्रा देवी की सुहावनी गोदी मे अनुपम और मीठे स्वप्नो मे मोज ले रही थी।
शरमा कर, लजाकर और अपने आप मे सिकुडती हुई रजनी ने प्रस्थान किया। प्राची का चेहरा मुस्करा उठा। बगियो में वहार नाच उठी। फूलो की कलिया खिल उठी और रग विरगी चिडिया अपना निरक्षरी गाना गा उठी। प्रभाती का मगल वाद्य मधुर और सुहावने सुर मे बजने लगा. तभी दासियो ने रानी मरुदेवी के शयन कक्ष में प्रवेश किया।
रानी मादेवी अग पत्यग को सम्हालतो हुई जग ही थी। उसके कानो ने बाहर का मगल वाध सुन लिया पा। प्रभात का मीठा शोर भी कानो ने सुन लिया था। महारानी को जगती हुई देखकर दासियो ने मानन्द भरे शब्दो में जब बोली और मगल
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गान प्रस्तुत किया । रानी श्रव मदमाती हस्थिनी की भाति उठकर चलने लगी । प्रसन्न चेहरा-मीठी मीठी मुस्कराहठ के फूल बरसा रहा था। दासियो की ओर शरमिली नजर विखेरती हुई रानी हसनी की चाल चल रही थी ।
स्नान कक्ष मे पहुच कर रानी ने दैनिक, कार्य किये। सुगन्धित जल से स्नान किया । दासियाँ उसके प्रत्येक ग्रग को शीतल जल से सुगन्धित उबटनों के द्वारा सहलाती हुई घो रही थी। आज स्नान करती हुई भी रानी मरूदेवी प्रसन्नता की लहरो मे खोई हुई थी । अग की प्रत्येक कलियाँ खिल रही थी ।
स्नान कर चुकने के पश्चात् सुन्दर वस्त्राभूषण से सुन्दर सुडोल शरीर को सजाया गया श्राज प्रत्येक आभूषण, प्रत्येक परिधान, मुस्करा रहा था, नाच रहा था और शरीर से चिपका जा रहा था। रानी तो खोई हुई थी अपने आप मे ।
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'महाराज श्री कहाँ है ? मुख खुला और मोती चमक उठे । रानी ने आनन्द भरे शब्दो मे एक दासी से उक्त प्रश्न किया । रानी ने भी अपने शब्दो को अपने कान से सुना तो लज्जा गई अपने आप मे । जैसे होश सम्हलती सी रानी ने एक दम पूछा 'मैंने अभी क्या कहा था ?"
"
'आपने पूछा था कि महाराज श्री कहाँ है
'श्रोह हा तो बताओ कहाँ है महाराज श्री ?"
·
'महाराज श्री तो सदैव ही इस वक्त राजदरबार में विराजे रहते है । क्या आपको "
'हा ' हा ' मुझे ज्ञात है । ज्ञात है । जाओ । सन्देश निवेदन करो कि मैं आ रही हैं । '
'जैसी श्राज्ञा महारानी जी !'
एक दासी धीमे धीमे कदम उठाती चली । श्रन्य दासियां विहम उठी। तभी रानी ने
पूछा।
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'क्यो क्या बात है?' 'वात तो जरूर भी कुछ न कुछ है महारानी जी।' 'क्यो ।'
'क्योकि आज तो आप पूर्ण विकसित पुष्प के समान खिली हुई हो । आप का अंग प्रत्यग भी आपसे सम्हाले नही सम्हल 'हा है और चेहरा ? "चेहरा तो आपकी सारी बाते कह रहा है।' चल हट | "ज्यादा जबान क्यो चलाये जा रही है। यह सत्य है के तू मेरी सहचरी है-पर ज्यादा नहीं बोला करते।' ____ ना सही। पर आप मन को भी तो समझा लीजिए वह तो बोलने वालो को भी बोलने को कह रहा है।' 'ओह ! - मै क्या करू | आज "आज तो।'
तभी दासी आगई । निवेदन करने लगी · 'आपका सन्देश महाराज श्री के चरणो मे पहुंचा दिया गया है । महाराज श्री ने माज्ञा प्रदान करदी है।'
'मोह ..' रानी मरुदेवो धीमी धीमी, मस्त भरी चाल से चलने लगी। राज दरबार विखर चुका था अर्थात सभी उपस्थित जन जा चुके थे। ___महाराज अपनी प्रियतमा की प्रतीक्षा में बैठे थे। तभी रानी पहुची । महाराज नाभि ने अपना अर्धासन दिया और रानी महाराज श्री के निकट बैठ गई।
'कहो । “आज यहां आने का क्या कारण वन पड़ा?' 'स्वामिन ....।' 'बोलो बोलो "।' 'प्राज मैं बहुत ही प्रसन्न भी हूँ और चिन्तित भी।' 'परे । यह सट्टा मीठा स्वाद क्यो ? 'स्वामिन....।' 'कहो भी ! क्या प्रसग ऐसा सामने आ गया है। जिससे मन
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वत मे ही नही हो पा रहा है ।'
'आज रात्रि को मैंने अद्भुत स्वप्त देते हैं ।' 'स्वप्न ? कैसे स्वप्न ?"
'जी हा प्रभो ! अर्धरात्री के पश्चात् मैंने
पूरे सोलह स्वप्न देखे हैं । स्वप्नो को देखने के बाद ऐसा लग रहा है "ऐसा लग रहा है कि
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'हा | हां। कहो कैसा लग रहा है ?"
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'कि मानो तोनो लोको को सम्पदा हो मुझे मिल गयी हो ।
•
कि मानो मैंने अमूल्य निधि प्राप्त करली हो । कि मानो मैंने जीवन का सार उपलब्ध कर लिया हो ।'
'अच्छा। तो कहो क्या स्वप्त थे वे ।'
'हा वही तो मैं आपसे निवेदन करने आई है। इसलिये कि आप मुझे बतायें कि उनका फल क्या है ?"
'जरूर बताऊगा | अब बोलो क्या स्वप्न थे ?'
रानी मरुदेवी ने सभी सोलह स्वप्न बता दिये और उनके फल | सुनने को प्रातुर हो उठी। महाराज नाभि ने जब रानी के मुख से स्वप्नो को चुना तो वे भी फूले न समाये और झट से रानी को अक से लगा लिया। रानी सिहर उठी
'अरे ' आपको क्या हो गया ? मेरे स्वप्नों का फल तो
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वताइये ।'
'रानी तुम धन्य हो । तुम्हारे स्वप्न सत्यात आनन्ददायक हैं. और अनुपन हैं ।'
'अव फल भी बतायोगे या नही ।'
'सुनो रानी तुम्हारे गर्भ मे आज महान पुण्यशाली' केदल ज्ञान नान्त्राज्य को प्राप्त करने वाली, तेजन्त्री, पृथ्वी को श्रानन्दित करने वाली, सुर, नर और खग अर्थात सभी देवो महेन्द्रो, नरेन्द्रो से पूजित महान धात्मा श्रा गई है।
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। 'अरे 11' रानी का रोम रोम नाच उठा । अपने आपको सम्हालती हुई रानी ने पुन पूछा-'किन्तु आपको कैसे ज्ञात होगया कि .. ' - - 'क्यो? जैसे जैसे तुमने स्वप्न देखे वैसे वैसे ही मैंने उसका स्वप्न-निमित्त-ज्ञान के द्वारा जान लिया ।'
'मैं अच्छी तरह न समझ सकी ।' 'तो क्या एक, एक, को समझाना होगा?' 'हाँ स्वामिन '
'तो सुनो । ऐरावत हाथी देखने से उत्तम पुत्र होगा। उत्तम बैल देखने से समस्त लोक मे उच्च होगा। सिंह देखने से अनन्त बलशाली होगा । मालामओ के देखने से समीचीन धर्म का चलाने वाला होगा।'
'अरे |
'सुनती जाओ लक्ष्मी को देखने से सुमेरु पर्वत पर देवो द्विारा अभिषेक को प्राप्त होगा। पूर्ण चन्द्रमा को देखने से समस्त 'मारिणयो को प्रानन्द देने वाला होगा । सूर्य देखने से देदीप्यमान 'प्रभा का धारक होगा। दो कलश देखने से अनेक निधियों का स्वामी होगा। । 'पाश्चर्य 11
भोली । इसमे आश्चर्य की क्या बात है । वह तो पुण्यशाली है ही पर तुम अपने आपको भी तो देखो कि जिसकी कुक्षी मे ऐमा पुण्यात्मा अवतरित हुआ है।'
'यो । मोह रानी फिर प्रानन्द सागर मे नहा गई। । हाँ तो मैं तुम्हे बता रहा था ' प्रागे नुनो युगल मछलिया
देखने से सुखी होगा । सरोवर देखने से अनेक लक्षणो से सुशोभित 'होगा । समुद्र देखने से केवली होगा । सिंहासन देखने से जगत का गुरु होगा, साम्राज्य को प्राप्त होता । देवो का विमान देखने ने
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स्वर्ग से अवतीर्ण होगा। नागेन्द्र का भवन देसने से अवधि ज्ञा का धारी होगा, चमकते हुए रत्नो की राशि देखने से गुणो व भण्डार होगा। निर्धूम अग्नि देखने से मोक्ष का अधिकारी होगा और · 'हाँ ! हाँ । स्वामिन-कहिये । कहिये । और क्या'..?"
'और जो तुमने अपने मुख मे प्रवेश करते हुये वृषभ को देख है ना?
'हा | हाँ । देखा है।'
'तो समझ लो कि भगवान ऋपभदेव ने तुम्हारे गर्भ मे शरीर धारण कर लिया है।'
'मोह ! - रानी मरूदेवी, प्रसन्नता, मोद, और उमग रे भरी नाच उठी। आज उसे सारा ससार नाचता हुआ, गात हुआ दिखाई दे रहा था । वह अपने ही मोद-विचारो मे खोई ज रही थी 'मै 'भगवान ऋषभ देव की मां बनू गी? ." जिसक सारा ससार पूजा करेगा, जिसको तीनो लोको का साम्राज्य प्रा होगा, जो समस्त प्राणियो का हितकारी होगा क्या मैं उनक मा बनू गी ।-प्रोह । मैं धन्य हूँ। मैं तो धन्य हूँ', ___क्यो ? क्या विचार रही हो " राजा नाभि ने अपनी रान को मुख छवि को देखकर जान लिया कि यह अपनी भावी सन्ता की खुशी मे मोदभरी उडान ले रही है। ___ 'रोह | कुछ नहीं कुछ भी तो नहीं ।..."
तभी दासियो ने निवेदन किया भोजन का समय हो ग महारानी जी।'
महाराज नाभि और महारानी मरूदेवी ने भोजन कक्ष प्रवेश किया । आज रानी मरूदेवी भोजन का एक ग्राम भी व ममय मे समाप्त कर पा रही थी । आनन्द सागर मे डूबी रा ग्राज फूली न समा रही थी ! सारा महल, कोना कोना, महल ।
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प्रत्येक वस्तु आज महारानी मरुदेवी को आनन्द की मौज मे लह'राती मदमाती और नाचती दृष्टिगत हो रही थी। तभी...
'महारानी मरुदेवी जी की जय हो ।' 'आप ? • आपका परिचय?'
'हम स्वर्ग की देविया है । महाराज इन्द्र की आज्ञा से हम आपकी सेवा मे रहने को आई हुई है। आप हमे स्वीकार कीजिए और आज्ञा प्रदान कीजिये कि हम आपकी सेवा कर सके।
'अरे !... "पर आपको ...."अर्थात इन्द्र महाराज को कैसे मालूम ....
'आप आश्चर्य ना करिये राज रानी जी | महाराज इन्द्र को अवधिज्ञान से सब कुछ मालूम हो गया है। आपके पवित्र गर्भ मे ज्योही भगवान ऋषभदेव का अवतरण हुआ कि उनका श्रासन हिल गया और अपने अवधिज्ञान से जान लिया कि आपके पवित्र गर्भ मे भगवान ने शरीर धारण कर लिया है।'
महाराज नाभि ने अपनी भाग्यशालिनी रानी के मुख की तरफ मुस्कराते हुये देखा । रानी अपने आप मे प्रसन्नता से भरी जा रही थी । ज्यो ही महाराज की निगाह से निगाह मिली त्यो ही रानी और भी पुलकित हो उठी।
क्षण बोता, पल बीता, घडी बीती और दिन वीता। समय कितना व्यतीत हो गया-यह मालूम ही न हो सका । रानी मरुदेवी का गर्भ वढ रहा था और उधर पृथ्वी पर नया रंग छा रहा था । देवियाँ-सदैव महारानी के साथ रहती । हास्य, अध्ययन कौतुक आदि के द्वारा गर्भवती रानी का दिल बहलाया करती।। ___ आज महारानी अपने आपको महान ज्ञानवति, वलवति और विचारक देख रही थी। कभी कभी तो वह आश्चर्य कर बैठती कि मुझमे इतना सब कुछ पा कहा से गया ? तभी देविया समाधान
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कर देती 'आश्चर्य न करिये देवी जी जैसी आत्मा गर्भ मे आती है वैसे ही लक्षण माता मे भी हो जाते हैं ।' और यह सुनकर रानी फिर पुलकित हो उठती।
अनेक गूढ एव विज्ञता भरे प्रश्न देवियां महारानी भरदेवी से पूछती और मस्देवी उन प्रश्नो का उत्तर सक्षिप्त मे सार गभित शब्दो से देती। जिन्हे सुनकर देवियां भी चकित रह जाती।
प्रत्येक दिन नया आयोजन, देविया प्रस्तुत करतो-जिसने रानी नवीन नवीन मोदभरी मुस्कराहट उपलब्ध कर पाती । कभी जलकीडा का आयोजन होता-तो तभी महारानी के साथ जल से भरे कुण्ड मे नहाती । शीतल, स्वच्छ जल का स्पर्श ज्योही अगप्रत्यग से होता त्यो हो रानो मिहर उठती। ___ कभी सगीत का आयोजन होता तो देवियाँ, वीणा सितार, मदग, झांझर आदि को सप्तस्वरो मे से क्रम से बजा बजाकर मगल गान गाती । नाचती और हाव भाव प्रदर्शित करती।
कभी हास्य रस का आयोजन होता तो देवियों अनेक बातें हास्य भरी कहती जिससे रानी सती-हसती लोट पोट हो जाती थी और कहती-बस-वस' अव रहने दो • मेरा तो पेट भी हसते हसते थकता सा जा रहा है।'
कभी प्रश्नोत्तरो का आयोजन होता तो देविया प्रश्न पूछती और मत्देवी उनका उत्तर देतो। जैसे -
प्रश्न-क पाट्योऽशरच्युत.. उत्तर--श्लोक पाठ्योक्षरच्युत । प्रश्न-मधुर शब्द करने वाला कौन है ? उत्तर-केका । अर्थात-मयूर। प्रश्न-उत्तम गन्ध कौन धारण करता है ? उत्तर-केतकी ।
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प्रश्न-मधुर बालाप किसका ? उत्तर-कोयल का। प्रश्न- छोड देने योग्य सहवास किसका ? उत्तर---क्रोधी का। प्रश्न-हे माता । सक्षिप्त और डेढ अक्षरों में प्रत्येक का
उत्तर दीजिये आपके गर्भ मे कौन निवास करता है? उत्तर-~-तुक । (पुत्र) प्रश्न- आपके पास क्या नही है ? उत्तर-~-शुक् । (शोक) प्रश्न-बहुत खाने वाले को कौन मारता है ? उत्तर--रुक । (रोग) प्रश्न-हे रानी हमारे तीन प्रश्नो का उत्तर दो दो अक्षरो में जिए पर प्रत्येक उत्तर के शब्द का अन्तिम अर्थात दूसरा अक्षर ' होना चाहिए। हमारे तीन प्रश्न हैं...
(१) भोजन में रूचि बढाने वाला कौन ? (२) गहरा जलाशय कौन ? (३) आपके पति कौन? उत्तर-सूप, कूप, भूप । (अर्थात् दाल, कुन्ना और राजा) प्रश्न-एक देवी ने अपने प्रश्नो को निरुत्तर होने वाला जानर पूछा हे माता मेरे भी तीन प्रश्नों का उत्तर दीजिए। पर याद खिये प्रश्न का उत्तर तीन अक्षरों में हो और अन्तिम अक्षर 'ल'
(१) अनाज मे से कौन सी वस्तु छोड दी जाती है ? (२) घडा कौन बनाता है? (६) कोन पापी हो को खा जाता है ? उत्तर--रानी मुस्करा उठी। बोली
पलाल, कुलाल घोर विडाल । अर्थात् (भूसा, कुम्हार और बिलाव)
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एक देवी जो अपने आपको महान् विद्वता से भरी पूरी मानती थी उसने (यह सोचकर कि रानी मेरे प्रश्न का उत्तर कभी भी नहीं दे सकेगो) तभी प्रश्न किया। उसने पूछा 'हे रानी, कृपया मेरे तीन प्रश्नो का उत्तर एक ही वाक्य मे दीजिये । मेरे तीन प्रश्न इस प्रकार हैं ----
(१) आपके शरीर मे गम्भीर क्या है ? (२) आपके पति को भुजाए कहाँ तक लम्बी हैं ? (३) कैनी और किस जगह पर अवगाहन करना योग्य है ?
उत्तर- रानी ने उपरोक्त तीनो प्रश्न सुने और विहनती हुई उत्तर देने ली । एक ही गपन मे
___ 'नाभिराजानुगारिक' उपरोक्त उत्तर को सुनकर देवी चकित रह गई। पुन पूछाकृपया इनका सप्टीकरण दीजिएगा। रानी ने इनको व्याख्या करते हुए बताया
नाभि, प्राजानु, गायिक, नाभिराजानुगा-अधिक । अर्थात्शरीर में गम्भीर 'नामि' है । महाराज नाभि की नुवाए आजानु (धुटनो नप्त) है। गावि पनि कम गहरे, म अर्यात् जल ने प्रवरहन योग्य है।
स प्रकार विभिन्न और ज्ञान वर्गक, गेवक प्रश्नो को पूछती हई देवि नमपस मरउनयोग कर रही थी।
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१२-संसार के सृजन हार का जन्म
अबकार को विलीन करता हुआ प्राची के प्राचल मे से दिवाकर प्रकट होने जा रहा था। चारो दिशाये गुलाब के फूल की तरह खिल उठी थी। रग-बिरगी, हल्की भारी, सुनहली किरणो से सारी दिशायें शरमाती सी मुस्करा उठी थी। आज हर प्राणी प्रसन्नता से भरा दिखाई दे रहा था। गगन मे पक्षी मौज की उडान ले रहे थे । पवन, मन्द, सुगन्ध, शीतलता के साथ कोने-कोने मे आ जा रही थी।
रानी मरूदेवी अपने ही कक्ष मे शयन कर रही थी । देविया सिरहाने, पैरो की ओर, तथा अगल बगल में बैठी हुई थी। सभी प्रसन्न और मोद भरी थी।
महाराज नाभि, अपने दरबार मे मन्त्रियो, सभासदो से प्रभात कालीन सभा में बैठे चर्चाय कर रहे थे। तभी · · हाँ हाँ तभी ध्वजाये लहा उठी, मन्दिरो मे अनायास ही घन्टे घडियाल वजने लगे । शख नाद गांजने लगे जयजयकार होने लगी। सभासद प्रमन्नता से भरे-पर-याश्चर्यान्वित हो एक दूसरे की ओर देख रहे थे। नाभिराज कुछ कहने ही जा रहे थे कि एक देवी ने पायल की मधुर ध्वनि के साथ प्रवेश किया और प्रसन्नता के सागर से छलकी हुई कहने लगी--
"भगवान नहषभदेव ने अवतार ले लिया है ?"
अरे । सब उठ खडे हुए । महाराजा नाभि ने अपना भडार खोल दिया । दान दिया जाने लगा। प्राज सारी अयोध्या का कन
avya
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( २० ) कन सजाया जाने लगा। मगलगीत, नृत्य, होने लगे। हर ओर खुशिय नाचने लगी । जय । जय होने लगी।
उघर स्वर्ग मे भी भागदौड मच गई । विना वजायें बाजे वजते देख, अपने सिंहासन को हिलता देख, इन्द्र ने जान लिया कि भगवान ऋषभदेव ने जन्म ले लिया है। पूरे साज सज्जा के माथ, अपने सभी परिवार के साथ विशाल और भव्य ऐरावत हाथी पर विराजमान हो इन्द्र अयोध्या पाया । सारी अयोध्या नगरी पर रत्न वरसाए गए। इन्द्र ने ऐरावत हाथी सहित नगरी की तीन प्रदक्षिणा दी। पश्चात् राजभवन के समीप ऐरावत को रोका। ___इन्द्राणी, ऐरावत पर से उतर कर सीधी रानी मरूदेवी के प्रसव कक्ष मे गई । वालक माता की बगल मे लेटा हुआ घा ! प्रसन्न और विकसित पुष्प सा । इन्द्राणी धन्य हो उठी । उसने वालक को उठाना चाहा पर यह सोचकर कि माता दु ख मानेगी, इन्द्राणी ने मायामयी नीद से रानी को सुलाकर और एक माया मयो बालक पैसा ही बनाकर, वालक ऋषभदेव की जगह सुलाकर बालक पभदेव को अपनी गोदी मे उठा लिया।
इन्द्राणी वालक को बार-बार निरखे जा रही थी। उसकी वह निरसन को भूख मिटना ही नही चाह रही थी। फिर भी इन्द्र की प्राजा को ध्यान में रख वह बालक को वाहर ले पाई और महारा इन्द्र को नोप दिया।
चन्द्र ने बालक को निरखा । वढे प्रसन्न हुये । अपने कन्ये पर विराजमान करके मनी परिवार सहित पान्डक्वन को प्रोर चल पड़े पाप्टग वन में लगीक पाण्डुशिला पर पूर्व की ओर मुत्र करने चानक ने प्रत्युनम सिंहासन पर विराजमान किया और उत्साह समग, ग्य जगाने के नाय नमामिक रिया !
भोर नोरन्हवन ने के पश्चात् इन्द्रागी ने बाता, पम्वामा पहनाये । बालकामदेव अनुपम नगेन्दयं को नाग
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मूर्ति लग रहे थे । इन्द्र ने जो बालक को देखा तो उसके नयन निरखते ही रह गये। वाह वाह क्या अनुपम सौन्दर्य है ? क्या शरीर है ? क्या तेज है ? इन्द्र अवाक रह गया । एक से नही दो से नहीं, इन्द्र को बालक के सौन्दर्य-रस का पान करने के लिये हजार नेत्र बनाने पडे । वडी प्रसन्नता के साथ इन्द्र ने इन्द्राणी के साप ताण्डव नृत्य किया। विविध प्रकार के वाद्य बजने लगे। देवॉचनाये मगल गीत गाने लगी और सारा गगन मण्डल जय जय कारो की नाद से गूज उठा। ___ मंगल कार्य हो चुकने के पश्चात् इन्द्र वापिस उगी ठाट-बाट के साथ अयोध्या पाया। बालक को इन्द्राणी ने मा की गोद में लिटाया। माया मई वालक लुप्त हुना । ईन्द्र और इन्द्राणी ने माता पिता की पूजा की । बालक के साथ रहने के लिये अनेक देव देविया छोडकर ईन्द्र ने प्रस्थान किया।
बालक ऋषभदेव दोज के चद्रमा की भाति वृद्धि को प्राप्त होने लगे । देवगण उनके ही समान वालक होर उनके साथ खेलने लगे। देवांगनाये बालक की परियचर्या करने लगी।
"वाह वाह क्या प्रानन्द का स्रोत है ?" 'कहा ? "उधर देखो उधर.. .."
बालक ऋषभ वालकोपयोगी क्रीडाये कर रहे थे और मा मरुदेवो तथा पिता नाभि फूले न ममा रहे थे। हाथो हाथ रहने वाले बालक ऋषभदेव फुदक रहे थे।
माता मरूदेवी के आंगन मे घूम सी मची हुई है। बधाई गाने वाली का ताता सा लग रहा है। राजा नाभि भी प्रत्येक प्रकार के मगल उत्सवो मे भाग ले रहे थे। आज अयोध्या का ही नहीं, अपितु विश्वभर का बच्चा बच्चा प्रसन्नता से नाच रहा था।
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( २२ )
क्यो ???
क्योकि आज कर्म भूमि के शृष्टा धर्मभूमि के महान उप श्रृष्टि के आदि पुरुष बाबा श्रादन, सृष्टि कला और विकार कलुपता तथा भूस प्याम की भयकर विमारी के सहारक भगवान शकर ने जन्म जो लिया है।
भूले भटके असभ्य, अनविज्ञ, मानव को नही मार्गाज राजा नाभि के घर रानी मरुदेवी के प्रागन मे मेल रहे हैं ।
प्रोज भरे, और ज्ञानभरे बालक ऋषभ को निग्स, देजने, दर्शन करने को भीड उमड रही है। चारों ओर नृत्य हो रहा है । आनन्द मंगल की धूम छा रही है ।
महान् पुण्यशाली भगवान ऋषभदेव के जन्म पर जो विशेषता होनी चाहिये थी हुई । पुण्य का फल होता ही ऐसा है । पूर्वभव के सचित पुण्य कर्म लाज प्रकट हो रहे थे ।
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समय चक्र सदेव चलता ही रहता है । और उसके चलते रहने के बीच अनेक परिवर्तन आते रहते है । उन परिवर्तनो को पृष्ठभूमि पर समय चक्र रुकता नही अपितु चलता ही रहता है ।
पौराणिक आधार के अनुसार पृथ्वी अनादि से है इसका रचियता कोई नही । काल का परिवर्तन पृथ्वी पर होता रहा है और उस काल के परिवर्तन में पृथ्वी ने भी परिवर्तन मे भाग लिया है ।
जिस प्रकार कृष्णपक्ष के पश्चात् शुक्लपक्ष और शुक्लपक्ष के पश्चात् कृष्ण पक्ष नियम से आता है । ठीक वैसे ही काल का चक्र भी सुखद और दुखद नियम से चलता है ।
द्विभेद काल का चक्र छह प्रकार का होता है । यथा पहलासुखमा सुखमा । दूसरा सुखमा । तीसरा सुखमा दुखमा | चौथा दुखमा सुखमा | पाँचवाँ दुखमा और छठा दुखमा दुखमा । इसप्रकार छठा कालदु खमा दुखमा व्ययीत होने पर प्रलय का ताण्डव नृत्य
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नियम से होता है । और प्रयम काल चक्र का रुख विपरीत हो उठता है। जिसके पश्चात् द्वितीय काल चक्र चलता है जिसमे पहला दुखमा दुखमा। दूसरा दुखमा। तीसरा दुखमा सुखमा। चौथा सुखमा दुखमा । पाचवा सुखमा और छठा मुखमा सुखमा ।
प्रथम प्रकार का परिवर्तन अवसर्पिणी काल का है जिसमे प्रथम से छठे तक अवनति ही अवनति होती जाती है। दूसरे प्रकार का परिवतन उत्सर्पिणी काल का है जिसमें उन्नति ही उन्नति होती जाती है।
इस समय जो काल चक्र अपने परिवर्तन के साथ चल रहा है वह अवसर्पिणी काल का है । अर्थात् पतन का काल । इस समय अवसर्पिणी काल का पांचवा परिवर्तन 'दुखमा' चल रहा है। अवसर्पिणी काल के परिवर्तन मे आध्यात्मिक कला का ज्यो ज्यो परिवर्तन आगे बढता जाता है त्यो त्यो पतन होता जाता है ।
पौराणिक तथ्यो के आधार पर इस अवसर्पिणी काल के प्रथम समय मे पृथ्वी पर पोग भूमि की रचना थी । अर्थात् कल्पवृक्ष होते थे और प्राणी अपनी भोग्य सामग्री उन्ही से उपलब्ध कर लेते थे । उस वक्त ना द्वेष था और ना मोह ! क्योकि सभी को समान रूप से मन चाही वस्तु मिल जाती थी।
नर और नारी की आयु बहुत होती थी। जब उनकी आयु नो माह की शेष रहती थी तब हो नारी के गर्भ रहता था । ज्यो ही सतान उत्पन्न हुई कि नर और नारी की आयु समाप्त हो जाती थी । उत्त्पन्न सतान युगल (नर-नारी) होती थी। उनचास दिन मे दोनो जवान हो जाते और फिर अपना समय व्यतीत करते। इस प्रकार यह कम चलता रहा । उस वक्त ना चन्द्रमा था और ना सूर्य । ना कीचड़ था और ना बादल (घटा) ना भयानक था और ना तूफान ।
काल चक आगे बडा । प्रथम से द्वितीय और द्वितीय से तृतीय।
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( २४ ) तृतीय काल अर्थात सुखमा दुखमा के प्रारम्भ होते ही कल्पवृक्ष जो दस प्रकार के होते थे ( मद्याग, तूर्याङ्ग, विभूषाङ्ग, स्यगङ्ग, ज्योतिरङ्ग, दीपाङ्ग, गृहाङ्ग, भोजनाङ्ग, पात्राङ्ग और वस्त्राग) वे प्राय नष्ट से होने लगे । प्रायु, वल, घटने लगा।
परिवर्तन आगे आया । पौराणिक तथ्यो के आधार पर आषाढ शुक्ला पूर्णिमा को सायकाल के समय मे अन्तरिक्ष के दोनो भाग मे अर्थात् पूर्व एव पश्चिम मे चमकते हुये दो गोलाकार वृत्त दिखाई दिये । दोनो ही पूर्ण थे । और दोनो की चमक समान सी थी । पूर्व वाला गोलाकार चन्द्रमा एव पश्चिम वाला गोलाकार सूर्य निर्धारित किया गया । रातदिन, पक्ष, मास आदि होने लगे। ____भोगभूमि के नर नारी आश्चर्यान्वित एव भयभीत होने लगे। जो उपलब्धियां कल्पवृक्षो से सहज ही उन्हें मिल जाती थी अब वे दुर्लभ होने लगी त्यो त्यो कुलकरो ने जन्म लिया जिन्होने अपने अपने समय के अनुसार प्राणियो को और मानवो को राह दिखाई। यथा -
प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति ने सूर्य और चद्रमा से भयभीत मानव का भय दूर कर दिया । द्वितीय कुलकर सन्मति ने गगन मडल पर चमकते तारो का रहस्म समझाया। तृतीय कुलकर क्षेमकर ने मानव कल्याण का पथ दर्शाया । चतुर्थ कुलकर क्षेमधर ने शाति पथ एव कार्य प्रदर्शित किया। पचम कुलकर सीमकर ने प्रार्य पुरुषो की सीमा नियत की। छठे कुलकर सीमधर ने कल्पवृक्षो की सीमा निश्चित की । सातवे कुलकर विमलवान ने हाथी, घोडे, ऊँट आदि पर सवारी करने का उपदेश दिया। पाठवे कुलकर ने पुत्र का मुख देखने की परम्परा चलाई । अर्थात इस ममय मे माता पिता पुत्रजन्म के बाद मरते नहीं थे पर जीवित हो रहते थे।
समय और आगे बटा। परिवर्तन और परिवर्तित होने लगा तो नौवें कुलकर यशस्वान् हुये दसवें अभिचन्द्र ग्यारहवे चन्द्राम
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( २५ )
I
बारहवे मरुदेव तेरहवे प्रसेनजित और रात मे चौदहवें कुलकर नाभिराज हुये । नाभिराज के समय मे पुत्र प्रसव पर होने वाले मल आदि का प्रादुर्भाव होने लगा था । इन चौदहवे कुलकर के समय मे मानव और भी पीडित था । अनविज्ञ एव प्रबोध था । जनसख्या भी विशेष हो चुकी थी। आवास, खानपान, पहनपहनाव, बोलचाल, रक्षा, शिक्षा आदि का अभाव हो रहा था।
जैसा मिला जहां मिला खालिया । जहाँ जगह मिली पड गये । सर्दी, गर्मी, सहते रहे । असभ्य वातावरण पनपने लगा । ऐसे समय मे भगवान वृषभदेव का जन्म हुआ ।
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३- प्राहस्थ परम्परा का अभ्युदय
बालक वृषभ, योवन के उपवन में अपना कदम रख रहे थे । सुडोल, गठीला, सुन्दर एव बलिष्ठ शरीर पर शौर्य, वीर्य और धैर्य की क्रान्ति चमक रही थी । देवगण जो उनके साथ ध्रुव तक रहे थे अपना रूप फीका जान छूमन्तर हो गये थे ।
वस्त्रा-भूपरण धारण करने के पश्चात् जब युवक वृषभ दिखाई देते तो कामदेव स्वयं ही लगते थे । युवावस्था के अनुपम एव विलक्षण तथ्य आप में स्थित थे। युवक quभ को युवावस्था देख राजा नाभि और रानी मरुदेवी फूले न समाये ।
विचारा - अब समय परिवर्तित हो चुका है परम्पराओ को जन्म लेने का अवसर आ गया है । मानव अपनी मानवता की खोज मे व्याकुल हो रहा है। ऐसे समय मे नृपभ को विवाह करना चाहिये । उन्हें परम्परायें डालनी चाहिये। ऐसा विचार कर के नाभिराज वहा पहुचे जहां 'वृषभ' अपने कक्ष मे अपने ही विचारो मे खो रहे थे ।
राजा नाभि ने स्वय
J
वृपक्ष को आशीर्वाद देने के साथ ही महाराजा - वृषभ के बगल मे बैठ गये और वोले
'सुनो
ין
'जी...'
'देखो, वैसे तो तुम महान् पुण्य-शाली हो, महान हो, पर निमित्त कारण से मैं तुम्हारा पिता हूँ और इसीलिये मुझे कुछ कहने का साहस हुआ है ।'
'आप आज ऐसी बाते क्यों कह रहे हे । आप तो पूज्य है ।
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में तो यापका पुन
कीजिये
-
'''
( २७ )
| eat पालने वाला पुत्र
कि
I
'देखो
मैं जानता हू
पुन
धर्मतीर्थ की स्थापना
}
करोगे । दीक्षा लेकर मानव कल्याण की भूमिका स्थापित करोगे । पर जब तक वह काल लब्धि न ग्राजाय तब तक तुम्हें इन प्रवोध 'मानव समाज को ग्राहस्थ्य परम्परा बतानी ही होगी । तुम श्रादि पुरुष हो | इसलिये आपके कार्यों को देखकर अन्य लोग भी ऐसी ही प्रवृत्ति करेंगे ।'
तुम
प्राज्ञा
'आप तो महान ज्ञानी हे वास्तविकता प्रकट कीजिये ।' 'पुन वृषभ । परम्पराये प्रकट करने के लिये तुम्हे विवाह करना चाहिये ! यह जो अनर्गल मिलाप - अवोध व अनविज्ञ प्राणियों में याज हो रहा है उसे पवित्रता के रंग मे रगना चाहिये ?”
'जैमी श्रापकी आज्ञा " युवक वृषभ ने पिता-नाभिराज की श्राज्ञा 'ओम्' कहकर स्वीकृत की ।
वृषभ देव की स्वीकारता पाने पर राजा नाभि प्रसन्नता से नाच उठे । श्रव वे कन्या की खोज में लग गये। मेरे ऐसे योग्य, कामदेव पुत्र के लिये - शीलवान रति समान कन्या चाहिये ।
कच्छ और महाकच्छ की दो कन्याये प्रति सुरूपा, सुडोल एव विचक्षण बुद्धि की थी । राजा नाभि ने इन दोनो कन्याओं के साथ पुत्र वृषभ का विवाह सम्पन्न कराया ।
आज अयोध्या इस प्रकार सज रही थी कि मानो कोई नवनवेली दुल्हन सज-धज कर अपने पिया से मिलने श्रातुर हो रही हो । रानी मरदेवी के तो पैर घरती पर लग ही नही रहे थे। अपने पुत्र की दो वधु को देख-देखकर श्रानन्द के सागर मे प्रसन्नता से फूली गोते लगा रही थी।
द्वार-द्वार पर मंगल गान हो रहे थे। कामिनियाँ सजधज कर
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( २८ ) नृत्य कर रही थी । ग्राज सृष्टि के आदि मे नई परम्परा ने जन्म लिया था । वैवाहिक सम्बन्ध की स्थापना की गई थी । श्रत इस नवीनतम एव सर्व प्रथम प्रायोजन का स्वागत स्वर्ग के देव भो कर रहे थे । आज देवो ने इस ग्राहस्थ्य परम्परा की श्रादि के प्रवत्तक भगवान वृषभ का नाम 'आदि नाथ' रखा
आदिनाथ अपनी दोनो पत्नियो-- जिनका नाम यशस्वती एव सुनन्दा था - के साथ अपना ग्राहस्थ जीवन का आज प्रारम्भ कर रहे थे । स्वभाव से मधुर एव योवन सम्पन्न दोनो पत्नियाँ आदिनाथ को भोग्य प्रसाधनो से सन्तुष्ट कर रही थी ।
शयन कक्ष, अत्यन्त सजा हुआ, और कर्पूरादिक सुगन्धि से भरपूर, प्राकृतिक प्रकाश, स्वच्छ पवन का सचार, एव अन्यन्य प्रसाधनो से सम्पन्न | जिसमे कोमल पुष्प शैया पर रानी यशस्वती अपने परमेश्वर यादिनाथ से साथ शयन कर रही थी । एक दूसरे कर स्पर्श श्राज मानसिक शारीरिक और भौग्यिक आनन्द प्रकट कर रहा था। दोनो ही मोज की लहरो में तैर रहे थे। एक दूसरे मे लीन थे ।
रात्री का पूर्वार्ध समाप्त हुआ । उत्तरावं प्रारंम्भ हुआ । प्रभाग का विसर्जन होने के पश्चात रात्री ने अपने अन्तिम प्रहर मे कदम रखा। रानी यशस्वती मीठी, मीठो नीद मे अपलक पलक खोले मुस्करा रही थी । श्रानन्द सागर मे डूबी रानी मन्ती से मौज भर रही थी ।
स्वप्नों की दुनिया में रानी का मन पहुँचा । उसने विशाल पृथ्वी देखी । पृथ्वी पर विशाल सुमेरू पर्वत देखा और सुमेरू पर्वत के समीप प्रभा सहित सूर्य और चन्द्रमा देखे । उसका मन और आगे वढा, एक सुन्दर तालाब, जिसमे इस किलोले कर रहे थे और जिसमे स्वच्छ शीतल जल लबालब भरा था — उसे देखा । तब ही मन और आगे बढा तो मन ने देखा कि समुद्र, जिसमे चचल
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( २६ ) लहरे उठ रही थी, विशालता लिये हुये फैल रहा था।
तभी प्रभात मगल ध्वनित हो उठा। उपा चमक उठी और विभिन्न आवाजो का कलख होने लगा दासिया मगल गीत गाने लगी
और प्रभात-भेरी मधुर शहनाई के साथ गूज उठी। ___ मधुर भेरी और शहनाई की मधुर आवाज ने रानी यशस्वत्ती को स्वप्न लोक से बुलालिया। अव रानी के कानो मे सभी ध्वनियाँ गूंजने लगी। रानी ने एक करवट बदली । शरीर अगडाई मे तडक उठा । अग मस्ती से फडक उठा । अलसाईसी, सुस्कराई सी, रानी शया पर से उठी। दासियो ने वरण छूये और स्नान-कक्ष की ओर ले चली।
स्नान आदि से निवृत्त हो रानी यशस्वती पति-पादिनाथ के समीप पहुंची। चरण हुये और निकट बैठ गई । प्रादिनाथ ने यशस्वती को सरसरी दृष्टि से अवलोकन किया और मुस्करा उठे। ___ 'आप मुझे देखकर क्यो मुस्करा रहे हैं ? रानी ने मन की उडान को बस में करते हुये पूछा। _ 'लगता है--आज तुम विशेष प्रसन्न दिखाई दे रही हो। .' त्यो यह सच है ना
'क्या इस प्रसन्नता का कारण मुझे भी कहोगी ?'
