SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियम से होता है । और प्रयम काल चक्र का रुख विपरीत हो उठता है। जिसके पश्चात् द्वितीय काल चक्र चलता है जिसमे पहला दुखमा दुखमा। दूसरा दुखमा। तीसरा दुखमा सुखमा। चौथा सुखमा दुखमा । पाचवा सुखमा और छठा मुखमा सुखमा । प्रथम प्रकार का परिवर्तन अवसर्पिणी काल का है जिसमे प्रथम से छठे तक अवनति ही अवनति होती जाती है। दूसरे प्रकार का परिवतन उत्सर्पिणी काल का है जिसमें उन्नति ही उन्नति होती जाती है। इस समय जो काल चक्र अपने परिवर्तन के साथ चल रहा है वह अवसर्पिणी काल का है । अर्थात् पतन का काल । इस समय अवसर्पिणी काल का पांचवा परिवर्तन 'दुखमा' चल रहा है। अवसर्पिणी काल के परिवर्तन मे आध्यात्मिक कला का ज्यो ज्यो परिवर्तन आगे बढता जाता है त्यो त्यो पतन होता जाता है । पौराणिक तथ्यो के आधार पर इस अवसर्पिणी काल के प्रथम समय मे पृथ्वी पर पोग भूमि की रचना थी । अर्थात् कल्पवृक्ष होते थे और प्राणी अपनी भोग्य सामग्री उन्ही से उपलब्ध कर लेते थे । उस वक्त ना द्वेष था और ना मोह ! क्योकि सभी को समान रूप से मन चाही वस्तु मिल जाती थी। नर और नारी की आयु बहुत होती थी। जब उनकी आयु नो माह की शेष रहती थी तब हो नारी के गर्भ रहता था । ज्यो ही सतान उत्पन्न हुई कि नर और नारी की आयु समाप्त हो जाती थी । उत्त्पन्न सतान युगल (नर-नारी) होती थी। उनचास दिन मे दोनो जवान हो जाते और फिर अपना समय व्यतीत करते। इस प्रकार यह कम चलता रहा । उस वक्त ना चन्द्रमा था और ना सूर्य । ना कीचड़ था और ना बादल (घटा) ना भयानक था और ना तूफान । काल चक आगे बडा । प्रथम से द्वितीय और द्वितीय से तृतीय।
SR No.010160
Book TitleBhagavana Adinath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasant Jain Shastri
PublisherAnil Pocket Books
Publication Year
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy