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" पर श्राप हो कौन ?"
"इस उपवन का प्रमुख रक्षक 'वनदेव' ।"
" श्रोह "
"
सब चौक गये और मुनिपद छोडना ही अच्छा समझ किसी ने छाल (पेडो की वक्कल) किसी ने पत्ते, अपने शरीर पर लपेट लिये । किसी ने लगोट लगाकर शरीर पर मिट्टी लगा ली। किसी ने क्या और किसी ने क्या ? तात्पर्य यह कि नाना भेष मे वे तपस्वी बन गये और जैसेतैसे पेट भर कर भूख-प्यास मिटाकर जैसे-तेसे ध्यान भी करने लगे ।
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उनमे से विशेष अनुभवी कोई उनका मुख्य हो गया। जिससे उनका भी उन्ही रूपो मे भ्रमण होने लगा | भोला भाला और अनविज्ञ मानव उनकी प्राज्ञा मे चलने लगा |
श्राज छ माह पूर्ण होने जा रहे थे । पत्थर की मूर्ति समझ जगली जानवर भगवान के समीप बैठ गये थे । कोई-कोई जानवर तो उनके शरीर मे अपना शरीर भी खुजा रहा था ।
चिडिया, निडर होकर महाराज के मस्तिष्क पर आकर बैठ जाती । तपस्या और शान्त वातावरण के प्रभाव से ना वहा डर रहा श्रीर ना वैरभाव । जाति विरोधी भी अपना विरोध त्याग कर भगवान के चरणो मे बैठे हुये थे । सत्य ही - तपस्या एक महान विभूति होती है !