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( १७४ ) उचित समय जान, जयकुमार ने महाराज भरत से मिलना चाहा । अयोध्या यहा से निकट ही थी। अत शीघ्र ही वापिस आने को कहकर वह घोडे पर बैठ अयोध्या के लिए रवाना हुआ।
xxxx __ "हां 1 प्रभो, सेनापति जयकुमार जी आपके दर्शनो की ईच्छा लिए बाहर प्रतीक्षा कर रहे है।"
"अरे ? ? ? .." उन्हे सादर लिवा लायो ।”
दरवान भरत की आज्ञा पाकर द्वार पर प्राया और नम्रता पूर्वक अन्दर प्रवेश करने के लिए जयकमार से निवेदन किया । __ ज्यो ही जयकुमार ने भरत जी के दर्शन किए... उनके चरणो मे नतमस्तक हो गया।
भरत ने उन्हे ययायोग्य प्रासन दिया और विवाह की, पत्नी की सभी बाते खट्टी मीठी बातो के साथ पूछने लगे।
नन मन्तक हुआ जयकुमार शर्मातामा उत्तर देने लगा। "पागल कही के ...." "जी। -जयकुमार चौक गया ।
"पागल नहीं तो और क्या हो "भरत ने गुरूराते हुए पाह"परे ! तुम हमारे सेनापनि, और फिर हमे विना दुलाए विवाह कर बैठे ! हम पाते, जरा भच्चा आयोजन परो । मिठाई गाते .... और..."भोर .... " ____ चामिन् " ...' जयममार गदगद हो गिरन गया।
ना प्रेम बरस रहा था ... तिना मपनत्ल टारनामा " मा तो महान् निन्दमागे यूज्य पिता गौर नह
पुर...यामार मान माप मे सोया गी। "
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