'कारण तो मुझे भी नहीं मालूम । पर ऐसा लगता है ऐसा लगता है जैसे जैसे · ।' रानी आगे न कह सकी।
'बोलो बोलो, जैसे जैसे क्याए ।
'स्वामिन् ! आज मैंने कुछ स्वप्न देखे हैं। और उन स्व के देखने के बाद ।
"मन जनाले मारने लगा है न्यो यही बात है ना। 'जी प्रभो।"
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( ३० ) 'अच्छा कहो तो, क्या स्वप्न थे वे '
रानी ने रात्रि के अन्तिम प्रहर मे जो-जो स्वप्न देखे थे, सभी को अपने प्राणेश के समक्ष प्रकट किया । आदिनाथ ने वडे ध्यान से सुना और बहुत ही प्रसन्न होते हुये बोले
'खुब । बहुत खुब । रानी तुम धन्य हो गई ।'
'ग्ररे ? क्यो ? ऐसी क्या बात है P
•
1
'रानी । तुम एक महान् सम्राट, महान् ज्ञानी, महान् कल्याण कारक, और महान् वैभवशाली पुत्र की मां बनने वाली हो ! और वह भी मात्र तो माह पश्चात् ही ।"
'क्या 1|| ...... ?' रानी का रोम-रोम नाच उठा । मन उडाने लेने लगा | फिर पूछने लगी- 'हाँ तो प्रभो यह तो बताइए आपको कैसे मालूम हुआ "
'तुम्हारे स्वप्नी से "
"ओह "
और दोनो विहस उठे । जब नास भस्देवी को मालूम हुआ तो फुली न समाई । वह पूर्ण रूप से अपनी पुत्र-वधु की देखभाल करने लगी ।
अरे रे रे सोडियो पर यो न चढी । ठहरो क्या चाहिये तुम्हे ? "दासियों से कह दिया करो |
अरे रे रे र्यो न चलो ठोकर लग सकती है । सम्भल कर
चलो ।
-
·
अरेरेरे यह बोन क्यों । उठा रही हो? तुम समझती क्यो नही भोली रानी |
इस प्रकार अनेक देखभाल के नाथ महारानी मरुदेवी उन दिन की प्रतीक्षा कर रही थी, जब कि उनके आगन मे उसका
पोत्र सेनेगा |
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आज चैत्र कृष्णा नवमी का दिन है । मीन लग्न है, ब्रह्मयोग है, धन राशि का चन्द्रमा है और उत्तरापाढ नक्षत्र है। आज सारी अयोध्या मे आनन्द मँगल हो रहा है। याचको को खुलकर दानदिया जा रहा है। द्वार-द्वार पर मधुर वाद्य बज रहे है । क्यो? ?? ____ क्यो कि आज रानी यशस्वती ने पुत्र प्रसव किया है । सुन्दर, सुडोल, वालक को देख-देखकर रानी यशस्वती अक से लगाये जा रही है । और महारानी मरूदेवी ? ____ महारानी मरूदेवी तो आज खुले मन से दान कर रही है। पौत्र की मगल कामनाये चाह रही है। और फूली-फूली नाच रही है।
भगवान आदिनाथ ने जान लिया कि यह पुत्र ही पृथ्वी का प्रथम सम्राट होगा और यही पृथ्वी का भरण पोषण करेगा। अत इसका नाम 'भरत रखा।
भरत वालक अव दोज के चन्द्रमा की भांति वृद्धि को प्राप्त होने लगा। परम्परा को जन्म देने वाले ग्रादिनाय ने बालक के सभी सस्कार कराये यथा नामसम्कार मुंडन संस्कार अन्नप्राशन सस्कार उपनयन सस्कार और शिक्षा सस्कार ।
भरत, शिक्षा मे ग्रासर था । स्वय आदिनाथ ने अपने पुत्र भरत को सभी शिक्षाये दी थी, यथा-काला, युद्ध, प्रशाननिक, व्यवहारिक, एव लोक नीति, भरत ने अपने पूर्व पुण्योदय से नगन के साथ सर्व विद्याये सीखी।
समयान्तर पर रानी यास्वती के अन्य निन्यानवे पुन त्या एका पुो 'बाहो' भी हुये जिन्हे देख-देख कर सभी प्रमल हो
रहे थे।
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( ३२ )
द्वितीय रानी सुनन्दा के महल में छम-छमा छम हो रही है। आदिनाथ-मोद-भरे, प्रसन्नता के साथ रानी सुनन्दा सहित नृत्यकियो का मन मोहक नृत्य देख रहे हैं ? सुनन्दा, आदिनाथ के निकट अपने आप में सिकुडि हुई उमंग की तरग में मौज ले रही थी ।
तभी मरुदेवी ने प्रवेश किया । नृत्य रुक गया । आदिनाथ और सुनन्दा ने पैर हुये और मां मरुदेवी ने आशीर्वाद दिया । कुछ नम्रता से भरे हुये प्रदिनाथ यहाँ से प्रस्थान कर गये । मा मरुदेवी उच्चासन पर विराज गई । एकाएक मरूदेवी की दृष्टि सुनन्दा के चेहरे पर जाकर रुक गई । सुनन्दा का हृदय-तार
छनछना उठा ।
पैटी [] > सुनन्दा 'जी माताजी
''
'क्या, तुम मुझ से कुछ छिपा रही हो "
•
'जी नही तो नही तो ।'
"नही । नही ! अवश्य तुम छिपा रही हो । देखो बेटी | इस
अवस्था मे कुछ बात छिपाना हानि कारक हो जाती है । क्या तुम्हे कुछ माह
11444 "
'जी | ||...आं.. हाँ ' हा ' आपने ठीक जाना है."
444 .
1 1
ठीक हो जाता है "1'
और रानी सुनन्दा अपने आपमे
-
शरमा गई ।
alog
'अच्छा यह तो बताओ मेरा तात्पर्य यह है कि कोई ईच्छा
"
दोहला
'जी हां "मेरा मन
•
करू, घमण्डियों का ग
दूपर ''
तुम्हारा मन क्या वह रहा है
कोई कामना
·
·
कोई
मेरा मन कर रहा है कि में तपस्या करू और प्रशिक्षित को शिक्षा
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( ३३ ) 'धन्यवाद । 'जी!! I...।'
'वटी । तू बडी भाग्य शालिनी है । तेरी होने वाली सन्तान सत्यत्त ऐसी ही होगी जैसी तेरी ईच्छाये है।
'जी | | | ..." और सुनन्दा शर्म की मारी सास के अक से जा लगी।' ___ महाराज नाभि ने भी सुना तो फूले न समाये । सारी जनता ने खुशियाँ मनाई । आदि नाथ भी आज प्रसन्न हो रहे थे । क्योकि आज प्रभात मे ऊपा की प्रथम किरण के साथ रानी सुनन्दा की कुक्षी से पुत्र-रत्न का जन्म हुआ था। - गरिष्ठ गठा हुआ शरीर, सुडोल लम्बी बाहुये, और तेज से पूर्ण चहरा । छोटे से शिशु को यो देखकर नाम सस्कार पर नाम बाहुवली रखा।
बाहुबली का बल और विशाल शरीर शैशव अवस्था मे भी आश्चर्य कारी लग रहा था । अत यह अनुमान लगाया कि युवा होने पर वाहुबली-महान् बली, महान् शरीरी, और महान् कामदेव होगे । आदिनाथ ने अपने पुत्र का रूप, शरीर, भुजाये देखी तो देखते ही रह गये।
समयान्त पर सुनन्दा ने एक कन्या रत्न को भी जन्म दिया। जिसका नाम सुन्दरी रखा गया।
अब राजा नाभि और रानी मरूदेवी एक सौ एक पौत्र और दो पौत्रियो के दादा दादी थे। भगवान आदिनाथ ने चारो की शिक्षा आदि का भार अपने ऊपर लिया । दोनो प्रमुख पुत्र भरत और बाहुबली, विद्या, कला, दीप्ति, कान्ति और सुन्दरता मे समान लग रहे थे। ___ शारिरिक गठन की दृष्टि से बाहुबली का शरीर विशेष गठीला और विशाल था । जबकि भरत का शरीर सामान्य वलशाली के समान था।
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४-संसार की संसृत्ति __ और क्षणभंगुरता
'मान्यवर पिता जी को सादर प्रणाम ।' 'अरे रे रे । वाही, मुन्दरी । आमो 'मानो'
भगवान आदिनाय अपने चिन्तन कक्ष मे विराजे हुये स्वाभाविक ज्ञान के द्वारा चिन्तन कर रहे थे तभी दोों पुत्रियो ने प्रवेश किया । नम्रता से नम्रीभूत दोनो कन्यानो ने अपने पूज्य पिता को तादर प्रणाम किया और दोनो, पूज्य पिता जी के अगलवगल अर्थात् एक दायें हाथ की ओर तथा दूसरी वाये हाथ की ओर शिर झुकाये बैठ गई।
भगदान आदिनाथ की दृष्टि दोनो के मुख कमल पर जा टिकी और प्रसन्नता की मुल्कराहट की फंहार व्रत पड़ी। बोले
'अब तो तयानी हो गई हो।' 'जी ! | | "' दोनो एक साथ चौंक उठी।
'देखो' अब तुम्हारी आयु विद्या गहण करने की हो गई है। विद्या विता सनार मे मानव तन अकार्य हो जाता है। विद्या ही तो मानव तन को सार्थकता है। विद्या ही ने तो ग्रात्मा परमात्मा बनती है। विद्या ही से तो मानारिक मनोरय पूर्ण होते हैं । विद्या ने ही नो सर्वोच्च पद की प्राप्ति होती है। प्रत. तुम्हारा यही काल विद्या रहण करने का है। प्रमाद को त्यागो और
सुसस्कार डालो।
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सुनकर दोनो पुत्रियां अति नम्र हो उठी साथ ही विद्या ध्यान हेतु उत्सुक भी हो उठी।
भगवान आदिनाथ ने अपने दाहिने हाथ से वर्ण माला का अध्ययन 'ब्राह्मो को कराया और वाये हाथ से इकाई दहाईगणित का अध्ययन सुन्दरी को कराया।
सर्वप्रथम दोनो को "नम सिद्धेभ्य" का मगलाचरण याद कराया और फिर शिक्षा की प्राथमिक परम्परा को जन्म दिया।
ब्राह्मी ने वर्णमाला के विभिन्न पदो का पूर्ण रूपेण अध्ययन किया और सुन्दरी ने गणितमाला के विभिन्न अध्यायो का मनन किया। स्वाभाविक वोघ और भगवान आदि नाथ का आर्शीवाद दोनो की सफलता से दोनो पुत्रियो ने अपार श्रुति का अभ्यास कर लिया । __उधर पृथ्वी का मानव क्रियानो से अनविज्ञ हो रहा था। कल्पवृक्ष भी रहने से जो भी मिला भूख मिटाने के लिये-सा लिया गया। ना अन्न, ना फल और ना कार्य । मानव असभ्य सा लग रहा था।
भगवान आदिनाभ ने देखा मानव नगा है, वाल बढे हुये हैं, शरीर काला है, भूखा है, असभ्य है, मासाहारी भी होने लग गया है। ना मकान, ना परिवार, और ना मोह । ना प्रेम, ना स्नेह
और ना वात्सल्य । मानव अबोध है, अनविज्ञ है । र कर्मभूमि का मानव अपने प्रथम और नये चरण में होता भी कैसा ? कौन बोध दे ? कौन राह दिखाये । कौन सृजन करे ? कौन क्रिया बताये।
आदिनाय ने सभी मानवो को बुलाया और उनकी और अपनी एक मुस्कराहट की फुहार डाली' मानव इस मुस्कराहट से चोकत सा, चित्रसा, रह गया।
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भगवान आदिनाथ ने मानव की अनविज्ञता को देखकर प्रश्न विशिष्ट ज्ञान के द्वारा सप्टि की रचना का विचार किया । विशेप मार्ग होना होता ही है तो स्वर्ग में देव भी उत्सुक है जाते हैं अत श्रृष्टि-रचना में सहयोग देने के लिये इन्द्र और र भी यादिनाथ की सेवा मे पा खड हुये ।
JUR
भगवान आदिनाथ ने सर्वप्रथम ग्राम की रचना का उपदेश दिया, फिर नगर, फिर राजधानी और फिर राजा का उपदेश दिया ! वैसी ही रचना भी होने लगी।
भगवान आदिनाथ ने मानव को असि, मपि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और गिल्प ये छह कार्य मानव की आजीविका के लय बताये । और प्रत्येक को क्रियाओ से उन्हे बोधित किया ।
उन्होने मानव को क्रिया दृष्टि से तीन भागो में वाट दिया। यथा--
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(१) अपने ग्राम, अपने नगर एव अपने साथी की रक्षा कर कार देकर मानव को 'क्षत्रिय' नाम दिया ।
(२) खेती, व्यापार, तथा पशुपालन का भार देकर मानव को 'वैश्य' नाम दिया।
१३) श्रमिक तथा निर्माण कार्य करने वाले मानव को शूद्र नाम दिया।
इसमे साथ ही आदिनाथ ने बताया कि तीनो एक दूसरे के पूरक हैं । साथी हैं। तथा स्नेही है । जिस समय भी एक दूसरे के प्रति घणा जन्म लेगी मानव का पतन होता जायेगा।
आदिनाथ ने तीनो वर्ग को समझाया कि देखो
(१) तलवार, तोर आदि शस्त्र धारण करके रक्षा करना, सेवा करना, यह असि कर्म है।
(२) लिखकर आजीविका करना मपि कर्म है।
(३) जमीन जोतना, उसमे बीज डालकर अन्न पैदा करना, फल फूल पैदा करना, कृषि कर्म है।
(४) अध्ययन करना, कराना, उपदेश देकर शिक्षा देना आदि विद्या कर्म है। (५) लेन देन व्यापारादिक करना वाणिज्य कर्म है।
और (६) चित्र बनाना, लकडी, पत्थर मिट्टी के वर्तन बनाना आदि वस्तुये बनाना शिल्प कम है।
भगवान आदिनाथ की प्रत्येक बात मानव समुह एकाग्र हो सुन रहा था और अपने आपमे एक नया उत्साह अनुभव कर रहा था । ____ स्वय भगवान प्रादिनाथ ने मानव को सभी कर्म करके दिखाए तो मानव खुशी से नाच उठा। चारो और भगवान आदिनाथ की
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जय जयकार गज उठी।
श्रृष्टि की रचना करके प्रादिनाथ ब्रह्मा कहलाने लगे।
आज पृथ्वीपर नया जीवन नया उत्साह अपना रग विखेर रहा था । मानव ही नहीं पशु भी माज नाच रहे थे । न्योकि कुछ ही समयान्तर पर खेत लहलहाने लगे, फुल खिल उठे, मयूर नाच उठे, चिडिया चहचहा उठी और मानव सभ्य बन उठा । आज नारी
और नर ने अपना अपना व्यक्तित्व पहबाना पा । आज एक दूसरे से स्नेह करने लगा था । प्रम करने लगा था। मोह करने लगा था। अनविज्ञ मानव अव विज्ञ होने की सोपान पर चढने जा रहा था।
महाराजा नाभि प्रत्यन्त प्रसन्न थे। महारानी मरुदेवी धन्य हो रही थी और यशस्वती तथा सुनन्दा ?.. • वे तो गौरव से भरी जा रही थी । पुत्र भरत और बाहुबली अपने पिता से पूर्ण शिक्षा ले रहे थे । वामी और सुन्दरी को अपने सस्कारो को प्रकट करने का अवसर प्राप्त हो रहा था।
xxxx "प्रजापति महाराज सादिनाथ की जय ।"
जय जय कारो से अयोध्या का कोना-कोना गज उठा। सभी देशों के मनोनीत राजागरण भी खुशियां मना रहे थे । विशाल मण्डप मे विशाल मच पर राजा नाभि एवं अन्य माननीय राजा गरण वैठे दिखाई दे रहे है । सिंहासन खाली दिखलाई दे रहा है । तभी भगवान आदिनाथ सजे धजे से मण्डप में प्राए । जिन्हें देखफर पन जय नारा गज उठा।
छम छम छम की झन्कारे छम छम । उठी ! सारा मण्डप नृत्य की मोहक कला ने प्रभावित हो उठा । देवगण पुष्प की, रत्नो को वर्षा कर करको दुन्दुभी वजा रहे थे। तभी नाभि राज उठे और आदि नाथ को दोनो हाथो से थामे सिंहासन पर
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विठाया। साथ ही विशेष सूचना के साथ राज्याभिषेक करते हुये साम्राज्य पद से विभूषित किया । फिर जय नारा गूज उठा।
भगवान अदिनाथ ने श्रृष्टि का भार सम्हाला और प्रजा मे रच पच गए। मानव को और भी सानिध्य और सहयोग आदिनाय से मिलने लगा।
हाँ । हाँ । एकदिन ब्राह्मी और सुन्दरी दोनो युवा पुत्रिया वहा पहुची जहाँ प्रजापति आदिनाथ अपने साम्राज्य कक्ष में विराज रहे थे। दोनो ने दूर से ही देखा और आपस मे फुसफुसाने लगी।
'पिताजी महान हैं।" "पिताजी सर्व पूज्य है ।" "पिताजी से वडा भूमण्डल पर और कोई नहीं।" "सव पिताजी के आगे आकर झुकते हैं।" "हा । पित्ताजी किसी के आगे भी नही झुकते ।" "क्या कहा?" "हाँ । हाँ । । मैंने सत्य कहा है।" "झूठी।" "क्यो? ??" "ऐसा हो ही नहीं सकता।" "चल पिताजी से ही जाकर पूछले ।" "हा ! हा! पूछले | कौन मना करता है।"
और दोनो जा पहुंची अपने पिताजी के पास । आदिनाथ भगवान ने दोनो को देखा । उनके चहरो से प्रश्न की गध झलक रही थी।
भगवान आदिनाथ ने कुछ समय पश्चात पूछ ही लिया।
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"क्या बात है?"
जी हा जो मुध नहीं।" "कहो । कहो । को नहीं।" "जी यह सुन्दरी कह रही थी ... वाह रही पी. "" "क्या कह रही थी ?"
"कि पाप से बड़ा कोई नहीं। आप किसी के भी पागे नहीं झुकते . ..."
"अोह तो • तुम क्या कहती हो?" "जी" जो" में · हा · नही ..।"
"भोली कहो को।" प्यार से भगवान आदिनाय ने दोनो फे सिर पर हाथ फेरा । फिर बोले
"वेटियो का पिता जरूर सकता है।" "किसके आगे ?" दोनो पुत्रियों ने एक साथ पूछा । "अपनी बेटियो के पति के आगे।" "अरे } } ? दोनो चौक उठी।"
"क्यो चौक क्यों गई ? यह सत्य है । ऐसा होता ही है।" कहकर आदिनाथ ने अपनी पुत्रियों के चेहरो की और देखा । दोनो विचार मग्न थी । खोई हुई थी अपने आप मे और समझ रही थी नारी के व्यक्तित्व को भी प्रादिनाथ भगवान ने पुन पूछा "कसे विचारो मे गोता लगा रही हो।"
"जी ! • श्रोह " दोनो ने नजरे झुकाली ! "बोलो बोलो।" "हम विवाह नही करेंगी" "क्यो" "जी हमारे कारण प्रापका पूज्यपना • . "भोली कही को।" बीच में ही भगवान आदिनाथ मुस्करा
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( ४१ )
उठे । बोले उठो । अपना अध्ययन करो ।"
0.004,
दोनो अपने आप दृढ प्रतिज्ञ हो मस्तक झुकाकर चली गई ।
एक जगह दोनो जा बैठी...
"अव क्या होगा ?" "क्यो ?"
.....
"क्या हमारा विवाह होगा ही ?"
"नही तो ।"
"यह नही तो, नही तो क्या लगा रखी है। गम्भीर होकर कुछ सोचती तो है नही ।"
" सोचतो लिया ।"
"क्या ?
" कि हम विवाह नही करेंगे ?" "तो ???"
'हम तो दीक्षा लेगी दीक्षा । समझी।"
'अरे |||" प्रसन्नता से नाच उठी ।
'हा । 'आज इन कर्मयुग मे हमारी आवश्यकता प्रत्येक नारी को है । प्रत्येक नर को है । हम शिक्षा, नागरी और इकाई गणित तभी सिखा सकेगी लबकि घर घर द्वार द्वार जाकर मानव मे सस्कार डालेगी ।
'अरे हा ' यह अच्छा हुआ ।'
'तो पक्का ।'
'सत्यत पक्का |
और दोनो का मन प्रसन्नता से नाच उठा ।
अयोध्या प्रदेश वे नामित ऋषभदेव (आदिनाथ ) ने पापारा कालीन प्रकृत्यास्मित असभ्य युग का पन्त करके ज्ञान-विज्ञान सयुक्त कर्म प्रधान मानवी सभ्यता का भूतल पर सर्वपथन म नम किया। अयोध्या ते हस्तिनापुर पर्यन्त प्रदेश इन नवीन
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( ४२ )
सभ्यता का प्रधान केन्द्र था ।
श्रादिनाथ ने राज्यभिषेक के पश्चात् राज्य व्यवस्था की, समाज सगठन किया और नागरिक सभ्यता के विकास के वीज बोए । कर्माश्रय से क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के रूप मे श्रम विभाजन का भी निर्देश किया । वे स्वय इक्ष्वाकु कहलाए इससे उन्ही से भारतीय क्षत्रियों के प्राचीनतम इक्ष्वाकु वंश का प्रारम्भ हुआ ।
आज प्रात से ही देश प्रदेश के राजागरण आ रहे थे । उनके विश्राम की विशेष व्यवस्था की गई थी । एक विशाल और रमणीक महा मण्डल सजाया हुआ था। जिसमे बैठने की सुन्दर व्यवस्था की हुई थी । इस महा मण्डप मे प्रवेश करते ही ठीक सामने रमणीक व भव्य भव पर एक मरिंग करणो से सुसज्जित सिंहासन लगा हुआ है । मच के समक्ष द्वार तक खाली स्थान था, जहाँ सुन्दर मखमली सा कालीन विद्या हुआ है ।
1
किनारो पर श्राजू वाजू पर दोनो ओर राजा गण, एव समाज के बैठने की व्यवस्था है । जहाँ सभी सजे धजे से बैठे है | सभी की दृष्टि मे एक भव्य प्रतीक्षा की झलक है | मच का सिंहासन अभी खाली है । मात्र दो सेवक हाथ मे चवर लिए सिंहासन मे दाएँ वाऐं मन मुग्ध से सडे हैं ।
तभी जयनाद गू जी | स्वागत वाद्य वजा । और अनेक श्रभूपरणो से सुनज्जित भगवान श्रादिनाव का प्रवेश हुया । सभासद उठ सजे हुए और सिरकार अभिवादन दिया। श्रादिनाथ सिंहासन पर विराजे और सभी को प्रपेत दिया कि अपने अपने स्थान पर बैठ जाएं।
'पना होने वाला है " एक सभासद ने दूसरे मे उत्सुकता ये हुये पूजा |
'शाया कुछ विशेष प्रयोजन है । दूसरे ने फनविन ना उत्तर दिया।
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'क्या आपको भी ज्ञात नही ?"
( ४३ )
'नही तो "
'कुछ भी नही ?"
'हाँ कुछ भी नही । मात्र इतना सा भान है कि आज विशेष आनन्ददायक ग्रायोजन होने वाला है ।'
'नोह
'
तभी...
तभी मधुर वाद्य अपनी मन्द और मधुर ध्वनि मे बज उठे । सबने देखना चाहा कि यह आवाज कहाँ से मुखरित हो रही है, पर दिखाई किसी को भी नही दिया । तव सबके सामने एक रहस्य का वातावरण छा गया ।
वीणा के तार बजे, तवला बोल उठा, मृदग गूज उठी, झाझर भन्ना उठी और सभा मण्डप मधुर वाद्य की ध्वनि तथा एक मीठी सुगन्धि की सुगन्ध से सुरभित हो उठा । श्रावाज मे खोने लगे। सबके सिर ताल के साथ हथेली जधु पर थिरकने लगी ।
सब साज की हिलने लगे ।
तभी
"
,
तभी छम छम छम की ध्वनि सुनाई दी। हम हमा... छम छम छम । घुघरू की झंकार ने सबको चौका दिया । कहाँ किसके पाँव से बज रहे है ये घु परू? कौन बजा रहा है ? सब उत्सुक थे देखने को पर दिखाई ही नहीं दिया । घुघरू की ध्वनि मन्द से कुछ तेज, और तेज से कुछ और तेज होती जा रही हे ज्योज्यो तेज होती जा रही है त्यो त्यो ही सभासद देखने को विशेष उत्सुक भी हो रहे हैं ।
·
....
तभी
हाँ तभी एक सुन्दर, सर्वाग सुन्दर, अति सुन्दर प प्रति मोहकती, गोरी सी, थिरकती हुई झप्सरा सभा मण्डप में उस सुन्दर
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( ४४ ) मखमली से कालीन पर प्रकट हुई। ___ वाद्य तेज हो गये । नृत्य मोहक हो उठा । अप्सरा कभी इस कौने, कभी उस कोने, कभी ऊपर, कभी नीचे की ओर फुदकती हुई नृत्य कर रही थी। सभासद आनन्द और रहस्य के मिले जुले रंग मे मस्ती से झूम रहे थे।
"कौन है यह?" "क्या मालुम ?" "कहाँ से आई है ?" "यह भी मालूम नहीं ?" "किसने बुलाया है इसको " "इसका भी अनुमान नहीं ?" "तो फिर . . "देखे जाओ .. वीच मे मजा किरकिरा मत करो।
मनमोहक और आश्चर्य भरी नृत्य को देखकर सभी भूम रहे थे। भगवान आदिनाथ भी नृत्य की मोहकता मे वह उठे थे । अप्सरा तो अप्सरा ही थी ! नाम था इसका निलाजना। इसका नृत्य देखने को तो स्वर्ग मे देवो की म लग रही थी
स्वर्ग में इन्द्र की प्रथम अप्सरा । महान नृत्यिका । और महान् सौन्दर्य की देवी । जो आज पृथ्वी तल पर वसे मानवो को सुलभ हो रही थी। ___वीणा और मृदग द्विगुण में बज रहे थे । अर्थात ताल दुगनी हो उठी, फिर तिगुनी और चौगुनी । तबला इस पर भी ताल का माय दे रहा था । और तभानदो के सिर भी उमी ताल मे हिल रहे थे। प्रादिनाय भी उनी ताल में सो रहे थे।
तभी . . हो तभी । वीरणा का तार हट गया । वरना फट गया । मदग उठी मोर निनाजना, देखते ही देखते प्रदत्य हो गई । मयके
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( ४५ }
सिर हिलते-हिलते रक गये । वातावरण रो उठा । सव श्राचयं के रंग में रंगे हुये देखते के देखते ही रह गये ।
'कहा गई ग्रप्सरा "
"चाय क्यों एक गये ?"
" नृत्य क्यो रक गया ?"
"धुलाग्र बुलाओ प्रप्सरा को बुलाओ ।" "उसका नृत्य और होने दो।"
·
"हम उसका नृत्य और देखेगे ।"
सभा मप पोरगुल से गुज उठा। भगवान आदिनाथ ने भी पूछा, "कहाँ गई नृत्यिका
?
तभी एक भव्य पुरष पाया। उसके पाते ही ना
मे पुन, शान्ति छा गई । म उम भव्य पुरष की प्र
यहा धन्य पुरुष भगवान श्रादिश के महामहो
गया। भगवान ग्रादि नाथ ने पुन पुरा
"यहाँ गई वह ि भय में
*"
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"और इसीलिये आज देखते-देखते निलाजना मृत्यु को प्राप्त हो गई।"
"हा प्रभो ।" तभी
तभी एक नृत्यिका फिर प्रकट हुई। वैसी ही | वैसा ही नृत्य । वैसे ही वाद्य पर भगवान आदिनाथ उठ खडे हुए ओर वोले
"नृत्य रोक दो । अब यह छलावा और न करो।"
"क्यो भगवान् | क्यो रोक दूं नृत्य को ?" आपको तो नृत्य देखना है ना " • मैं नृत्य ही तो दिखा रही हू " क्या मेरा नृत्य अापके मन को नहीं भाया • • क्या मै सुन्दर नहीं ? .. क्या मै मोहक नहीं? .. क्या मैं अप्सरा नही ? • "
"हा हा । तुम सब कुछ हो । पर वह क्षरण ! वह समय । वह दृश्य अब समाप्त हो चुका है । और जो क्षण, जो समय वचा है उसे यो समाप्त नहीं किया जा सकता ।"
भगवान आदिनाथ सभा मण्डप से प्रस्थान कर गए। राजा महाराजा इस रहस्य से भीगे के भोगे ही रह गए।
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५ - वैराग्य विभूषित जीवन
शरीर की स्थिरता आयु पर आधारित है। ज्योज्यो यु वेरोप होती जाती है प्रर्यात् व्यतीत होती जाती है त्यो त्यो ही शरीर की कान्ति, शरीर का चल, और शरीर का वीर्य भी क्षीण होता जाता है। हा, ग्रायुका पूर्वाधं जनता हैर चमक जाता है, खिल उठता है, और तेज की प्राना छा जाती है। ठीक वैसे ही जैसे सूर्य का प्रात मे मध्यान्ह तक प्रभाव होता है ।
और यही समय व्यक्ति के लिये होता है कि वह अपना व पर का हित कर सके । यही समय होता है जी व्यक्ति पार्थ के शिखर पर चल सके। यह समय है कि शान
नकी उप के गम पर
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( ४८ ) भगवान आदि नाथ का यह जीवन समय पूर्वार्ध से गुजर रहा था। निलाजना का नृत्य और निलाजना की अकस्मात मृत्यु ने आदि नाथ को अपनी याद दिला दी । आज भगवान आदिनाथ यही सब कुछ सोच रहे थे ।
सोच रहे थे कि मेरे जीवन का पूर्व समाप्त होने जा रहा है । भरत बाहुवली का अभी पूर्वार्ध का प्रारम्भिक काल है। मुझे आध्यात्मिक पुरुपाथ करना श्रेयक र है । राज्य कार्य अव भरत और बाहुबली कुशलता के साथ कर सकते है । उन्हे अपने शौर्य का सपउपयोग करना भी चाहिए। ___भगवान आदिनाथ के वैराग्य वर्धक विचारो मे जागृति होती जा रही थी। लौकान्तिक देवो ने अाकर और भी विशेष जागृति की। ससार की क्षरण भगुरता का एक वैराग्य वर्धक चित्र देवो ने आदिनाथ भगवान के समक्ष प्रस्तुत किया। जिसके फल स्वरुप आदिनाथ भगवान को अवशेष भी दृष्टिगत होने लग्ग। ___ज्ञान की ओर वैराग्य की मिली-जुली मिश्रित धारा मे सारा वातावरण बह रहा था। आज सारा समाज आदि नाथ के विचार मे खो रहा था। ___समय को व्यर्थ न जाने देने के विचार से भरत और बाहुबली की ओर स्नेह की दृष्टि से देखा । दोनो पुत्र नम्र हो विनीत भावो से पूज्य पिता के चरणो की ओर निहार रहे थे । आदिनाथ ने अपना साम्राज्य पद विभूपित मुकुट सभी सभासदो, देवगणो के समक्ष भरत के सिर पर रखा ।
चारो मोर दुन्दुभि बज उठी । जय जय कार हो उठी । भरत देखता का देखता ही रह गया । नम्रीभूत हो द्रवित वाणी से भरत बोला
"भगवान | यह आपने क्या किया?" "उचित ही किया है भरत । "किन्तु प्रभो । मैं इस योग्य.....
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"मैने तुम्हे योग्य समझा है तभी तो यह श्रेष्ठ कार्य किया है।
"पूज्यवर । यह राज्य व्यवस्था, यह शासन, यह समाज सगठन यह प्रजा की पालना, क्या मैं .. .. क्या मैं... . . ___ हा हा । यह सब कुछ तुम सरलतापूर्वक कर सकते हो। तुम तो ज्ञानी और कार्यकुशल हो। हर प्रकार की विद्या कौशल्य तुम्हारे पास है । यो अपने आपको दुर्बल ना समझो। ___ भगवान्... . ... .। भरत ने अपना मस्तक पूज्य, भगवान आदि नाय के चरणो मे रख दिया। फिर जय जय कार से गगन मण्डल गूंज उठा।
फिर भगवान ने बाहुबली की ओर देखा । वाहुवली तो नम्रता से जमीन से धंसासा जा रहा था। पैर के अगूठे से जमीन कुरेदता हुना प्रसन्नता की लहरो मे गोता लगा रहा था। उसकी दृष्टि तो भगवान के चरणो पर लगी हुई थी।
तभी भगवान ने कहा"बाहुवली।
"जी प्रभो | बाहुबली का हृदय ममता, प्रेम, मोह और नम्रता की मिश्रित धारानो से द्रवित हो उठा । "लो | तुम्हे युवराज पद देकर पोदनपुर का राज्य दिया जाता है। ___"मुझे ? . किन्तु भगवान् मै तो .. मैं तो... "ज्ञात है कि तुम भरत के आज्ञाकारी और स्नेह से पूर्ण भाई हो । और तुम भरत का अटूट अन्यन्य श्रादर भी करते हो । किन्तु मेरा अपना शासकीय कर्तव्य भी तो मुझे करना है । ___"मोह भगवान | बाहुबली ने भगवान आदि नाथ के चरण छू लिए और गद्गद हो उठा।
इस समय जो कुछ भी हो रहा था वह आनन्ददायक और और मगल कारक था। एक ओर तो भगवान के वैराग्य का उत्सव मनाया जा रहा था तो दूसरी ओर भरत का सम्राट बनने
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( ५० )
का उत्सव हो रहा था ।
एक ओर नृत्य, गान हो रहा था तो दूसरी और वैराग्यवर्धक ज्ञान की देशना हो रही थी ।
यशलती और सुनन्दा रानिया हस भी रही थी और हृदय बैठा भी जा रहा था । ग्राज उनके पुत्र को नाम्राज्य पद दिया गया है और आज ही पति से उनका विछोह हो रहा है । क्या करें वे दोनो " हल भी नही सकती तो से भी नही सकती । अयोध्या का कोना कोन नाच भी रहा था और आहे भी भर रहा या ।
क्यो ???
क्योकि सृष्टि के सृजनहार भगवान आदिनाथ आज उनके बीच से जा रहे थे। जगल का वास करने को, अपने आप मे रमते को । मोह की जजीर को तोड रहे थे । वैराग्य-उपवन के आध्यात्मिक पुप्पो को गप ले रहे थे ।
मणिचित पालकी मे ग्रादिनाम विराजमान हुए । पालकी को मानवो ने और स्वर्ग के देवो ने उठायी। जय जय कार हो उठा । पुष्प बरस पड़े प्रोर जनममूह उन यही आवाजें आ रही थी ।
पडा । सभी ओर से
"प्राज भगवान कहा जा रहे हैं " महलो में क्यो नही रहते ?" 'क्या दुखाइको महनों मे २" "रही ""तुम सम हो।" ? ही नहीं ग
गया है
राज्य ना
! तो नहीं हो गया है ?
"
?"
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"यही कि अब वे मोह मे नही पड़ने के।" "क्यो"
"किससे मोह करे ? तुमने देखा या सुना नहीं कि अप्सरा नाचती नाचती ही मर गई ?"
"तो इससे क्या हुआ ?"
"अरे जब स्वर्ग की अप्सरा को ही अपनी मृत्यु का मालूम नही, जव वही अपने आपको मौत से न बचा सकी तो भला मानव का क्या ठिकाना ?"
"|| ....॥
"चौकता क्या है ? आयु तो एक दिन सभी को समाप्त होनी ही है । तब क्यो न अपना और परकाहित कर लिया जाय ।" ___ "बात तो कुछ अच्छी सी ही है।"
"अच्छी सी ही नही श्रेष्ठ भी उत्तम भी और योग्य भी है। अाज भगवान दीक्षा लेगे। फिर तप करेगे? फिर ज्ञान की उपलब्धि करके हम जैसे अन्पज्ञो को ज्ञान देंगे।"
प्रादि । ओदि । उधर पीछे-पीछे यशस्वती और सुनन्दा रानी ऐसी लग रही थी जैसे मानो लताये मुरझा गई हो। नेत्रो से अपलक आँसुप्रो की झड़ी लग रही थी। रो भी रही थी और हृदय की पुकार भी सुन रही थी। हृदय कह रहा था--यो रोकर अमगल मत करो। धैर्य रखो और सयम से काम लो। आज तुम्हारे पति, परमेश्वर बनने जा रहे है । ' उनके लिए मुस्कान के पुष्प बरसानो-पासुनो से राह में कीचड मत करो।" ___ जिस उपवन मे भगवान आदि नाथ जाना चाह रहे थे वह अयोध्या के बहुत दूर था । अत जनसमूह साथ न दे सका। स्त्रिया थककर चूर हो गई। पैर लडखडाने लगे। बाल बिखर गये और वस्त्र सम्हाले भी सम्हलने नहीं लगे।
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( ५२ ) महाराज नाभि और महारानी तो आज हर्प से मराबोर हो रहे थो। साथ ही साथ अपने आपको भी देख रहे |-जो अब तक प्रात्म-कल्याण के पथ पर चल नहीं सके थे । माज दे वह अवसर प्राप्त कर रहे थे।
सिद्धार्थ नामक उपवन ने भगवान ने प्रवेश किण । भरत, बाहुबली के साथ अन्य हजारो राजा महाराजा भी साथ थे। एक स्वच्छ सुन्दर चन्द्रकान्तमणी की शिला पर भगवान पूर्व की ओर मुह करके विराजमान हो गये।
परोक्ष "ओम् नम सिद्धच " कहकर दीक्षा ग्रहण की । माये हुए हजारो राजानो ने भी भगवान का साथ देने की अभिलापा से दीक्षा ली और उमग की तरग मे आ प्राकर परिग्रह का त्याग किया। __महिला समाज ने भी यथोचित सयम धारण किया । जनसमूह एव स्वर्ग के देवो के भगवान आदिनाथ की भावभीनी पूजा की। स्तुति की । और अभिगदन कर करके मस्तक मुकाये । ___ आज का यह दिन चैत्र कृष्णा नौमी की सायकालीन सध्या फा था। सारा वातावरण शान्त था । शुद्ध था। पवित्र या और मगलमय था।
तष्टि के सृजनहार भगवान् आदिनाथ ने मौन धारण किया और ध्यानस्थ हो वैठ गये।
ग्राहस्थ्य मे रचे पचे सासारिक सस्कारों की लडिया काटते काटते, एक ही स्थान पर ध्यानस्थ हुए आज आदिनाय मुनिराज को तीन माह हो गये । अन्य दीसित राजा महागला भी भादिनाथ का अनुकरण कर रहे थे। छह माह का उपवास धारण करते हुए मुनिराज अदिनाय अपने योगो (मन वचन काय) की एकाग्रता में
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( ५३ } तल्लीन थे।
किन्तु अन्य साथी, जिन्होने मात्र मोह के वश, मात्र देखा देखी, मात्र अपनी शान रखने के लिये और मात्र अपनी शिष्ठता प्रकट करने के लिए दीक्षा ली थी वे इस छह माह के लम्बे उपवास से व्याकुल हो उठे । छह माह तो क्या, जव तीन माह ही समाप्त हुए थे कि एक दूसरे की ओर देखने लगे... ।
"भगवान् कब तक बैठे रहेगे ?" "मालूम नहीं।" "पर यह भी क्या दीक्षा ?" "क्यो" "अरे । हम तो भूख के मारे मरे जा रहे हैं।" "थोडा धैर्य भी तो घरो।"
"धैर्य 77 तीन माह तो व्यतीत हो गये धर्य को धरते धरते। अब नही रहा जाता।"
"तो क्या करोगे?"
"करेंगे क्या? हम तो अपने घर जायेगे? कौन भूखे मरे ? यह भी कोई तपस्या है ?
"यदि घर गये और भरत महाराज नाराज हो गये तो ???" "हा । यह बात भी सच है ? पर किया क्या जाय ?"
"सुनो ! मैं समझता हूँ कि और थोडे दिन महाराज यो बैठे रहेगे। बाद मे तो उठेगे हो, और उठकर अयोध्या जायेंगे, फिर राजकार्य करेंगे और हम पर प्रसन्न होकर हमे भी शरण देंगे। हमारी भी रक्षा करेगे?"
"अरे ?? यह बात है । तब तो वहत ही प्रसन्नता की बात है । इतने दिन भूसे रह गये तो और थोडे समय तक रह लेगे।"
भगवान आदिनाथ तो पूर्ण मुनि अवस्था मे विराजे हुए थे ।
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अठाईस मूलगुण जो मुनि मे होने चाहिए-वे उनमे थे। बारह प्रकार के कठोर तप मे तल्लीन महामुनिराज सयम के शिखर पर चढने मे तत्पर थे । अडिग, अचल, पर्वत की भांति स्थिर, महामुनिराज आदिनाथ अपने ही आप मे लीन थे।
जटाये बिखरी हुई, दीर्घकाय शरीर तेज व प्रभायुक्त वेहरा, सब कुछ उनकी तपस्या का दिग्दर्शन करा रहे थे। सत्यत भगवान श्रादिनाथ तपस्वी थे।
विपयाशा वशातीतो, निराम्भो परिग्रह । ज्ञान ध्यानतपोरक्त तपस्वी स प्रशस्यते.॥
के अनुसार वे विषयवासना से दूर, प्रारम्भ परिग्रह से रहित और ज्ञान, ध्यान, तप में लीन सच्चे तपस्वी थे। जब एक माह
और व्यतीत हो गया और आदिनाथ अब भी न उठे तो अन्य निर्बल मुनि व्याकुल हो उठे।
"अब नहीं रहा जाता।" "भगवान ! हमे क्षमा करो ..." हमे छुट्टी दो।" "भगवान् । हम तो अपने घर जायेंगे।" "भगवान् । अब हम से भूख नही सही जाती ।" "और भगवन् ! प्यास भी नही सही जाती।" "तो भगवान् । नगा भी नहीं रहा जाता।"
"हा हा, भगवन् | गरमी तो जैसे तैसे सहन कर ली पर सरदी सहन नहीं की जा रही है ।
"अब हम कुछ भी खालेगे...""कुछ भी पीलेगे .." "सुनो भगवन् । नाराज नहीं होना ।"
"क्तायो । भगवन, इसमे हमारी भी क्या त्रुटि ? हमने तो सोचा था कि आप दीक्षा धारण करके खूब खायेगे और हमे भी खिलायेंगे।"
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( ५५
"हा ' हा ' भगवन् सचमुच हमने यही सोचा था कि घर के झगडो से छुटकारा भी मिलेगा और खाने पीने को भी अच्छा मिलेगा।"
"पर भगवान् । प्राप तो आाख मोच कर पत्थर वने ऐसे बैठ ऐसे बैठ गये कि जैसे हमे पूरे ही भूल गये हो ।”
गये
इस प्रकार अपने आप ही सोच विचार कर व्याकुल मुनि लोगो ने यदा कदा घूम फिर कर कन्दमूल फलादि खाने लगे । सयम का मार्ग सहन न कर सकने के कारण अनर्गल कार्य कर रहे थे । नगे भी और अनर्गल कार्य भी कर रहे थे। तभी ..
..
तभी एक ओज भरी वारणी गूजी
"ठहरो ||" "कोन ?
"आप सब मुनि हैं, और जो कुछ आप कर रहे हे—वह मुनि योग्य नही । या तो आप मुनि वेश का त्याग कर दो या मुनि ही रहना चाहते हो तो सयम शिखर से यो मत गिरो ।
"तव हम क्या करे ?"
"या तो यह मुनिपद छोडो या अटल रहो ।"
... "
..
"हम मुनि हो तो बने हुए हैं ?"
"तो फिर यह कन्दमूल फल खाना, गन्दा कीटाणुयुक्त पानी पीना, छोड़ना पड़ेगा ।"
"पर भूख प्यास जो लगी है ?"
"तो क्या तुम अपनी इन्द्रियो पर थोडा सा भी सयम नही कर सकते ?"
"सयम करते-करते तो आज पाच माह व्यतीत हो गये । अव नही रहा जाता ।"
" तो छोड दो मुनिपद । '
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( ५६ )
" पर श्राप हो कौन ?"
"इस उपवन का प्रमुख रक्षक 'वनदेव' ।"
" श्रोह "
"
सब चौक गये और मुनिपद छोडना ही अच्छा समझ किसी ने छाल (पेडो की वक्कल) किसी ने पत्ते, अपने शरीर पर लपेट लिये । किसी ने लगोट लगाकर शरीर पर मिट्टी लगा ली। किसी ने क्या और किसी ने क्या ? तात्पर्य यह कि नाना भेष मे वे तपस्वी बन गये और जैसेतैसे पेट भर कर भूख-प्यास मिटाकर जैसे-तेसे ध्यान भी करने लगे ।
·
उनमे से विशेष अनुभवी कोई उनका मुख्य हो गया। जिससे उनका भी उन्ही रूपो मे भ्रमण होने लगा | भोला भाला और अनविज्ञ मानव उनकी प्राज्ञा मे चलने लगा |
श्राज छ माह पूर्ण होने जा रहे थे । पत्थर की मूर्ति समझ जगली जानवर भगवान के समीप बैठ गये थे । कोई-कोई जानवर तो उनके शरीर मे अपना शरीर भी खुजा रहा था ।
चिडिया, निडर होकर महाराज के मस्तिष्क पर आकर बैठ जाती । तपस्या और शान्त वातावरण के प्रभाव से ना वहा डर रहा श्रीर ना वैरभाव । जाति विरोधी भी अपना विरोध त्याग कर भगवान के चरणो मे बैठे हुये थे । सत्य ही - तपस्या एक महान विभूति होती है !
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६ जब रागद्वेष मोह का व्यामोह नष्ट हुआ
इन्द्रिय सयम और प्राकालानो जजीर को थामे हुये आज महा-मुनिराज अपना छ माह का तपोयोग समाप्त कर चुके थे। छ माह समान भी हो गये इसका उन्हे भान भी नहीं रहा था। मन-स्थिति ही ऐमी हो गई थी कि छ माह समाप्त होते ही नेत्र खुल गये।
निरन्तराय छ माह का तपोयोग समाप्त होने पर सभी को प्रसन्नता हुई। ऐसे समय में जब कि पुण्य का उदय होता है तो स्वर्ग में देव भी अपनी तूती वजाने मे पीछे नहीं रहते। वे भी पुप्प वर्षा करने लगे। दुंदुभि वजाने लगे और जय-जयकार करने लगे।
पर इन सबसे आदिनाथ मुनिगज को क्या लेना देना । उनकी आत्मा तो छ माह के तपोयोग मे मझ चुकी थी। निर्मल आत्मा मे निर्मल विचार समा चुके थे। तृष्णा, लालसा, वासना सब श्रादिनाथ के विचारो मे से भाग चुकी थी। कोई बाजा वजाये या पुष्प वरसाये, कोई जय बोले या कीर्तन गाये-उन्हे क्या ? वे तो नीरस भी नहीं तो सरस भी नहीं ।
माहार परम्परा को जन्न देने वाले भगवान आदिनाथ अपने प्रासन से उठे । प्रोह कैसा शरीर हो गया था उनका ? जटाजूट, मिट्टी प्रादि से वैष्ठित और भीमकाय ।
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( ५८ ) महा-मुनिराज आदिनाथ जगल से शहर की पोर पधारे। पाहार की मुद्रा धारण किये हुये आदिनाथ नीची दृष्टि किये हुये धीरे-धीरे चल रहे थे।
आदिनाथ महा-मुनिराज को यो देखकर नगर निवासी बहुत दुखी हुये । आपस मे ही कहने लगे
"हाय | इनको किसी ने वस्त्र भी नहीं दिये।"
"हाय-हाय । शिर के केश भी कितने रूखे और लम्बे हो गये हैं।" ___ "हाय-हाय । शरीर कितना सूखकर काटा हुआ जा रहा
__"ओह | जिस भगवान ने हमे जीविकोपार्जन करना सिखाया आज वे इतने दुखी है।" हाय ! हाय । इन्हे किसी ने खाने को भी नहीं दिया।" "ठहरो, ठहरो प्रभो ! मैं अभी खाना लाता हूँ।,' "रुको प्रभो । मैं अभी वस्त्र लाता है।"
"हा ! हा ! प्रभो, जरा वहा ही रुकिये " मैं अभी हीरेमोती लाता हूँ।"
आहार विधि से अनविज्ञ और भोले-भाले मानव धवरा उठे। कोई वस्त्र ला रहा है तो कोई फल-फूल । कोई मेवा मिष्टान ला रहा है तो कोई होरे-मोती । किसे ज्ञान था कि यह दिगम्बर मुनि हैं और इन्हे आहार नवधा भक्ति से दिया जाता है। ___ ज्ञान भी कैसे हो ? सृष्टि की नादि में यह प्रथम और आश्चर्यकारी दृश्य था। सब देख-देखकर दुखी हो रहे थे। कुछ तो भरत जी को भी कोस रहे थे।
"हाय | आप तो सम्राट बन गये और पिता जी वेचारे नगे ही फिर रहे है।"
"हाय ! हाय ! इन्हे महज खाने को, पहनने को भी नहीं
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दिया।"
"हाय ! हाय ! कैसा पुत्र है ?" कई राजा महाराजा उनके पास रथ ले आये "बोले--- "इसमे वैठिये महाराज।" "हा हा प्रभो । अपका पैदल चलना शोभा नहीं देता।" "देखिये आपके पैरो मे काटे चुभ जायेगे।"
सभी कुछ कहने लगे" पर आहारचर्या पर चलने वाले महामुनिराज इन सबको अन्तराय जानकार वापिस वन मे चले जाते । और फिर ध्यान में बैठ जाते।
छ माह और व्यतीत हो रहे है" पर नवधा भक्ति से आहार किसी ने भी नहीं दिया । दे भी कौन ? ना तो किसी ने बताया और ना किसी ने पहले दिया।
आप सोच रहे होगे कि वे देवता अब कहा गये जो गर्भ व जन्म के समय रत्न बरसा रहे थे । जो मुनियो को भ्रष्ट होते हुये उन्हे मुनिपद बता रहे थे। ___ क्यो नही वे ही देवता गृहस्थियो को नवधा भक्ति बताते? क्यो नही आहार क्रिया बतलाते? क्यो नही आहार देते?
दे भी कैसे देवता तो कोरे पुण्य के दास होते हैं। पूरे स्वार्थी । उनका क्या विश्वास ? जब शुभ या पुण्य का उदय होता है तो देवता भी चरण छूने दौड पाते है। और अशुभ का उदय होता है तो एक कोने मे छिपे बैठे रहते हैं ।
भगवान आदिनाथ के भी कोई अशुभ का ही उदय था । "अरे । भगवान के भी प्रशभ का उदय ???" "क्यो ? इसमे आरचर्य ही क्या है ?" "तरासर आश्चर्य है ! ऐसा तो हो ही नहीं सकता।" "क्यो नहीं हो सकता?"
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( ६० )
" भला जो भगवान ठहरे, उन पर क्या प्रशुभ हो सकता
है ?"
"अरे भैया ? आदिनाथ थे तो पुरुष ही । थे तो सांसरिक प्राणी ही है। अपने शुभाशुभ कर्म से अभी बिल्कुल रहित तो हुए नही थे । पितु कर्मों की कडिया काटने मे तत्पर थे । जब तक कर्मो की कडिया कट न जाती तब तक तो वे असर दिखाएगी ही ?"
" गलत | हम नही मानते ।" "क्यो नही मानते "
"इसलिए कि जिन्होने छह माह तक घोर तप किया । जिन्होने राज्यपाट परिवार के प्रति किन्चित भी मोह नही किया ऐसे प्रभावशाली महान् श्रात्मा का कर्म कुछ नही विगाड सकते । श्रीर haw 11
हैं तो
"शोर क्या ?"
"और यदि कर्म फिर भी ऐसी आत्मा का कुछ बिगाड सकते
तो
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"हा । हा बोलो तो क्या ?"
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"तो समझो वह आत्मा महान् श्रात्मा नही हो सकती !" " कल्पना तो सुन्दर है पर विवेक और न्याय संगत नहीं |" "क्यो ?"
"वह इसलिए कि आत्मा प्रभावशाली है, अवश्य है----पर कर्मावरण उसको ढक देते हैं तो उसकी प्रभा उसी तक सीमित रहकर लुप्त सी रह जाती है ।"
"यह कैसे ?"
जैसे सूर्य प्रभावशाली होता है । होता है भी ?" "हा हाँ । होता है ।"
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"पर जव वादल उसके आगे आ जाते है तो प्रकाश कहा चला जाता है ?"
"उसका प्रकाश.."उसका प्रकाश....." "बोलो ? वोलो" "छिप जाता है !" "कहा ?" "या | ...नहीं नहीं । रुक जाता है । "क्यो?" "क्योकि बादल जो आगे आ गया ।"
"तो क्या सूर्य से भी विशेष आभा वाला या शक्ति शाली वादल हे ?"
"नही तो।" "फिर ? ? ?" "आपने तो मुझे उलझन में डाल दिया।"
"उलझन नहीं है मेरे दोस्त । यह न्याय की तुला है। सूर्य की प्रभा सूर्य मे ही है । मात्र बादल की ओट मे रहने से वह हमे दृष्टिगत नही होती । पर ज्यो ही बादल हटा कि प्रभा फिर चमक उठती है ?"
"ओह अब समझा " "समझ गए ना?"
"हा अब समझा कि जैसे बादल के प्रावरण से सूर्य कोप्रभा दृष्टिगत नही होती वैसे ही प्रात्मा पर छोए कर्मावरण से भी आत्मा की महानता दृष्टिगत नहीं होती। और उसी के अनुकाल प्रतिकूल वातावरण होता रहता है ।
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( ६२ )
विशाल एव सुन्दर नगरी हस्तिनापुर मे उस वक्त राजा सोमप्रभ थे । इनके एक छोटे भाई का नाम था श्रेयान्स कुमार, श्रेयान्स कुमार योग्य और पुण्याश्रव से श्रोत प्रोत थे । विचार विवेक सम्पन्न यह श्रयान्स कुमार अभी रात्री के पलायमान हो जाने पर सोकर उठे ही है ।
चेहरे पर प्रसन्नता और प्रसन्नता के करण करण से मिली हुई जिज्ञासा किरण । भावो मे उमग और हृदय मे आनन्द की तरग । चकित से, पुलकित से, हर्षित से श्रयान्स कुमार शैया से उठकर स्नान आदि से निवृत्त हुए | पश्चात् अपने बड़े भ्रात के [ास पहुच चरण छू कर बैठ गए। चेहरे की प्रसन्नता, भावो मे जज्ञासा देखकर सोमप्रभ ने पूछा
"क्या बात है श्रयान्स ?"
"बडी अद्भुत बात है भ्रात "
" मैंने रात्री को, सोकर उठने से पहले कुछ स्वप्न देखे है
!!
"स्वप्न 11 "
" हा भ्रात !"
"कैसे स्वप्न ? क्या क्या देखा है तुमने स्वप्त में ?"
'बहुत बडा स्वर्ण सरीखा सुमेरू पर्वत, कलावृक्ष, सिंह, सुडोल बैल, सूर्य और चन्द्रमा, समुद्र और सातवे स्वप्न मे कुछ देविया देखी जिनके हाथो मे अष्ट मंगल द्रव्य थे ।"
י 11
"वाह | वाह वाह "
1
"क्यों ? ऐसी क्या बात है ?"
"तुम्हारे स्वप्न के आधार पर तो ऐसा प्रतीत होता है कि आज हमारे शहर मे कोई महान प्रभावशाली, पुण्यात्मा, जग- पथ प्रदर्शक, और धर्म नौका का खिवैया प्राने वाला है ।"
"सच 11 " श्रेयान्स कुमार का रोम रोम नाच उठा ।
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दोनो भाई प्रसन्नता से पुलकित हो रहे थे। तभी द्वारपाल ने अन्दर प्रवेश कर अभिवादन करते हुए बड़े हर्ष के साथ निवेदन किया
"प्रभो । • ...." "कहो । कहो । क्या बात है ?"
"अयोध्या के महाराज आदिनाथ का हमारे शहर में प्रवेश हुना है।"
"अरे । !! ....और कौन है उनके साथ ?' ' "कोई भी तो नहीं । वे अकेले ही है और वे भी नगे।" "नगे ? क्यो ? "श्रयान्स ने आश्चर्य से पूछा ! "उन्होने दीक्षा ले ली थी-शायद इसीलिए।" सोमप्रम ने गम्भीरता से उत्तर दिया ।"
दोनो भाई दौडकर महल से नीचे पाए । क्या देखते है कि -आदिनाथ मुनि आये हुए है और हस्तिनापुर की जनता उन्हे पहचान कर..."नाना भांति के प्रसाधन उन्हे भेंट कर रही है । स्त्रियो का उत्साह इतना वढा चढा हुआ है कि उन्हें देखने के लिए बावली सी हुई आ रही है। श्रेयान्स कुमार ने भैया से कहा
"अरे । इस स्त्री के हाथ तो आटे से सने हुए है।"
हा । और उस स्त्री को देखो जिसके केश में अभी भी पानी चू रहा है।" - "और उसको देखिए " 'उस पंड के नीचे वाली को
जिसने काजल होठो पर और सिन्दूर की लाली आखो पर लगाई
"परे । इसको देखो जो भागती हुई अपनी साडी को प्रावी पहने आधी सिमेटे पा रही है। जिसे अपने तन की भी सुधि
नही ॥
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इस प्रकार अवोध और भोली भाली प्रेम रस मे भीगी जनता के हाव भाव देस ही रहे थे कि आदिनाथ को अपनी ओर पाते देखा। दोनो ने दौडकर चरण छूए। पद प्रक्षालन किया और नमोस्तु कहकर अपलक उनको निहारने लगे। __ श्रेयान्स कुमार तो देख कर देखते ही रह गए। बार-बार एक टक से निहारते ही रह गए । उनके मस्तिष्क मे एक झन्नाटा सा हुआ जैसे उन्हे विस्मृत, स्मृति का भान हो रहा हो। कभी प्रांख मीचते कभी खोलते, कभी हर्प से पुलकित हो उठने
और कभी रो पडते । अनन्त विगत की विस्मृति जागृत हुई जा रही थी। तभी उन्हें ऐसा अहसास लगा जैसे उसने कभी ऐसे ही मुनि को आहार दिया हो। वह विस्मृति और भी जागृत हुई तो जैसे प्रत्यक्ष, स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि मुनि द्वार पर पाए उन्हे पडगाहन किया, और नदधा भक्ति से साहार दिया । श्रेयान्स अपनी विगत स्मृति मे खो गए । तभी सोमप्रभ ने उसकी
और देखा और बोले- 'श्रेयान्स।' ___'आँ।" श्रेयान्त कुमार जैसे सोकर उठे हो । उन्होंने अब प्रत्यक्ष देसा कि भगवान आदिनाथ तो मुनि बने हुए आहार की मुद्रा धारण करके सामने खड़े हुए है । और मैं • मैं '
श्रेयान्स कुमार ने आस पास देखा आहार की कहा व्यवस्था । फिर भी दोडकर शुद्धता पूर्वक गन्ने का रस तैयार करवाया । आप भी नहा-धोकर शुद्ध हुए। भावो को विशुद्ध । बनाकर एकदम हाथ में जल से भरा कलश ले द्वार पर आकर बोलने लगे...
"हे स्वामी । अत्र तिष्ठहु, तिष्ठहु, तिप्ठहु आहार जल
सबकी दृष्टि उस ओर गई । सव इस नई विधि नई रणवी
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को देखकर चकित से रह गए । और महामुनि आदिनाथ ?
महामुनि आदि नाय ""आगे बढे और श्रेयान्स कुमार के सामने मुद्रा बनाए खडे हो गए । श्रेयान्स कुमार ने तीन प्रदक्षिणा दी । नमोस्तु किया । पद प्रक्षालन किया । पूजा की । मन वचन काय की शुद्धता का सकेत दिया और गन्ने के रस (इक्षुरस) का भाव भक्ति पूर्वक आहार दिया।
ठीक एक साल पश्चात् भगवान प्रादिनाथ ने आज आहार गृहण किया था। सारा हस्तिनापुर क्षेत्र मगलमय प्रसाधनो से सम्पन्न हो उठा। देवगण भी पीछे न रहे। उन्होने पचाश्चर्य की वर्षा शुरु कर दी। __चारो दिशा मे अक्षय शान्ति, अक्षय सुख और नक्षय आनन्द की लहर छा गई। ईक्षुरत का अमृत मय पाहार पाकर भगवान आदिनाथ ने सतुष्टि प्राप्त की। उधर राजा श्रेयान्स ने
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आहारदान की प्रारम्भिका कर जगत की ससृति मे यह मगलमय कार्य किया। यह दिन बैसाख शुक्ल तृतीया का मगल दिन था। तभी से इस दिन कर नाम 'अक्षय-तृतीया' प्रचलित हो उठा। ___ आहार कर लेने के पश्चात् भगवान आदिनाथ ने जगल की ओर विहार किया। आज उनके वैराग्य-समुद्र मे अनेक लहरे उठ रही थी । आत्मावरण धीरे-धीरे स्वत हटने लगा था। __शान्त और नीरव वातावरण के वन में एक वृक्ष के नीचे सुन्दर शिला पर आदिनाथ विराजे हुए थे। आज वे अत्यन्त शान्त, निराकुल थे । अपने ही आप मे लीन । इघर ये अपने आप मे, लीन हो रहे थे और उघर वैभाविक दुष्परगतियां मम मसा रही थी। क्योकि अव उनको आदिनाथ के पास रहने के लिए स्थान नहीं मिल पा रहा था ।
सबकी सव वैभाविक परणतिया अपने महाराज 'मोह' के पास गई और रोने लगी।
'हाय मालिक । अब हमारा क्या होगा? 'क्यो • क्या बात है?'
'अजो मालिक 'आजतक हम जिन प्रादिनाथ के पास पाराम से रह रही थी-वे ही हमे आश्रय नहीं दे रहे है।"
'क्यो ? ? ?'' मोह की भोहे तन उठी।
'उन्होने शान्ति, निराकुलता और मौन को अपनी रक्षा के लिए बुला लिया है।'
'तो क्या हुमा
'प्रजी पाह मालिक । भला जिम स्थान पर शान्ति, निगलता और मोन का प्राश्रय हो वहा हम कैसे टिक मरती है।
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'कायर । डरपोका • मोह गरज उठा। 'पाप तो नाराज हो गए।'
'तो और क्या तुम्हे सीने से लगाता। जो तुम्हारा आश्रय अनन्त समय से थी—जिस पर तुम्हारा अधिकार लम्बे और अतीत विगत से था प्राज उसी अधिकार को यो रो रोकर छोड रही हो । बेशरम कही की।" __ 'पर बताइए तो मालिक हम क्या करे ?'
'घबरानो नही । जव तुम मेरी शरण मे प्राही गई हो तो तुम्हारी सहायता भी की जाऐगी अच्छा यह बतानो"तुम्हारे और साथी कहीं है ?
'कौन-कौन साथी मालिक ?"
'अरे वे ही क्रोध, मान, माया, लोभ, और झूठ, चोरी, कुशील।' ___ हाँ ! हाँ । मालिक "वे सब वही आदिनाथ से दूर एक तरफ खडे खडे तुकर-तुकर देख रहे है। उनका भी बस नही चल पा रहा है। ___ 'हत्तरी की । सबके सब डरपोक ।" चलो मैं तुम्हारे आगे चलता हूँ । देखता हूँ कि प्रादिनाथ तुम्हे कैसे प्राश्रय नहीं देते ?' ____मोह बडी हैकड और ऐठ के साथ चल रहा था । छल कपट, क्रोध, मान, माया, लोभ झूठ, चोरी, कुशील, आदि दुष्परगतियां चुपके-चुपके मोह के पीछे-पीछे चल रही थी । मोह लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चला जा रहा था। उसने देखा कि एक वृक्ष के नीचे, सुन्दर शिला पर प्रादिनाथ पत्थर की मूर्ति बने शान्त और निश्चल बैठे हैवह क्षण भर के लिए ठिठक गया। ___'उसे ठिठकते देख सभी परिणतियां जो मोह के पीछे-पीछे मा रही थी "एक दम दोडकर वापिस लौट गई।" मोहने जो
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पीछे फिर कर देखा तो माथा ठोक लिया। चिल्लाकर बोला
'अरे कमवस्तो। भाग क्यो गए। 'नहीं । नहीं। मालिक हम नहीं थाने के।'
क्यो??? 'हमे तो पहले ही लताड मिल चुकी है।' 'कसी लताड ? ? ? • कव???
'जव इन्होने सासारिक गठवाठ छोडा था तभी हमे तो निकाल दिया गया था । अब जब पापही इन्हें दूर से देखकर ठिठक गए तो आप हमारी क्या सहायता कर सकते हैं? ___ 'अरे ।।। • 'मोह तिल मिला उठा । वह कुछ हिम्मत करके आगे बढा और बढता ही गया । ज्यो ही वह आदिनाथ के पास जाने लगा या कि...."
'ठहरो । कहा जाते हो।' 'आदिनाथ के पास ।' मोह ने हिचकिचाते हुए कहा । 'कौन हो तुम?' 'मैं मै. मुझे 'मोह-राजा' कहते हैं।" 'ओह । तो श्राप है मोह राजा जी।' 'जी हा । मुझे ही मोह राजा जी कहते है।' 'क्यो आये हो यहा ?'
'अरे।।। मै तो इनके साथ सदैव से रहा है। कभी भी मैंने इनका साथ नही छोडा । ये भी मुझे सदैव साथ रखते रहे है। .. आप जाकर आदिनाथ जी कहे तो सही कि--आपसे 'मोह राजा' मिलना चाह रहा है।
'भोले राजा । कहा सोये थे इतने समय से ? जानो ? भाग जानो यहा से । अव यहा तुम्हे आश्रय नहीं मिल सकेगा।'
'क्यो?
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'क्यो कि अव आदिनाथ जी ने हमे जो अपना लिया है।' 'आप कौन है ? 'हम कौन है ? सुनोगे--एक-एक का परिचय ?' 'हा । हा ! जरूर सुनू गा।
'तो सुनो यह है सुमति महारानी जी । और आप है विवेक राजा जी। इनसे मिलिए 'आप है शान्ति देवी जी । पौर आप हैं - वैराग्य चन्द जी। ..."
'और बाप कौन है ? 'मैं ?. 'मैं मैं' रत्न त्रयिका ।' 'मै समझा नहीं।' 'तुम समझ भी नहीं सकते। 'क्यो ?'
'क्यो कि जिस दिन तुम मुझको समझ जानोगे उसी दिन तुम्हारा अस्तित्त्व ही समाप्त हो जाएगा। फिर तुम ससार की भोली-भाली यात्मा को यो रुला नहीं सकती। यो भटका नहीं सकती।' ___ 'चलो यो ही रहने दो कि मैं समझू गा नही पर आपका परिचय सुनने मे भी क्या एतराज है।'
कोई ऐतराज नहीं । • लो सुनलो - सम्यकदर्शन सम्यक ज्ञान, और सम्यक चरित्र से रची पची जीवन में सुगन्धि भर देने वाली और प्रात्मा को तुम जैसे तु खारो से बचाने वाली मैं 'रत्नायिका' है। जिस भी प्रात्मा ने मुझे अपना या तो समझलो उसने ही कल्याण पथ पालिया ।' । __'यह तो तुम्हारा प्रकार है।'
'सहकार नही मोह राजाजी। यह वास्तविक्ता है। और तुम जैसे कायरो को कह देने वाली सत्यता है।'
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( ७०
}
'लेकिन मैं ऐसे हार नही मानने का । श्राखिर में भी राजा हूँ । मेरे साथ भी अनेक सेना है । मैंने वडे-बडे ऋषियो, मुनियो, ज्ञानियो को झकझोरा है । उन्हें ऐसा गिराया है कि लम्हलना भी उनका मुश्किल हो गया था ।'
'वे सब हारने वाले, गिरने वाले, कोई कायर ही थे । उन्होने मुझे वास्तविकता के साथ नही अपनाया होगा। तुम्हारा कोई न कोई जासूस उनके हृदय पटल के किसी कोने मे छिपा रह गया होगा । पर जानते हो यहा आदिनाथ के हृदय पटल पर से तुम्हारा एक-एक साथी भाग चुका है । भयकर से भयंकर जासूस भी वह देखो उधर तुम्हारे पीछे खडा "टुकर टुकर गरीवसा बना जमीन कुरेद रहा है ।'
मोह चौंक गया। उसने 'पीछे फिर के देखा तो दंग रह नया | उसके सभी साथी श्रम रक्षक -- अनन्तानुबन्धी प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, सजवलन और माया, मिथ्या, निदान सभी जमीन मे घसे जा रहे थे । मोह हार चुका था । उसके पैर काप उठे थे। दिल बैठ चुका था। वह श्रव नागे न बढ सका ।
रत्न का मुस्करा रही थी। मोह को यो उलझन में पड़ा देख कर बोली जाओ। पीचे चले जाओ। किसी कामी, लोभी, मायाचारी और समार को भौतिकता में फले प्राणी के पास चले जायो । श्रव तुम्हे वही जगह मिलेगी । यहा नगर एक भी कदम आगे बढाया तो वह धुलि धूत्तर हो जाएगा ।
वैवारा मोह
मोह मुँह लटकाए चला गया। सभी साथी भी भाग गए। श्रय आदिनाथ परमात्मा बनने जा रहे थे। ज्ञानावरणादिक ६३ प्रकृतिया अपने आप नष्ट हो चूकी थी ।
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( ७१ ) जैसे सूर्य के आगे से बादल हटता है और प्रकाश चमक उठता है वैसे ही आदिनाथ भगवान की आत्मा पर से कर्मा वरण के हटते ही कैवल्य ज्ञान-प्रकाश चमक उठा। तीनो लोको की तीनो काल की अनन्त पर्याय आज उन्हे प्रत्यक्ष हस्तरेखा के समान दृष्टिगत हो रही थी।
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७ भारत का प्रथम सम्राट भरत और आदिनाथ की कैवल्य ज्योति
सम्राट भरत का राज दरबार सजा हुआ था। विशाल और सुन्दर ऊंचे सिंहाने पर भरत विराजमान थे । विशाल मण्डप मे सुन्दर और मखमली गलीचे पर मसनद लगाए हुए अनेक राजा महाराजा बैठे हुए थे । विषय 'राजनीति में सफलता' का चल रहा था। सभी राजागण अपनी-अपनी विवेक बुद्धि से अपना मन्तव्य प्रकट कर रहे थे। सम्राट भरत गम्भीरता पूर्वक प्रत्येक के मन्तव्य को सुन रहे थे। ___ दण्ड और न्याय । अपराध और अपराधी के विषय में चर्चा चलती चलती राजनीतिज्ञो के आचरण पर जा टि की थी। एक दूसरे की कमिया बताई जाने लगी थी। तभी भरत सम्राट ने अपनी प्रोज और विवेक मे रगी हुई वाणी से सबको सम्बोधन करते हुए कहा .
यदि आप सब एक दूसरे की कमिया बताते रहे तो किसी की भी कमी दूर नहीं हो सकेगी। जिन कमियो, भूलो, त्रुटियो को तुम अच्छी नहीं समझते और एक दूसरे मे छुडवाना चाहते हो तो सबसे पहले तुम्हे अपनी ओर देखना होगा । जव स्य अपनी ओर देखकर अपनी शुटि पकड लेगा और उसे निकालने को, सुधारने को, चेप्टा करेगा तो सभी को अटिया स्यत ही दूर हो सांगी।
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( ७३ )
रही बात अपरावी, अपराध, दण्ड और न्याय की । तो यह सब सामाजिकता के तथ्यों से सम्बन्ध रखकर राजनैतिकता के द्वार पर था टकरा जाती है ।
व्यक्ति अपराध जब करता है तब उसकी प्रभिलापा शान्त नहीं होती । अभिलापाऐं जब बढती हैं तब कि उसका मन वममे नही रहता । मन बसमे जब नही रहता तवकि वह तृप्णा की आग में झुलसा अपने विवेक को तिलांजली दे डालता है । अस यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी तृष्णा रोके, विवेक से चले, तो अपराध ही हो नहीं सकता |
अपराध कर देने के पश्चात् उसका उपनाम अपराधी हो जाता है । और अपराधी अपना विवेक खो बैठता है । ग्रत उसको विवेक देने के लिए, राह दिखाने के लिए दण्ड की योजना होती है ।
दण्ड भी उसके विचारों पर नावारित होता है। यदि अपरावी विवेकी है, पुण्य-स्वभावी है, हग्राही है, तो उसे शारीरिक ताडना दी जाती है ताकि उसके मन में उठी हुई दुष्परिणतियो का तनाव शान्त हो सके । यदि अपराधी ने अपराध कर लेने के पश्चात् अपना अपराध नम्रता और लज्जापूर्वक पहचान लिया है, स्वीकार कर लिया है तो उसे मान मानसिक सवेदना के शब्द से ही दण्ड दिया जाना उचित होगा ।
न्याय एक सत्य की तुला होती है । जिस पर पक्ष विपक्ष के खोट बाट नही रखे जाते ।
सत्य तो यह है कि अपराव उस समाज, उस शासन मे पनपते है जो समाज वा जो शासन स्वार्थी, बन गया हो, तृष्णा की आग में पड गया हो । जिसे मात्र ग्रह और ग्रहकार ने सता रखा हो । ऋत अपराव को जन्म देने वाला समाज और शासक
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( ७४ ) ही होता है।
तभी .
तभी द्वारपाल ने बड़े हर्षोल्लास के साथ प्रवेश किया उसके कुछ ही क्षण पश्चात् सजाधजा सेनापति भी पाया और तुरन्त उसी क्षण झनझन पायल को बजाती अपनी मधुर खुशी के पुष्प बरसाती एक सेविका ने भी प्रवेश किया ।
तीनो के चेहरों पर असीम प्रसन्नता, उमग और उत्साह की झलक, छलक रही थी। तीनो ही कुछ कहना चाह रहे थे । कहने को उत्सुक भी थे और यह भी उस क्षण सोच रहे थे कि जो प्रथम आया उसे ही कहना योग्य है। तभी भरत सम्राट ने पूछ लिया
"क्या बात है | • • क्या कहना चाहते हो?"
"महाराजाधिपति | एक बहुत ही मगल सूचना देने को उपस्थित हुआ हूँ।" द्वारपाल ने उत्तर दिया। ___"और मैं भी स्वामिन कुछ आनन्ददायक सन्देश देने को प्रातुर हूँ।" सेनापति वोल उठा । ___ "प्रभो ! स्वामिन् । .. • मैं भी सुखद सन्देश लेकर उपस्थित हुई है।" सेविका ने मीठी राग मे अभिवादन के साथ निवेदन किया।
तभी भरत सम्राट का मन इन तीनो के मगलमय रहस्य भरे सन्देशो के प्रति प्रमुदित हो उठा । वोले "
"कहो । कहो | द्वारपाल तुम क्या कहना चाहते हो?"
"महाराजाधिपनि । अापके पिता भगवान आदिनाथ जी को कैवल्य ज्ञान की उपलब्धि हुई।" ।
"अरे" भरत का चित्त प्रसन्नता के मारे खिल उठा। बोले "और तुम क्या कहना चाह रहे हो सेनापति "
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( ७५ ) "स्वामिन् । आपकी आयुधशाला मे आपके यश और कीर्ति से ओतप्रोत महान व अखण्ड शासक का रूपक 'चक्ररल' उत्पन्न हुआ है।"
"खूब | बहुत खूब ।"... • हा तो, सेविका तुम कौनसा - सुखद सन्देश लेकर ग्लाई हो?"
"प्रभो । आपके कुल का दीपक और वश-विस्तारक महा मनोज्ञ 'सुपुत्र' का जन्म हुआ है ।"
'वाह ! वाह ! . बहुत ही सुखद सन्देश है।'
राजदरबार जय-जय कारो से गूज उठा । एक साथ तीनतीन प्रानन्द दायक सुखद सन्देशो का सुनना बहुत ही प्रसन्नता की बात थी। तीनो को ही अमूल्य और जीवन सुखी बना देने वाला पारितोषिक दिया गया।
अयोध्या सज उठो । मधुर वाद्य बजने जगे। मगलगान गाए जाने लगे। द्वार-द्वार पर मंगल बन्दन-वार लाग रही थी। ध्वजाऐ, फहरा रही थी । और जयजय कारे की गूज सुनाई दे रही थी।
'महाराज आनन्द महोत्सव मनाया जाय' 'हा । हा अवश्य । किन्तु ।'
'किन्तु का क्या प्रश्न है प्रभो।' 'पहले किसका अर्थात् किस सन्देश का उत्सव मनाया जाय.. '
'पहले । ।' सब सभासद सोच में पड़ गए।
'तभी भरत सभ्राट ने सबको आदेश दिया-जायो । सभी सजधज के तैयार हो यो। मगल पूजा का सामान साथ मे लो। हम पहले भगवान आदिनाय को प्राप्त केवल्य ज्ञान का उत्सव मनाएंगे। हमे अभी भगवान से समक्ष पहुंचना है।' ___ पादेश सुनकर मभी प्रसन्न हुए। अयोध्या का प्रत्येक निवानी ध्यपने पवित्र और पूज्य भावो के साथ महाराज भरत के हापी के
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( ७६ ) पीछे-पीछे जयजय कारो को गू जित उच्चारणो के साथ चल रहा था। सभी के भावो मे दर्शन की उमग थी, उत्साह था। और गौरव भरा अभिवादन था। भरत ने हाथी पर चढे-चढे ही दूर से ही भगल सूचक लहराती हुई मानस्तम्भ की सर्वोच्च ध्वजा दिखाई दी। ज्यो-ज्यो हाथी आगे बढ रहा था त्यो त्यो समवसरण (सभा मण्डप) की अनेक रमणीक
और सुन्दरता से ओतप्रोत वस्तुये वेदिया, पताकाएं, आदि दिखाई दे रही थी। ____ कुछ ओर आगे बढे ही थे कि कानो में मधुर वाद्यो का सगीत सुनाई देने लगा । गगन मण्डल के मध्य विमान दिसाई देने लगे। पुष्प की बरसा उन विमानो मे से हो न्ही थी। ___ उस वक्त के मानव को यह एक अद्भुत और आश्चर्य कारी घटना लग रही थी। वह सम्पूर्ण दृश्य को, देखने को अत्यन्त उत्सुक हो उठा।
जब समवशरण कुछ ही दूर रह गया तो भरत हाथी पर से उत्तरा । अन्य सभी राजा गण अपने-अपने वाहनो से उतरे । सभी ने परोक्ष समस्कार किया । समूह फिर से जय जय कार दोल उठा।
सभी ने देखा कि समवशरण (सभा मण्डप) विशाल है। इतना रमणीक इतना सजाघजा, इतना सौम्य । इतना विशाल समवसरण की रचना किसने की है ? सभी को यह प्रश्न एक रहस्य सा उत्पन्न कर रहा था।
विशाल और सभा मण्डप से भी बहुत ऊँचा यह मानस्थम्भ सुन्दर था । अनुपम था। नमवशरण मे अन्दर प्रवेश करते हो सवने देखा उपवन है, खाइया हैं, सुन्दर-सुन्दर पक्षी है, तालाब है पोर स्वर्ण मयी सीढिया है। बहुत ही ऊँचे और रत्नो से सजा
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( 2014 )
हुआ विशाल भगवान आदिनाथ के विराजने का सिंहासन था । जो कमल के आकार का था । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कमल से ऊपर घर भगवान आदिनाथ विराजे हुए हैं । उस कमल रूप सिंहासन के चारो ओर नीचे की ओर बारह सभा - विभाग थे । जिनमे सभी श्रोतागरण बैठे हुए है ।
आगे देखा कि बारह, सभाकक्षो मे क्रमश मुनिगण, कल्पवासी देविया, आर्यिकाएं व मनुष्य की स्त्रिया, भवनवासिनी देवियां, ज्योतिष्मिरणी देविया, भवनवासीदेव, व्यन्तरदेव' कल्पदासी देव, मनुष्य, और पशु बैठे हुए थे।
भरत अपने पूर्ण परिवार और प्रजा के साथ आया हुआ था । प्रथम ही तो भगवान की तीन प्रदक्षिरणा दी। पश्चात् अपने अपने योग्य कक्ष मे जाकर स्त्री पुरुष बैठ गए ?
