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३- प्राहस्थ परम्परा का अभ्युदय
बालक वृषभ, योवन के उपवन में अपना कदम रख रहे थे । सुडोल, गठीला, सुन्दर एव बलिष्ठ शरीर पर शौर्य, वीर्य और धैर्य की क्रान्ति चमक रही थी । देवगण जो उनके साथ ध्रुव तक रहे थे अपना रूप फीका जान छूमन्तर हो गये थे ।
वस्त्रा-भूपरण धारण करने के पश्चात् जब युवक वृषभ दिखाई देते तो कामदेव स्वयं ही लगते थे । युवावस्था के अनुपम एव विलक्षण तथ्य आप में स्थित थे। युवक quभ को युवावस्था देख राजा नाभि और रानी मरुदेवी फूले न समाये ।
विचारा - अब समय परिवर्तित हो चुका है परम्पराओ को जन्म लेने का अवसर आ गया है । मानव अपनी मानवता की खोज मे व्याकुल हो रहा है। ऐसे समय मे नृपभ को विवाह करना चाहिये । उन्हें परम्परायें डालनी चाहिये। ऐसा विचार कर के नाभिराज वहा पहुचे जहां 'वृषभ' अपने कक्ष मे अपने ही विचारो मे खो रहे थे ।
राजा नाभि ने स्वय
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वृपक्ष को आशीर्वाद देने के साथ ही महाराजा - वृषभ के बगल मे बैठ गये और वोले
'सुनो
ין
'जी...'
'देखो, वैसे तो तुम महान् पुण्य-शाली हो, महान हो, पर निमित्त कारण से मैं तुम्हारा पिता हूँ और इसीलिये मुझे कुछ कहने का साहस हुआ है ।'
'आप आज ऐसी बाते क्यों कह रहे हे । आप तो पूज्य है ।