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'चव युद्ध सेना मे नही होगा। मारकाट नही होगी । श्रपितु युद्ध व दोनो भाइयो मे होगा । अत मान्ति और निर्भयता से रहो और दोनो के मल्ल, जल थोर दृष्टि युद्ध को शान्ति से देखो ।'
'घरे ! | " सेना, नागरिक, सब देखते के देखते ही रह गए । यह ग्रनोखी घोषणा सब को चौका उठी। सब प्रसन्न हो उठे और निर्धारित स्थान पर अपार भीड जमा होने लगी। उधर दोनो भाई, तीनो युद्ध के लिए तैयार हो रहे थे। दोनो ओर की सेनाओ, नागरिको को अपने-अपने स्वामी की विजय पर पूर्ण विश्वास था दोनो ओर से अपने-अपने स्वामी की जय की ध्वनि गुज उठी ।
दोनो ओर के दो महामन्त्री इनके निर्णायक निर्धारित हुए । युद्ध होने से पूर्व भरत के प्रधान सेनापति जय कुमार ने एकान्त मे सन्धि के लिए मंत्रणा भी की । निवेदन भी किया कि भाईभाई हो कर यो लडना शोभा की बात नहीं । यदि श्राप जैसे ज्ञानी पुरुष ही र्यो लडेगे तो प्रजा का क्या होगा ?
भरत ने भी विचार तो किया पर दिग्विजय का प्रलोभन शान्त न हो सका । 'ग्रह' ने भरत को शान्त न होने दिया । सेनापति और मन्त्रियों के समझा तुझाने पर भी भरत ने अपना विचार नही बदला |
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बदले भी कैसे ? जिसके दृश्य पर अभिमान ने पैर घर रखा हो, जिसके विचारो मे 'ग्रह' ने जहर घोल रखा हो, जो शान का भूखा हो भला वह कैसे हित की बात सोच सके। उसकी दृष्टि मे तो हित स्वय की विजय मे ही होता है । वह तब यह भी नही सोच पाता कि न्याय की तुला मे क्या रखा है ?
सेनापति और वृद्ध मन्त्रियो की बात सुनकर भरत जी मात्र