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ज्यो ज्यो सभी बातें निकट होती जाने लगी त्यो त्यो ही द्वार पर खडी भीड की उत्सुकता वढने लगी। कोई हाथी पर चढकर देख रहा है। कोई घोडे पर तो कोई ऊँट पर चढकर । कोई अपनी जगह से ही ऊंचा उठ उठ कर देखने का प्रयास कर रहा है । कोई किसी के कन्धे पर चढ गया है तो कोई भवनो की छतो पर चढे
तभी विजय सन्देश-वाहक अपने द्रुतगामी घोडे पर सवार दौडा हुआ विजय-पताका को फहराता हुआ आया । और 'जयभरत' का नारा लगाते हुये सबको विजय का सन्देश सुनाया। असंख्य जन-समूह ने एक स्वर से आकाश की छाती को दहला देने वाला 'जय भरत' का नारा लगाया।
अयोध्या के मुख्य द्वार पर भरत अपनी विजयी सेना के साथ आ पहुंचे। चक्र-रत्न द्वार के बाहर द्वार के सामने ऐसे पा गया जैसे किसी ने उसे कोल दिया हो । ना हिलना और ना झुलना ।
विजय का चिह्न चक्र-रत्न सवले पूर्व अयोध्या में प्रवेश करेतभी तो महाराज भरत प्रवेश कर सकते है। पर यह क्या हुआ? चक्र-रत्न द्वार पर ही अयोध्या के बाहर रुक क्यो गया? सबके चेहरे पर हवाइया उड़ने लगी। दिल धडकने लगा।
यह क्या हुआ? • 'यह क्यो हुना?
क्या अभी दिग्विजय नहीं हुई ? नही । नहीं । ऐना नहीं हो सकता।
हा हा कभी भी नही हो सकता क्योकि चारो दिशाओ पर महाराज भरत ने विजय प्राप्त कर ली है। • तब यह चक्र-रल अयोध्या में प्रवेश क्यो नहीं करता?
समझ में नहीं आता। • पूछो । पूछो । किसी ज्ञानी से पूछो ।