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हैं । इसके दाई ओर एक और कक्ष है, जो तो ऐसा लग रहा है कि जिसे मानो इन्द्र ने अपना स्वयं का कक्ष लाकर यहां रख दिया हो। इस कक्ष मे आप दिवारो पर छन पर, फर्स पर अर्थात प्रत्येक स्थान पर अपना मुख दर्पण के सदृश देख सकते हो ।
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मालाए, झाडफनूम, झालरे, प्राकृतिक प्रकाश, घोर तुरभित महल से यह कक्ष ऐसा लग रहा है कि मानो स्वर्ग यही है । यही है महाराज नाभि का शयन कक्ष । जहाँ महाराज 'नाभि अपनी अतिप्रिय महारानी 'मरुदेवी' के साथ विश्राम करते है ।
महारानी मरुदेवी के रूप-सौन्दर्य का वर्णन लेखनी लिख सकने मे असमर्थ है | क्योकि ऐमा अनुपम सौन्दर्य देखने के पश्चात भी अवाक् दर्शक चाहे वह सुरपति ही क्यो न हो उस सौन्दर्य को लेखनी से बद्ध नही कर पाता । करे भी कैसे ? उस सौन्दर्य को लिखा कैसे जाये ? किसकी उपमा ते उसे रचा जाये ? इतना अनुपम सौन्दर्य जिसका वर्णन, अवर्णनीय है उसे कैसे कहा जाये ? श्रत आचार्य जिनसेन के शब्दो मे
सुयशा मुचिरायुश्च सुप्रजाश्च सुमगला । पतिवत्नी च या नारी सा तु तामनुवर्णिता || समतुप्रविभक्तांग मित्यस्या वपुरुजितम । स्त्री सर्गस्य प्रतिच्छन्द भावेनेव विधिर्व्यघात | इतना ही कहा जाना योग्य है ।
भोग भूमि का समय प्राय नष्ट हो गया । कल्प वृक्ष P रहे- इसी कारण महलो का आवास हो रहा है । महल भी देव द्वारा निर्मित | क्योकि उस वक्त का मानव क्या जाने कि मह कैसे बनाये जाते हैं । अर्धनग्न मानव, विकार से दूर और विज्ञान से रहित बड़ा ही अजीब सा लग रहा था । यद्वातद्वा विकार क लहर दौडती भी नजर आ रही है। मानव अब भूख भी महसूर करने लगा है और प्यास भी। फिर मी मानव अभी व्याकुल
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