भगवान मौन थे । पर स्वर्ग का ईन्द्र उनकी स्तुति कर रहा था जब इन्द्र भी स्तुति कर चुका तो भरत हाथ जोडकर मस्तक झुकाकर खडा हुआ, और विनिम्न वचनो से निवेदन किया कि प्रभो । हमे कुछ सतपय राह दिखाइए अपने उपदेशामृत से हम सभी प्राणियों की प्राकुलता मिटाइए । "
भगवान आदिनाथ के साथ जब कई राजा महाराज ने दीक्षा ली थी, तो उनमे श्रादिनाथ के पुत्र ऋषभसैन भी थे। वे दिगम्बर हो रहे और ग्राज उन्होंने भगवान के मुख्य गणधर का पद सुशोभित किया ।
-
भगवान आदिनाथ के श्रीमुख से ॐ' शब्द की उद्घोषणा हुई | समस्त भूमण्डल, गगन मण्डल गूंज उठा। वातावरण शान्त हो उठा । मानव, दानव, देव, पशु पक्षी सभी सुन रहे थे । सभी ने जिधर से भी देखा भगवान् का दर्शन किया । अर्थात् चारो दिशा में भगवान का मुख दिखाई दे रहा था । तभी
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तो वे चतुर्मुखी ब्रह्मा कहलाए ।
भगवान् आदिनाथ ने अपनी दिव्य ध्वनि मे मानव को मानवोचित कर्त्तव्य का उपदेश दिया । प्राणी मात्र के प्रति दया, प्रेम, वात्सालय का उपदेश दिया। साथ हो ससार की असारता, विनश्वरता, और परिवर्तनो का विश्लेषण भी किया ।
( ७८ )
अपनी दिव्य ध्वनि के मंगल प्रसारणो मे भगवान आदिनाथ ने कहा---
यह संसार
- भयकर भी है,
Holype
-- भुल भुलैया भी है,
और
विकट भी है।
"
मोह, माया, मिथ्यात्व के रंग में रंगा प्रारणी अपनी आत्मशक्ति को भूल जाता है । वह भूल जाता है कि वह स्वयं ही भगवान है, वह स्वयं हो परमात्मा है और वह स्वय ही ईश्वर है ।
वह प्रवोध, ज्ञानी मानव ईश्वर की खोज पत्थर से करता है, ककर मे करता है, पेड पौधो मे करता है, और पर्वत, नदियों में करता है ।
समुद्र,
पर वह उस जगह की खोज नही करता जहा उसका परमात्मा, ईश्वर, या भगवान विराजा रहता है। उनका ईश्वर तो उसके अन्दर हो रहता है । प्रत्येक आत्मा मे परमात्मा बनने की शक्ति है। ज्ञान के विस्तार से भेद विज्ञान पूर्वक धागे बढता हृया विशेष ज्ञानी ही हो जाता है । विशेष ज्ञानी के जय ज्ञान
चमक उठनी है तो मोह, मिध्यात्व, माया, निदान,
वो
भादि स्वत ही दूर हो जाते हैं ।
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(७६ ) ससार की भूल भुलैया।
हाँ । इस ससार की भुल भुलया मे मानव अपनी मानवता को तिलाजालि भी देने को तत्पर हो उठता है । वह धन, परिवार, और सम्पत्ति को ही सब कुछ मानकर, उनकी चकाचौंध मे चु धिया कर अपना पन खो बैठता है। जबकि संसार के सभी प्रसाधनो की चमक एक अस्थाई चमक है। ठीक गगन मण्डल पर छाए मेघ की विद्य त चमक की तरह।
परिवर्तन शील ससार।
हा। इस परिवर्तन शील ससार मे क्या स्थाई है ? कुछ भी नही । यदि स्थाई ही होता तो इसे परिवर्तनशील की भाषा नहीं दी जाती । जहा परिवर्तन हे कहा किसको अपना कहा जाय? क्योकि परिवर्तनता के सिद्धान्त से जो आज हमारा है वही कल नही भी हो सकता।
-प्राज शिशु है, -~-कल बचपन है, ---परसो जवानी है,
और तरसो बुढापा है।
फिर ??? फिर मौत का बजता हुआ नक्कारा । मानव मनमूबे बनाता रहता है और परिवर्तन होता जाता है। उस परिवर्तन की बाढ में वहकर मानव नैराश्यताकी मझधार में वह जाता है। फिर ? फिर उसके पास सिवा मृत्यु के कुछ नही रह जाता ! मरता है, फिर जन्म है । मरता है और फिर जन्म है। यो मरण-बीवन परिवर्तन चलता रहता है और प्रात्मा कर्म प्रावरण में ढकती जाती है।
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(८०) किन्तु यह एक मत से नहीं भी कहा जा सकता। क्योकि जिस मानव ने प्रात्म कल्याण की भावना से स्व पर की पहचान कर ली हो, भेद विज्ञान द्वारा तप्पा की आग को बुझाडाला हो, सयम की राह जिसने अपनाली है, त्याग को जिसने अपना लिया हो और राग-द्वय का परित्याग जिसने कर दिया हो । वह फिर कभी भी ससार की भुलैया मे नही फसता।
वह कभी भी ससार के परिवतन मे नही भटकता । वह कभी भी जन्म-मरण के चक्कर नही खाता। और वही आत्मा परमात्मा बन जाती है।
जिसके हृदय में पवित्रता हो, जिसके हृदय मे प्यार हो, वात्सल्य हो, जिसके हदय मे साम्यता हो, जिमके हृदय मे शान्ति हो, जिसके हृदय मे निष्कपटता हो, जिसके हृदय मे विशुद्ध ज्ञान की ज्योति जल उठी हो-उसकी आत्मा का ससार का यह अस्थाई परिवर्तन कुछ भी नहीं कर सकता। वह ससार का विजेता होता है । वही आत्मा अमर होती है । वही आत्मा परमात्मा होती है ।"
भगवान आदिनाथ की निरक्षरी वाणी खिर रही थी और सभी उस वाणी मे खो रहे थे। भावो में लगे कीट कालिमा के जग धुल रहे थे । भावो में पवित्रता का मधुर रस घुल रहा था । भरत, माली, सुन्दरी, यादि सभी भगवान की वाणी मे एक-मेक हो रहे थे समा रहे थे। ____ पवित्रता के रंग का असर होने पर भरत को विशुद्ध सम्यक् दर्शन (श्रदान) की उत्पत्ति हुई।
ब्राह्मी और सुन्दरी ने सयम धारण कर आर्यिका पद प्राप्त लिया। आज उन्हें अपनी प्रतीक्षा को सफल बनाने का सुअवमर प्राप्त हो गया था।
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भरत का हृदय आज पवित्रता से भरा जा रहा था। सहसा भरत ने एक प्रश्न किया "
'प्रभो। यहा जितने भी प्राणी बैठे है उनमे से क्या कोई आप जैसा तीर्थकर भी कभी बनेगा?'
'हाँ । अवश्य बनेगा। और वह है तुम्हारा पुत्र मारीच ।' 'मारीच । ।। सभी प्रसन्नता से खिल उठे। भगवान ने आगे बताया--- 'यही मारीच अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर होगा।' 'तीर्थकर कितने होगे प्रभो?'
'तीर्थकर तेवीस और होंगे ! -- प्रत्येक अवसर्पिणी काल मे २४ तीर्थकर नियम से होते रहते हैं।'
'आपके बाद कम से कौन-कोन नाम के तीर्थकर होगे।"
'क्रम पूर्वक, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दन नाथ, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपासनाथ, चन्द्र प्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयान्स नाथ, वासुपूज्य विमलनाथ, अनन्तताथ, धमनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिमुद्रतनाय, नामिनाथ, नमिनाथ, पाश्र्वनाथ और महावीर । इस प्रकार तवीस तीर्थकर और होगे।
सभी ने जय-जय कार का उच्चारण किया । यथाशक्ति व्रत नियम, मयम धारण करके भगवान को नमस्कार कर के अपने भावो मे पवित्रता का रस घोल-घोल कर, अनुपम और अलभ्य शान्ति लेकर भरत एव सभी सभापद अपने-अपने निवास स्थान को लौट आए।
दिव्य ध्वनि बन्द हो गई। वातावरण विल्कुल शान्त हो गया। ईन्द्र ने भगवान से निवेदन किया कि प्रभो जन-जन का हितकारक अब आप अन्य प्रदेशो मे विहार कीजिए।
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( २ ) भगवान् आदिनाथ ने मगल विहार किया। जहां-जहा भी गए समवशरण की रचना होती और मगल कारक दिव्यध्वनि खिरती। बिहार करते-करते, उपदेशामृत की बरसा करते हुए भगवान् आदिनाथ फैलाश पर्वत पर पहुंचे । जहा आपने वर्षायोग स्थापन किया।
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१८ भरत की दिग्विजय
अतुल और उत्साह से ओतप्रोत आनन्द की लहर ने अयोध्या ही को नहीं अपितु समस्त भूमडल को आनन्दित कर दिया । चारो ओर खुशिया ही खुशिया छा रही थी।
इधर भरत सम्राट ने अपने चक्ररत्न की पूजा की। सेना द्वारा विविध आयोजन हुए। सेना का उत्साह अनन्त गुणा बढ गया । प्रत्येक सैनिक के चहरे पर तेज, हृदय मे उमग, मन मे उत्साह, शरीर मे स्फूर्ति और पांवो मे दृढता के साथ चचलता चमक उठी थी।
उधर पुत्ररत्न के जन्मोत्सव का कार्यक्रम अपनी रगरगात्मक शैली के साथ हो रहा था । याचको को दान, देवालयो मे पूजा, राज भवन मे मगल गीत, नृत्य, आदि के प्रानन्द दायक कार्य हो
रहे थे।
उत्साह ही उत्साह । उमग ही उमग । अानन्द ही आनन्द।
जिधर दृष्टि जाती है प्राज अयोध्या मे उघर ही प्रसन्नता से भरे चेहरो पर से मुस्कराहट के पुष्प बिखर रहे थे । नव नवेली महिलाऐ आज परिया लग रही थी । वच्चा बच्चा फुदक रहा था, वृद्ध भी जवान हो रहे थे।
चारो ओर से भरत सम्राट की जय-जय कार बोली जा रही
थी।
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आज चक्ररत्न की उपलब्धि के पश्चात प्रथम राजदरवार लगा हुना था । अनेको ने चक्ररत्न की उत्पत्ति सुनकर ही भरत की अाधीनता स्वीकार कर ली थी। आज वे भी राजदरवार में विराजे हुए थे । सेनापति एवं अन्य उच्चाधिकारियो ने चर्चा आगे बढाई
"आप बडे पुष्पशाली है स्वामिन " "कसे?"
"सर्वप्रथम तो आप भगवान प्रादिनाथ के पुत्र, और द्वितीयश्राप सो भाइयो मे ज्येष्ठ, तृतीय-योग्यता, श्रेष्ठता, सुन्दरता, वीरता आप मे भरी हुई है । चतुर्थ श्रापको प्रायुधशाला मे चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है।"
"ओह !. ......" "महाराज' एक निवेदन प्रस्तुत कर " "कहो । कहो । निडर होकर कहो !"
"आपको चक्ररत्न की उपलब्धि हुई तो इसका सद् उपयोग कीजिएगा।"
'पापका तात्पर्य क्या है ?"
"स्वामिन् । भूमण्डल पर आपकी विजय अब स्वाभाविमानी बन गई है। चक्ररत्न चाहता ही दिविजय है।"
"ग्रोह ॥
"प्रभो । हमारी यही आपसे विनम्र निवेदन है कि आप कल ही दिग्विजय पर चलने का आदेश दे दे। क्यो शुभ कार्य में देरी नहीं की जानी चाहिये।"
उक्त चर्चा पर भरत ने विशेष ध्यान दिया और निमित्त नैमि त्तिक विचारो ने भरत के हृदय में दिग्विजय का प्रलोभन उत्पन्न कर ही दिया । कल के प्रभात मे पूर्व दिशा की ओर प्रयाण करने का प्रादेश देते हुए राजदरबार का विसर्जन किया।
शरद ऋतु की स्वच्छ और शीतल मन्द पवन युक्त चान्दनी रात
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( ८५ )
है । तारे एक नदनवेली दुल्हन की साडी पर लगे सितारो की भाति चम चमा रहे है । तारो के मध्य मे चान्द आनन्द अमृत को बिखे - रता हुआ प्रह्लादित हो रहा है। नदी का कल-कल मधुकर शब्द और शीतल मन्द पवन, उत्साह में मीठा दर्द पैदा कर रहे हैं।
++
सेनापति ऐसे समय में अपनी सम्पूर्ण सेना के मध्य मे सडा हुआ नये-नये आदेश सुना रहा था । चतुरगिणी सेना को उत्माहित कर रहा था । प्रात. के प्रयाग का सन्देश सुना रहा था ।
सेनापति के ओज और उत्साह भरे वाक्यो को सुन-सुनकर प्रत्येक सनिक उत्साहित हो उठा । चेहरों पर मूँछे तन उठी। गन भन्न हो उठा। बाहुऐ फड़क उठी । जोश चमक उठा। शोर्य झलक
उठा ।
1
जय भरत | जय भरत । की गूज से रात्री का शान्त नीरव वातावरण गूजित हो उठा। सोई हुई मीठी नींद मे मस्त जनता चोक उठी। एक दूसरे से पूछने लगे---
"
"या बात है
"कहाँ ?"
"अरे । तुमने सुना नही "यह देखो सुनो"
"अरे हा । यह याद तो महाराज भरत की सेना का है।
पर इस वक्त ???"
..
..
"सेना की जगनाद है । वो "यह तो पूछना ही पड़ेगा किसी मे ?"
तभी पास वाले महल की सिकी भी जुली । उनमें से किसी की गर्दन दिखाई दी। फिर मैंने उनसे
बन्द करनी नाही।
तभी
"सुनिए।"
·
"" "यह नाव क्यो हो दी
दया बात है ?"
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"क्या आपको ज्ञात नहीं, कि प्रात होते ही भरत महाराज अपनी चतुरगिणी सेना के साथ दिग्विजय को प्रयाण कर रहे हैं।"
"अरे। हमे तो ज्ञात ही नहीं।" "वस यही बात है । चलो सो जाओ अब !"
पर नीद किसे आये । जयनाद की गूज तो कानो मे समायी जा रही थी। हृदय मे एक वीरता की उमग लहलहा रही थी ।
इघर प्रात की बेला ने गगन के अन्धकार की छाती चीर कर पृथ्वी पर कदम रखा। उधर रणभेरी बज उठी। विगुल बज उठा। सैनिक सज उठा । घोडे हिनहिनाने लगे । हाथी चिंघाडने लगे। रस की ध्वजा फहराने लगी । अस्त्र-शस्त्र चमचमाने लगे।
तभी चक्ररत्न को साथ लिये भरत महाराज का आगमन हुआ। मेना ने अभिवादन किया। चक्र को सेना के आगे किया गया । एक विशाल और समी अस्त्र-शस्त्रो से सुसज्जित न्य ने महाराज भरत विराजमान हुए।
त्य में विराजते ही दिगुत बज उठा। सेना ने पुन 'जय भरत" का शब्द गूजायमान किया। सभी नैनिको ने अपने-पपने वाहन लिये और उन पर सवार हए ।
विशाल भेना ने पूर्व दिशा की ओर प्रयाण किया।
पैदल, अश्व, गज, और रख-मैना पृथ्वी को गेदती हुई माओ वही । गगन मण्डल धूल से प्राच्छादिन हो गया । घोडो की टापो, हाधियो की घन्टियों और रयो की भालरी ने वातावरण एव नदभुन प्रयापी जन उत्पन्न कर रहा था।
पहाट, वन, नदिया प्रादि दो पार गस्ती हमेना गा के मिनार का पची। जि ने भी मुना नि महाराज भरन निस्निगर पे निाये -जमी ने न प्राधिन बीगर गर रिया | उनी नै भन न माने लो। और यही भागो मेना के 7. भरतीमा माप हो गया।
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चक्ररत्न का प्रभाव ही ऐसा होता है कि जिसके पास भी वह होता है-विजय उसकी निश्चय होती ही है।
-क्योकि कोई भी विपक्षी उसका सामना नहीं कर सकता। -~-क्योकि चक्ररल बल, वीर्य शौर्य का द्योतक होता है । ---क्योकि चक्ररत्न पुण्य से प्राप्त उपलब्धि होती है।
-क्योकि दिग्विजयिता के यहाँ ही चक्ररत्न होता है। ----क्योकि चक्ररल द्वारा जिस भी शत्रु पर प्रहार किया गया कि वह शत्र नष्ट हो जाता है।
पूर्व दिशा मे गगा का पूर्ण प्रदेश भरत ने अपने प्राधीन किया आधीनस्थ राजाओ महाराजायो ने रत्न, मोती, प्रादि उपहार स्वरूप भरत को दिये । किसी किसी महाराजा ने अपनी कन्याये भी भेट की।
आज भरत सम्राट ने अपने सेनापति को दक्षिण की ओर चलने का आदेश दिया। सेनापति ने सभी सेना को-जो विजय प्राप्त करने के पश्चात विश्राम कर रही थी-रण-सकेत से आहवान किया और दक्षिण की ओर चलने का पथ, नियम, आदि को समझाया।
विगुल फिर बज उठा । सेना फिर सज उठी। जय भरत का विशनाद फिर गूज उठा।
विशाल नदियो, पर्वतो, गुफाओ को पार करती हुई सेना दक्षिण की ओर बढ़ रही थी । दक्षिण के सभी राजा महाराजा चौक उठे थे। प्रत्येक अपने अपने विचारो मे खोया हुआ था।
"हमे तो भरत महाराजा की शरण ले ही लेनी चाहिये।" "नही | नहीं । हम ऐसा नहीं करेंगे। "हो क्यो करे हम भी ऐसा ? आने दो रणस्थल मे, सारा निर्णय हो जायगा। "सत्य । अटल सत्य । कायरतापूर्वक प्राधीन हो जाना तो राज्यकुल के विपरीत है।
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'
F कलक है।
"एक शर्म की बात है ।
"सेनापति । श्रपनी सेना को सजा दो ।
)
"सैनिको । कमर कसकर तैयार हो जाओ । "सावधान 1 अपनी सीमा को पूर्ण सुरक्षा की जाए । "हम किसी को प्राधीनता स्वीकार नही करेंगे । "कभी नही करेगे ।
यदि ' आदि बाते हो रही थी । दक्षिण के सभी राज्यधिकारी अपने अपने विचारो से अपनी अपनी वाते सोच सोचकर पक्की कर रहे थे ।
भरत की सेना चक्ररत्न के पीछे पीछे आगे बढ रही थी । ज्यो ही किसी राज्य की सीमा प्राती भरत अपना दूत उस राज्य के राजा के पास भेज देता और जबतक दूत श्राकर उत्तर नहीं देता, सेना सीमा में प्रवेश नही करती ।
दूत जाता और भरत महाराज की सेना, चकरत्न व विजय आदि का हृदय पर प्रभाव डाल देने वाला वर्णन करता । जिसे सुनकर दिल दहल जाता और युद्ध करने के भाव उठ उठ कर दबते जाते ।
दूत उन्हें यह भी समझाता कि यदि आप भरत महाराज के पास जाकर श्राधीनता स्वीकार कर लेते हे तो आपसे आपका राज्य नही छीना जायगा । श्रापका राज्य तो आपको मिलेगा ही इसके साथ-साथ भरत महाराज की कृपा दृष्टि भी आपके ऊपर सदैव बनी रहेगी ।
""
तब वह राजा सोच मे पड जाता । उसका मन कहता -- वात तो अच्छी ही है ।
राज्य तो अपना ही रहेगा ।
. अगर भरत महाराज की कृपा दृष्टि रहती है तो समय-कुसमय
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हमे सहायता तो मिल सकेगी। . क्या बुराई है प्राधीनता मान लेने में? . लडेगे। और अनेक मारे जायेंगे फिर भी हम जीत नही पायेगे। ..जीत भी नहीं पायेंगे और भरत महाराज को दृष्टि से भी गिर
जायेगे। ...तव आयीनता मान ही लेनी चाहिए।
इस प्रकार स्वय सोच कर, मत्रियो, सेनापतियो से मत्रणा कर अनेक राजा प्रसन्नतापूर्वक भरत महाराज के समक्ष सिर झुकाए या जाते और आधीनता मान लेते।
बहुत से ऐसे भी राजा महाराजा थे जो अपनी हैकड मे मरे जा रहे थे वे कहते-हमारे विचार अटल है। वे दूत की बात भी नही मानते । फल यह होता कि फिर युद्ध ठन जाता और वह हैंकड जताने वाला राजा हार मानकर सिर झुका देता।
सेना दक्षिण की तरफ विजय का उका बजाती हुई आगे बढती ही जा रही थी। जब किनारा आ गया और आगे समुद्र दिखाई पड़ने लगा तो भरतने अादेश दिया कि सेना विश्राम कर लें।
दक्षिण के चोल, पाण्डय, केरल आदि देशो को आधीन करने के पश्चात् अाज विशाल मेना विश्राम कर रही थी।
विशाल मडप मे सिंहासन पर महाराजा भरत गौरव के साथ विराजे हुये थे । अनेक राजा महाराजा मामने, वाये वाये बैठे हुए थे। शान्ति एव सुरक्षा की व्यवस्था सोती जा रही थी। समझाई जा रही थी।
राजा महाराजानो ने भरत महाराज की पूजा की। अनेक बहुमूल्य भेट भी अर्पित की । अनेक रूपवती, गुणवती, कन्याएं भी परणाई।
विश्राम के समय मे नृत्य, गीत हुए। सैनिको के लिये विशेष मनोरजन का प्रायोजन किया गया । विशाल मडप के विशाल द्वार
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पर चक्ररत्न चमक रहा था। वह भरत की विजय को प्रदर्शित कर रहा था।
समय बहुत व्यतीत हो गया पर जैसे किसी को पता ही नहीं था। तभी विगुल फिर वज उठा। ___ सेना के कान खडे हो गए । अर्थात् सेना फिर तन उठी । तेनापतियो ने आदेश दिया। ____ "अव सेना पश्चिमी प्रदेशो की ओर पूच करेगी । अत भावधान होकर, आगे बढ़े।
सेना आगे बट चली। जिस जिस विजय प्राप्त किए हुए शामित राज्यो से होकर सेना गुजरी वहां के राजा महाराजो ने सेना का स्वागत किया। उन्हें भोजन आदि कराया गया । महाराजा भरत को पनेक भेट दी गई।
मेना पश्चिमी प्रदेशो की रीमानो पर से आगे बढ़ रही थी। सभी इन प्रदेशो के राजा महाराजानो ने सहर्ष प्राधीनता स्वीकार कर ली थी। सेना पटती ही गई । पश्चिमी प्रदेण ना तो विशाल ही ये और ना ज्यादा हो । अत अल्प समय मे ही पश्चिमी प्रदेशो को साधीन कर लिया गया। सेना पागे वटती गई।
प्रय मैना उत्तर की ओर बट रही थी । मिन्धुनदो का स्वच्छ व वेग सहित बहता हा जल भन्त की सेना के पद प्रक्षालन करने लगा। उसकी लहोने, नरगो ने नेना के हृदय में प्रसन्नता, उत्साह व उमग को लहरें तरों उत्पन्न कर दी थी।
पान्नार आदि देशो पर विजय प्राप्त हो रही थी। ना ही एक विमान पर्दन सेना के समय गाकर जमे रडा हो गया हो। उन्ना किसान पवन सि जिमने माना राम्ना पूर्णतया गेर रखा पाना सती हा मेनापति प्रादेशीनोशारे हिसारपार पा। __ गापाज पदी निश्राम हा। भरत ने अपनी मोड
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भरी वाणी मे आदेश दिया। सैनिक अपने वाहनो से उतर पड़े, साथ ही "विश्राम विगुल" की ध्वनि गूंज उठी । असख्य सैनिकसमूह ने ध्वनि सुनकर अपने-२ डेरे जमाए और विश्राम करने लगे। ___ पर्वत व पर्वत के आस पास छाए हुए बन में लगे अनेक प्रकार मीठे, खट्टे फलो का सेना ने भोजन किया, सिन्धुनदी की सहायक नदी का मीठा जल पिया ! सेना विश्राम भी कर रही थी और तत्क्षण मिलने वाले आकस्मिक आदेश के लिये तैयार भी थी। आँखे अवश्य नीद ले रही थी, मन अवश्य विश्राम की गोद मे मोद भर रहा था पर कान मिलने वाले आकस्मिक आदेश को सुनने के लिये चौकन्ले थे।
उधर मत्री, सेनापति और महाराज भरत तीनो आगे के लिये विचार परामर्श कर रहे थे । मत्री ने कहा-'यह पर्वत तो विशाल मालूम पड़ता है। जैसे अजेय होकर सीना ताने सामने खडा ललकार रहा हो । सेनापति कुछ भी हो । इसे पार तो करना ही है। विजय की आशा लिये कोई भी यो धवराता नहीं है। ____ मत्री नही 1 नही । मैने घबराने जैसी तो कोई बात कही ही नहीं । मैंने तो विशाल पर्वत की विशालता को कहा है ।
सेनापति' कोई भी वीर सैनिक, विजय का इच्छुक-अपने सामने किसी भी विशाल को विशाल नहीं समझता। वह तो उसका हर क्षण सामना करने के लिये तैयार रहता है।
भरत सेनापति जी | तुम सत्य कहते हो । एक वीर योधा ने के लिये इतना साहस उचित ही है ।।
सेनापति · जी महाराज | क्योकि जहाँ भी साहस मे न्यूनता आई कि योधा के कदम डगमगाने की हालत मे हो जाते हैं । और "
भरत · और तब योधा किंकर्तव्य विमूढ सा हो जाता है।
सेनापति · हा महाराज | और विपक्षी को तव सुअवसर प्राप्त हो जाता है। ताकि वह लडखडाते कदमो से अनैच्छिक लाभ उठा
सके।
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(६२ ) मनी" यह सब तो ठीक है। पर अब आगे के लिये क्या आयोजन है।
सेनापति प्रायोजन यही है कि आप सब यही विगजे रहे, विश्राम करे । मैं कुछ वीर योद्धानो को साथ लेकर विशाल पर्वत की विशालता देख पाता हूँ । सारे रास्तो से परिचित हो पाता हूँ।
भरत · चक्ररत्न को साथ रखना। सेनापति' "जैसी आपकी प्राज्ञा।
सेनापति अपने साथ चुने हुये वीर योद्धानो को साथ लेकर उस विशाल पर्वत की ओर बढने लगा। आगे-आगे चनरल, पीछे सेनापति और उसके पीछे चुने हुए वीर योद्धानो का समूह । ___ जय भरत । की गू ज के साथ मेना आगे बढ रही थी। विजया पर्वत पर रहने वाले पशु पक्षी भयभीत से हो रहे थे । भयकर और डरावने जगली पशुत्रो का सामना भी सेना को करना पडा । तभी .
"ठहरो " एक अदृश्य आवाज गूज उठी | सबने चौक कर इधर उधर देखा पर कोई भी दिखाई नहीं दे रहा था । आवाज को एक भ्रम समझकर सेना आगे बढी ही थी कि
"ठहरो | रूक जानो। आगे मत बढो ।" की आवाज पुन सुनाई दी । अब सेनापति से न रहा गया । उसने भी ललकार कहा ____ "कौन है यह कायर | जो छिप छिपकर व्यर्थ ही गरज रहा है । यदि वीर है तो सामने क्यो नही पाता।"
"तुम मेरा आदेश मान लो। सामने आने से तुम्हे कोई लाभ नहीं मिल सकेगा । अदृश्य आवाज पुन सुनाई दी।
"क्या आदेश हे तुम्हारा ।" सेनापति ने पूछा । "यही कि जैसे भी पाये हो, वापिस लौट जानो।"
"वीरो का कदम जो आगे बढ गया । वह पीछे नही हटा करता।"
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"व्यर्थ की हठ तुम्हारे लिये हानिकारक होगी।"
"यह तो समय बतायेगा। अब जो कुछ भी कहना है सामने आकर कहो "
तभी एक विशाल काय, विकराल रूप का दानव समक्ष आया। जैसे पहाड पर एक पहाड और आ गया हो । मोटी मोटी सफेद आखे जिनमे जैसे चिराग जल रहा हो । विखरे लम्बे काले काले शिर के बाल, हाथी से भी भारी विशाल शरीर, काला कलूटा शरीर से रग । दाँत बडे बडे जो मुह से बाहर निकलने का प्रातुर थे। सेनापति ने उसे देखा पर हिम्मत को परस्त नहीं होने दिया।
"पूछ बैठा" ___ कौन हो तुम?" "मैं इस पर्वत का रक्षक-त्यन्तरदेव हूँ। अपनी विजय की है । अभिलापा से आज तक कोई भी मानव इस पर्वत पर नहीं आ पाया सब ने इस पर्वत को दूर से ही नमस्कार किया है । इसलिये तुमसे भी मेरा यही कहना है कि यदि तुम अपना और अपने साथियो
का हित चाहते हो तो वापिस लौट जायो" एक भयकर गरजना - के साथ उस प्रत्यक्षदानव ने कहा। इतना सुनते ही सेनापति अट्टहास कर पडा । उसने कहा "
"कायर देव । अपनी चुपडी वातो का यहाँ कोई प्रभाव नहीं होने का हट जानो रास्ते से । वरना अपना सारा देवत्व मिट्टी में मिलता तुम्हे देखना पडेगा।"
"क्या कहा ???" वह कन्तरदेव गरज उठा । बरस उठा और क्रोध की आग उगल उठा। ___"यो गरजने, बरसने से भी हमारे पर कुछ भी असर नहीं होगा। तुमसे भी विशाल विकराल मेघो की गरज, वरस से हमने हार नहीं मानी है । हट जाम्रो सामने से।"
सेनापति की इस प्रोज भरी वीरता भरी निडर ग्रादाज को
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सुन, सेना ने 'जय भरत' का नारा लगाया सारा पर्वत गज उठा। बार बार जय भरत का नारा लगाया जा रहा था और उसकी प्रतिध्वनि भी सेना का साथ दे रही थी।
"भरत १.."व्यन्तरदेव ने भी जय भरत का नारा सुना । भरत नाम से वह पूर्ण परिचित था । उसे यह भी मालूम था कि मैं भरत दिरिविजय के लिये निकले हुये है और अनेक जगहो को बडे बड देव-दानवो ने उसकी दासता स्वीकार भी कर ली है। वही भरत क्या यहाँ भी आया है ? वह चौकता सा पूछने लगा • 'क्या भरत जो यहा आये हैं ???"
"हा। यह सेना भरत महाराजको है। इस पर्वत का पूर्ण परि चय प्राप्त करने के लिये, इस पार से उस पार जाने के लिये, रास्तो की जानकारी करने के लिये यह एक छोटा सा अगा सेना का) लेकर मैं 'सेनापति' आगे बढ़े है। पर तुम भरत का नाम सुन । कर चौक क्यो गये।" ____ "मैं • मैं 'हा मैं चौक ही गया · क्या भरत भी यही कही ठहरे हुए हैं ?"
"हाँ । वहां उस सिन्धु नदी की सहायक नदी का जो वह किनारा है ना "बस उसी किनारे पर भरत जी अपनी विशाल सेना के साथ विश्राम कर रहे हैं।"
"अच्छा तो क्या आप मेरो एक बात मानेगे ?" "कौन सी बात ?"
"यही कि मैं जरा भरत जी के दर्शन करके वापिस नाता तब तक आप अागे नहीं बढेगे ?"
"क्यो ??" "क्योकि "क्योकि इसमे आपका हित है ?" "हम समझे नहीं ठीक तरह समझानो।" "मैं सब आपको वापिस आकर समझा दगा।"
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( ६५ }
"कही तुम्हारे वचनो मे माया चारी तो नही है ?"
"नही नही । भरत जी के आगे मै कोई माया चारी नही कर सकता ।"
" तव आप जा सकते हो। पर याद रखना हम ज्यादा प्रतीक्षा नही करेंगे ।"
"अजी सेनापतिजी | मैं अभी गया और अभी आया ।"
1
वह व्यन्तर देव वहां से हवा हो गया । भरत महाराज विश्राम कर गहे थे । उनके रमणीक डेरे के द्वार पर सैनिक अविरल चौकन्ना हो कर पहरा दे रहा था । देव ने उसे देखा । देव चाहता तो उस पहरेदार को मुट्ठी मे बन्द कर सकता था पर मर्यादा की श्रान समझ कर वह पहरेदार के सामने आकर खड़ा हो गया । पहरेदार ने उस अपरिचित मानव को देखा तो चौकते हुए पूछा..
---
"कोन हो तुम ?
+
"मैं भरत महाराज से मिलना चाहता हूँ ।
"यह मेरे प्रश्न का उत्तर नही है । मैं पूछता कि तुम कौन हो ?
"मैं इस पर्वत राज कारक्षक है। मैं इसी क्षण भरत महाराज से मिलना चाहूंगा।
"ठहरो । पहरेदार ने ताली बजाई । अन्दर से एक सैनिक आया । सैनिक से पहरेदार ने कहा- "महाराज श्री से निवेदन करो कि इस पर्वतराज का रक्षक आपके दशनो का इच्छुक हो आपके चरण छूना चाहता है ।
सैनिक अन्दर गया और कुछ क्षणो के पश्चात् ही आ गया । उसने सकेत से कहा--"दर्शन कर सकते है ?
देव दर बढा | रमणीक और उत्तम शैया पर भरत एक करवट लिये विश्राम कर रहे थे ज्यों ही देव ने अन्दर प्रवेश किया कि उसने भरत महाराज के अभिवादन के साथ दर्शन किये और
f
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निवेदन करने लगा -
"स्वामिन् । श्रापकी प्रशसा मैंने बहुत सुन ली है मुझे अपना
1
दास स्वीकार कीजिये
( ६६ )
" आपका परिचय ? भरत महाराज ने मन्द और प्रिय
के साथ पूछा
"मैं
इस विजयार्ध पर्वत का रक्षक - व्यन्तर देव ह ।" "ऐसी क्या विशेषता है इस पर्वत मे ?
"स्वामिन | यह पर्वत राज रत्नो का, मणियो का, खजाना है। इसकी विशाल गुफाओ मे विशाल विपुल मात्रा मे धनराशि है। इसकी और अन्य गुफाओ मे शहर के शहर बसे हुये है । एक और रमणीक व विशाल गुफायें है जिसका द्वार विगत श्रनेको युगो से चन्द पडा है उसमें जिन मन्दिर, विशाल राज भवन, विशाल रमणीक उपवन है ।
'
'वह गुफा बन्द क्यों है
'इसका तो मुझे मालूम नही । पर यह धनन्त काल से चन्द है । किसी ने भी इसे नही खोला ।' 'क्यो नही खोला ?"
मुस्कान
'यह तो हिम्मत का काम हे महाराज | कोन ऐसा वीर है, पुण्यात्मा है, वीर है जो इमे सोले । यह तो मुझसे भी नही सुलती ।'
'ठीक । अव तुम क्या चाहते हो ।'
' में श्रापका सेवक बनना चाहता है ।' ' स्वीकार किया ।'
'दहगे ।'
'जो' ।
स्वीति सुनकर 'देव नाच उठा । प्रसनता के मारे फुदक उठा । श्रीर वार वार जय बोलने लगा। वह मारे सुशी के श्रभिवादन करके वापस लोटने लगा। तभी
गगन को हो करतोय 'ठहरो' को सुनकर वापिस
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( ६७ ) लौटने वाला देव ठिठक कर रुक गया और विनम्र भावो से बोल उठा।
"जी । क्या आदेश है ।
"सेनापति से कहना कि अपने चक्ररत्न की सहायता से उस * 'गुफा के द्वार को खोल देना जो आज तक खुली ही नहीं ।
"क्या ? ? ? देव देखता ही रह गया।
"हां - और यह भी कहना कि मात्र द्वार ही खोलना है अदर नही जाना है। और तुम उसके साथ रहोगे। सारे पर्वत और रास्तो की जानकारी कराओगे।
"जैसी आज्ञा स्वामिन् । बार-बार शिर नवाता हुआ देव वहाँ से प्रस्थान कर गया।
उधर चक्रवर्ती अविलम्ब प्रतीक्षा कर रहा था। अपनी प्रतीक्षा की दृष्टि से चक्रवर्ती ने देखा कि विशाल भीमकाय देव अपनी दूत गति से चला आ रहा है। उसकी गति मे चचलता है, उत्साह है,
और प्रसन्नता है । अवश्य ही कोई विशेष सन्देशा लेकर आ रहा है। .. सेनापति सोच ही रहा था कि वह देव समक्ष प्राकर झुक गया ।
"अरे ! ।। सेनापति चकित रह गया। इतनी गरज करने वाला, इतना क्रोध करने वाला यह देव इतना नम्र कैसे हो गया। तभी देव ने अपनी नजरे उठाई और विनम्र भावो से बोला___"मैने भरत महाराज की दासता स्वीकार कर ली है। इसलिये
ही उनका सेवक तो आपका भी सेवक ही हूँ। है किन्तुः ... सेनापति कुछ कह रहे थे पर वीच मे देव बोल उठा---
"आप किसी भी उहापोह मे ना पडिए । यह वास्तविकता है। चलिये मैं आपको फ्ध दिखाता हू और एक महत्व पूर्ण ग " भी दिखाता हूँ जिसका हार आपको चक्ररत्न की सहा
विजया पर्वत का चप्पा
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"महत्व पूर्ण गुफा ??" हाँ हा । आप मेरे साथ आगे बढिए ।'
इस प्रकार नम्रता को धारण किये वीर देव आगे हो गया । सेनापति उसके पीछे थे । सेना सेनापति के पीछे थी । व्यन्तर देव पथ दिखाता हुआ जा रहा था। बीहड, घाटियो, वन अरण्यो से भरे इस पर्वत का पथ सत्यत दुर्गम था । भयकर और विशाल घना था। ____विजयार्घ पर्वत के उस पार जाने के लिये प्रयास किया जा रहा था तभी देव ने बताया
"ठहरिए मेनापति जी। "क्ष्यो?
"यही वह गुफा का द्वार है, जिसको आप चक्ररत्न की सहायता से खोलने का प्रयास करेंगे।
"किन्तु इत्त गुफा का द्वार खोल देने से क्या मिलेगा।
"यही तो वह द्वार है जिसके अन्दर प्रवेश करके आप इस विशाल पर्वत के उस पार जा सकेगे।
"अरे 111 .. .. सेनापति आश्चर्य से देखता ही रह गया। सेनापति अपने हाथी पर से उतरा और उतावली से चला, जैसे क्षण भर मे ही द्वार को खोल देगा।
"अरे रे रे । हरिये ।" देव ने बीच में ही रोका। "क्यो ? मुझे क्यो रोक रहे हो । द्वार खोलना है ना।
अवश्य खोलना है। पर आपको यह नी ज्ञात होना चाहिये यहां पहले भी हजारो योद्धा या चुके हैं और सब ने अपना शौर्य प्राट पाया है पर किसी को भी सफलता नहीं मिली। मुंह की खाकर वापिस हो साहिर उनको जाना पड़ा था।
च्या यह इतना मयार है? जी हां।
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( ६६ ) तब मुझे क्या करना होगा?
