________________
११ आज के युग का स्वप्न भरत
के नेत्रो में
निद्राहरी छाई हुई थी।, चक्रवर्ती भरत अपने सुरभित, रमणीक, भव्यशयन कक्ष में सो रहे थे। रात्रि का अखंभाग का विसर्जन हो चुका था । चारों ओर रात्री का नन्नाटा छाया हुधा था। नीद गहरी होती जा रही थी। अर्ध रात्री पश्चात् की मन्द शीतल वायु उन-उन कर प्रकाश द्वार ने प्रदेश होकर मन में छा रही थी। उत्त मस्त भरी वायु के मोके छा जाने से नीद और भी भारी होती जा रही थी। अभी भोर होने मे का पी समय था। महाराज भरत भौर होने पर मगल वाण घोर मगलस्वरण की ध्वनि सुनने पर शयन सेज पर से 'योन प्रान्त' कर नाम लेते हुए उठते थे। किन्तु
किन्तु पास अचानक ही भोर होने से भी काफी समय पूर्व ही भाले दुल गई। हृदय पटल पर एक व्यापुनता सी छा गई मोर अनहोनी सो बात देखकर भरत चौक से गये। __ रानिया सो रही थी। परानी नुभद्रा भी गहरी नौद रेगे। उनमें नाक से सुगन्य शौर नुहावनी स्वास निगल रही थी । वहा मोद के सागर में डूबा मस्त ना लग रहा था । कोरि गुनी हुई थी। यायु अपनी मन्ती नया में विरोर हो यो । पाहर के पातापारा में भी गुणी पी
भाचाना योग जारा और हत्या करीता--