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( १६८ ) सी है । मैं आपका सेवक' और सेवक की पत्नी तो बेटी--- बहन के सदृश्य आपको समझनी चाहिए
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"खामोश | ! |" एक सिंह की सी दहाड गूज उठी । अर्क कोर्ति की प्राखो मे से आग निकलने लगी । उसने पुन युद्ध शुरू कर दिया ।
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जयकुमार ने समझ लिया कि अर्ककीर्ति की बुद्धि का दिवाला निकल गया है । अत युद्ध करना ही चाहिए ।
युद्ध हुआ और जमकर हुआ । अग्निवाण, पवनवारा, जलवारण, विषदारण, अमृतवाण का आदान प्रदान हुआ । अव गगन मडल पर भी गीध मडराने लगे थे। चारो और त्राही त्राही मची हुई थी। तभी
तभी अपनी रणकौशलता का उपयोग करके जयकुमार ने आर्ककीर्ति को वान्व लिया । और महाराज अकम्पन के पास उपस्थित किया | युद्ध बन्द का विगुल गूज उठा और सब यह देखने लगे कि क्या हुआ
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सभी प्रर्ककीर्ति की बुराई कर रहे थे। जयकुमार बच्चे बच्चे की जुबान पर था । सब उसकी प्रशंसा कर रहे थे और सुलोचना
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सुलोचना तो मोद के होज मे नहा उठी । जव विजयी पति पास आया तो सर्वस्व न्योछावर करके उसके तन मन से लिपट गई और प्रेमाश्र का श्रोत वहा उठी ।
राजा कम्पन ने कीर्ति को स्वतंत्र कर देने का आदेश दिया । स्वतंत्र होते ही अर्ककीर्ति अपनी उदण्डता पर लज्जित होता हुआ झुक गया ।
राजा श्रकम्पन ने उसे सीने से लगा लिया और समझदारी से काम लेने की शिक्षा दी। अपने साथ लेकर राजा अकपन ने वाराणसी नगर की ओर प्रस्थान किया ।
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