आपके पास तो ऐसा चमत्कारिक उपाय है जिससे आपको सहज सफलता मिल सकेगी।
कौन सा ? भूल गए ! ब्रजी यह चक्ररत्न । ओह ! हा । मैं यह तो भूल ही गया था।
तो आइए चक्ररत्न की पूजा करके आगे बढिये और द्वार खोल दीजिये।
सेनापति ने भाव पूर्वक चक्ररत्न की पूजा की । और गुफा के द्वार पर जा खडा हुमा । काफी ताकत लगाई पर द्वार टस से मस भी न हुआ। सेनापति पसीनो से चूर चूर होकर नहा रहा था। दिल कॉप उठा था धडकन तेज हो गई थी। पैर डगमगाने लगे थे।
ऐसी उत्साह भरी पराजय देखकर देव हँस उठा । बोला... 'यदि न खुले तो तोड दीजिये। ___ तब पुन चकरल को नमस्कार, करके अपने हाथी को द्वार के पास ले गया । हाथी ने भरपूर जोर लगाया । वह बन का विशाल द्वार कुछ चरमराया । और जोर लगाया गया और जोर लगाया गया .. तभी भयकर मेघ गरजने को सी ध्वनि हुई।
सेना चौक उठी। हाथी चिंघाड उठे । घोडे हिनहिना उठे। और सेनापति अपने हाथी सहित एकदम पीछे हटा ।
गुफा का द्वार टूट चुका था। अन्दर से भयकर गर्म हवा बाहर . निकल रही थी। देव बोला____ 'चलिये । द्वार टूट गया। अब इसकी गरम हवा निकलने दीजिये । इसमे प्रवेश कर उद्घाटन महाराज भरत करेगे। आगे वढिये अन्य स्थान दिखलाया जाये ।
सेनापति आगे बढ़े। वढते ही गए । विजया पर्वत का चप्पा चप्पा देख लिया गया। वीहड और भयकर धानियो रो परिकार
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( १०० )
प्राप्त हुन ।
रात्रि व्यतीत होते-होते वापिस सेनापति अपनी सेना सहि भरत महाराज के पास या पहुंचे । उस वक्त भरत महाराज शय कर रहे थे। सेनापति ने भी सेना को विश्राम करने का आदे दिया |
अन्धकार की काली कलूटी छाती को चीर कर प्राची से प्रभ की किरणे प्रकट हुई । अरण्य के रंग बिरसे विहग गण चहचह उठे । वातावरण में महक - महक उठी । प्रभाती का विगुल बज और सारी सेना सावधान हो एक-एक कतार मे खडी हो गई ।
महाराज भरत का जयनाद के साथ अभिवादन गाया गया । मीठी मधुर मुस्कान को बिखरते हुए भरत महाराज ने अप शयन मण्डप से बाहर पदार्पण किया ।
जय भरत ' जय भरत 11
111
जय जय कारा गूज उठा । प्रतिध्वनि से विजयार्ध पर्वत भी गूज उठा। वन मे कोमल हृदय वाले पशु-पक्षी दौडते नजर आने लगे ।
जय भरत
ऊँ मच पर भरत महाराज विराजमान हुए । सेनापति ने विजयार्ध पर्वत का परिचय प्रस्तुत किया । द्वार को तोड़ देने की चर्चा की। विधम दुर्गम राहो का भी विवरण दिया ।
भरत महाराज ने सब कुछ सुना । तुरन्त ही चल देने का श्रादेश दिया गया । सेनापति ने रणभेरी बजवा दी । प्रस्थान सूचक विगुल बजवाया गया। जिसे सुनकर सेना सतर्क हो श्रागे बटने लगी
सेना ने विजयार्ध पर्वत को उस गुफा के द्वार पर जाकर सासे ली । भरत महाराज ने गुफा के द्वार का निरीक्षण किया। उन्होने जान लिया कि गुफा सत्यत दुर्गम और भयकर है। भरत महाराज गुफा के दर प्रविष्ट हुए तो भयंकर जयनाद गूज उठी । चक्ररत्त श्रागे- वटता चला । भरत महाराज के पीछे सेनापति और सेना
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पति के पोरे विगाल मेना ने गुफा में प्रवेश किया।
धना गन्धकार उस गुफा में घा । गरम हवा का अब भी कुछ प्रभाव था। दुर्गन्ध और सुगन्ध को मिली जुली गवा रही थी। चनारत्न के प्रभाव से गुफा में प्रकाश हो उठा था जिसके आधार पर ही भरत महाराज आगे वटते जा रहे थे।
गम का पना अधकार चीरते हुए भरत अपनी विशाल सेना के साथ आगे व.ते ही जा रहे थे। तभी गुफा के अन्त भाग मे दूर प्रकाश दिनाई दिया । सूर्य चद्रमा दिखाई देने लगे। शीतल हवा का स्पर्श भी हुा । प्रसन्नता की लहर सब के चहरो पर छा गइ । योजतो लम्बी चोडी भयकर गुफा का प्रत निकट पा रहा था। ज्यो ज्यो आगे बटने जाते त्यो त्यो प्रकाश विशेष दृष्टिगत होता जाता।
जय भरत ! जय भरत ।। जय भरत ।।। का नारा पुन गूज उठा । मोए हुए और जग जग फर दहाडने लगे। विजय भेरी बजी जा रही थी कि तभी "
'ठहरो।'
भयकर गर्जना भरी एक आवाज ने मवको चौंका दिया। कोन हो सकता है ? किसने ठहरने के लिये ललकारा है ? आदि तरह-२ की कल्पना की जाने लगी। किंतु भरत महाराज रुके नहीं, अपितु आगे बढ़ते ही जा रहे थे। जैसे उन्होने कुछ सुना ही नहीं। तभी एक व्यक्ति, जो अपरिचित था सामने आया और कहने लगा__'कोन हो पाप ? कहां जा रहे हो? यह सेना साथ मे क्यो है? इस गुफा में प्रवेश करने का माहस तुम्हे मिला कहाँ से ?" एक * साथ अनेक वाते वह पूछ बैठा ।
सेनापति भागे लाया और उत्तर देने लगा-हम अयोध्या से पा रहे है । यह सारी मेना भरत महाराज की है । पूर्व, दक्षिण और पश्चिम दिशानो के देश प्रदेशो पर विजय प्राप्त करते हए नव उत्तर की ओर पाए है ।"ऊपर विशाल सिंहासन पर हाथी पर
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( १०२ ) विराजे हुए सम्नाट भरत हैं।'
'कोई भी हो । यो बिना आज्ञा के किसी के प्रदेश में चोरी चोरी घुस जाना उचित नहीं है।
'आप कौन है?"
'यह जो मामने आपको एक प्रदेश दिखाई दे रहा है ना .. वह देखो"ऊंचे-२ भवन, विशाल मन्दिर के शिखर, विशाल वृक्ष और विशाल ध्वजाएं दिखाई दे रही है ना तुम्हे ?'
"हाँ हाँ । दिखाई दे रही है ? ___ 'यह प्रदेश हमारे महाराज का है । जिनका प्रचण्ड प्रताप नहदिशि उज्जवलित हो रहा है जिनको हु कार मात्र से और जमीन करोदने लगता है और अपने को मरा हुआ सा समझ बैठता है। जिनके पादेश से सूर्य उगता हे और छिपता है जो वीर हैं, धीर है और महादानी व रक्षक भी ।" मैं उनका दूत हूँ।'
। तो अब तुम क्या चाहते हो ?'
'मुझे माझा मिली है कि आपको प्रागे न बटने दू । श्रापको सेना के द्वारा गु जाऐ हुए जय जय कार से ही हमारे महाराज ने अनुमान लगा लिया कि कोई अाक्रमणकारी है। आप बिना रण पोगत दिलाए यो मागे नहीं बट माते ।
'और यदि गण कोगन न दिखाया जाए तो " ' तो प्रापको वापिस ही लोट जाना उचित है।'
"दूत महोदय । श्या पापो सुना नहीं कि भरत महाराज भारत के घर पपी में से अधिकतर पर अपनी यिय प्राप्त कर
पोरगव शेप रा पर विजय प्राप्त करना पठिन नही गर गया। जाग्रो । मह दो अपने महागारमेहदे भी गपना गाऔरल दिलाने में लिपारी पारे।"
"यर
टोको पारेमा थारा गोगन सभी देनी पाप गारगे या तो अन्या
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( १०३ ) है कि जैसी आपकी शान है उसे सम्भाल कर वापिस चले जाये ?" ____ "चुप रहो । हम और विशेष सुनने के प्रादी नहीं है ।" सेना पति गरज उठा। ___"आपकी इच्छा ।" कहकर दूत लौटने लगा। तभी सेनाति ने पुन पुकारा...
"सुनो।" "कहिये ।"
"तुम्हारे महाराज को कहना कि सद्बुद्धि धारण करे । और आकर भरत महाराज की आधीनता स्वीकार कर ले । क्यो हिंसक प्रवृति को बढावा दिया जाये ।" और युद्ध होने पर भी अन्त मे यही होगा कि तुम्हारे महाराज को झुकना ही पडेगा।"
यह सब कुछ सुनकर दूत तिलमिला उठा । पर कर कुछ नहीं सका। अपने आप में फुकारता हुआ लौट चला । भरत महाराज ने प्रत्युत्तर आने तक के लिये सेना को वही रोक दिया ।
कुछ समय पश्चात एक विशाल सेना आती हुई दिखाई दी। गगन मण्डल धूल से धूसर हो गया । घोडो की टाप भयकरता लिये हुए सुनाई देने लगी।
विना विचारे इस प्रदेश के राजा ने रणभेरी वजवा दी और युद्ध प्रारम्भ करवा दिया । धनुपो को झकार तरकसो की कुंकार भयकरता लिये हुये कानो को फाडे जा रही थी । भरत की सेना भी टूट पड़ी | अव क्या था युद्ध ने भयकरता अपना ली।
भरत के प्रतिद्वन्दी पछाड खाने लगे । उनकी सेना कुचली जाने लगी । अपनी सेना को क्षीण होती देख राजा घबरा गया
और अव सुमति जागने लगी । विचारने लगा___ "अवश्य ही यह कोई महान विजेता है । महान वीर भी है । तभी तो विजया पर्वत को पार कर यहाँ पाया है। इससे और ज्यादा भिडना हानिकारक ही होगा 1 - ऐसा विचार कर वह भरत के
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( १०८ )
चरणो मे आकर झुक गया ।
युद्ध वन्द होने की भेरी और विगुल बज उठा । सेना जहाँ की तहाँ शान्त खड़ी रह गयी | और आपस मे गले मिलने लगे । राजाओ ने महाराज भरत को पूजा को । अपनी कन्याऐ भेट की ।
“जय भरत 111"...की नाद अब अनेक कण्ठो से गुंजित हो उठी । गगन मण्डल भी काप उठा ।
+
यह उत्तराखण्ड का प्रवेश था । सेना यहां पर विजय प्राप्त करके आगे बढती जा रही थी। और विजय प्राप्त करती जा रही थी। कुछ ही काल मे भरत ने उत्तरा खण्ड पर भी विजय प्राप्त कर ली ।
अब चारो दिशाओ के छह खण्ड पर भरत का साम्राज्य था । उत्तर शिखर पर विशाल हिमवन पर्वत पास ही था । उसकी छटा देखने सेना भी आगे वढी ।
कैलाश पर्वत भी यही है । प्रत ज्यो हो कैलाश पर्वत निकट आया कि मानस्यम्भ दिखाई दिया । ध्वजाये फहराती हुई दिखाई देने लगी। दुन्दुभि वजने की ध्वनि सुनायी देने लगी ।
"क्यो "
क्योकि भगवान आदिनाथ अपने समवशरण मे विराजे हुए है। विशाल व रमणीक कैलाश पर्वत पर विराजे हुए भगवान श्रादिनाथ तप मे लीन ये 1
सभी ने भगवान श्रादिनाथ के दर्शन किये पूजा स्तुति की ।
कैलाश पर्वत पर कृत्रिम विशाल जिन स्तम्भ के दर्शन करने की भी उत्कण्ठा हुई । भरत महाराज ने विचारा कि में ही छ सष्टो का विजेता है । अत मेरे ही हस्ताक्षर इन स्तम्भ पर होंगे ऐसा विचार करता हुआ भरत स्तम्भ के पान पहुंचा। पर ज्यो ही लम्भ को देखा तो भरत नवाक रह गया । यहाँ तो इतने ताक्षर
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की श्रीर
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( १०५ )
हो रहे हैं कि दूसरे हस्ताक्षर करने को स्थान ही नही है । भरत का मान घट गया। तब सिर नीचा किये किसी एक का हस्ताक्षर मिटाकर अपने हस्ताक्षर किये ।
ध्रुव सम्पूर्ण विजय प्राप्त करके भरत वापिस अयोध्या को लौट रहे थे। साथ में अनेक निधियां थी। जिवर से भी प्रवेश करते .."जय भरत । जय भरत ' का नारा गूज उठता । भरत की पूजा की जाने लगी । भेट दी जाने लगी ।
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१९-जब भाई से भाई भिड़ही पड़े
"महाराज भरत दिग्विजय प्राप्त करके वापिस पधार रहे है ।" ऐसी प्रिय, उत्साहवर्धक, आनन्ददायक, और भगलकारक सूचना को सुनकर अयोध्या का कनकन नाच उठा । जिध्र देखो उधर ही बच्चे से लेकर वृद्ध तक के चेहरो पर प्रसन्नता की लाली छाई हुई है । प्रत्येक के हृदय मे एक नयी उमग की तरग उठ रही है । अयोध्या का द्वार-द्वार गली-गली कौना-कोना सजाया जा रहा है । स्थान-स्थान पर शहनाई स्वागत गान गा रही है ।
अयोध्या का मुख्य द्वार प्राज फूला नहीं समा रहा है । असस्य नर नारियो का समूह महाराज भरत के स्वागत को आतुर हो प्रतीक्षा मे खडा है । मधुर वाद्य बज रहे है । कानो कान सुनाई न पड़ने वाली अनेक चर्चानो का कोलाहाल मचा हुआ है । सबके चेहरे पर प्रसन्नता, उत्साह, प्रानन्द और नई उमग की हिलोरे अपनी मधुर मुस्कान की फुहारे बरसा रही है।
तभी गगन मण्डल मे धूल के प्रसय्य करण उडते नजर 'पाये। फरणो मे सात रंग के पुप्प खिलते नजर आये । विजय-विगुल की श्रावाज सुनाई दी जाने लगी। विजय पताकाए लहराती हुई दृष्टि गत होने लगे। 'जय मरत' । 'जय भरत' का नारा सुनाई देने जगा।
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ज्यो ज्यो सभी बातें निकट होती जाने लगी त्यो त्यो ही द्वार पर खडी भीड की उत्सुकता वढने लगी। कोई हाथी पर चढकर देख रहा है। कोई घोडे पर तो कोई ऊँट पर चढकर । कोई अपनी जगह से ही ऊंचा उठ उठ कर देखने का प्रयास कर रहा है । कोई किसी के कन्धे पर चढ गया है तो कोई भवनो की छतो पर चढे
तभी विजय सन्देश-वाहक अपने द्रुतगामी घोडे पर सवार दौडा हुआ विजय-पताका को फहराता हुआ आया । और 'जयभरत' का नारा लगाते हुये सबको विजय का सन्देश सुनाया। असंख्य जन-समूह ने एक स्वर से आकाश की छाती को दहला देने वाला 'जय भरत' का नारा लगाया।
अयोध्या के मुख्य द्वार पर भरत अपनी विजयी सेना के साथ आ पहुंचे। चक्र-रत्न द्वार के बाहर द्वार के सामने ऐसे पा गया जैसे किसी ने उसे कोल दिया हो । ना हिलना और ना झुलना ।
विजय का चिह्न चक्र-रत्न सवले पूर्व अयोध्या में प्रवेश करेतभी तो महाराज भरत प्रवेश कर सकते है। पर यह क्या हुआ? चक्र-रत्न द्वार पर ही अयोध्या के बाहर रुक क्यो गया? सबके चेहरे पर हवाइया उड़ने लगी। दिल धडकने लगा।
यह क्या हुआ? • 'यह क्यो हुना?
क्या अभी दिग्विजय नहीं हुई ? नही । नहीं । ऐना नहीं हो सकता।
हा हा कभी भी नही हो सकता क्योकि चारो दिशाओ पर महाराज भरत ने विजय प्राप्त कर ली है। • तब यह चक्र-रल अयोध्या में प्रवेश क्यो नहीं करता?
समझ में नहीं आता। • पूछो । पूछो । किसी ज्ञानी से पूछो ।
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• 'हा' हा / जरूर पूछो
' 'कहो जी, आप तो ज्योतिषी है। आप ही बताइये ना ज्या वात हुई ?
• भई । मैं भी उलझन मे पड गया।' ' अरे 111 तो क्या "तो क्या?'
इधर जन-समूह मे अनेक प्रकार की चर्चानो ने जन्म ले लिया था। औरते नाक से उगली लगा लगाकर, ढोडियो को छु-छू कर अनेक बातो को मुखरित कर रही थी । भरत की विशाल सेना खामोश हो गई (जैसे विजय नही हार लेकर भाई हो) । खडी को खडी रह गई । वातावरण मे चुलबुल मच गई । __ महारज भरत भी चिन्तित हो उठे। उन्होने सेनापति की ओर देखा । मन्त्रियो की ओर देखा और अनेक राजा महाराजाओ की ओर देखा किन्तु सभी निरुत्तर से थे। महाराज भरत ने तब अपने विशेषज्ञ को बुला भेजा, नीति और निमित्त विशेषज्ञ तुरन्त प्राया और नम्र हो खड़ा हो गया।
महाराज भरत ने उससे पूछा
"वताइये । आपकी नीति और निमित्त ज्ञान इसके विषय मे क्या कहता है ?" ___"महाराज | जान पड़ता है कि छहसण्ड भू-मण्डल पर अभी कोई ऐसा शेप है जिस पर अापने विजय प्राप्त नही की है ?"
"क्या मतलब ???" भरत चौफ उठा ।
"हा महाराज | जहा ता मेरा अनुमान है वह यह है कि पोदनपुर के मामक प्रापफे माना पाहनी ने प्रापकी पालिता स्पोमानी।"
"यर न हो माता है?" "मुझे मार मागल चे महान् बनमाली । उगा
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नियम हैं कि वे भगवान आदिनाथ के अतिरिक्त किसी के भी आगे मस्तक नहीं झुकायेंगे।"
"यह उनका ग्रहकारा है।" "कुछ भी हो। किन्तु यह सच है।" "हमे इस सच को झूठ में बदलना होगा।" "मुझे तो विश्वास नहीं होता।"
इतना सुनकर भरत तिलमिला उठे। भुजाये फ्डक उठी और भौहे तन उठी। कडक कर दोले
"सेनापति II "जी महाराज !" "सेना को अाज्ञा दो कि पोदनपुर की ओर कूच करे।" "कुछ निवेदन प्रस्तुत करू' महाराज ।" "अव क्या कहना शेष रह गया ?"
"आपके नाता बाहुवली जी बहुत ही समझदार है, विशेष विवेकी हैं। क्यो नहीं म अाक्रमण करने से पूर्व अपना विशेष दूत उनकी सेवा में भेज दे।
"क्यो ? किसलिये" , दूत प्रापका सन्देश बाहुवली जी से कहेगा कि-'भरत महाराज ने दिग्विजय प्राप्त कर ली है। ऐसा कोई भी शानक शेष नहीं रहा है जिसने भरत महाराज को प्राधीनता स्वीकार को हो । प्रत आप भी चलकर भरत महराज की प्राधीनता स्वीकार करके उन्हें प्रणाम कर लीजिये।"
"सन्मति तो उचित ही है।" 'तब कहिट नया नाना है "
"दूत को तुरन्त हमारा यही सन्देश लेकर भनी पोदनपुर भेज दो। और यह भी कह दो कि दिलन्द नहीं करे।"
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{ ११० ) "जैसी आज्ञा स्वामिन् ।"
सेनापति ने एक योग्य अनुभवी दूत को पोदनपुर, महाराज भरत का सन्देश लेकर भेज दिया । महाराज भरत ने अब अयोध्या के बाहर ही एक मच और विशाल मण्डप मे विश्राम किया । सेना भी यही विश्राम करने लगी ।
अयोध्या की असख्य जनता का उत्साह फोका हो गया। चक्ररत्न द्वार के बाहर अडिग हुमा जहाँ का तहाँ अधर हो रहा था।
- X X X X
दूत महाराज भरत का सन्देश लेकर बाहुबली की सेवा में पहुंचा । बाहुबली अपने राज्य दरबार मे उस समय विराजे हुये थे। द्वार पर खडे दरवान ने बाहुबली से निवेदन किया कि"महाराज भरत के राजदूत आपके दर्शनो के इच्छुक हैं।" और तभी बाहुबली ने सादर उपस्थित करने की आज्ञा प्रदान कर दी थी।
दूत दृष्टि नीची किये हुये नम्रता से भीगा हुआ खडा था। बाहुबली ने अपनी मीठी मधुर-बाणी से पूछा"कहिये दूत महोदय । सव कुशल तो है ?"
जैसे सितार का तार बज उठा हो। एक मधुर स्वर बज उठा हो । दूत तो पानी-पानी हो गया। कुछ भी तो न वोला गया उससे बाहुबली पूछे जा रहे थे___ "भरत जी दिग्विजय करके सकुशल तो आ गये हैं ना ?... अब तो कोई भी भू-भाग ऐमा नहीं रहा होगा जिस पर उनका अधिकार नहीं हुया हो ? " हमारे लिये क्या मगल सन्देश भेजा है उन्होंने ?. पपा कोई महान् उत्सव मनाने का प्रायोजन है।" . "महाराज " दूत प्रब दृटता सराकर बोला
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"महाराज I क्षमा करे । हम तो दूत है और दूत अपने स्वामी के वचनो को निडर होकर कहता ही है । जीवन पराधीन होने से अपनी ओर से योग्य अयोग्य समझने में असमर्थ रहता है।" ___"नहीं 1 नहीं । इसमे कोई भय की बात नहीं । तुम निर्भय
होकर स्पष्ट कहो।" ___"महाराज भरत ने चारो दिशाओ मे अपनी विजय पताका को फहरा दिया है और सभी राजा-महाराजाओ ने उन्हे भेट देदेकर प्रणाम किया है । सारा गगन मण्डल उनकी जय से गूंजाय मान हो उठा है। ___ 'हाँ । हां । कहते जाओ। रुको नही ।' 'महाराज । आज हमारे महाराज भरत राजानो के सिरताज है । उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक की सभी पृथ्वी पर उनका अधिकार हो गया है । वे महान् नीतिज्ञ, विजेता, और बलशाली हैं।' ___ 'अव तुम जो कहना चाहते हो कहो। यह सब तो मैंने सुन रखा है।
'महाराज।"भरत महाराज का एक सन्देश आपके नाम, आपकी सेवा में प्रस्तुत करने को मुझे प्राज्ञा प्रदान करे।' __ 'तुम्हे आज्ञा है।'
'महाराज भरत का आदेश है कि आप अपने दिग्विजयो भ्राता के समक्ष जाकर उन्हें प्रणाम करें? और '
'क्या केवल प्रणाम करने का ही सन्देशा है "
'हा महाराज | क्योकि भूमण्डल के सभी राजायो ने उनको सादर प्रणाम किया है।
_ 'तो अव समझ में आया। भरत को अभिमान हो गया है। वह चाहता है कि मैं उसके प्राचीन होकर रहूँ। क्या वह यह नहीं जानता कि भावान आदिनाथ ने हम दोनों को राज्य दिया है।
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और दोनो को ही राजा पद प्रदान किया है । अब भरत राजा से महाराजा बन गया है और हमे राजा भी नहीं रहने देना चाहता? __'जी · जी...'
'दूत महोदय । तुमने बहुत ही वढा चढाकर भरत की प्रशस करदी है। पर यह प्रशसा प्रशसा नहीं किन्तु अभिमान की गन्ध है।
""भरत ने छह खण्ड भू पर अधिकार कर लेने के पश्चात भी विश्राम नहीं किया ?
"तृष्णा का लोभी भरत, मेरे छोटे से राज्य को भी हडपना चाहता है ?
.."मेरा छोटा सा राज्य भी उसकी आखो मे खटकने लग गया है?
"पिता द्वारा दी गई भूमि को भी छीनना चाह रहा है ?" 'नही । नही । ऐसी बात नहीं।' की वीच मे ही दूत बोल उठा।
'तो फिर क्या बात है?'
'भरत महाराज तो आपके बडे भ्राता है। आपने ज्यो ही उन्हे प्रणाम किया, वे श्राप पर अत्यन्त प्रसन्न होगे और आपको और भी भूमि प्रदान करदी जाएगी। ___'चुप रहो।' बाहुबली गरज उठे। वोले.. मैं तुम्हारे भरत महाराजा की तरह लोलुपी नहीं। लालची नहीं। तृष्णा का भिखारी नहीं । मुझे तो मेरी छोटी सी जागीर ही अच्छी है। मुझ से प्रणाम कराकर मेरा राज्य हड़पने वाले भरत से कहदेना कि बाहुबली को ना राज्य की भूख है और ना वह तृष्णा का भिसारी ।'
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'जिन्तु महागज । इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।'
'मुझे यह भी मालूम है। उनले उमकी सेना पर, उसके चकाल पर उम मार के चाक के पहिए पर उस पुण्य के कीटाण पर उनको अभिमान ना हो गया है। जायो। यह दो उससे कि वह अपना अन्तिम और विशेप बल का भी प्रयोग करले । तम उम्सा बल, उमती लेना, उमा वह चमत्ता पहिला चाक) सवयो रग भूमि में दे देगे।'
दा पुरता मा अपना मा नुह लिए जा वेग के साथ प्रस्थान कर गया।
उपर वाम्बली ने अपने सेनापति को बुलाकर कुछ सवारी मन्त्रणा पर करदी।
अन्त सेनापति निर-प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। इत प्रभी तक भी सन्देशा पर नहीं गया था । जापति न सोच न पता हा पन मापने दो गया । वह अपन ही गप से बाते कसे
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लगा
'शायद दूत पा गया है महाराज ।' 'बाहुवली भी साथ है ना।""भरत ने पूछा। 'वह तो अकेला ही आ रहा है—शायद...'
तभी दूत, पसीनो से तरबतर हापता सा पाया । मण्डप मे - प्रवेश किया और नतमस्तक होकर अभिवादन किया। सेनापति ने प्रश्न किया
'क्या बाहुवलीजी से भेट नहीं हो सकी ?" 'क्यो नही हो सकी । अवश्य हुई है।'
'तो कहो, हमारे सन्देश का प्रत्युत्तर क्या है ?"-"भरत महाराज ने कुछ तनते हुए से पूछा।
' 'बाहुबली जी तो " . ' दूत कहता हुआ घबरा रहा था। तोच रहा था कि भरत जी अभी कुपित हो उठेगे । तभी भरत जी ने पुन पूछा
'क्या कहा है बाहुवली ने हमारे सन्देश के प्रत्युत्तर में ?" 'स्वामिन् ।' दूत अब सब वृत्त निवेदन करने लगा--
'स्वामिन । वाहवली जी ने आधीनता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया है।'
'क्यो?? 'वे स्वाभिमानी है और तृप्या भी उनके नहीं है?'
'मैं उसकी प्रशसा नही, प्रत्युत्तर पूछ रहा है। कहो, उनने प्रत्युनर मे क्या कहा
"वे अापके बल, आपके चक्र, और आपकी सेनग को रणमि भ देखना चाहते हैं।' ___ 'या ? १ २' भग्न नौ मार पाए मपं को नह तुंगार । उसकी दर हिम्मत । श्या उमे यह नहीं बताया कि यहाट भूका,
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सर्व भाग मेरे आधीन हो नुका है।'
'यह सब कुछ बताने से पूर्व ही उन्हे ज्ञात था।'
'योह | 1 1.... भरत भी विचारो की लहरो पर तैरने लगे। दूत नतमस्तक होकर वापिस चला गया। सेनापति ने कुछ रहना चाहा..
'महाराज !' '..." हाँ । क्या बात है ? 'अब प्रापती क्या आजा हे?'
'सेनापति जी ! सेना को आदेश दे दो कि वह पोदनपुर की ओर कूच करदे । सारी सेना को नही, कुछ अश को।'
"जैसी त्राज्ञा स्वामिन् ।" सेनापति ने आज्ञा शिरोवार्य की। रणभेरी बज उठी 1 और सेनापति के आदेश के अनुसार सेना का मुल्य अग पोदनपुर की ओर प्रस्थान कर गया ।
पोदनपुर वा बाहो परकोटा विशाल और मजबूत था । चारो ओर खाईया थी। आज मारे पोदनपुर में उत्साह भरे वातावरण की लहर छा रही थी। शहर का बच्चा बच्चा सिपाही वना हुया था। सेना तनी हुई खडी थी। बाहुबली अपने मत्री के साथ गुप्त मन्त्रणा कर रहे थे । मन्त्री को ज्ञात था कि भरत का मुकाबिला करना अशक्य होगा" पर वाहवली जी भुकेंगे भी नहीं। तब क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । ...इस प्रकार मंत्री के समक्ष दुविधा खड़ी थी।
तभी गुप्तचर ने सन्देश प्रस्तुत किया "भरत महाराज अपनी सेना के साथ हमारी ओर पा रहे है। उनके पागे प्रागे एक चमकता सा स्र्य सरीसा चक्र भी चलता आ रहा है । महाराज भरत के रथ पर ध्वजाएं फहरा रही है। उनकी रेना में गोश पूरे रंग के साथ छाया हुआ है।"
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( ११६ ) "कोई बात नहीं?" बाहुबलीजी ने कहा । मन्नी को सम्पोषित करते हुए कहने लगे, " नेनापति को प्रस्तुत करो ?" सेनापति कुछ ही क्षणो के पश्चात् स्वयं श्रा गया ? वह भी भरत की सेना के जाने की बात प्रकट करने लगा और भाज्ञा की प्रतीक्षा करता हुत्रा खड़ा हो गया । बाहुवली ने दिया -
' नेता को तैयार होने के लिए कह दो। वह प्रत्येक क्षरण के लिए सजग रहे और हमारे प्रदेश की प्रतीक्षा करें । ने समझता हू कि वह (भरत) आक्रमण करने से पूर्व दूत को पुन भेजेंगे "
इस प्रकार सेनापति को आदेश दे हो रहे थे कि भरत के दूत ने प्रवेश क्रिया और कुछ कहने के लिए श्राज्ञा चाही । इत को प्रत्यक्ष देखकर बाहुबली नुम्करा उठे - बोले
" वा आदेश है आपके महाराज का ?"
"महाराज | वे पुन आपको अवसर दे रहे है कि तोच विचार कर रोने । उनका आदेश है कि रा मे झाप जीत तो सकेंगे नहीं फिर वो बात प्राचे बटाई जाये । छाप क्यो नही महाराज भरत से मिल लेते ?"
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"दूत महोदय । बाहुबली गरज उठे ज्यादा दढ व कर बाते सुनने का मैं प्रादि नही हूँ हमे जो सोचना था- सोच लिया पर भरत जी से जाकर कह दो कि कही ऐसा न हो कि उनका गर्व मिट्टी मे मिल जाय । श्राज तक की विजय, हार मे बदल जाय । ऐना मालूम पडता है कि उसकी नस नस मे अभिमान का जहर फैल गया है |... • जाओ । ऐमी कायरता की बाते सुनना पसन्द नही करते । उनने कहदो । कि weat भान मान को बचाकर वापिस लोट जाये ।"
२।
हूत अपना सा मुह लेकर, पैर पीटता हुआ चला गया। दोनो
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( ११७ ) सेनाओ मे रण भेरी बज उठी। दोनो मोर की सेना तनी हुई, फुकारें मार रही थी। अपने अपने स्वामी की आज्ञा सुनने को प्रत्येक क्षण मजग थी। ' भरत जी के मन्त्री भी समझदार थे तो वाहह्वली जी के मन्त्री भी। दोनों ने सेना की कार, सेना का जोश, देखा। और विचार मन्न हो गए। अपने अपने स्वामी की आज्ञा लेकर दोनो प्रोर के मंगियो ने रण छिड़ने से पूर्व एक सुझाव सम्मेलन किया इस सम्मेलन मे उपस्थित रहे। आपसी वार्तालाप हुआ । अन्त मे एक तथ्य का निर्णय क्यिा जिसका विवरण इस प्रकार है." ___ "क्योकि भरत और बाहुबली दोनो भाई भाई है, दोनो की ही सेना विशाल और विजय की प्राशा से भरी हुई है । अत ऐसा जान पड रहा है कि युद्ध जम कर होगा। तब अनेको नारियां विधवा हो जाऐगी, अनेको वच्चे अनाथ हो जाएगे, अनेक माताएँ अपने पुत्र खोदेगी और हिंसा का ताण्डव नृत्य हो उठेगा।
वीरता मे, विचारो मे, शौर्य मे दोनो भाई एक दूसरे से न्यून भी नहीं है । इनका ग्रापसी मतभेद मात्र है यह राजनीतिक तथ्य भी विशेष नहीं । तब क्यो नहीं इन दोनो भाइयो पर ही जय विजय का निर्णय छोड दिया जाय ? ___ अत यह सुझाव निर्णीत हुआ कि सेना न लडे, हिंसा न हो, अपितु दोनो भाई द्वन्द युद्ध द्वारा अपनी जय विजय का निर्णय करते । द्वन्द्व युद्ध में तीन बाते होगी अर्थात् द्वन्द्व युद्ध तीन प्रकार से होगा
(१) जल युद्ध । (२) मल्ल युद्ध । (३) दृष्टि युद्ध । मर्थात् वे दोनो जल में घुसकर युद्ध करेंगे और एक दूसरे
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को परास्त करेंगे। वे दोनो व्यापम मे कुन्ती लडेगे और एक दूसरे को चित्त करेंगे। वे दोनो प्रापन भेदृष्टि मिलाएंगे योर एक दूसरे की दष्टि को डगमगाने का प्रयास करेंगे। इस प्रकार तीनो युद्ध मे जिसकी विजय हो जाएगी वही विजयी कहलाएगा।'
यह सुझाव पान कर-मन्त्रियो ने दोनो भाइयो के पात अलग अलग से भेजा और सम्मति पाही । दोनो ने इस सुझाव पर गहनता से विचार किया । बाहुवलो ने यह कहकर वह मुभाव पत्र वापिस कर दिया कि पहले भरत ही इसको स्वीकृति प्रदान करे। क्योकि प्रथम प्रवनर मैं उसे ही देना चाहता हूँ।
सुझाव पत्र भरत जी के पास ले जाया गया । भरत जी ने उसे बार बार पता और विचार किया --" सुझाव है तो ठीक । पावली मुझसे तीनो युद्धो में मात खा जायगा - नवसे बडी मात तो मेरा चक्र ही देदेगा। . सोचकर भरत ने स्वीकृति प्रदान कर दी।
भरत की स्वीकृति मिल जाने पर बाहुबली ने बिना दलील के स्वीकृति दे दी। और अब दोनो ओर की सेनायो को युद्ध न करने का आदेश दिया गया।
सेना चौक सी गई । पोदनपुर का नागरिक चोक उठा। स्यो? स्यो क्या बात हुई ' युद्ध क्यो नही हो रहा है ? क्या बाहुदली जी ने प्राधीनता स्वीकार कर ली ? .. • पर बाहुबली जी ऐसा कभी नही कर सकते । वे पराधीनता की जजीर कभी भी अपने राज्य के गले मे नहीं डाल सकते । तो . •तो .फिर." बात क्या हुई ? ...."प्रत्येक कोने से अनेक चर्चा मुखरित हो उठी।
तभी दिगुल बजा । चर्चाए शान्त हो गई। हाथी पर बैठे एक हलकार ने सूचना पढ़ी।
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( ११६ )
'चव युद्ध सेना मे नही होगा। मारकाट नही होगी । श्रपितु युद्ध व दोनो भाइयो मे होगा । अत मान्ति और निर्भयता से रहो और दोनो के मल्ल, जल थोर दृष्टि युद्ध को शान्ति से देखो ।'
'घरे ! | " सेना, नागरिक, सब देखते के देखते ही रह गए । यह ग्रनोखी घोषणा सब को चौका उठी। सब प्रसन्न हो उठे और निर्धारित स्थान पर अपार भीड जमा होने लगी। उधर दोनो भाई, तीनो युद्ध के लिए तैयार हो रहे थे। दोनो ओर की सेनाओ, नागरिको को अपने-अपने स्वामी की विजय पर पूर्ण विश्वास था दोनो ओर से अपने-अपने स्वामी की जय की ध्वनि गुज उठी ।
दोनो ओर के दो महामन्त्री इनके निर्णायक निर्धारित हुए । युद्ध होने से पूर्व भरत के प्रधान सेनापति जय कुमार ने एकान्त मे सन्धि के लिए मंत्रणा भी की । निवेदन भी किया कि भाईभाई हो कर यो लडना शोभा की बात नहीं । यदि श्राप जैसे ज्ञानी पुरुष ही र्यो लडेगे तो प्रजा का क्या होगा ?
भरत ने भी विचार तो किया पर दिग्विजय का प्रलोभन शान्त न हो सका । 'ग्रह' ने भरत को शान्त न होने दिया । सेनापति और मन्त्रियों के समझा तुझाने पर भी भरत ने अपना विचार नही बदला |
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बदले भी कैसे ? जिसके दृश्य पर अभिमान ने पैर घर रखा हो, जिसके विचारो मे 'ग्रह' ने जहर घोल रखा हो, जो शान का भूखा हो भला वह कैसे हित की बात सोच सके। उसकी दृष्टि मे तो हित स्वय की विजय मे ही होता है । वह तब यह भी नही सोच पाता कि न्याय की तुला मे क्या रखा है ?
सेनापति और वृद्ध मन्त्रियो की बात सुनकर भरत जी मात्र
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अट्टाहाम कर उठे। बोले
'फायर कही के । क्या तुमको मेरे पर विश्वास नही रहा ? स्था मुझे तुम सबने निर्बल समन लिया है ? यदि बाहुबली अपनी इतनी आन मान रखता है तो उसे इसका मजा चखाना ही चाहिए । मेरा निर्णय अटल है। जाम्रो व्यवस्था करायो।' ____ xxxx
सर्वप्रथम 'ज्ल युद्ध होना तय हुआ । गहरे और स्वच्छ शीतल पानी से भने विशाल रमणीक कुण्ड में इस पद की व्यवन्या की गई थी। गेजन की नाप के विशाल विस्तृत क्षेत्र में निर्मित यह कृष्ण्ड प्रन्यन्न सुन्दर था। इसके किनारे पर बने छायादार विशाल कक्षो मे जन समूह-यद के दृश्य को देखने को उमड रहा था। मामा मच पर दोनो पक्ष के निर्णायक, सेनापति, उ अन्य अधिकारी गण निराजे हुए थे। तभी । ___ हाँको नभी विगुल बजा और उस विशाल कुण्ड मे-जमे को पहाड मार गि हो । वैसे ही दोनो भाई उतरे। शारीरिक बनावट की ष्टि मनरल ठिगने और छोटे थे-पर बाहुबली विगा गय लाने और ऊचे पुरुप थे। भरत ने जल युद्ध वो प्रारम्म परत हुए पानी को वाहनी को और उजालना शुरु कर दिया।
भरत जो पानी डालता तो ऐसा ज्ञान होना जैसे समुद्र में दृतान प्रा गया हो। उन समूह 'ज्य भरत' 'जय भरत' कोल ॐ। बाहुबली पत्राा परे । पानी में मार पय ने मदन कर -थे।
वाली से पाये जन गारो भी गाली पो पाती माता -और नागा उनमा गरिएकाको पायर में बने पदमा दा भली पन वाले उदात्र
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से होने लगे।
भरत पानी उमाले जा रहा था। एक क्षण को भी साम नहीं ले रहा था। वह दोध की प्रति मूनि वने तूफान सडा कर रहा था। तभी ·
तभी बाहुबली ने भी अपने हाथ, पानी पर मारे। ज्यो ही पानी पर मुक्का मारा तो पानी सफडो धनुप ऊपर उछल गया। भागे गरजना सी हुई। कुछ क्षणो तक बाहदली पानी उघालते रहे तो भरन की अखि भरने लगी और भरत ने व्याकुलता का अनुभव किया।
व्याकुल होना स्वाभाविक भी था । क्योकि कद में भरत छोटा और बानुबली बटा था । जव भरन पानी के छोटे मारते तो वह वाहबली के वक्षस्थल पर ही जाकर टिक जाते। किन्तु जब चाहुवली पानी की मार करता तो मरत के मुंह पर जाकर टिकता । मरत व्यय और भी व्याकुल होने लगा। वह बार-बार मुह छिपाने लगा।
वाहवली के पक्ष वाले उछल पडे और जय वाहवली। जयबाहुबली ।। का नारा बुलन्द करने लगे । भरत की पक्ष वाले अब निराग से होने लगे। तभी ___ तभी भरत ने पीठ दिखादी । पानी की मार से एक दम मुह फेर लिया । भरत ने हार मान ली थी। निर्णायको ने बाहुबली की विजय घोति करदी।
सारा भमण्डन नाच जा । सब शोर से भरत और बाहुवली के हार जीत की चर्चा चल रही थी। दोनो पानी मे वाहर पाए। सभी जनसमूह ने दोनो का स्वागत किया।
कुछ समयान्तर पर दृष्टि युद्ध होने वाला था। एक विशाल भौर रमणीक मण्डप मे इस युद्ध की व्यवस्था की गई थी। मण्डप
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( १२२ ) के ठीक सामने रत्न, मणि रचित मच था—जिस पर झालरे, मोती, और मणियो की लडिया चमक रही थी। विशाल मण्डप मे सुगन्धि प्रसारक व्यवस्था थी। जन समूह के बैठने की सुन्दर व्यवस्था थी।
__ मत्र के पास ही एक ऊँचे आसन पर सामने निर्णायको के लिए बैठने की व्यवस्था की । मण्डप मे दर्शक गणो की अपार भीड के लिए बैठने की भव्य व्यवस्था की गई थी। ___ समय का बिगुल बजते ही मच पर भरत और वाहुबली पहुचे । पूर्ण साज शृ गारो से सजे हुए दोनो महेन्द्र लग रहे थे। दोनों के चहरो पर प्रसन्नता की प्रवीर विखर रही थी। मच पर आते ही जन समूह ने जय-जय की ध्वनि गु जायमान करदी। सवकी दृष्टि मच पर लगी हुई थी। पीछे वाला अपने से आगे के ऊँचे सिर को थोडा नीचे करने को बाध्य कर रहा था।
युद्ध प्रारम्भ का विगुल बजा और दोनो प्रतिद्वन्दी नामने सामने खड़े हो गए । कमाल का दृश्य था यह । दोनो की दृष्टियां एक दूसरे की दृष्टि पर पाटिको । निर्णायको ने प्रत्येक क्षण का ध्यान रखा कि देखें किसकी पलके पहले टिमटिमा जाती हैं । क्यो कि दृष्टि मिलाते रहने पर जिसको पलके पहले टिमटिमा गई या भापक गई तो उसी को हार निश्चित थी।
क्षण बीते, पल पीते और समय बीता ! दोनो एक दूसरे को हराने को उग्रत थे । भरत यहा भी व्याकुलता का अनुभव करने लगा। उसकी गरदन दुखने लगो। नेत्र भारी-भारी होने लगे। इसका पारग .
