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१० सम्राट भरत की सामाजिक
और राजनैतिक व्यवस्था
कोलाहल और सपर्ष के अनेक वर्ष के पश्चात अाज भरत गपने ही विश्राम-कक्ष में सुख की सेज पर विश्राम कर रहे थे । छियानवे हजार रानियो मे प्रमुख पट्टरानी महाराजी 'सुभद्रा' महाराज भरत के पास ही विराजी हुई थी । अाज दोनो शान्त थे, प्रसन्न थे, और गौरव की गरिमा से फूले हुए थे। दोनो अपने-अपने मोद मे लीन हो रहे थे।
सहसा सुभद्रा ने महाराज भरत के मुख की ओर निहारा तो ज्ञात हुआ कि जैसे महाराज कुछ चिन्लन के क्षणो मे खोए जा रहे है। उसने पूछा
'क्या चिन्तवन हो रहा है स्वामिन् '
'। प्रोह ।' भरत कुछ चौके । फिर कहने लगे'प्रियं । तुम कितनी पुण्य शालिनी हो । इतना वैभव, उननी सम्पदा, इतना ऐश्वर्य आज तुम्हारे चरणो पर विसरा पटा हुआ है।' ___ पर क्या पापको ज्ञात नहीं कि यह पुष्य पाया कहा से ?' एक मधुर मुस्कान पिसेरती हुई रानी नुभद्रा ने पूना।
'ना · ।' भरत ने चुप संचते हुए कहा । "में वताले ?
हा हा प्रवश्य बतायो।' 'यह पुष्प आरा धारे पास से ।'