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( १८२ ) मन में एक शल्य का जमा रहना है ।'
'वह क्या शल्य है प्रभो ।' 'यही कि "प्राखिर सहा तो भरत को पृथ्वी पर ही हूँ ?" 'परे ।।। • 'भरत पोन उठा' । प्रभो । क्या""पया ?'
'इस शत्य का निवारण भी तुम ही करोगे। बस मान तुम्हारे त्याग मान की प्रतीक्षा है ?'
'मैं सब समझ गया प्रभो।' इतना रहार प्रणाम करते हुए भरत ने महा से प्रस्थान
नि ।
विमान कार पटगासन बादलो के चरणों में बनायनी परत में नाथा टेक दिया । बार-बार प्रांमू झरने लगे। अपना मुगुट, यात्मलीगरणी में रख दिया। दीनता भरे शब्दो में निवेदन करने