-सका कारण पर पा कि भरत कद में छोटा और बाहुबली पसा होने में नेत्र मिलाने के लिए भरत को प्रासे के घी करनी पी नरनि वायली को आगे नीचे की ओर थी।
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( १२३ ) कब तक प्रांखे ऊपर उठी रहती। इस युद्ध मे भी भरत मात खाता दिखाई देने लगा। देखते ही देखते भरत के नेत्र डव डवा प्राए और पलके टिम टिमा उठी । भरत की हार, और बाहुवली . की विजय घोषित हुई। ___ गगन मण्डल पुन 'जय वाहुबली' की नाद से गज उठा। सब ओर भरत की निन्दा और बाहुवली की सराहना हो उठी। कोई कोई कहता ". • अजी । इस हार से क्या होता है। मल्ल युद्ध मे देखना-बाहुबली चित लेटता दिखाई देगा। भरत भी आखिर फौलाद का बना हुआ है।
कोई कहता " अरे रहने दो ! जिसने दो युद्धो मे पीठ दिखादी वह अब तीसरे मे क्या निहाल करेगा? उसे तो हार मान ही लेनी चाहिए। ___ कोई कहता “ सेना के बल पर ही दिग्विजय करने का सपना देता है भरत ने , आज मालूम हुमा है कि लडभिडना क्या होता है।
'मुण्डे मुण्डे मतिभिन्ने" की उक्ति के अनुसार विभिन्न तरह की बात हो रही थी। ____ अव मल्ल युद्ध की तयारियां हो रही थी। विशाल अखाडा तैयार किया गया। जिसमे दोनो वीर मल्लयुद्ध के वस्त्र धारण किए आ धमके। दोनो ही जैसे बब्बर शेर हो।
मासल और गठीला शरीर देख देख कर नारियां स्वभावत मचल उठी । कायर थर थर कॉपने लगे ! वीर की वॉछे खिल उठी। दोनो का ही शरीर सुडोल, गीला और उभरा हुआ था।
निर्णायक भी उस अखाड़े मे इतरा हुआ था। दोनो को तंमार देखकर प्रारम्भ का विगुल बज उठा। विगुल के बजते ही
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( १२४ ) जैसे दोनो शेर दहाडवर निड उठे। ____ अनेक प्रकार के दाव-पैच जानने वाले दोनो भाई एक दूसरे को 'चित' करने की ताफ ने मे मुतो की मार एक दूसरे पर ऐसे पड रही थी जैसे वज्र के मुन्दर बज रहे हो।
दर्शक गण वडे उत्साहित हो रहे थे। उछल रहे थे, ताली पीट रहे थे, ज्य गेल रहे थे और अपने अपने अनुभव के दाप पैच का इशारा भी कर रहे थे। दर्शक इतने तल्लीन थे कि उनके मल्ल युद्ध की क्रिया को अपने मुखो, हायो ने उठा उठाकरता मे मार रहे थे । किती फिनी ने तो पान में बैठे हुए के ही मुका 'ज दिया।
भयंकर और दिल दहला देने वाला मल्ल युद्ध मनुष्य ही देख रहे हो सो वात नही--अपितु स्वर्ग के देव भी गान-घरा से देख
रहे थे।
भरत ने कमाल का वीर्य शौर्य और बल का प्रयोग न्दिा । यद्यपि दोनो चरमशरीरी थे। पर बाहपली दिशेष भीमकाय वाले थे—अत भरत लड खडाने से लगे । पर वार वार सम्हल भी जाता । बाहुबली ने अनेक बार भरत को अवसर भी दिया पर ज्यो ही भरत सम्हलता त्यो ही वाहुबली पैच दाव लगागर भरत को बस ने कर लेते।
देखते ही देखते बाहुबली २ भरत को अपने दोनो हाथो ने पे से ऊपर उठा लिया। चारो ओर से हाहाकार नव उठा। अनेक प्रकार की प्रति ध्वनियों सुनाई देने लगी।
भरत की हार निश्चित थी। वह तिलमिला रहा ग-पर करता भी क्या? तभी बाहुवली ने भन्त को पृथ्वी पर डाल
दिया।
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( १२५ ) भरत एकदम खडा हो गया और मार खाए भयकर सर्प की तरह फुकारे मारने लगा। करता भी क्या ? कोई भी तो चारा नहीं था उसके पास तभी .."
तभी उन्हे अपने चक्र की याद आई । बिना सोचे समझे ." उतावले और क्रोध की आग मे भूल से भरत ने चक्र—बाहुबली की ओर छोड़ दिया ! चारो तरफ से हाय हाय की करण ध्वनि कैंप उठी। भरत जी ने यह क्या किया ? भरतजी ने ऐला क्यो किया ? अादि बाते होने लगी। ___ निणयको ने भी इसे अनुचित कहा। सब ओर से भरत की निन्दा की जा रही थी। सब स्तब्ध से खडे थे-सक्दो यह चिन्ता हो उठी कि-~अब बाहुबली मारे जाएंगे क्योकि चक जिस पर चल गया वह जीवित रह ही नहीं सकता। __ पर यह क्या ? .. · चक्र भरत के हाथ से छूटा तो बाहुनी की परिक्रमा देकर बाहुबली के हाथ मे पानार रुक गया। समोर जय, जय की महान् नाद गूज उठी देवगण युप्प वरसा उठ और बाहुबली की विजय घोषित कर दी गई। भरत शरम के मार मरा जा रहा था। वह आज महान् पराजय ले चुका था । बाहुना मुस्करा रहे थे। तभी बाहुबली बोले . ." __ "शाबाश भैया । नाज तुभने यह दिखा दिया है कि राज्य लोलुपता मनुष्य को कितना निरा देनी है। तुमने यह भी विचार नहीं किया कि यु. करके मालिर मिलेगा क्या ?
एक भाई यो परास्त करक मान तुम्हारी लोलपता की श्री तो पूर्ति होती ... जोवन सी कौन सी मफलता मिलती तुम्हे ? ___ रचनाते वक्त यह भी तुमने नही विचारा मि यह चक्र जिस पर भी वार करता है --उने मातु की गोद मे ही सुलाकर घोता है । पौर तुमने मुझे मृत्यु की गोद मे सुलाने के लिए ही
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( १२६ ) चक छोडा" । क्या तुम्हारी राज्य लिप्सा ने भाई का प्रेम भी भुला दिया?
जब तुम तीन न्यायिक युद्धो मे परास्त हो चुके थे तो मात्र अह की चादर ओढे तुम्हारे विचारो ने तुम्हे अन्याय का युद्ध करने को पुकारा और तुम हत् बुद्धि हो उठे।
पर तुम यह नहीं जान सके कि यह चक्र अपने सहोदर पर, चरमशरीरी पर, मुनि पर, और परिजन पर नहीं चला करता। तुमने क्यो अपने विचारो को घृणित कर डाला । प्राज ससार मे बतायो तो कौन इस गार्य की प्रशसा कर रहा है। ___ ओफ ! | | राज्य, सम्पदा, और घोथे मान सम्मान के लिए मानव अपनी मानवता का गला क्यो घोट बैठना है। वह क्यो अपनत्व को भूलकर जगत-जाल में फंस जाता है ? ___धिक्कार है । विक्कार है।। विवकार हे इस समार के प्रपच ने । सनल समय से भटकती यह यात्मा सयोगदा मानव देह पाती है और इसे भी यह सासरिक वासनानो की जहरीली गन्ध से यह दूपित कर बैठती है।।
धिक्कार है लोभ, लालच, लालसा और लिप्सा को जिसके कारण भाई भाई को मारने तो तैयार है।
विककार है इत्त माया मोह के मिथ्या जाल को। जो मात्र हवावा ह । घोरण है एक भूत भुलया है।
फिर भी तुमने मेरे हित मे भला कार्य किया है। तुमने मुझे सोते ते भगा दिया है। तुमने मुझे मनार की अनलियत दिखा दोहै। तुम धन्य हो । नो, सम्हालो अपने च को और हम कासकोट सम सम्पदा को मुझे पान अपनल मा भान हो गया । मुझे अक परना भी क्या ।
में पा प्राम शरण के पथ पर चल गा। अयम
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( १२७ )
घृणित जग कीचड़ से निकलना अच्छा समझता हूँ ।"
और देखते देखते बाहुबली जी ने उदासीनता की छाया मे चैराग्य कवच को धारण कर लिया। बाहुबली भगवान आदिनाथ के चरणो पर गया और दीक्षित हो गया ।
भरत 1 वह परास्त हुग्रा भरत भुका जा रहा था । वह नम्र हो उठा था और अपनी भूल उसे ज्ञात हो चुकी थी । पर करे भी क्या ? खैर पोदनपुर पर विजय ध्वज फहराकर यहाँ का राज्य अपने पुत्र को देकर प्रस्थान किया ?
X
X
X प्रयोध्या वासी प्रतीक्षा मे थे कि कव पोदनपुर से समाचार श्राए । तभी विजयपताका फहराता हुआ सन्देश वाहक याया और जय भरत । जयभरत का नारा बुलन्द करता हुग्रा अयोध्या के द्वार पर आकर रुक गया ।
योध्या वासियो ने विजय सुनी तो नाच उठे । आज अयोध्या पुन सज उठी ।
मंगल वेला मे भरत ने श्रपने विजय चक्र के साथ अयोध्या मे प्रवेश किया ।
श्राज आनन्द योर सुस की लहर अयोध्या में छा रही थी । भरत प्राज छहखण्डाधिपति बनकर चक्रवर्ती हो गए ये 'भूमण्डल के कोने कोने में भारत की ही यश-गाथा गाई जा रही थी। देश के कौने कौने से राजा महाराजा गरा उपस्थित थे और भत arcfrषेक किया जा रए था।
रति स्वमण्डित और भव्य व रमणीक दिन
गण्डाल बनाया गया था। जिन लो
संचालन भरा हुआ था।
पर
गौरव भरी उमय मोर पर विभिन्न मात्रमादि
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( १२८ ) छा रहे थे।
सर्वोच्च नामाज्य सिंहासन पर भरत विराजे हुए थे। चमरवाहक, पवन सचारक, एव सुगन्यि प्रशारक, सेवक अपना अपना कार्य मुग्ध होकर कर रहे थे। याग भरत को चकवर्ती पद से विभूषित किया जा रहा था। अद इन्हे भरत नहीं, अपितु महाराजाधिराज चक्रवर्ती राज्य सम्पदाधिपति नन्त कहा जा रहा था। ____ अमरानो से नी सुन्दर रनगिया अपने गौर एव नरम पैरो में मवर कार को पागल यान्ये वेसुध हुई नृत्य कर रही थी। मगत जी मवुर तान ने नारा वातावरण नाच उठा था। चागे पर एक वसन्त की बहार छा गई थी। ___ अाज प्रति की प्रत्यक रचना अपनी-अपनी भाग में नीत सुना नही थी। पवन का मन्द मीठा नग, नदियो का हार,
मद, वृष, ततालो की कमी डानियों की परसराती यान, विनि, उद्यान, पाटिका आदि में नरन र विगे पुणे
मिली ली मस्तनमा चौर पृन्त्री पर मर मन का विधाना विहाए हम लोमन्न-वाल धान की शरिचालीमा कुन मिलाकर मोट प्रकट कर रहे थे।
मान् उमा स्वर पाच नग्न के इर्द गिद, रोम रोम, में नमाया गया। चयी भग्न को भापति शी भला कौन गपन रानी माह सकता है?
किसान बार तो जिनो जियपी। इनमे ने वनीन हजार तो आई , वत्तीय हजार दिया, जिनमो जान-यन पर देनी ने इन्सुन भी थी, एव चीन रजा न्यानो पर ने गुगमन न्याना की। म्हागज भरत के आसन
प र बर निक नजारमा र नाम (राजा) मानन में
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( १२६ ) आधीन थे। इनके चोससीलाख हाथी, चौरासी लाख ही भव्य रथ थे। अठारह करोड घोडे और चौरामी करोड पैदल सेना थी। ___बत्तीन हजार देश में वहत्तर हजार नगर और छियानवे करोड गाव थे । निन्यानववे हजार तो द्रोण मुख (बन्दरगाह) थे । अड़तालीस हजार पत्तन, सोलह हजार खेट थे । छप्पन अन्तरहोप थे 1 चौदह हजार ऐसे गाव ये जो पहाडो पर बसे हुए थे।
विस्तृत और विशाल सेतो के लिए एक लाख करोड तो 'हल' थे जिनसे खेत जोते जाते थे। तीन करोड गाए थी। सातसो तो ऐसे विशाल भोर भव्य भवन थे, जिनमे सदैव रलो का व्यापार करने वाले व्यापारी ठहरा करते थे।
इनके अधिकृत अठाइस हजार वन थे । अठारह हजार म्लेच्छ राजा-महाराज भरत के सेवक थे। महाराज भरत के पास नौ निधिया थी जिनका नाम कमश काल, महाकाल, नैसर्ग्य, पाण्डुक, पद, माणव, पिंग, शख, और सर्वरत्न था। ___चौदह रत्न जिनमे सात अजीव-चक्र, छत्र, दण्ड, असि, मणि, चर्म, और काकिरणी तथा सात सजीव-सेनापति, गृहपति, हाथी, घोडा, स्नी, सिलावट और पुरोहित-पृथ्वी रक्षा और ऐश्वर्य के उपभोग करने के साधन थे।
इस प्रकार अनन्त राशि के धनी महाराज भरत आज सर्वसम्पन्न थे । अपने साठ हजार वर्ष मे छह खण्ड भू पर दिग्विजय प्राप्त की थी और आज अयोध्या वापिस आए थे।
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१० सम्राट भरत की सामाजिक
और राजनैतिक व्यवस्था
कोलाहल और सपर्ष के अनेक वर्ष के पश्चात अाज भरत गपने ही विश्राम-कक्ष में सुख की सेज पर विश्राम कर रहे थे । छियानवे हजार रानियो मे प्रमुख पट्टरानी महाराजी 'सुभद्रा' महाराज भरत के पास ही विराजी हुई थी । अाज दोनो शान्त थे, प्रसन्न थे, और गौरव की गरिमा से फूले हुए थे। दोनो अपने-अपने मोद मे लीन हो रहे थे।
सहसा सुभद्रा ने महाराज भरत के मुख की ओर निहारा तो ज्ञात हुआ कि जैसे महाराज कुछ चिन्लन के क्षणो मे खोए जा रहे है। उसने पूछा
'क्या चिन्तवन हो रहा है स्वामिन् '
'। प्रोह ।' भरत कुछ चौके । फिर कहने लगे'प्रियं । तुम कितनी पुण्य शालिनी हो । इतना वैभव, उननी सम्पदा, इतना ऐश्वर्य आज तुम्हारे चरणो पर विसरा पटा हुआ है।' ___ पर क्या पापको ज्ञात नहीं कि यह पुष्य पाया कहा से ?' एक मधुर मुस्कान पिसेरती हुई रानी नुभद्रा ने पूना।
'ना · ।' भरत ने चुप संचते हुए कहा । "में वताले ?
हा हा प्रवश्य बतायो।' 'यह पुष्प आरा धारे पास से ।'
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'अरे । ।
'चौकिए नही प्राणाधार । पाप पुण्य के भण्डार है । मैं तो आपकी दासी हू ।'
'ग्रोह | तो यह बात है।' महाराज भरत व्हिस उठे । पुन पूछने लगे
'रानी । एक बात छु ।' 'पवश्य पूछिए स्वामिन् ।'
'हमारे पास अटूट सम्पत्ति है । पर इसका उपयोग यदि हम उपकार मे करे तो कैसे करे ?'
'इसमे उलझन की बात ही क्या है ? प्रत्येक स्थान पर नागरिको की सुविधा के लिए विभिन्न प्रसाधन बनवा दीजिए। दानशाला सुलवा दीजिए । रक्षा-निधि के भण्डार स्थापित करवा दीजिए और याचको को मुंहमागा दान दीजिए।'
'यह सबतो होता ही है।' 'तो फिर क्या शेप रह गया।" 'बताऊं। 'हाहा । अवश्य बताइए।,
'मेरा विचार है कि एक वर्ग ऐसा बनाया जाय जो स्वय सयमी हो, पठनपाठन मे लीन हो और प्रत्येक मनुष्य को सुसम्वृति को शिक्षा दे।
'उत्तम । अत्युत्तम । आपका यह विचार तो महान् उत्तम है महाराज।'
'लेकिन ऐसा वर्ग बनाया कहा से पाय ! हिसको बनाया जाय ? पासे बनाया जाय?" ___'अाप इसके लिए निश्चिन्त रहिए प्रभो में एक सप्ताह के मन्दर भाप कीमा का समाधान निकालने में सफलता प्राप्त
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}
कर लगी ।'
( १३२ )
'तो क्या मैं निश्चिन्त रहूँ "
'जी स्वामिन् ।'
'क्या मैं भी कुछ सहायता तुम्हे दे सकता हूँ "
अवस्य । आप कल ही पुरोहित से निमंत्रण देश के प्रमुख -
प्रमुख नगरो के नागरिको को दिलवा दीजिए ।'
'तिमवरण | किसबात के लिए "
'भोजन के लिए ।' 'क्यो ? ? ?'
'यह अभी नही बताया जाएगा ।'
'प्रोह ।' भरत विहँस उठे और बोले—- ठीक है, में भी आपकी इस कार्यक्रमका की सूचना मत्री को देता है। जैसा भी उचित समझो कर लेना ।
मंत्री को बुलवा कर सुभद्रा महारानी की प्राज्ञा जैमी थी वह सुनादी । मत्री ने शीघ्र ही प्रमुख प्रमुख नगरों के प्रमुख प्रमुख
arefoot को निश्चित तिथि कर भोजननिमत्रण दिलवा दिया । ज्योहि आमंत्रितो ने निमंत्रण प्राप्त किया त्यो ही प्रसन्नता से भोजन में शामिल होने की तैयारिया करने लगे ।
आज वह तिथि है, जिस तिथि को विशाल भोजन व्यवस्था होनी थी | महारानी सुभद्रा ने सम्पूर्ण व्यवस्था अपने अधीन कर लीनी थी। मनी, पुरोहित, सेवक, सेविकायें, सभी महारानी की प्राज्ञानुसार ग्रामत्रिती को विश्राम करने, भोजनशाला में बैठाने, भोजन परोसने एवं स्वागत आदि की तैयारी मे थे ।
हजारो उच्चकुलीय नागरिक या चुके थे। उन्हें विशाल विश्राम कक्ष में ठहराया गया, उनका सुरक्षित पुष्पमालाओ, जपान आदि से स्वागत किया गया । भोजन शाला में प्रवेश पाने
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( १३३ ) का निश्चित समय भी उन्हे बता दिया गया । ___ आज विशेष पर्व का दिन या। प्राय इस पर्व पर धार्मिक विचारो का पूर्ण ध्यान रखा जाता है । समय होते ही नागरिको का समूह भोजन शाला की ओर चलने लगा। विशाल और सुव्यवस्थित भोजन शाला का मडप भव्य और रमणीक था : सभी नागरिक एक साथ बैठकर भोजन कर सकते थे।
भोजन शाला के मण्डप के बाहर हरी-हरी घास जो कि लगवाई गई थी-लहलहा रही थी। छोटे-छोटे प्राणो उस घास पर विचरने के लिए छोड दिए गए थे । जनसमूह इस कृत्रिम उद्यान के उस किनारे पर रुक गया। क्योकि इन्हे दरबान ने आगे जाने के लिए महारानी जी का आदेश पाने के लिए कहा था और अभी महारानी जी ने प्रवेश होने का आदेश नहीं दिया था। तभी . ___ तभी महारानी जी पाण्डाल से बाहर पाई और नमस्कार करके सभी नागरिको का अभिवादन किया। साथ ही भोजनशाला मे प्रवेश करने का निवेदन भी किया। ___ दरवान ने उन्हें प्रवेश पाने को लिए रास्ता खोल दिया। हजारो नागरिको मे से सैकडो तो घास को रोदते हुए चले गए और सैकडो जहा के तहा रुके रह गए। ___ चक्रवर्ती भरत यह सब कुछ देख रहे थे। पर मौन थे। महारानी जी ने रके हुए नागरिको को भी आदेश दिया कि वे भी प्रवेश फरे । बैठने की व्यवस्था विस्तृत है।
किन्तु कोई भी आगे नहीं बढा। तब भरत ने पछा--- 'पाप लोग प्रा क्यो नहीं रहे हैं । , 'महाराज ' एक नागरिक ने आगे वटपर निवेदन रिया । 'महाराज । प्राप तो स्वय विदेकी है, दयालु और नवमी है । म्या पाप भी हमे भाने की याज्ञा दे रहे है”
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'क्यो ? ऐसी क्या बात है जो मैं आज्ञा नहीं दे सकता।'
'महाराज । वैसे भी आज पर्व का दिन है और हम सब बती सयमी है, हम इस वनस्पति काय के जीव को रोदना नहीं चाहते, इस पर विचरते छोटे-छोटे जीदो को मारना नहीं चाहते।'
'परे ।। 1. भरत चौक ते गए।
'हा राजाधिराज । भोजन की लोलुपता के लिए हम अपना व्रत (नियम) नहीं तोड़ सकते । यह सयम की आन है।'
'अच्छी बात है तब आप दूसरे द्वार से शा जाइए।' 'कैसे पा सरते हैं ? उपर भी ऐसी ही घास है।
तभी महारानी मुभद्रा गाई । उसने यह तब सुमवाद सुन लिया था। नम्रता और साम्य भाव से उन सबको नमस्कार किया पौर राज्य-भवन की पोर अपने साथ चलने का उनसे आग्रह किया।
सभी प्रवगेपनी सयमी नागरिक चले। मक्को भोजन पराया। गोजन को पचात् विशाल नगा भवन में हजारो पी जन माया के मध्य महाराज भन्त पन्दी ने घोषणा की
'माज हम एक मे वर्गी पापना कर रहे हैं जो मयगी होगा, सदाचारी पोर रिक्षक होगा। अहि की भावना में और पोत परिग्रह परिमारा मनात या धारी हो । जो सय
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कर्तव्य होगा । इनके खानपान, विश्राम, विहार, पठनपाठन, आदि की व्यवस्था अपन-सबको यण शक्ति समय-समय पर करनी है।
ऐसा ब्राह्मण (ब्रह्मचारी) वर्ग हम हमारे आगन्तुक सयमी नागरिको को जो आपके सामने इधर मच पर सादा वस्त्रो मोर साम्यभावो के साथ विराजे हुए है-जिन्होने स्थादर एव अस जीवो का धात नहीं करना चाहा, जिन्होंने महारानी सुभद्रा का मन्तव्य समझ लिया था - और जो भोजन लोलुपता के बस मे नही थे उन्हें कहा जा रहा है।
यह वर्ग देश के कोने-कोने मे भ्रमण करेगा। सुविचारो का प्रवाह करेगा और सयम पालने का रास्ता दिखाएगा। कोई भी वर्ग इन्हे सताएगा नहीं, मारेगा नही, फण्ट देगा नहीं, भोर अनादर भी करेगा नही । यह वर्ग एक महान् पूज्य होगा, भादरणीय होगा।' ___ यह घोपणा सुनकर जन समूह प्रसन्न हो उठा। महारानी सुभद्रा भी प्रसन्न हो उठी तो भरत भी पुलकित हो उठे। सभी ने उस वर्ग का स्वागत किया। महाराज भरत ने सब सवको सुसस्कृत कराया और यज्ञोपबति दी। ___ इस प्रकार चक्रवर्ती भरत ने ब्राह्मण वर्ग की स्थापना की। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ग की स्थापना भगवान आदिनाथ पूर्व मे कर ही चुके थे।
इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था ने जन्म लिया। प्रत्येक वर्ग अपना-अपना उत्तरदायित्व समझने लगा और एक दूसरे का हितैपी बन कर सह्योग देने लगा । ना घृणा थी, ना हेप था और ना विद्वेष था । सब प्रसन्न थे । व्यवस्थित थे और मानन्द मय जीवन बिता रहे थे।
महाराज भरत ने विशेष अध्ययन किया । जिसके द्वारा गृहास्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक तथ्यों को प्रस्तुत
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( १३८ ) वजवाए जाये, मगल मिष्ठान वितरण किया जाय। मगल गीत गाए जाये।
() निषद्या मिया-छह माह पश्चात् उत्तम आसन पर जिस पर सातिया अकित हो-उस पर-वालक को सजा धजा कर प्रथम बार बैठाया जाय । इसी दिन मे उसे बैठे रहना सिखाया
जाय।
(१०) अन्न प्राशन--नी माह व्यतीत हो जाने पर याचको को खिला पिलाकार, दानादि देकर- बालक को नन्त खिलाये । __(११) शुष्टिनिया- इसे वर्षवर्धन या सालगिरह भी कहते है। यह एक वपपर जो जन्म तिथि आती है उस दिन इन्ट बन्धु प्रो को निमवरण देना चाहिए। बच्चे का मगत सस्कार करना चाहिए ज्योति जलानी चाहिए।
(१२) केरादाप निया--पश्चात् तीसरे या पांचवे वप पर उन्नरे से बाला मुण्डन कराना चाहिए । इस क्रिया को केश चाप गिया रहते है। । (१३) लिपोरास्थान
क्यिाचवे वर्ष मे बालक को मवंप्रथम नारो का दर्शन कराने के लिए यह शिया को जाती है। इस दिन मदाचा उत्तम शिक्षक के पास बालक को भेजना चाहिए
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M
( १३६ )
(१६) सतावतरण किया— पश्चात् ज्यो ही विध्याध्ययन का समय समाप्ति पर श्राए त्यो ही विशेष नियम जो लीए गए थे उनका परित्याग करे और साधारण व सदैव रहने वाले अरत्रतादि ग्रहण करे ।
(१७) वैवाहिकी क्रिया -- समयानुकूल एवं युवा होने पर ग्राहस्थ्यावस्था मे प्रवेश पाने के लिए सुन्दर दाम्पत्य बन्धन करना चाहिए | अर्थात् विवाह करना चाहिए। ताकि वंश परम्परा का जन्म हो सके और जीवन सफलतापूर्वक व्यतीत हो सके ।
(१८) वर्णलाभ क्रिया - विवाह पश्चाताकुल के दाग न लगे । जीवन दुखमय नबने, आचरण नष्ट न हो। इसके लिए सदैव धर्म का पालन करे। दोनो अपना-अपना कर्त्तव्य का पालन करे । इससे वर्गशुद्ध रहता है |
(१९) कुलचर्या -- विवाह पश्चात् ग्राहस्थ जीवन को निर्वाध चलाने के लिए व्यापारिक कार्य करे। कुल का भरण पोषण करे । श्राजीविका का उद्योग करे ।
(२०) गृहीशिता क्रिया -- दाम्पत्य जीवन को सफल बनाता हुआ वह अपनी गृहस्थी का स्वामी वने । धर्म, अर्थ और काम की नियम से चर्चा करे |
(२१) प्रशान्ति या परचात् अपने पुत्र को ( जो ग्रब तक जन्म लेकर युव हो गया होगा ) गृह भार सोप कर आप स्वयं शान्ति प्राप्त करने का प्रयास करे ।
(२२) गृहत्याग -- परिवारिक व परिग्रहिक ममता से छुटकारा पाकर एव पुत्र पुत्रियों को समान भाग देकर उन्हें शिक्षा यादि देकर सन्यास का सा जीवन धारण करे ।
(२३) वाद्य या अभ्यास एव बुद्धि पूर्वक एकान्त चिन्तन अनन के लिए सन्यास दीक्षा ग्रहरण करे ।
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( १४० ) (२४) जिनरप प्राप्ती रिया-दीक्षा के उपरान्त शान्त भाव हो, निप्परिगृही हो, पुरपो का जिन रूप (दिगम्वरत्व) धारण
करे।
(२५) मौनाध्ययनवृतित्व-मन वचन काम की शुद्धता के लिए मौन पूर्वक रहे । ममस्त गालो का अध्ययन स्निी विशेष ज्ञानी के समीप रहकर करे।
इस तरह महाराज भरत ने गृहस्य की सफलता का परिज्ञान भी अपनी जनता को कगया।
पश्चात् समस्त राजाओं के मध्य वैठे हुए महाराज भरत ने राजनीति का भी उपदेश दिया जिससे राजा अपनी प्रजा की रक्षा कर सके । यथा -
नागरिक समाज दो प्रकार का होता है। एक तो यह जो रक्षा करता है और दूसरा वह जिसकी रक्षा की जाती है।
रक्षा करने वाला भासक होता है । और रक्षा करवाने वाली शासित जनता होती है। शासक में निम्नलिखित गुण होना नावश्यक है
(१) धैर्यता (२) भमा शीलता (३) कर्मठता (४) पक्षरहित न्याय प्रियता (५) कत्तव्य परायणता (६) सत्यता (७) निलेभिता, (८) उत्साह, साहस, एव दूरदर्शिता । (९) विवेकपूर्वक विचार शीलता । (१०) वासना और विलास से निर्लिप्तता/(११) सदैव सतर्कता।
उपरोक्त ग्यारह गुण एक योग्य शासक मे होना चाहिए । जिसकी राजा (शासक) मे उपरोक्त गुणो मे से न्यूनता है तो वह टिक नहीं सकता। उसके प्रति प्रजा (जनता) प्रनेक आन्दोलन सत्याग्रह, विग्रह, आदि कार्य पार बैठते है और वह प्रत्येक की दृष्टि से गिर जाता है।
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अन्त में होता यह है कि उसका पद पाने के लिए अन्य कई स्नुक हो उठने ह और एक दूसरे को पहाडने की कोशिश करते हुए हिमक वृत्ति पर उतर जाते है। ___ शासक को, शामन करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद अपनाने पडने हैं । अपने गुप्तत्ररो के द्वारा प्रत्येक शास्ति क्षेत्र की सूचना प्राप्त करते रहते हैं। सेना, आदि की गुन्दर व्यवस्था की जाती है। प्रत्येक नागरिक के हृदय में अपने क्षेत्र की रक्षा की भावना भरी जाती है ताकि विपम विपरीत समय आने पर बच्चाबच्चा अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए न्योछावर होने के लिए तैयार रह सके।
शासक अपनी प्रजा में पनपे अपराधो को रोकने के लिए अपराधियों को दण्ड भी देता है । पर दण्ड कोर और हिंसक नहीं होना चाहिए। उसे दण्ड उपदेश प्वक दिया जाना चाहिए अपराधी को नियमित निर्धारित समय के लिए अपने अधिकार में रखा जाय उसे उसका अपराव बताया जाय । अपराध के प्रति घृणा कराई जाय और मानवीय कत्र्तव्यो से अवगत कराया जाय।
अपराध न पनपे इसके लिए शासित क्षेत्र से बेकारी, गरीबी, ना वाजी, वेश्या वृत्ति प्रादि मिटाई जाए । ऐमें कार्य कराए कि कोई भी व्यक्ति वेकार न बैठा रहे। क्योकि बेकार बैठे रहने वाला ही अपराध करता है।
सामाजिक न्याय सबके लिए एक सा हो। किसी के साथ न पक्षपात किया जाय ।
दण्डनीति, न्यायनीति, ,
और प्रजा पालन नीति, के आधार पर शासन किया जाना चाहिए । एक शासक को उस वाले के समान होना चाहिए जो
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(१४२ ) हजारो गायो को निष्पक्ष भाव से चराता है, देखभाल करता है । हजारो गायो मे कई गायें उदण्ड भी होती है तो वह ग्वाला उन्हे, जोर से मारता नही, उसके ग्रग भी नही छेदता अपितु उसको सतुलित दण्ड से भागे कर लेता है।
शासक का पभाव उसकी प्रजा पर अवश्य पडता है। यदि शामक न्यायी, ईमानदार, सत्यवादी, सदाचारी होगा तो उसकी प्रजा भी वैसी ही होगी क्योकि-यथा राजा तथा प्रजा।
पूर्ण तरह से राजनीति के भेद प्रभेद समझाते हुए महाराज भरत ने अन्त में कहा_ 'हे राजाम्रो। अपने शासित क्षेत्र को सफल और उन्नत बनाने के लिये तुम्हे अपने जीवन मे सत्यता, सादगी, निर्लोभता और निमशता लानी चाहिये ।
इस प्रकार महाराज भरत राजा व प्रजा को सब तरह से समझाते हुए राज्य करने लगे।
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११ आज के युग का स्वप्न भरत
के नेत्रो में
निद्राहरी छाई हुई थी।, चक्रवर्ती भरत अपने सुरभित, रमणीक, भव्यशयन कक्ष में सो रहे थे। रात्रि का अखंभाग का विसर्जन हो चुका था । चारों ओर रात्री का नन्नाटा छाया हुधा था। नीद गहरी होती जा रही थी। अर्ध रात्री पश्चात् की मन्द शीतल वायु उन-उन कर प्रकाश द्वार ने प्रदेश होकर मन में छा रही थी। उत्त मस्त भरी वायु के मोके छा जाने से नीद और भी भारी होती जा रही थी। अभी भोर होने मे का पी समय था। महाराज भरत भौर होने पर मगल वाण घोर मगलस्वरण की ध्वनि सुनने पर शयन सेज पर से 'योन प्रान्त' कर नाम लेते हुए उठते थे। किन्तु
किन्तु पास अचानक ही भोर होने से भी काफी समय पूर्व ही भाले दुल गई। हृदय पटल पर एक व्यापुनता सी छा गई मोर अनहोनी सो बात देखकर भरत चौक से गये। __ रानिया सो रही थी। परानी नुभद्रा भी गहरी नौद रेगे। उनमें नाक से सुगन्य शौर नुहावनी स्वास निगल रही थी । वहा मोद के सागर में डूबा मस्त ना लग रहा था । कोरि गुनी हुई थी। यायु अपनी मन्ती नया में विरोर हो यो । पाहर के पातापारा में भी गुणी पी
भाचाना योग जारा और हत्या करीता--
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अवश्य ही कोई कारण रखता हे । तभी तो भरत जी उदास ने हो रहे हैं ! क्यो ??
क्योकि अभी-अभी उन्होंने कुछ स्वप्न देखे है, जो भयावह चौर नेप्ट मालूम होते हैं । लोन निराकरण करे इन स्वप्नो का? भरत जी चिन्ता मे थे। तभी उन्हे भगवान् आदिनाथ का स्मरण हो पाया।
प्रभाती की मगल ध्वनि गूज उठी। चारो ओर के वातावरण मे चहल-पहल प्रारम्भ हो गई। भरत स्नानादि से निवृत्त हो, उदास मन से भगवान आदिनाथ के पास वहा पहुंचे जहा उनना समवशरण आया हुआ था।
विशाल समवरशरण (सभा मडप) मे प्रवेश करके भरत ने भावान आदिनाथ के दर्शन किए। तीन प्रदक्षिणा दी और भक्तिभाव से पूजा की। फिर मनुष्यों के पक्ष में जा बैठे। स्तुति करने के पश्चात् भरत ने नन्न होकर पछा___'भगवन् । मेरी कुछ शकाये हैं जिनका समाधान चाहने को मेरा चित्त व्याकुल है । हे प्रभो । एक तो मैंने पाह्मण वर्ग का निर्माण किया है तो वताइए प्रभो कि इनकी रचना में क्या दोप है ? गुण क्या है । और इनकी रचना योग्य हुई प्रथवा नहीं । दूसरी बात भगवन्, यह है कि मैने गाज ही रात्रि में कुछ स्वप्न देखे है, जिनको देखने के पश्चात् चित्त व्याकुत्त है । हे प्रभो । यो मेरा चित्त व्याकुल है ?
