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(१६७ ) 'पया आप अकेले ही लडेगे • ?' 'तो और कौन मेरा साथ देगा वहा• किन्तु मुझे किसी के साथ की आवश्यकता भी नहीं है।'
इतना कहकर उन गोदडो के बीच सिह उतरा । उसे सामने आते देखकर अर्ककीति के दिल की आग और भी नमक उठी और एक निशाना बान्ध कर जहर बुझा तोर जयकुमार के सीने की ओर चला दिया। __ जयकुमार ने अपनी बुद्धिमता ले उस तीर को हाथ मे ही पान लिया चौर मुस्कराकर कहने लगे ..
'साप महाराज भरत चक्रवर्ती के होनहार पुन है । आपके साय युद्ध करना हमारे लिए शोभा की बात नही। मत प्रापको अपने पूज्य पिता के गमान धीरवान, दिवान और दयामान होकर यह प्रसगत कार्य नहीं करना चाहिए।' ___ 'ठीक है, ऐसा ही हो जायगा । पर एका रात के साथ ।' प्रोति ने कुपित स्वर में पहा । इसके साथ की जयभार पूर्व उठे।