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( ५३ } तल्लीन थे।
किन्तु अन्य साथी, जिन्होने मात्र मोह के वश, मात्र देखा देखी, मात्र अपनी शान रखने के लिये और मात्र अपनी शिष्ठता प्रकट करने के लिए दीक्षा ली थी वे इस छह माह के लम्बे उपवास से व्याकुल हो उठे । छह माह तो क्या, जव तीन माह ही समाप्त हुए थे कि एक दूसरे की ओर देखने लगे... ।
"भगवान् कब तक बैठे रहेगे ?" "मालूम नहीं।" "पर यह भी क्या दीक्षा ?" "क्यो" "अरे । हम तो भूख के मारे मरे जा रहे हैं।" "थोडा धैर्य भी तो घरो।"
"धैर्य 77 तीन माह तो व्यतीत हो गये धर्य को धरते धरते। अब नही रहा जाता।"
"तो क्या करोगे?"
"करेंगे क्या? हम तो अपने घर जायेगे? कौन भूखे मरे ? यह भी कोई तपस्या है ?
"यदि घर गये और भरत महाराज नाराज हो गये तो ???" "हा । यह बात भी सच है ? पर किया क्या जाय ?"
"सुनो ! मैं समझता हूँ कि और थोडे दिन महाराज यो बैठे रहेगे। बाद मे तो उठेगे हो, और उठकर अयोध्या जायेंगे, फिर राजकार्य करेंगे और हम पर प्रसन्न होकर हमे भी शरण देंगे। हमारी भी रक्षा करेगे?"
"अरे ?? यह बात है । तब तो वहत ही प्रसन्नता की बात है । इतने दिन भूसे रह गये तो और थोडे समय तक रह लेगे।"
भगवान आदिनाथ तो पूर्ण मुनि अवस्था मे विराजे हुए थे ।