भरत ने निवेदन कर देने के पश्चात् जो स्वप्न देले सुना दिये । तब भगवान ने अपनी दिन ध्वनि के द्वारा सरल समाान इस प्रकार क्रिया---
'हे वत्स । तूने जो ब्राह्मण वर्ग अर्थात् सय वर्ग को जो रचना को है वह योग्य तो है पर वह चतुर्थ काल (सतयुग) तक ही सौमित और कार्यकारी होगी । पश्चात् पदम काल (कलियुग) मे
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ही सयमी (ब्राह्मण) वर्ग के लोग अहंकारी, घमण्डी, और अनैतिक आचरण के धारी हो जायेगे। ये अपने सयम का उपयोग प्रात्म ध्यान मे न कर विपरीत काम करने मे लग जायेगे । अपनी विद्वता से अनेक कदाचारी, मायाचारी शास्त्र रच-रच कर मिथ्यात्त्व के। भारी प्रचार करेगे । हिंसा को बढावा देंगे। अन्याय का पथ प्रदर्शित करेगे।
अब तेरे स्वप्नों का समाधान भो ध्यान से सुन ।
जो तूने पर्वत पर विचरते हुए तेवीस सिंह देखे हे ना, उनका फल यह जान कि महावीर स्वामी को छोडकर अन्य तेवीस तीर्थकरो के समय मे मिथ्यात से पूर्ण मतो की उत्पत्ति नहीं होगी।
दूसरा स्वप्न जो तूने देखा कि सिंह के बच्चे के पीछे हिरण का समूह है' तो इसका फल है कि-महावीर स्वामी के समय मे बहुत से कुलिंगी सन्यासी साधु हो जायेंगे जो परिग्रह भी रसेंगे।
तीसरा स्वप्न जो तूने देखा कि - हाथी के भार जैना वजन घोडे की पीठ पर है तो उसका भी यह फल जान कि- पचम काल के साधु तपश्चरण के समस्त गुरगो को धारण करने में रामयं नहीं होगे।
चौथे स्वप्न मे जो तूने देखा कि 'सूखे पत्ते वकगे का समूह खा रहा है, सो इसका फल यह है कि-भागामी काल में सदाचारी भी दुराचारी हो जायेंगे।
पानवे स्वप्न 'हाथी के कन्धे पर बन्दर देसना' का फ्त ऐसा जानो वि-प्रागे जाकर पचम काल मे हरिय कुल नष्ट हो जाएगा और दुराचारी पृथ्वी का पालन करेंगे।
कान जो तूने देखा कि-'कोदे, उल्लू को मनारहे है' सो इसका भी फल यह है कि मनुष्य धम की इच्छा से जैन
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( १४६ )
पायें।
मुनियों को छोर अन्य नाचते भूतो ने माउ फन यह है कि--नम्मे देवा व्यायामानेंगे और अन्य विश्वास में नगर जायेंगे।
साठवे स्वप्न 'चारो और नेपर दोन मे नवा तालाव देखने ने-धर्म नाटक मच्छरों में रह
जायगा ।
नोव स्वप्न 'धूलि ने मलिन रलो को गर्मि फल है कि पंचम काल में ऋद्धिचारी मुनि नहीं होगे ।
दसवें स्वप्न में 'बड़े प्रादर ते कुत्ते को मोदक मिलाते हुए देखना यह फलित करता है कि मित्व और नमी चारी (ब्राह्मण) भी गुणी, सयमी के समान सरकार पायेंगे | ग्यारहवें स्वप्न में जो तुमने देखा है ना कि 'सुन्दर वेल (वडा) ऊँचे शब्द कर रहा है।'
'हा प्रभो । 'भरत को जिज्ञाना स्वप्नों के फल सुन-सुनकर वढती जा रही थी और अपने आप ने चौक भी रहा था। ग्यारहवे स्वप्न का फल बताते हुए भगवान श्रादिनाय ने कहा - 'इसका फल यह होगा कि युवावस्था में हो व्रत, लयम, मुनि पद आदि ठहर सकेगा -- वृद्धावस्था मे नही ।'
'परस्पर जाते हुए दो बैल' जो तुमने वारहवें स्वप्न मे देखे हैं उसका फल यह है कि पंचम काल मे मुनि एकाबिहारी नही होने ।'
'सूर्य का मेघ पटल से घिरा हुआ देखने ते फल यह होगा कि केवल्य ज्ञान की प्राप्ति पचन काल मे नहीं होगी ।
चौदहवा स्वप्न जो तुमने देखा है कि 'सूखा हुआ वृक्ष खडा हैं - तो हे राजन, पंचम काल मे चरित्र नष्ट हो जाएगा । चरित्र का पालन गृहस्थी मे हो ही नही सकेगा ।
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(१४७ ) पन्द्रहवा स्वप्न' टूटे हुए और पुराने पत्ते' देखने का फल यह है कि महाऔषवियो का रस व उपयोग नष्ट हो जाएगा ।
सोलहवे स्वप्न में जो त्ने देखा है कि 'चन्द्रमा के चारो ओर घेरा (परिमण्डल) है उसका उसका फल यह जान कि मुनियो को पचम काल मे अवधिज्ञान योर मन पर्यय ज्ञान भी नहीं होगा।
हेवत्म । इन सव स्वप्नो का फल लम्बे समय पश्चात अर्थात् पचम काल मे घटित होगा। इन हेतु तुझे इतना व्याकुल नहीं होना चाहिए । फिर भी व्याकुलता को मिटाने के लिए वर्म माधन तुझे करना चाहिए ।
भरत ने भगवान आदिनाथ से समाधान पाकर अपने पाप मे सावधान हुमा बारम्बार नमस्कर करता हुआ वापिस अयोध्या पाया।
वापिस आकर भरत ने विशेष चिन्तन मनन किया। गम्भीर मुद्रा को देखकर सभी चकित थे।
'स्वामिन् । ग्राज आप कुछ गम्भीर मालूम पड़ते है ? मया में कारण जान सकती हू?" महारानी सुभद्रा ने विनम्रता से पूछा।
सुनकर भरत कुछ विहसे, और सुभद्रा की ओर प्यार से निहार कर बोले-'प्रिये । यह जो वैभव, सम्पदा, एश्व तुम देख रही होना "यह सब नश्वर है, विनाशवान है, मात्र पुष्य का फल है।'
'यह तो कोई नई बात नही प्रभो।' । 'क्या । ! ! तुम्हे यह कोई नई बात नही लगी?' 'जी नही स्वाभिन्।' 'क्यो ।' 'क्योकि--मुझे इसका पूर्ण अनुभव पूर्वक ज्ञान है कि जो भी
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( १४८ ) नेत्रो से दिखाई देता है वह सब परिवर्तनशील है।'
'अरे ।।1
'चोकिए नहीं प्रारणेश । देखिए, पहले आप बालक थे, फिर युवा हुए और अब ।'
"हाँ । हा बोलो, अब मुझ मे क्या परिवर्तन हो गया है ?"
'स्वामिन् । देखिए ना पहले आप राजकुमार थे, फिर राजा बने, और महाराजा बने "तो यह परिवर्तन ही तो है।'
'श्रोह । तुम अत्यन्त समझदार नारीरत्न हो सुभद्रे। मै वह सब समझ गया हूँ जो तुम कहने वाली थी पर कह न सकी।' ___महारानी सुभद्रा इतना सुनकर अपने आप मे लजा गई औरभी विनम्र हो गई।
'एक निवेदन कर स्वामित् ।' महानी सुभद्रा ने पुन दृष्टि झुक्काए ही कहा।
'हा' हा । बोलो ।
'स्वामिन् । आज का दिन बहुत ही महत्वशाली है कि हमे सोते से जगाया है।
'तुम्हारा मन्तव्य मैं समझा नहीं।'
'प्रभो । आज हमने ससार की वास्तविकता पर विचार किया है, आज हमारे हृदय मे सन्तोष का प्रादुर्भाव हुआ है, अाज हमे स्वय का भान हुआ है । अत .'
'कहती जाम्रो • रूको नहीं।'
'ग्रत प्राज जी खोलकर दान दीजिए, भावो को विशेष पवित्रता के रग मे रगने के लिए धर्मार्थ कार्य कीजिए ।'
'प्रारणेश्वरी । मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि तुमने मेरे ही मन की बात कह दी । सचमुच मै भी यही विचार रहा था।'
'सच ।।।" 'हा प्रिमे।
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१४६)
सेवक महाराज भरत ने
महाराज भरत ने सकेत वाद्य की ध्वनि प्रकट की और एक सेवक उपस्थित हुमा । सेवक नम्रता से मस्तक झुकाए अाज्ञा पाने की जिज्ञासा रखते हुए खडा रह गया।
'मनी जी को शीघ्र उपस्थित होने के लिए हमारा आदेश पहुचानो। 'जैसी थाना महाराज।'
सेवक चला गया और कुछ ही समय पश्चात् मत्री अपने स्थान से महाराज भरत का आदेश पा चले। रास्ते भर सोचते रहे कि ग्राज इस समय मे न्यो याद किया है ? इस समय तो महाराज ने कभी भी याद नहीं किया । उहापोह मे उलझते सुलभते मत्री महोदय ने महाराज भरत के विश्राम कक्ष में प्रवेश किया । सादर अभिवादन करने के पश्चात्-महाराज भरत द्वारा सदेतिक स्थान पर बैठ गए।
'क्या आज्ञा है महाराज ?' 'मत्री जी । महारानी जी जैसा आदेश दे उमी के अनुसार आज का कार्य क्रम बनाले।' ___ 'मैं क्या आदेश दे सकूगी "प्रापही ही आदेश दीजिएगा।'' बीच मे ही महारानी ने मुस्कराते हुए कहा ।
मंत्री को फिर व्याकुलता हुई कि कैसा आदेश है ? क्या वात है ? • तभी भरत ने कहा
सुनिए मत्रीवर ! अाज याचको को जी भर दान दिया जाय। मन्दिरो मे पूजा भजन आदि किया जाय और कोई भी अयोध्या मे भूखा न रहने पाये। ___'ऐसा ही होगा प्रभो ।' मत्री देखता का देखता ही रह गया। उसने एक शान्ति की सास ली और जैसा भी वादेश था उसे पत्र पर अकित किया । तथा जैसा आदेश मिला था उसी के अनुसार कार्य भी दिया।
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१२ राजकुमारी सुलोचना
F
'घरी तुम ! ! T 'जी पिताजी " में.
י
'
'कहा से आ रही हो बेटी ।'
'मैं मन्दिर से पूजा करके श्रही रही हूँ । लीजिएगा"" 'यह क्या है बेटी ?
'पिताजी यह पूजा का महत्त्व मे भरा फल 'प्राशिका' है । इसे नाप नेत्रो से लगाइये, मस्तक पर लगाइये ।'
+
'ओह । ला वेटी ला ।'
.
पिता ने प्राशिका ली और एक सरसरी दृष्टि अपनी पुत्री पर डाली। पुत्री अपने आप मे सिमट गई और लजाकर नतमस्तक हो ग्रन्दर चली गई ।
पुत्री जब सामने से चली गई तो पिता गहन विचार में डूब गये । श्राज काफी समय बाद इतने निकट से अपनी पुत्री को देखा था। कभी भी ऐसा संयोग ही नही बैठा था कि कुछ समय तक पिता और पुत्री ग्रामने सामने बैठे घोर वाते करें ।
" इसे अव कुंवारी नही रहना चाहिये । यह मव विवाह योग्य हो गई है । पर पर इसके लिए इसके लायक 'दर' मिलेगा भी कहाँ ।
"मैंने अब तक इन और ध्यान ही नहीं दिया। कहा
कहा मिलेगा इसके लायक वर रूप से
हूँ, किसने पू भरा, कामदेव समान 'वर' क्या इस पृथ्वी पर मिल सकेगा ?
*प्रोफ" " "
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( १५१ ) "क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ ?" ' "माँ 11. "प्रोह" प्रानो आनो सुप्रमा।" ___ "क्यो, क्या बात है ? नाज तो कुछ व्याकुल से नजर आ रहे
हो।"
"अब तुझे क्या बताऊँ प्रिये । • तूने देखा है कभी सुलोचना को नजदीक से ?"
"मैं तो सदैव ही देखती है?"
"सदैव ही देखती है ? तो फिर बता तूने क्या-क्या देखा उसमे "
"मैंने वह सब कुछ देखा है-जिसे देखकर आज अाप व्याकुल और चिन्तित हो उठे हैं।"
"मोह। तो फिर तुमने मुझे अब तक बताया क्यो नहीं था " ___ "प्रापको अवकाश ही कहा मिलता है मेरी बाते सुनने का । जब अपने राज्य कार्य से निर्वृत्त होकर यहा पघारते हैं तो सिवा प्रेमालाप के और कुछ करने का, कहने का अवसर ही कहा दिया हे मुझे ? जब कभी कहना भी चाहा तो नापने उसमे चित्त ही कब दिया है ?"
"कुछ भी हो सुप्रभे । अब मुझे अहसास हो गया है कि सुलोचना कवारी रहने लायक नहीं है। इसका विवाह शीघ्र कर . देना ही उचित है ?"
"शीघ्र तो कर देना उचित है--पर शीघ्र हो इस योग्य लडका मिल जायेगा क्या ऐत्ता सम्भव है ?" ___ "हा | यह भी शोचनीय तथ्य है। तब किया क्या जाय?. .."
भारत को धर्मप्राण विशाल नगरी (नाशी देश की) वाराणसी के ठीक मध्य में एक विशाल, रमणीक और भव्य मनोहर भवन
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( १५२ )
अपनी सुन्दरता, श्रेष्ठता और उच्चता की विजयध्वजा फहराता हुप्रा शोभाग्यमान हो रहा था । यह भवन यहा के धार्मिक, योग्य, राजनीति मे श्रेष्ठ श्रोर महान विचारक राजा यकम्पत का विश्राम
भवन था ।
आज इमो भवन के एक कक्ष में राजा अकम्पन प्रात की रमणीक स्वच्छ, शीतल मन्द पवन का श्राश्वदन ले रहे थे तभी उनकी कमल नयनी सुन्दर और शील को खान पुत्रो 'सुलोचना' ने प्रवेश किया था । जो अभी धमी मन्दिर से अपनी पूजा भक्ति से निवृत्त होकर आई थी।
राजा अकम्पन की महारानी 'प्रभा' भी विशाल हृदय र घोर ताज्ञान् लक्ष्मी थी । इसी की उत्तम कुक्षी से सुलोचना ने जन्म लिया था ।
I
वहुत मोच विचार के पश्चात् राजा कपन ने अपने चारो सुयोग्य, ज्यानिक सम्मति देने वाले मन्नियों को दुनाया। जब मव मत्री आ गए तो राजा ने एक ही प्रश्न उनके सामने रखा 'सुलोचना के लिए योष वर कौन है ?"
इस प्रश्न को सुनकर सभी मनी चीक उठे। उन्हें प्त ने भी यह सम्भावना नहीं यी कि ग्राम विषय पर चर्चा होगी। और नाज तर इन विषय पर चर्चा हुई भी नहीं पी । नर एक महाराज ने उन प्रश्न
--
'दृष्टिचप
फोन ११
एखादे गा
च
"भाजपा जिसमे
आपण का जन्म और ए
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( १५३ ) पर सम्मान भी हो । मेरी सम्मति मे तो यह सम्बन्ध चक्रवर्ती के साथ हो जाना श्रेयकर होगा।
नहीं । नहीं । यह उचित नही "बीच मे दूसरे मत्री सिद्धार्थ ने कहा। ' सुलोचना एक सुकुमारी है और भरत वृद्ध हो चुके । यह तो निरी अनमेल सम्मति है। भरत तो क्या, अपितु यह सम्बन्ध तो उनके पुत्र अर्ककीति के साथ भी नही होना चाहिए ।
'क्यो ? ? ?' एक मत्री ने पूछा।
'क्योकि-विवाह-सम्बन्ध सदैव बरावर वालो से ही करना चाहिये ? चक्रवर्ती का वैभव, वडम्पन और विशाल परिवार यह सब हमारे समक्ष अन्यन्य महति वात है। विवाह सम्बन्ध वास्तविक स्नेह के लिये होता है और स्नेह बराबर वाले से ही प्राप्त हो सकता है।
अकाट्य सम्मति को सुनकर सभी मत्री चुप हो गए। तब तीसरे मत्री ने पूछा
'तब बताइये । आपकी राय मे किसके साथ यह सम्बन्ध किया जाय?' ___ इस प्रश्न को सुनकर सिद्धार्थ नामक मत्री ही ने सोचकर उत्तर
दिया
'सम्बन्ध किसके साथ किया जाय - यह तो किसी ज्योतिपी से पूछकर शकुन मिलाकर जाना जा नकता है। हाँ लडके मैं बता सकता हूँ। और वे हैं--प्रभजन, स्थवर, बाल, बज्रायुध और ज्यकुमार । ये सभी राजपुत्र है, योग्य है, और सुलोचना के लायक भी है।' ___ 'इसपे हमारी कोई विशेष शान नहीं रहने को।'' बीच मे ही चौधे मत्री 'साय' ने अडयन डाली। उसने अपनी नम्मति प्रकट करते हुए कहा____ 'भूमि गोचरियो के साथ तो हमारा पहले ही खूब सम्बन्ध
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है-अब तो हमे किती विद्याधर के यहाँ सम्बन्ध करके शान वढानी चाहिए।' ___नही । नही । । नहीं ।।!' जोर के साथ सिद्धार्थ मत्री ने दलील दी। 'विद्याधरो के साथ सम्बन्ध करने से हमे चक्रवर्ती से दुश्मनी मोल लेनी पड जायेगी । जव चकवर्नी हमसे पूछेगा किक्या भूमि गोचरियो मे कोई उत्तम बर ही नहीं था जो विद्याधरो के साथ सम्बन्ध किया है। तब वताइये हमारे पास क्या उत्तर होगा?
यह तर्क सतकर तव त्रुप हो गए। तभी समति नामक मत्री ने ऋपना एक सभाव रखा
'मेरा तो नयोग्य सुभाव यह है कि स्वयम्बर रचा जाय । उनमे उपस्थित होने के लिए श्रेष्ठ कल, परिवार, योग्यता वाले गजकुमारो को मामत्रित किया जाय । उस स्वयम्बर मण्डप ने जिसे भी गजकुम्गरी सुलोचना पसन्द करले उसी के साथ सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाय । इत्तसे किसी को भी विरोध नहीं होगा । और उत्तम परम्परा का जन्म भी हो जायेगा।'
इस सुझाव को सुनकर मत्र ही प्रसन्न हो गए। महाराज अकम्पन भी बहुत प्रसन्न हुए। और यह सुभाष राजा व रानी .दोनो ने सा स्वीकार किण ।
पेहरी पर प्रसन्नता को सिटे हुए सभी भनियों ने विदा लेनी चाही किन्तु महाराज अकन्सन ने उन्हें रोक कर कहा
युगम्य शीघ्रम् । अर्थात् शुभ कार्य को शीघ्र कर लेना ही प्रेगर है। अत नाज हो म प्रायोजन को नियात्मक रूप में पति पन्ना प्रारम्भ देना चाहिये । त्वयम्बर मडए विशाल हो, मगर हो, भव्य हो, जो मस्तित हो यान्तुिनों के विनिवास, प्रया, विमान भजनादि की उत्तम बपन्या
मिमी यो मारो को मामप्रित परने में नि नगल
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पत्रिकाएं भेजदी जाय।'.
यह आदेश सुनकर सभी मत्रियों ने अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार कार्यक्रम का विवरण तैयार करके अपने-अपने योग्य कार्य अधिकृत किया और प्रारम्भ की ओर कदम बढाने का दृढ सकल्प लेकर विदा ली।
आज महाराज अकम्पन एव सभी मत्री गण निमत्रए पत्र भेजने की तैयारिया कर रहे है । सुन्दर एवं श्रेष्ठ पत्र पर स्वर्ण अक्षरो से अकित आदर भरे शब्द लिखे गये और यथा विधि उन्हे दूत द्वारा भेजने की व्यवस्था की ।
एक दूत को सुन्दर-सुन्दर उपहार लेकर और उन उपहारो मे एक-एक निमबरण पत्र रखकर भेजा गया।
एक दूत को जो विशिष्ट ज्ञान और अनुभव का जानकार था, शुभ सन्देश देने और स्वयम्बा में उपस्थित होने के लिये निवेदन करने के लिये भेजा।
किसी एक दूत को मान सम्मानादि सामग्नी के साथ भेजा।
इस प्रकार दशो दिशात्रो मे अनेक दूत भेजे गये। वाराणसी नगरी भी इस शुभ कार्यक्रम की रचना से नाच उठी। सभी नागरिको को उस दिन की उमग भरी प्रतीक्षा लग रही थीजिस दिन यह कार्य सम्पन्न होगा।
xxxx ___ आज अभी से वाराणसी नगरी एव इसके वाहर विपाल मैदान से बडी चहल-पहल हो रही है। सामान सजाने, लाने ले जाने आदि की दौड धूप लगी हुई है। प्रत्येक के मन में एक उमग की तरग भरी लहरे उठ रही है । नगर के बाहर बहुत भव्य और मनोहर स्वयम्बर मण्डप की रचना की गई है। गुलाब, चम्पा, चमेलो, केतकी, केवडा, मोगरा आदि के फूलो से चारो द्वारो के पथ सजे हुए है। मणिमोतियो की झालरे हिलोरें ले रही है।
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स्वयम्बर मण्डप में वीच का स्थान खाली छोडकर चारो ओर गोलाकार अवस्था मे बैठने की व्यवस्था की गई है। मलमल के गलीचे, गलीचो पर सुगन्धि की महक, और महक से भीगा हुआ मसनद, पास ही एक सुन्दर स्वर्ण, रत्ल, हीरो से जडी छोटी सी नौको-जिस पर अल्पाहार का सामान, पीने के लिए सोने की झारी मे शीतल सुगन्धित पानी और मेवा, ताम्वुल ग्रादि रखे हुए थे । यह व्यवस्था सभी बैठने के आसनो पर थी और ऐसे प्रासन कोई एक हजार आठ के लगभग थे।
सामने ही एक सुन्दर मच था। जिसे कुशल चित्रकार ने चित्रित किया था। कुशल शिल्पकार ने रचना की थी और कुशल शृगार कारक ने उमको सजाया था । उस पर दो बासन बहुत ही सुन्दर लगाये गये थे। ___ स्वयंवर मण्डप के निकट ही मागन्तुक राजकुमारो के विश्राम करने की व्यवस्था थी । जिसमे ऐमी कोई सामग्नी बाकी नही रही यी जो किसे खटकने लगे अर्थात् एक से एक सामग्री वहा उपस्थित थी।
सेवक गण प्रत्येक आज्ञा के लिये तत्पर खडे किये गये थे।
राजकुमार पाने लग गये थे । और उन्हें ठहराने की व्यवल्या की जा रही थी।
उपर सुलोचना का तो हाल ही मत पूछो। वह तो आज लाज की मारी अपने आपमे सिमटी जा रही थी। अन्दर की उमग भरी गुदगुदी से सही हुई मुस्कराहट चेहरे पर से फूटी जा रही नी।ग अग ना मालूम यो मचल रहा था-बस में ही नहीं हो पा रहा था।
सहेलिया भी कम नहीं थी । वे अन्य अनुभाविक तथ्यो को वता बतासर सुलोचना की प्रानन्द भरी मीठी-मीठी वेदना को घोर जागृत कर रही थी।
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प्रत्येक सुन्दर याभूषण श्राज उसके तन पर शोभित हो रह थे। वैसे ही वह सोदर्य की प्रतिमूर्ति थी— इस पर भी श्रृगारादि से सजाने पर तो इन्द्राणी को भी मात देने लगी । 'हाय हाय ! देखो किसके भाग्य खुलते है ?"
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होय ' होय ' कौन भाग्य शाली राजकुमार होगा जिसे हमारी राज दुलारी पसन्द करेगी ।
... देखते हैं किसकी सेज पर यह कोमल फूल अपनी सुरभित्त सुगन्धि बिखेरेगा ?"
•" हाय । नजर न लग जाये --- हमारी सहेली को | देखेंगे किसके सीने पर यह अपना मस्तक जाकर टिकाएगी ।
""क्या कहने। अन्दर ही अन्दर गुदगुदी दवाये जा रही है अरी । जरा बाहर भी टपकने दे
|
कुछ भी हो । पर भूल मत जाना हमको, पिया को सेज
पाकर ।
हा भई, कही ऐसा न हो कि पिया के रंग मे रंग कर सखियो का रंग ही याद न आये |
...
" सुन तो राजकुमारी देख ऐसा काम मत कर बैठना जिससे पियाजी नाराज हो जाय ।
•
भरे हा ' कही पिया रूठ गये तो मजा किरा - किरा हो
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जायेगा ।'
एक बात भोर सुनले “स्वयम्वर मंडप मे धीरे-धीरे कदम उठाना | दृष्टि ऐसी डालना कि जिस पर भी पडे
वह वह ।
और यो अनेक आनन्द, सोद, व्यग मादि से सनी हुई बातें सुलोचना को उसकी सहेलिया कह रही थी और सुलोचना अन्दर ही अन्दर सिमटी जा रहीं थी ।
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बाराणसी नगर की सभी महिलायें प्राज सजधजकर महाराज अकम्पन के रणवास पर एकत्रित हो रही थी । सब श्राज स्वर्ग को
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( १५८ ) अप्सराये लग रही थी । विभिन्न तरह की महक से आज रानी सुप्रभा का रग महल सुरभित हो उठा था। ___मगत गान, मधुर वाद्य और पायलो की मीठी सुहावनी, झनझुन ने एक विचित्र ही वातावरण बना दिया था। विवाह सम्बन्धी सभी सामग्री को महिलाये सजाने लग रही थी।
रानी सुप्रभा तो आज उमग और आनन्द में सिमटी हुई नाच रही थी।
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१३- कन्या ने अपने पति का स्वयं चयन किया
स्वयंवर मण्डप खचाखच भरा हुआ है । मन लोभने ओर नेवानन्द देने वाले रमणीक आसन पर भिन्न-भिन्न स्थानो से आये हुए राजकुमार सजे से, धजे से और खिचे से - अपने चहरो पर रोब, मुस्कराहट बिखेरे हुए बिराजे हुए हैं । सब उस प्रतीक्षा की घडियों को गिन रहे है, जिस घडी मे - मृगलोचनी 'सुलोचना' का प्रवेश होगा
/
स्वयंवर मंडप के चारो मुख्य द्वारो पर मंगल वाद्य बज रहे है । स्वयवर मण्डप मे ठीक मध्य भाग पर विशाल और अमूल्य कालीन पर कुछ अप्सरा को भी मात देने वाली युवतिया मनमोहक एव चित्त को भुमा देने वाला नृत्य कर रही है
दर्शक गरण जिनमे पुरुष भी है, नारियाँ भी ह और युवक व युवतिया भी है सब एक नई आशा की किरण प्राप्त करने की उत्कण्ठित अभिलापा लिए हुए अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए हैं
सामने विशाल और भव्य मंच पर राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा बिराजे हुए है - पास ही मत्री गणो के आसन है । ग्रगल बगल और पीछे सेवक सेविकार्य पखा, भारी, चँवर, छडी प्रादि उपसाधन लिए हुए मौन मुस्करित मुद्रा मे खडे हुए है ।
तभी विगुल बजा । मधुरं वाद्य की ध्वनि तेज हो उठी ।
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( १६० )
मीठे-मीठे घुंघरू की आवाज करता हुआ, अनेक पताकाएँ लहराता हुआ, मरिण मोतियो की झालर से सजा हुआ — स्वर्ण निर्मित रथ नाकर स्वययर मण्डप के पास आकर रुका। वाद्य की तेज ध्वनि और रथ को श्रा जाने की पुकार सुनकर राजकुमारो के दिल धडकने लगे । मन मचलने लगे । नेत्र, दर्शन को फड़कने लगे । सब सम्हत सम्हल कर बैठने लगे । उदासी और प्रतीक्षा की व्याकुलता को मिटाने लगे ।
तभी आगे आगे दासिया, पीछे कंचुकी (परिचायिका) सुलोचना को सम्हाले हुए और उसके पीछे सहेलियो का झुण्ड सभा मण्डप मे आया । सब उत्सुक हो उठे कि 'सुलोचना' को देखा जाय । पर वह तो इन सबमे घिरी हुई थी
I
'सुलोचना' को पिता व माता के पास ले जाया गया । सुलोचना ने दोनो को हार्दिक नमस्कार गदगद होकर किया । माता सुप्रभा ने सुलोचना को छाती से लगा लिया । ज्यो ही सुलोचना मा की छाती से लगी त्योही दोनो का दिल उमड पडा । पुन वाद्य बज उठे । नृत्य वन्द हो गया और एक सके त्तिक नादेश पढकर सुनाया गया --
I
" श्रागन्तुक प्रिय राजकुमारी एव सभासदो । आज जो आप यह आयोजन देख रहे है वह अपने श्रापमे सर्वप्रथम और न्यायकारी प्रायोजन है । अभी अपनी अनुभवी और विवेकशील - परिचायिका के साथ सुलोचना राजकुमारी जी अपने कोमल चरण श्रागे बढायेगी, परिचायिका प्रत्येक राजकुमार के पास से उसे राजकुमार का परिचय कराती हुई आगे बढाती रहेगी।
जिसभी राजकुमार को राजकुमारी जी अपनी पसन्द की प्राथमिकता देकर जयमाला पहना देगी उसी राजकुमार के साथ -- घोषणा पत्र के अनुसार विवाह कर दिया जायेगा ।
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( १६१ )
इसवाधिक प्रयोजन से किसी को विरोध नहीं होना चाहिये और ना ही कोई अपना महत्व कम समझेगा ।
प्रताप सव शान्ति से विराजे रहे और आयोजन की सफलता मे महयोग देने का कष्ट करे | धन्यवाद
घोषणा पत्र को सुनकर विशाल स्वयम्वर मण्डप में शान्ति छा गई। सभी राजकुमार श्रव और भी तनकर बैठने लगे ।
अपने-आपमे सिमटी हुई, सजी-धजी सुलोचना अपने कोमल नेत्र की पलकें नीची करती हुई - परिचायिका के साथ ग्रागे बढी । सब दर्शको और राजकुमारो की दृष्टि सुलोचना पर थी। सुलोचना अपने हाथों ने सुगन्धित पुप्पो से सजी हुई मणियों से बनी हुई सुन्दर माला लिए हुए थी ।
परिचायिका एक राजकुमार के पास रुकी और परिचय देने लगी
'राजकुमारी जी । देखिए, ये हैं, पृथ्वी सम्राट चक्रवर्ती महाराज भरत के सुयोग्य पुत्र अर्ककीर्तिजी | श्राप रूपवान, ज्ञानवान है - साथ ही एक सम्राट के पुत्र भी हैं। आयु और कद भी समान है। इसके साथ ही
"}
A
परिचायिका और कुछ कहती पर बीच में ही सुलोचना ने 'आगे वढों' का शब्द कहकर परिचायिका का मुँह बन्द कर दिया । जो राजकुमार कोति तन कर बैठे हुए थे वे मुरझाए पुष्प के समान हो गए। सुलोचना श्रागे कदम उठा चुकी थी । आगे वाले राजकुमार के पास रूक कर परिचायिका ने परिचय दिया
'इधर देखिएगा राजकुमारी जी आप है महामण्डलेश्वर महाराज पृथ्वीपति' के सुपुत्र मेघरथ जी । ग्रापके पिता महान् मासक है, और प्राप भी रणधीर, वलवीर और दिलगीर हैं। यदि आपको .."
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यहा भी नुलोचना ने आगे नहीं बोलने दिया और कदम प्रागे बढा दिया। इस प्रकार भनेक राजकुमारो के पास से परिचय कराती हुई परिचायिका सुलोचना को साथ लिए आगे बटनी जा रही थी । पराजित राजकुमारो के चेहरो पर हवाइया उड रही थी। इधर माता पिता व्याकुल थे कि अभी तक भी नुलोचना नै कित्ती को पसन्द नहीं किया।
एक राजकुमार के पान परिचारिका की और बोली .
'इघर निहारिए राजकुमारी जी । आप है श्रीमान जयकुमार जी। आप अपने कुल के दीपक है हस्तिनापुर के महाराज सोमप्रभ के पुत्र हैं, और आपके अनेक लघु भ्राता भी है। ग्राप भरत चक्रवर्ती जी के महान और विजेता नेनापति भी हैं। आप ही ने भरत चक्रवर्ती की विजय मे अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय देकर योगदान दिया था। त्प में, गुण मे और गौर्य में आप अद्वितीय हैं। आप धर्म अर्थ, काम और मोस पुरुषार्य को भली प्रकार ममझ कर प्राप्त करने वाले है ..' ___घर परिचायिका परिचय दे रही थी, उवर राजकुमारी की पलकें उठी और जय कुमार की पलको मे जा समाई। दोनो एक दूसरे को निज-निरख कर अपने ही आपने सो रहे थे। परिचायिका क्या-क्या यह ही है - इसका दोगो को ही भान नही रहा था।
परिचायिका रहती जा नही थी पर उनका प्रतिकार कुछ भी नहीं पा रही की। तनी उमने सुतोवना को भकाभोर पर रहा .. शाप नुन न्ही है ना राजमागे जी?' ___ "}} रानगुमारी चौक भी गई, और अपने माप में सिमट गई। रित्तो गई यह जयनारसी पनको में।
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श्राप
( १६३ )
BADAS
अरे | | | आप फिर चुप रह गई कहिए 'कहिए "क्या
1
'हां हां मुझे जयकुमार जी भा
गए है।' परिचायिका
'
को प्रागे नहीं बोलने दिया थोर इतना ही कहकर सुलोचना ने जयमाला जयकुमार के गले मे डाल दी ।
चारो ओर से विजयध्वनि गूज उठी । जयकुमार को जय का नारा गूज उठा और सभी धन्य-धन्य कहने लगे । वातावरण मे अनेक बातों ने जन्म लिया । कोई कहता-
1
'वाह ! वाह ! क्या पसन्द है ? 'सत्य हो निष्पक्षता और प्यार की पसन्द है
[:
कोई कहना
..
'सत्य ही ग्रानन्द दायक पसन्द है । वेचारा चक्रवति का पुत्र केकीति तो बैठा का बैठा ही रह गया ।'
कोई कहता
'प्रजी । क्या खाक की पसन्द है । एक चक्रवर्ती के वैभव को लात मारकर उसके नौकर को पसन्द किया है
}"
कोई कहता
'अजी | नोकर है तो क्या हुआ । उसमे कमी किमो बात की है। जो योग्यता जयकुमार मे है, उतनी चक्रवती के पुन में कहा । विवाह राजकुमार से करना है या वैभव से ।'
कोई महिला कहती ..
'वारी वारी जाऊँ । बहुत ही सुन्दर वर पसन्द किया है ।' सहेलियाँ आपस मे कहती
'भाग्यवान है यह राजकुमार जिसको हमारी सहेली ने पसन्द किया है ।
इस प्रकार अनेक प्रकार की बाते होने लगी । उबर राजकुमार
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( १६४ ) गण जो पराजित हो गए थे---तन उठे। भडक उठे । गरज उठे।
और अर्ककीर्ति को उकसाने लगे ___ धिक्कार है आपको जो एक चक्रवर्ती के पुत्र होकर भी
चुप हो।'
'हा! हाँ। क्या मान रखा है आपका यहाँ पर।' 'हा । हा । आपके रहते हुए और आपके सेवक को जयमाला | | | डूब मरने की बात है।'
'आप मागे वढिए और जयकुमार का सिर धड से रतार दीजिए । हम आपका साथ देगे।'
'हा । हा । हम भी साथ देंगे।'
वैसे ही अर्ककीति के हृदय मे विद्वेप की आग धधक रही थी इस पर इन लोगो ने ऐसी-ऐसी ताने भरी बाते कतर घी का काम किया।
अकीर्ति का आवेश क्रोध में बदल गया और क्रोध की आग को वह शमन नहीं कर सका । अपना भस्त्र सम्हालता हुआ वह गरज उठा। 'ठहरो !!
xxxx जयकुमार और सुलोचना दोनो-वरमाला की परम्परा को पूर्ण कर एक दूसरे मे खोते हुए उस मरिणमोतियो की झालरो से सुशोभित रथ मे बैठ चुके थे। राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा मारे खुशी के फूले नहीं सगा रहे थे । दोनो का चित्त यह जानकर कि 'सुलोचना ने योग्य वर का ही चयन किया है। बहुत ही प्रानन्द मान रहे थे। मत्रीगण आगन्तुको को उपस्थित होने के लिए धन्यवाद दे देकर उत्तम भेट के साथ विदा कर रहे थे।
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( १६५ ) चारो ओर का वातावरण प्रसन्नता की लहरो मे नहाया हुआ था। तभी .
हाँ हाँ । तभी एक रणभेरी सी बजी और मगल मे दगल हो गया। सभी एक दूसरे की पोर व्याकुल से देख रहे थे । अनेक विद्वेषी राणाम्रो ने उस प्रस्थान कर रहे रथ को रोक लिया । सुलोचना का कोमल हृदय कांप उठा।
महाराज प्रकम्पन सकते मे या गए । 'यह क्या हुआ? किसने यह विद्रोह खडा किया है ?" आदि प्रश्न उपस्थित समूह से पूछने लगे। तभी ___तभी अर्ककीर्ति राजकुमार (चकवर्ती भरत का पुत्र) कोधित शेर की तरह दहाउता हुना पाया और गूजने लगा ।
"आपने हमारा अपमान किया है। यदि एक तुच्छ और सेवकीय-कीट को ही यह सम्मान देना था, यदि गधे के गले में मन्दार पुष्पो की माला पहिनानी ही थी, यदि कीचड से ही चेहरा रगना था, यदि नीच से ही नाता जोडना था • तो हमे क्यो बुलाया गया था ???
सबको ऊफनते देखकर राजा अकम्पन ने महान् धैर्य से काम लिया और सरल व नम्रवारणो मे बोले" ___ 'मुझे दुख है कि आप लोगो की आत्मा मे, विचारो मे इस प्रकार की व्याकुलता उत्पन्न हो गई है । जहा तक मेरा प्रश्न है .. तो मैंने तो ऐसा कोई भी अनुचित कार्य नहीं किया-जिससे आपका अपमान हुआ हो।" जयमाला डालने से पूर्व ही घोषणा कर दी गई थी कि 'सुलोचना जिसे नी 'वरण' कर लेगी वही उसका पति होगा। इसमे कोई भी विरोध नहीं करेंगे और आप सबने वह घोषणा सुनकर स्वीकृति भी दी थी। अब आप को यो ।
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( १६६ )
'नहीं । नहीं | | नही | !! हम यह तब कुछ नही सुनना चाहते। यह सब बाप बेटी की मिली भगत है । हम उस जयकुमार को भी समझ जेगे । प्रापको सुलोचना मेरे साथ व्याहनी होगी अन्यघा ***.1
'ऐसा तो ध्रुव हो ही नही सकता। आप व्यघं ही उदण्डता प्रकट कर रहे हैं ।'
'ऐमा होकर रहेगा ।।।' यह कहकर अकंकीर्ति ने र भेरी वजवा ही दो । चारो ओर से मारो, नारो, काटो, काटो, छोनो, झपटो की आवाजे आने लगी ।
राजा त्रकम्पन गिरते-गिरते बचे । रानी सुप्रभा व्याकुलानी हो एक और महिलाओ के समूह मे चली गई ।
प्रागन्तुको मे अनेको ने नर्ककीर्ती राजकुमार का साथ दिया । कुछो ने ग्रकम्पन का साथ दिया ।
सुलोचना ने जब रथ का परदा उठाकर घमासान युद्ध देखा तो — पति व्याकुलता से साथ जयकुमार की ओर देखने लगी। सुलोचना के मन की व्यण को जान जयकुमार मुस्करा उठे। दोने
•
'घवराने वाली बात नही हैं प्रिये !"
या आपको यह बात कुछ भी नही लगती ?"
'ना । *****7
'युद्ध हो रहा है, घायल हो रहे हैं, पिता जी अकेले लड रहे है और आप आप
"
'मैं नव देख रहा हूँ । यह सब एक नाटक सा है और में इस
नाटक को क्षण में नष्ट कर दूंगी।"
अच्छा तुम निश्चिन्त होकर बैठो मैं भी जरा इन गोदडो की मनकियो को देख लेना
·
चाहता हूँ ।'
+
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(१६७ ) 'पया आप अकेले ही लडेगे • ?' 'तो और कौन मेरा साथ देगा वहा• किन्तु मुझे किसी के साथ की आवश्यकता भी नहीं है।'
इतना कहकर उन गोदडो के बीच सिह उतरा । उसे सामने आते देखकर अर्ककीति के दिल की आग और भी नमक उठी और एक निशाना बान्ध कर जहर बुझा तोर जयकुमार के सीने की ओर चला दिया। __ जयकुमार ने अपनी बुद्धिमता ले उस तीर को हाथ मे ही पान लिया चौर मुस्कराकर कहने लगे ..
'साप महाराज भरत चक्रवर्ती के होनहार पुन है । आपके साय युद्ध करना हमारे लिए शोभा की बात नही। मत प्रापको अपने पूज्य पिता के गमान धीरवान, दिवान और दयामान होकर यह प्रसगत कार्य नहीं करना चाहिए।' ___ 'ठीक है, ऐसा ही हो जायगा । पर एका रात के साथ ।' प्रोति ने कुपित स्वर में पहा । इसके साथ की जयभार पूर्व उठे।
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( १६८ ) सी है । मैं आपका सेवक' और सेवक की पत्नी तो बेटी--- बहन के सदृश्य आपको समझनी चाहिए
***.17
"खामोश | ! |" एक सिंह की सी दहाड गूज उठी । अर्क कोर्ति की प्राखो मे से आग निकलने लगी । उसने पुन युद्ध शुरू कर दिया ।
·
जयकुमार ने समझ लिया कि अर्ककीर्ति की बुद्धि का दिवाला निकल गया है । अत युद्ध करना ही चाहिए ।
युद्ध हुआ और जमकर हुआ । अग्निवाण, पवनवारा, जलवारण, विषदारण, अमृतवाण का आदान प्रदान हुआ । अव गगन मडल पर भी गीध मडराने लगे थे। चारो और त्राही त्राही मची हुई थी। तभी
तभी अपनी रणकौशलता का उपयोग करके जयकुमार ने आर्ककीर्ति को वान्व लिया । और महाराज अकम्पन के पास उपस्थित किया | युद्ध बन्द का विगुल गूज उठा और सब यह देखने लगे कि क्या हुआ
?
सभी प्रर्ककीर्ति की बुराई कर रहे थे। जयकुमार बच्चे बच्चे की जुबान पर था । सब उसकी प्रशंसा कर रहे थे और सुलोचना
ww ..
