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अठाईस मूलगुण जो मुनि मे होने चाहिए-वे उनमे थे। बारह प्रकार के कठोर तप मे तल्लीन महामुनिराज सयम के शिखर पर चढने मे तत्पर थे । अडिग, अचल, पर्वत की भांति स्थिर, महामुनिराज आदिनाथ अपने ही आप मे लीन थे।
जटाये बिखरी हुई, दीर्घकाय शरीर तेज व प्रभायुक्त वेहरा, सब कुछ उनकी तपस्या का दिग्दर्शन करा रहे थे। सत्यत भगवान श्रादिनाथ तपस्वी थे।
विपयाशा वशातीतो, निराम्भो परिग्रह । ज्ञान ध्यानतपोरक्त तपस्वी स प्रशस्यते.॥
के अनुसार वे विषयवासना से दूर, प्रारम्भ परिग्रह से रहित और ज्ञान, ध्यान, तप में लीन सच्चे तपस्वी थे। जब एक माह
और व्यतीत हो गया और आदिनाथ अब भी न उठे तो अन्य निर्बल मुनि व्याकुल हो उठे।
"अब नहीं रहा जाता।" "भगवान ! हमे क्षमा करो ..." हमे छुट्टी दो।" "भगवान् । हम तो अपने घर जायेंगे।" "भगवान् । अब हम से भूख नही सही जाती ।" "और भगवन् ! प्यास भी नही सही जाती।" "तो भगवान् । नगा भी नहीं रहा जाता।"
"हा हा, भगवन् | गरमी तो जैसे तैसे सहन कर ली पर सरदी सहन नहीं की जा रही है ।
"अब हम कुछ भी खालेगे...""कुछ भी पीलेगे .." "सुनो भगवन् । नाराज नहीं होना ।"
"क्तायो । भगवन, इसमे हमारी भी क्या त्रुटि ? हमने तो सोचा था कि आप दीक्षा धारण करके खूब खायेगे और हमे भी खिलायेंगे।"