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रही बात अपरावी, अपराध, दण्ड और न्याय की । तो यह सब सामाजिकता के तथ्यों से सम्बन्ध रखकर राजनैतिकता के द्वार पर था टकरा जाती है ।
व्यक्ति अपराध जब करता है तब उसकी प्रभिलापा शान्त नहीं होती । अभिलापाऐं जब बढती हैं तब कि उसका मन वममे नही रहता । मन बसमे जब नही रहता तवकि वह तृप्णा की आग में झुलसा अपने विवेक को तिलांजली दे डालता है । अस यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी तृष्णा रोके, विवेक से चले, तो अपराध ही हो नहीं सकता |
अपराध कर देने के पश्चात् उसका उपनाम अपराधी हो जाता है । और अपराधी अपना विवेक खो बैठता है । ग्रत उसको विवेक देने के लिए, राह दिखाने के लिए दण्ड की योजना होती है ।
दण्ड भी उसके विचारों पर नावारित होता है। यदि अपरावी विवेकी है, पुण्य-स्वभावी है, हग्राही है, तो उसे शारीरिक ताडना दी जाती है ताकि उसके मन में उठी हुई दुष्परिणतियो का तनाव शान्त हो सके । यदि अपराधी ने अपराध कर लेने के पश्चात् अपना अपराध नम्रता और लज्जापूर्वक पहचान लिया है, स्वीकार कर लिया है तो उसे मान मानसिक सवेदना के शब्द से ही दण्ड दिया जाना उचित होगा ।
न्याय एक सत्य की तुला होती है । जिस पर पक्ष विपक्ष के खोट बाट नही रखे जाते ।
सत्य तो यह है कि अपराव उस समाज, उस शासन मे पनपते है जो समाज वा जो शासन स्वार्थी, बन गया हो, तृष्णा की आग में पड गया हो । जिसे मात्र ग्रह और ग्रहकार ने सता रखा हो । ऋत अपराव को जन्म देने वाला समाज और शासक