सुलोचना तो मोद के होज मे नहा उठी । जव विजयी पति पास आया तो सर्वस्व न्योछावर करके उसके तन मन से लिपट गई और प्रेमाश्र का श्रोत वहा उठी ।
राजा कम्पन ने कीर्ति को स्वतंत्र कर देने का आदेश दिया । स्वतंत्र होते ही अर्ककीर्ति अपनी उदण्डता पर लज्जित होता हुआ झुक गया ।
राजा श्रकम्पन ने उसे सीने से लगा लिया और समझदारी से काम लेने की शिक्षा दी। अपने साथ लेकर राजा अकपन ने वाराणसी नगर की ओर प्रस्थान किया ।
1
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( १६६ )
I
श्रागन्तुक सभी राजकुमार जयकुमार के साथ थे । सभी ने मंगल स्वागत के साथ वाराणसी में प्रवेश किया ।
ग्राज वाराणसी दुलहन सी सजी चमक रही थी। चारो मोर खुशियो की बहार छाई हुई थी। विवाह मण्डप मे जयकुमार और सुलोचना अनेक उमगो को सिमेटे हुए पारिसग्रहण सस्कार की रीति निभा रहे थे ।
मंगल परिणय कार्यक्रम कुशल पूर्वक समाप्त हुया । राजा श्रकम्पन ने राज भवन मे ही एक कक्ष अत्यन्त मधुरता के साथ सजाया हुआ उन्हे विश्राम करने के लिए दिया ।
प्रथम मिलन की रात को अनेक उमगो की उमडती लहरो मे तैरते, फिसलते, नहाते, और मौज लेते हुए दोनो ने एके दूसरे में खोकर विश्राम किया ।
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१४-पत्नी की पति भक्ति
और शील-शक्ति
44
महाराज मरत अपने ही दरवार में विराजे हुए थे। तभी द्वारपाल ने दूत पाने की सूचना दी।
वाराणसी के राजा अकम्पन और जयकुमार दोनो ने मना करके मागलिक परिणय देता की समाप्ति की सूचना निवेदन करने को रत्नादि भेट देकर अपने सुपोय दूत को परवर्ती भरत की सेवा में भेजा था। ___ रत्नादि भेद केलाय दूत, अत्यन्त नत्रता एप शिष्टता से प्रोत प्रोत हो-नवती भरत के समक्ष उपस्थित हुन। उसने मुझे हुए नेत्रों को धीरे-धीरे जार रुपया और मत्ता नुकाकर घर छुए फिर एक और नतमस्तक हो खड़ा हो गया। ___ "च्या सदेश लाए हो । महाराज पम्पन परिवार सहित कुशल तो है ?" पवर्ती भरत ने नुलराते हुए प्रिय वाणी से पूछा । जैसे फूल कर गए हो, अमृत बरस गया हो-को प्रसार मानन्द को मानकर दूतने निवेदन निया___ "प्रभो ! महाराज सम्पन ने अपनी प्रिय पुत्रो सुलोचना का विवाह स्वयम्बर विधि से जयकुमार जी के साथ सम्पन्न करा दिया है।'
"कोन जयकुनार?' "लापके ही चरण सेवन, विज्यो सेनापति जी।'
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( १७१ ) "मोह । यह तो अत्यन्त ही प्रसन्नता से भरा सुखद सन्देश है ! नव दम्पति कुशल है ना?" ___हा प्रभो । आपके आर्शीवाद से दोनो प्रानन्द मे हैं । प्रभो, महाराज प्रकम्पन ने आपसे अनुनय विनय के साथ क्षमा की याचना भी की है ?" __ "अरे !! I...क्षमा किसलिए ?"
"पभो । जव सुकमारी जी ने स्वयंवर मण्डप मे भलीप्रकार चयन करके जयमाला जयकुमार जी के गले में डाल दी और जयकुमार जी का जय जय कारा गूज उठा तो ...."
"तो क्या हुना • • वोलो बोलो ?" ।
"अापके प्रिय सुपुत्र कुमार-अर्ककोति जी ने अमगल छेड दिया।
"अमगल ? कैसा अमगल?"
"उन्होंने महाराज अकम्पन जी को भी ललकारा और अशिष्ट वचन कहे, जयकुमार जी के साथ युद्ध हुआ-युद्ध मे अनेक राजगणो ने अर्ककीर्ति जी का ही साथ दिया-फिर भी अपनी रणकौशलता का उपयोग करके जयकुमार जी ने कुमार अर्ककीति जी को बाध लिया । प्रभो । जब उन्हे महाराज प्रकम्पन के समक्ष उपस्थित किया गया तो-महाराज प्रकम्पन जी ने उन्हे तत्काल मुक्त करा दिया और सीने से लगा लिया?"
"पर यह अमगल हुआ किसलिए?"
"प्राणदाता महाराजेश्वर । " जयकुमार जी को चयन नरना, माला पहिनाना यह आपके सुगुत्र को श्रेष्ठ न लगा और सुलोचना की वाछा करने लगे |"
"क्यो? ??" 'अपनी पत्नी बनाने से लिए ।पर प्रभो । सुलोचना तो
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(१५२ ) पराई हो चुकी थी और घोषणा के अनुसार जयकुमार जो की पत्नी कहला चुकी थी. इस पर जयकुमार जी ने राजकुमार अर्ककीर्ति जी को बहुत समभाया उनके सामने अपनी सेवकता भी प्रकट की • पर पर"
"मोह ।..." भरत का दिल इस वर्णन पर कसमता
उठा।
___"प्रभो । इस अमगल से महाराज, प्रकम्पन भी दुखी हुए और सबसे ज्यादा दुख तो उन्हें इस बात का हुआ कि उन्हे आपके प्रिय पुत्र के साथ युद्ध करना पडा। हे प्रभो । इसीलिए उन्होंने क्षमा की याचना की है।" - दूत यह सब निवेदन करके एक और नम्रता से खडा रह गया । महाराज भरत ने एक दुखभरी दीर्घ स्वांस छोडी ... बोले ... ___"इसमे महाराज अकम्पन का कोई अपराध नहीं । अपराध तो मेरे पुत्र का है और क्षमा मुझे मागनी चाहिए | उनसे कहना कि'हे राजन ! आपतो हमारे पूज्य हो | आपने हमारे कुल की लाज रखकर अपराधी को भी गले लगाया। वास्तव मे हम बहुत लज्जित हैं।
आगे और कहना कि आप धन्य है जिन्होंने इस युग मे स्वयम्बर विधि की सर्वप्रथम स्थापना की है। यह परम्परा बहुत ही सुन्दर और सुखद है।
महाराज अकम्पन को धन्यवाद, और नव दम्पति को हमारा स्नेह भरा आर्शीवाद कहना।"
अनेक बार मस्तक मुकाता हुआ दूत रवाना हुआ। प्रसन्नता भरा, खुशियो से झोली भरी लेकर अत्यन्त उत्साह और उमग के साथ दूत राजा अकम्पन के पास पहूँचा । जब
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( १७३ ) दूत ने चक्रवर्ती भरत का प्रेम वात्सल्य और न्यायनीति से भरा सन्देश सुनाया तो प्रकम्पन और जयकुमार दोनो पुलकित हो उठे। स्वत ही मुंह से निकल पडा आखिर बडे, बडे ही होते है। उनमे छोटापन कहाँ ?"
प्राज जयकुमार और सुलोचना को विदाई दी जा रही है ! अनेक व्यवहारिक राजा गण आए हुए है । एक प्रानन्द वर्षक
और मोहक विदाई महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। रथ और हाथियो पर भेट दिया गया समान रखा जा रहा है। घोडे सजाए जा रहे हैं और गगा पार तक पहुंचाने के लिए अनेक राजा लोग तैयार हो रहे हैं।
उधर सुलोचना को आज सुसराल जाने के लिए दुल्हन बनाया जा रहा है। सहेलिया सजा भी रही है और चुटकिया भी ले रही हैं। ज्यो ज्यो कामुकता, भावुकता की बातें करती त्यो त्यो ही सुलोचना सिहर सिहर उठती और एक मीठी मीठी गुद गुदी सी अनुभव मे होती।
मगल गीत और मधुर वाजो की ध्वनि के साथ विदा किया। जयकुमार हाथी पर चढा। सुलोचना रथ मैं वेठी और सभी साथ जाने वाले राजा लोग घोडो पर बैठे।
सभी ने प्रस्थान किया । मगलकार्य और सुन्दर जोडी की अब वाराणसी मे जगह जगह चर्चा होने लगी।
गगा का किनारा आ गया। इठलाती, मदमाती बहती हुई गगा आनन्ददायक लग रही थी । जयकुमार ने यही पर विश्राम करने की घोषणा की। सभी साथ पाए राजाओ को सघन्यवाद विदा किया स्वय के साथी अपने अपने डेरो मे ठहरे । एक भव्य मडप मे सुलोचना अपनी दासियो के साथ ठहरी।
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( १७४ ) उचित समय जान, जयकुमार ने महाराज भरत से मिलना चाहा । अयोध्या यहा से निकट ही थी। अत शीघ्र ही वापिस आने को कहकर वह घोडे पर बैठ अयोध्या के लिए रवाना हुआ।
xxxx __ "हां 1 प्रभो, सेनापति जयकुमार जी आपके दर्शनो की ईच्छा लिए बाहर प्रतीक्षा कर रहे है।"
"अरे ? ? ? .." उन्हे सादर लिवा लायो ।”
दरवान भरत की आज्ञा पाकर द्वार पर प्राया और नम्रता पूर्वक अन्दर प्रवेश करने के लिए जयकमार से निवेदन किया । __ ज्यो ही जयकुमार ने भरत जी के दर्शन किए... उनके चरणो मे नतमस्तक हो गया।
भरत ने उन्हे ययायोग्य प्रासन दिया और विवाह की, पत्नी की सभी बाते खट्टी मीठी बातो के साथ पूछने लगे।
नन मन्तक हुआ जयकुमार शर्मातामा उत्तर देने लगा। "पागल कही के ...." "जी। -जयकुमार चौक गया ।
"पागल नहीं तो और क्या हो "भरत ने गुरूराते हुए पाह"परे ! तुम हमारे सेनापनि, और फिर हमे विना दुलाए विवाह कर बैठे ! हम पाते, जरा भच्चा आयोजन परो । मिठाई गाते .... और..."भोर .... " ____ चामिन् " ...' जयममार गदगद हो गिरन गया।
ना प्रेम बरस रहा था ... तिना मपनत्ल टारनामा " मा तो महान् निन्दमागे यूज्य पिता गौर नह
पुर...यामार मान माप मे सोया गी। "
TET
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क्या तुम मुझे........
'नही प्रभो ।
( १७५ )
• +
1
नही ऐसा मत कहिए । मैं तो ग्रापका
आपकी यह
दास है | आपका दास हूँ । आपकी महानता
1
वह
महानता का भार मैं सह नही सकता योगी क्रीडा थी । कोई विशेष बात थी ही नहीं
ने भरत के चरण छलिए ।
अन्तरग के वात्सल्य और प्रेम से मिष्टान यादि खाया और बहुमूल्य भेट किया ।
तो एक बालकोप" जयकुमार
·
•·
बातचीत करने के पश्चात् देकर जयकुमार को विदा
जयकार अपने श्राप मे अत्यन्त प्रसन्नता को सिमेटे घोडो पर बैठा बैठा हवा हो रहा था। महाराज भरत ने उसका इतना बडा सम्मान किया वह यह सब कुछ देख कर फूला नहीं समा रहा था ।
रजनी ने विवान का आह्वान किया । प्रभाकर को विदा किया और झिलमिल तारो सितारो की साडी ओढ .. थिरक उठी ।
val
सुलोचना, गया के किनारे उस साझ की मधुर मस्त बेला मे अपने प्रियतम की प्रतीक्षा कर रही पी मोर प्रतीक्षा की घडिया रह रहकर सुस्त हुई जा रही थी, जो मन मे एक तन सी पैदा करती थी। तभी
..
·
तभी घोड़े की टाप ने उसके मन के तार बजा दिए वह चौकन्नी हो इधर उधर देखने लगी। दूर दूर से प्रियतम को लेकर घोडा दौडा आ रहा था। कुछ ही क्षणो मे प्रियतम उनके सामने थे ।
गंगा की शीतल धारा की लहरो मे कम्पन पैदा हुई और लहर पर लहर छा गई। एक सिरहन के साथ झन मनाते रोम से भावुक हो सुलोचना, जयकुमार से लिपट गई।
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( १७६ ), प्रात चहल पहल हुई। गगा के किनारे पर असख्य विहगो ने गाना प्रारम्भ कर दिया। प्रात की वेला मे गगा का शीतल नीर महक उठा 1
अगडाई और मस्ती के रचेमचे दोनो नव दम्पति सेजपर से एक साथ उठे। सुलोचना की ओर जब जयकुमार ने देखा तो " सुलोचना ने अपने चहरे को दोनो हाथो से ढक लिया और पुलकित हो उठी।
"पगली कही की"..... एक प्यार भरी हल्की सी चपत गोल गोल उभरे हुए गालो पर लगाते हुए जयकुमार सेज से नीचे उत्तरे। ___जयकुमार ने यहा से प्रस्थान करने का आदेश दिया। सभी आदेश की प्रतीक्षा मे थे । प्रत आदेश मिलते ही रवाना हुए। सब साथी गगा को पार कर गए ।
सुलोचना भी अपनी दासियो के साथ रय मे बैठी । जयकुमार आगे आगे हाथी पर सवार हो गगा पार करने लगे । जय कुमार का मन प्रसन्न हो रहा था हर और विजय पा रहा था। तभी ___ तभी हाथी बुरी तरह चिंघाड उठा । गगा की मजधार और गहरी भवर मे हाथी लडा खडा बिघाड रहा था ना आगे बढ पाता था और ना पीछे हट पाता था। __ जिन सपनो मे जयकुमार खो रहा था वे सब छूमन्तर हुए। वह यह देखकर अत्यन्त भयभीत हुना कि हाथी मझधार मे क्यो फॅम गया । वह विचाड क्यो रहा है । जिसने भयकर युद्ध में तलवार, भाले, वाण आदि की परवाह नहीं की, जो कभी भी नहीं घबराया ..." वही हाथो यहां क्यो घबरा रहा है ।
गगा का पानी बढे वेग के साथ चल रहा था । भंवर गहरी होती जा रही थी। तभी · ." ____ "तभी मुलोचना चिल्ला उठी रकिए ? रुकिए स्वामिन् ।"
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( १७७ ) जयकुमार ने पीछे फिरकर देखा-सुलोचना रथ से उतरकर पानी मे तैरती आ रही है। वहीं से जयकुमार चिल्ला उठा।
"सुलोचना ..आगे मत वढो । बहुत गहरी भंवर है। देखो इस भंवर मे तो हायी के पैर भी नहीं टिकते।"
___ उधर सुलोचना असह्य दुख से तडप उठी । आज उसका सौभाग्य सकट मे घिरा हुआ है..... उसकी मांग का सिन्दुर गगा की धार से मिलता दिखाई दे रहा है- उसके मेहन्दी रचे हाय का रंग फीका पडता नजर आ रहा है • सुलोचना काप उठी, तडपउठी, और रो उठी।।
तभी उसके अन्तर्मन ने पुकारा ....."कायर कही की। इस प्रकार रोने से, घबराने से, और तडपने से भी कोई साहस कर सका है। अरी ! तू महान नारी है। सतीत्व की भरी पूरी है-तू चाहे तो इन्द्र का आतन भी डिगा दे। . .. तू अपनी वास्तविकता को त्यो भूली जा रही है." हिम्मत कर ..... और अपनी आराधना से बचाले अपने पति को ,"
सुलोचना को जैसे होश आया । वह अन्तर मन हो अपने ईप्ट के चिन्तन मे खो गई । वह भक्ति के उस स्थल पर पहुँच गई जहा भक्त व भगवान में कोई अन्तर ही नहीं रहता।
गगा कहा है, पानी कितना है, उसका पति कहा है ? वह कहा है ? आदि से वह परे थी। पानी के बीच खडी भी वह मन के बीच में थी । तभी ___ तभी एक हुंकार सी हुई और हायी चिंघाड मारकर भंवर से बाहर निकल गया । जयकुमार के जान मे जान आई। सभी ने जयकुमार की जय बोली ( पर सुलोचना ....
सुलोचना इसकी कोई खबर नहीं थी। यह तो माराधना में लोई हुई थी।
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( १७= )
"नेत्र खोलो बहिन !" afafe आकर एक नारी ने सुलोचना को सम्बोधा ।
अपरिचित किन्तु मोठी वाणी को सुनकर सुलोचना की भक्ति के तार झनझना उठे और उसने नेत्र खोले ???"
"कोन हो तुम "मैं ... जल देवी हूँ से इतनी प्रभावित हुई है कि करने को उद्यत हैं ।"
&g
"तुम्हारी पतिभक्ति की आराधना अपना सब कुछ तुम पर न्योछावर
****
'नोह हे भगवान्
"तो क्या
क्या....."स्वामिन्
"हाँ शुभे। आपके पति गंगा पार हो चुके है । किनी दुष्ट मगर ने पूर्व वैर की कलुपता को दिखाने के लिए हाथी को खाना प्रारम्भ कर दिया था -- सचमुच ही वह मगर हाथो को मार देता और आपके पति का जीवन
-
seeoall
"नही । नही । ऐसा मत कहो "
"
"मैं ऐसा कभी नही कहूँगी बहिन तुम्हारी पवित्र आरावना ने उनका सकट टाल दिया है।
"
.....!!
יין
जयकुमार हाथी पर सवार हुआ हो वापिस आया और अपनी भुजा के महारे सुलोचना को पानी मे से उठाकर हाथी पर बिठा लिया | सुलोचना श्रपने पति से लिपटी जा रही थी।"
उमग
सगल कामनाओं के नाथ जयकुमार ने बड़े उत्साह, पीर मारी न्याय के साथ हस्तिनापुर मे प्रवेश किया। आनन्द ते सुलोचना के नाथ समय व्यतीत करने लगा । एक दिन
"नारी महान भरत ने स्मरण किया है "
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( १७६ ) "क्यो? क्या कोई विशेष कार्य हो माया ?" "जी । इसका तो मुझे भान नहीं ।” ।
"कोई बात नहीं | महाराज भरत की आज्ञा शिरोधार्य है। चलो. अभी चलो।
और जयकुमार अयोध्या की ओर चल पडा।
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१५ - यह धरा यहीं की यहाँ 21 रही हम जसे लाखो चले गये
LIFES
भरत चक्रवर्ती एक महान् सम्राट घोर कुशल शासक सिद्ध
|
हुये । ख्याति पृथ्वी पर फैल रही थी और प्रयोध्या के अधिपति महाराज भरत के नाम पर ही इस क्षेत्र का नाम 'भारत' प्रसिद्ध हुना ।
आज शासन करते करते उन्हे १२ वर्ष व्यतीत हो रहे है । अचानक हो उन्हें अपने प्रिय भ्राता बाहुबली की याद आ गई । उन्होने — उनकी तलाश प्रारम्भ कर दी । रोने-कोने में अपने सेवक भेज दिये ।
1
अभी तक कोई भी बाहुबली के समाचार नहीं लाया था । भरत, प्रत्येक क्षरण उनके समाचार पाने को उत्मक थे। तभी
तभी एक सेवक ने भाकर प्रणाम किया उसे देख कर भरत ने पूछा
कुछ समाचार प्राप्त हुए "
प्रभो ।'
'कहा है भैया ? किन हालत में है ?
....
तुम पृधाते । चनर में सेवरु रहने लगा
·
वहा है उन्होंने ? 'कई प्रश्न भरत ने उत्सुकता
―
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( १८१ ) 'प्रभो । प्रापके भ्राता के बुरे हाल है। ना मालूम कितने समय से एक स्थान पर खडे हुए हैं शरीर पर लताएं छाई हुई हैं। पत्थर से बने अडिग खडे हुए है । ध्यान अपने आप मे लगा कर खोये हुए हैं। '
'ऐसा प्यो ? ? " भरत जी का मन एक गहरी वेदना से तडप उठा। ___मालम नही स्वामिन् । उनके पास न तो वस्त्र है और ना मकान ही।
_ 'श्रोह । ' भरत, उनसे मिलने को तडप उठे। वे रथ पर विराजमान हो चल पडे ।
नाहुबली एक पहाड के शिखर पर खडगासन अवस्था मे प्रात्म ध्यान लगाए अचल, अडिग खडे थे। पैरो के पास कई भयकर जहरीले जन्तुनो ने घोसले बना लिए थे। शरीर पर अनेक लताएं छाई हुई थी । भरत ने उनकी तपस्या, त्याग और सयम पहली बार देखा तो-देखते के देखते ही रह गए।
उनका हृदय उनसे बात करने को आतुर हो उठा पर बाहुबली तो अपने आप मे सोए हुए थे 'माज से नहीं एक माह से नहीं एक साल से नहीं अपितु बारह साल से ।
भरत उनके दर्शन करके सीवे भगवान आदिनाथ के समवशरण मे पहुँचे । बारबार नत मस्तक हो । यही प्रश्न किया .. ___'प्रभो । बाहुबली ने इतना कठोर त्याग, संयम अपना रखा है कब से ? और अब तक आत्म ज्ञान क्यो न मिला?'
भगवाने ग्रादिनाथ ने दिव्य ध्वनि द्वारा भरत की शका का समाधान किया
'बाहुवली बारह वर्ष से प्रात्म साधना मे लगे हुए है—अव तक प्रात्मज्ञान की उपलब्धि न होने का एक मात्र कारण उनके
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( १८२ ) मन में एक शल्य का जमा रहना है ।'
'वह क्या शल्य है प्रभो ।' 'यही कि "प्राखिर सहा तो भरत को पृथ्वी पर ही हूँ ?" 'परे ।।। • 'भरत पोन उठा' । प्रभो । क्या""पया ?'
'इस शत्य का निवारण भी तुम ही करोगे। बस मान तुम्हारे त्याग मान की प्रतीक्षा है ?'
'मैं सब समझ गया प्रभो।' इतना रहार प्रणाम करते हुए भरत ने महा से प्रस्थान
नि ।
विमान कार पटगासन बादलो के चरणों में बनायनी परत में नाथा टेक दिया । बार-बार प्रांमू झरने लगे। अपना मुगुट, यात्मलीगरणी में रख दिया। दीनता भरे शब्दो में निवेदन करने
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( १८३ ) . कहा है किसी ने । ज्यो ही भरत ने अपनी तुच्छता प्रकट की, ज्यो ही भरत ने क्षरण भगुरता प्रकट की 'त्यो ही बाहुबली का पाल्य निकल भागा और आत्म ज्योति चमक उठी। तुरन्त कैवल्य ज्ञान प्रकट हो गया । और कुछ समयान्तर पर कर्म की कडियो को काटकर अपने पिता से भी पहले मोक्षपद प्राप्त कर लिया।
भरत जी पर इस सबका एक चमत्कारिक प्रभाव पडा । अब वह समार की, वैभव की, वास्तविकता समझ चुके थे, जान चुके थे । यद्यपि सासारिक वैभव की उनके पास कुछ भी न्यूनता नहीं थी-पर वह सब उन्हे काँटे के सदृश्य लग रही थी।
'जल से भिन्न कमल' की भाति भरत जी उस वैभव मे रहने लगे। मदेव सावधान, यात्म ज्ञान को उचत रहने लगे।
एक दिन .
एक दिन एक अविश्वासी देव उनकी परीक्षा को प्राया और कहने लगा कि मैं इस पर विश्वास नही करता कि आप इतने बडे वैभव के स्वामी होते हुए भी इसने विरक्त है । यह तो असम्भव है । मैं आपकी इस प्रशसा को निराधार करना चाहता हूँ।'
भरत जी मुस्करा उठे, वोले'मुझे प्रशसा की भूख नही है मित्र पर यदि तुम विश्वास लेना चाहते हो तो यह जरूर दिलाया जाएगा।
"पर कव | ??
'दिशाम वाली बात जरा ठहर कर समझायेगे । इसके पहले क्या आप मेरी एक प्राज्ञा का पालन करेगे।"
'अवश्य । अवश्य करूंगा । कहिए क्या नाज्ञा है आपकी ?'
'लीजिए। यह तेल से भरा कटोरा है। इसे अपने दोनो हाथो पर लीजिए और मेरे सभी कमरो, को देख आइए वैभव को निरत पाइए रानियो से मिल आइए" .... । लेकिन एक बात ध्यान में रहे।
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( १८४ ) 'वह भी बता दीजिएगा।'
'यह सेवक आपके साथ रहेगा "और देख रहे होना • इसके हाथ मे यह चमचमाती तलवार ?'
'हाँ । हा । देख रहा है, पर इसका तात्पर्य ? "
'इसका तात्पर्य यही है कि यह सेवक आपके साथ रहेगा और ज्यो ही कटोरे के तेल की एक भी वूद नीचे गिरी कि आपका सिर, घड से अलग कर दिया जाएगा। अब आप जा सकते है।'
वह देव तेल का कटोरा दोनो हाथो पर रखे चला जा रहा या। कटोरा लबालब भरा हुआ था। सीढियो पर चढ़ना, उतरना, इधर उधर जाना कमी हमा-पर ध्यान सदैव उसका उस कटोरे पर, तेल पर ही रहा।
घूम फिर कर वह देव शाम तक पाया। और प्रसन्नता के साध कटोरा मय तेल के ज्यो का त्यो रख दिया । वोला--- ____ 'देखा आपने मेरा काम । एक भी बू द नीचे नहीं गिरने दी।
'धन्यवाद ।' भरत जी मुस्कराए। दोले - 'अच्छा यह तो वताइए • आपने क्या-क्या देखा?'
'जी। 1 !'
'मेरा तात्पर्य यह है कि वैभव की चमक, रानिणे की झमका, कमरो की दमक आपको कैसी लगी?' ___वाह जीवाह । मेरा तो मारा ध्यान बटोरे मे गावं तेल पर रहा । यदि घर देखना और तेल की एक भी बूद गिर जाती सो गया था न वाम ने। 'अाप भी खूब है काम तो सौंप दिया ऐसा और अब पूछ रहे है" चमक, झमक और दमक का
हान।'
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'धन्यवाद । तो अब आपको विश्वास मिल गया।' 'क्या मतलब ? ? ?'
मेरे मित्र । जिस तरह तुम्हे तलबार का ध्यान रहा'""वैसे ही मुझे भी सदैव मौत का ध्यान रहता है। क्यो रघू , पचू इस वैभव मे ? मौत का क्या कोई समय है? अर्यात क्या मालूम कब आजाऐ।" क्यो रच पच कर समय व्यर्थ किया जाय।
'परे? ।। " देव चौक उठा।'
'चौको नही मित्र । सत्यता यही है। जीवन की क्षरण भगुरता का ध्यान रखकर प्राणी को सदैव सन्तोष धारण करके रहना चाहिये यह ठाठ बाठ तो मात्र पुण्य की महिमा है जो कभी नष्ट हो सकते है।
'मैं "मैं " हार गया। 'हार गए ? कैसी हार "
'मैं समझता रहा था कि ग्राप इतने वैभव मे, ठाठबाट मे रचपच कर इससे निलिप्त नहीं रह सकते । और इसीलिए आपकी परीक्षा लेने का मैने दुस्साहस ठान लिया।'
'मेरे मित्र । तुम ठहरे देव । देव सदर स्वर्गीय वैभव मे रचपच कर अपनापन भी भूल जाता है - वह वियर वासना का वास होता है । पर मानव । मानव एक ऐना प्राणी होता है जो अपना आत्म कल्याण कर नकने के सभी माय कर सकता है। यदि मानव चाहे तो विषय बालना के ठोकर मार सकता है । भारम्भ परिग्रह त्याा सकता है।
• प्रान्त वातावरा से निकल कर शान्ति के पथ पर लग सकता है । यात्मा ने परमात्मा बन सकता है ।
किन्तु उने अपनी दृष्टि, अपने विचार नुवारते होगे । उने अपने हृदय से
-~-तृष्णा निकालनी होगी।
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( १८६ )
- घृणा त्यागनी होगी ।
-- द्वेप व राग का वितान फाडना होगा ।
-
- कषाय प्रवत्ति को मिटाना होगा ।
याद रखो मेरे मित्र । जब मानव की दृष्टि सम्यक् प्रकार हो जाती है - तब वह सम्यक दृष्टि कहलाने लगता है ।
**
भरत जी ने हर प्रकार सिद्धान्तिक रूप से समझाया और देव अति प्रसन्न हो चला गया ।
भरत जी ने महान् वैराग्य पोषक तत्वों का खूब अध्ययन किया, मनन किया और सनार की प्रसारता को समझने लगे । अपने ही अन्तर मे खोने लगे ।
,
X
X
X
X
भरत जी आज गहन चिन्तन ने थे, मनन मे थे, तभी
!
हा । तभी एक सेवक ने अभिवादन पूर्वक प्रवेश किया
1
'स्वामिन्
'कहो । कहो । क्या कहना चाहते हो ?
1
•
'स्वामिन्, हस्तिनापुर के महाराज जय कुमार जी ' 'हा । हा कहो - क्या हुआ
जय कुमार जी को ?"
'स्वामिन् । उन्होने घर-वार छोड दिया है, जगल मे । निवास कर लिया है ।'
पर क्यो ???. क्या दुख हुआ था उन्हें ? क्या कोई गृहस्थी में विवाद हो गया था ? या कोई विद्रोह हो गया था । या श्रापन में दलह हो गया था ?"
'जी नहीं प्रभो । यह तो सब कुछ नही हुआ था "
•
'तो फिर क्या बात हुई ? व्यो उन्होंने घर-दार छोडा ? क्यो उन्होने जंगल में निवास लिया ? बोलो बोलो '
·
·
'प्रभो। कहते हैं कि उन्हें वैरान हो गया है।' 'क्या ? ? ?" भरत जी चौक उठे ।
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( १८७ ) 'हा स्वामिन् । गली-गली मे, शहर के कोने-कोने मे यही चर्चा चल रही है।'
'प्रोफा' भरतजी जैसे होश मे आए हो अपने आपसे कहनेलगे
'मैं व्यर्थ ही यहा इस झझट मे फंसा हुआ हूँ । इसे कहते हैअात्म कल्याण करना । और एक मै हूँ कि विचार ही पूरे नहीं होते ।
'स्वामिन् ! क्या मुझे प्रवेश की प्राज्ञा है ? 'आ 'ओह पायो मानो प्रिये । बैठो बैठो।'
महारानी ने प्रवेश किया और पास ही के आसन पर विराज गई । भरत जी फिर अपने मे खो गए थे। महारानी ने बारम्बार उनके चहरे की ओर देखा ना मुस्कराये, ना कुछ बोले, ना कुछ सुने । महारानी कुछ चिन्तित सी हो उठी। पूछने लगी---
'स्वामिन् ।...। 'या ' हा क्या बात है?
'पाज आप इतने उदास क्यो है ' स्या कोई विशेष कारण । ' ___ हां प्रिये । प्राज मै अपने पर पा रहा हूँ ! देखो - तुम मुझे बहुत प्यार करती हो ना।'
भला माज आपने यह क्यो पूछा? त्या आपको ।' 'नही । नही । मेरा मतलब यह नहीं प्रिय । मैं तो तो ।'
ठहरिए । आपकी व्यथा मैं समझ गई हूँ।' महान ज्ञान की सागर महारानी सुभद्रा ने कहा-'आप ससार से उदासीन हुए जा रहे हो • पर यह उदासीनता तो राग भरी है, सोई-सोई है। इसमे ना रस हे और ना सरन है।
पाप भगवान रूपदेव (आदिनाथ टी) के चरण सान्निध्य में जादा दही मापको यह अभिलाषा पूर्ण होगी।
भरत जी देखते के देखते ही रह गए। उन्होंने उनी बत भावान वादिनाद के परख गन्निध्य में जाने की तैयारी की।
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१६-कैलाशपति भगवान शिव
कैलाश पर्वत पर भगवान आदिनाथ विराजे हुए थे। अखण्ड तपस्या मे लीन । पास ही से एक पतली पर सुहावनी जल की घारा आजकल मे ही बह चली थी। धीरे-धीरे वह अपना विस्तार करती रही और एक नदी का रूप धारण कर बैठी।
कैलाश पति भगवान शिव (आदिनाथ प्रर्थात्-जगत के प्रथम स्वामी के चरण सान्निध्य से निकली यह जल की विस्तृतवारा 'गया' कहलाई जाने लगी। __ वृषभ (बैल) चिह्न से चिह्नित और त्रिशूल (तीन प्रकार के शूल-जिनसे ससार के दुखो का सहार किया जाता है—यवासम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक् चरित्र) सहित भगवान आदिनाथ कैलाश पर्वत पर विराजमान थे।
पार्वती (पर्व-प्रति, अर्थात् महान् सुखदायक कल्गणकारी 'मोक्षलक्ष्मी) उनके अग-श्रा में समाई हुई थी । तेगवान चहरे पर महान् त्यागी व तप को प्रभा होते हुए भी चहरे में भोलापन (निष्कपटता) झलक रही थी। तभी तो इन्हें भोलानाथ कहते हैं। ___ आपने ही तो सर्व प्रथम पृथ्वी का भरण पोपण किया। पृथ्वी पर के नेकट का शमन किया और इसीलिए पाप 'शम्भू कहलाने लो।
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ससार के प्रारिणयो को सुख देने वाले, सकट निवारण करने वाले आप प्रथम महापुरुष, महान् अात्मा, महान् योगी थे-तभी तो आप 'शकर' कहलाए। ___ समवशरण मे विराजे हुए आपका मुह चारो दिशामो से दिखाई देता था-तो ऐसा भान होता था कि मानो प्रापके चार मुख हो । और तभी तो पाप चतुर्मुखी बह्मा कहलाने लगे। __ सृष्टि की रचना सर्व प्रथम प्रापने ही तो की थी- इसी लिए तो आप सजन हार कहलाए।
श्रादम को सतपथ दिखाकर हव्वा से आदम बनाया। प्रापही ने तो तहजीब, सिखाकर हेवान को इन्सान बनाया । तभी तो आप बाबा आदम कहलाए जाने लगे । __ आप परवर दिगार हुए, जमीन के मालिक हुए और अव्वल (प्रथम) अल्लाह (भगवान) हुए ।
सच तो यह है।
भगवान यादिनाथ-नियो के नहीं अपितु मानव मात्र के हितपो सतपथप्रदाक और जीवन दाता थे। उनका उपदेश सर्वजीवो के लिये समान था। किसी एक जाति या मजहब के लिये नहीं।
भाज कैलाश पर्वत का ककर-ककर, शकर हो रहा है। सर्प भगवान आदिनाथ के शरीर पर लिपटे हुए है-~-भयकर जानवर विद्वेष छोडकर इर्दगिर्द वैठे है और भगवान आदिनाथ अपने आप में मग्न है । तभी
तभी भरत ने धाकर भगवान में चरण हुए। सुलोचना एव अन्य नारियां भी वहा आई हुई थी। हजारो नर-नारी वहा दर्शनो को एकमित्त थे।
मात्र दर्शन करते ही भरत को अपने भापका भान हुआ और वैराग्य विभूषित हो गया। ब्राह्मी और सुन्दरी भी प्रारंका रूप मे यही थी । उन्ही के पास प्रनेको नारियों ने दीक्षा ली।
रो दिशाम्रो से जय-जय कार होने लगा।
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( १६० ) भगवान आदिनाथ मौन थे। मौन थे । और अपने ही प्राप मे लीन थे। अाज पवन मन्द और उर्धगति से चल रही थी। ___ आकाश-घरा पर विमान आ जा रहे थे। पुष्प वृष्टि हो रही थी। वायुमण्डल सुगन्धि से सुरभित हो उठा था।
अष्ट कर्म की वेडियो मे से ४ कर्म की वेडिया तो केवल ज्ञान प्राप्त करके पूर्व ही काट चुके थे, अवशेष कड़ियो का ग्राज निर्मूल हुना जा रहा था।
तभी गगन-मगन होकर नाच उठा। मधुर और विजय भरे वाद्य बज उठे। भगवान आदिनाथ की मगलदायक देह देखते-देखते ही कपूर की भाति उड़ गई । मात्र सिरकेश और नाखून शेष रहे । जिन्हे देवगण मगल कलश मे एकत्रित कर रहे थे।
श्रात्मा?
भगवान आदिनाथ की आत्मा पूर्ण परमात्मा बन चुकी थी। अर्थात् परमात्मा बन चुकी थी । अर्थात् सिद्ध पद पर जा विराजमान हुई थी। जन्म मरण के चक्कर से परे, मनन्त ससार से सूदूर और अपने ही आप मे लीन, ज्ञानानन्द मे रत–परमपद प्राप्त कर चुकी थी।
भगवान आदिनाथ का निर्वाण महोत्सव नर, सुर प्रादि ने मनाया।
भरत जो दीक्षित हो चुके थे-माज परम वैराग्य के रग मे रंगे जीवन को वास्तविकता को पहचान गए थे । भगवान आदिनाथ ने गृहत्य से सन्यास और सन्यास से निर्वाण प्राप्त करने की परम्परा को जन्म दिया।
मानव का कर्तव्य-मानव-प्रसिद्ध महामानव-त्रादिनाय ने सरलता से प्रदर्शित किया । आपके जीवन के अनुसार प्रत्येक मानव को अपना जीवन सफल बनाने के लिए परम्परा को ध्यान म रयकर जीवन का सदउपयोग करना चाहिए। यथा---
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( १९१ ) (१) जीवन का चौथाई भाग विद्याध्ययन में व्यतीत करना चाहिए।
(२) जीवन का चौथाई भाग समाप्त हो जाने पर नियम से ग्राहन्थिक परम्परा को निभाने के लिए विवाह करना चाहिये
और जीवकोपार्जन का उपाय करना चाहिए। जिसमे धर्म को मुख्य स्थान दे।
(३) जव जीवन का प्राधा भाग समाप्त हो जाय तो अपनी योग्य सन्तान को कार्यभार सम्हला कर आप उसकी देखभाल करे, उसे सतपथ दिखाए।
(४) जब जीवन का एक चौथाई भाग शेप रह जाए तो नियम से प्रात्म चिन्तन के रास्ते पर लग जाना चाहिए और सन्तोए धारण करके विचारो मे वैशष्ठ पविनता को पनपाना चाहिए।
इस प्रकार आयु के अन्त तक प्रात्म चिन्तन करना चाहिए।
आयु कितनी है, जीवन का कैसे विभाग किया जाय? यह प्रश्न आप कर सकते है। मत इसके विषय ना उलझा कर अपना जीवन ८० साल का मान लेना चाहिए और उसी के अनुसार परम्परागत कार्य करना चाहिए।
वैसे तो जीवन-लीला का कोई निश्चित समय नहीं कि कब समाप्त हो जाय । अत ज्ञानी पुल्प को तो सदैव ही समपय पर चलते रहना चाहिये । प्रारम्भ मे ही जीवन में सन्तोष सरलता, और सादगी सनना चाहिये।
पारिगरिक परिपालन के माथ-साथ अपने जीवन के सुधार का भी ध्यान दिने वाला महान् प्रात्मा ही कहलाती है।
'भगवान प्रादिनान ने समार को ज्या दिया हम अन्त मेहर विनार पर तध्य प्रस्तुत करेंगे।
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भगवान आदिनाथ ने ससार मे अवतार (जन्म) लेकर क्या नही दिया ? अर्थात सभी कुछ तो उन्होने दिया है । यथा--- ____ मानवता, मानवोपयोगी कर्म, जगत का निर्माण, ससार में पवित्रता, त्याग, सयम, तप, वैराग्य, सामाजिक नीति, राज्यनीति, शासन परम्परा, और मानव मे महानता का श्रोत
सभी कुछ तो भगवान आदिनाथ ने प्रदान किया है । प्रत आज सारा विश्व उन्ही की रचना का प्रति फल है । उन्हे--
-कोई आदिनाथ (ऋपभ देव) कहता है।
-कोई-ब्रह्मा कहता है, -~~-कोई-शिव कहता है, ----कोई-वावा आदम कहता है -कोई-परमेश्वर कहता है।
कुछ भी कहो सृष्टि के आदि पुत्प भगवान आदिनाथ प्राणी मात्र के हितंपी थे और उन्ही ने मानव को मानवता प्रदान की।
निरूपम निरान्तक नि शेप निर्भाय, निरशन नि शेप निर्मोह ! ते। परमसुख परदेव परमेश परमवीयं निरप निमल रूप वृपभेप । ते ॥
। जयमगलम्। नोट-पापको यह पाचानक कसा तगा--प्रपनी अमूल्य राय
अवश्य हने लिखने की कृपा कीजियेगा। हम पाठक गरण के 'ओं के जीने की प्रतीक्षा करेंगे। धन्यवाद
प्रापती प्रामारी जनिल पोस्ट तुफ्त ईश्वरपुरा मेरठ माहर।
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