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४-संसार की संसृत्ति __ और क्षणभंगुरता
'मान्यवर पिता जी को सादर प्रणाम ।' 'अरे रे रे । वाही, मुन्दरी । आमो 'मानो'
भगवान आदिनाय अपने चिन्तन कक्ष मे विराजे हुये स्वाभाविक ज्ञान के द्वारा चिन्तन कर रहे थे तभी दोों पुत्रियो ने प्रवेश किया । नम्रता से नम्रीभूत दोनो कन्यानो ने अपने पूज्य पिता को तादर प्रणाम किया और दोनो, पूज्य पिता जी के अगलवगल अर्थात् एक दायें हाथ की ओर तथा दूसरी वाये हाथ की ओर शिर झुकाये बैठ गई।
भगदान आदिनाथ की दृष्टि दोनो के मुख कमल पर जा टिकी और प्रसन्नता की मुल्कराहट की फंहार व्रत पड़ी। बोले
'अब तो तयानी हो गई हो।' 'जी ! | | "' दोनो एक साथ चौंक उठी।
'देखो' अब तुम्हारी आयु विद्या गहण करने की हो गई है। विद्या विता सनार मे मानव तन अकार्य हो जाता है। विद्या ही तो मानव तन को सार्थकता है। विद्या ही ने तो ग्रात्मा परमात्मा बनती है। विद्या ही से तो मानारिक मनोरय पूर्ण होते हैं । विद्या ने ही नो सर्वोच्च पद की प्राप्ति होती है। प्रत. तुम्हारा यही काल विद्या रहण करने का है। प्रमाद को त्यागो और
सुसस्कार डालो।