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( १८७ ) 'हा स्वामिन् । गली-गली मे, शहर के कोने-कोने मे यही चर्चा चल रही है।'
'प्रोफा' भरतजी जैसे होश मे आए हो अपने आपसे कहनेलगे
'मैं व्यर्थ ही यहा इस झझट मे फंसा हुआ हूँ । इसे कहते हैअात्म कल्याण करना । और एक मै हूँ कि विचार ही पूरे नहीं होते ।
'स्वामिन् ! क्या मुझे प्रवेश की प्राज्ञा है ? 'आ 'ओह पायो मानो प्रिये । बैठो बैठो।'
महारानी ने प्रवेश किया और पास ही के आसन पर विराज गई । भरत जी फिर अपने मे खो गए थे। महारानी ने बारम्बार उनके चहरे की ओर देखा ना मुस्कराये, ना कुछ बोले, ना कुछ सुने । महारानी कुछ चिन्तित सी हो उठी। पूछने लगी---
'स्वामिन् ।...। 'या ' हा क्या बात है?
'पाज आप इतने उदास क्यो है ' स्या कोई विशेष कारण । ' ___ हां प्रिये । प्राज मै अपने पर पा रहा हूँ ! देखो - तुम मुझे बहुत प्यार करती हो ना।'
भला माज आपने यह क्यो पूछा? त्या आपको ।' 'नही । नही । मेरा मतलब यह नहीं प्रिय । मैं तो तो ।'
ठहरिए । आपकी व्यथा मैं समझ गई हूँ।' महान ज्ञान की सागर महारानी सुभद्रा ने कहा-'आप ससार से उदासीन हुए जा रहे हो • पर यह उदासीनता तो राग भरी है, सोई-सोई है। इसमे ना रस हे और ना सरन है।
पाप भगवान रूपदेव (आदिनाथ टी) के चरण सान्निध्य में जादा दही मापको यह अभिलाषा पूर्ण होगी।
भरत जी देखते के देखते ही रह गए। उन्होंने उनी बत भावान वादिनाद के परख गन्निध्य में जाने की तैयारी की।