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( १८६ )
- घृणा त्यागनी होगी ।
-- द्वेप व राग का वितान फाडना होगा ।
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- कषाय प्रवत्ति को मिटाना होगा ।
याद रखो मेरे मित्र । जब मानव की दृष्टि सम्यक् प्रकार हो जाती है - तब वह सम्यक दृष्टि कहलाने लगता है ।
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भरत जी ने हर प्रकार सिद्धान्तिक रूप से समझाया और देव अति प्रसन्न हो चला गया ।
भरत जी ने महान् वैराग्य पोषक तत्वों का खूब अध्ययन किया, मनन किया और सनार की प्रसारता को समझने लगे । अपने ही अन्तर मे खोने लगे ।
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भरत जी आज गहन चिन्तन ने थे, मनन मे थे, तभी
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हा । तभी एक सेवक ने अभिवादन पूर्वक प्रवेश किया
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'स्वामिन्
'कहो । कहो । क्या कहना चाहते हो ?
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'स्वामिन्, हस्तिनापुर के महाराज जय कुमार जी ' 'हा । हा कहो - क्या हुआ
जय कुमार जी को ?"
'स्वामिन् । उन्होने घर-वार छोड दिया है, जगल मे । निवास कर लिया है ।'
पर क्यो ???. क्या दुख हुआ था उन्हें ? क्या कोई गृहस्थी में विवाद हो गया था ? या कोई विद्रोह हो गया था । या श्रापन में दलह हो गया था ?"
'जी नहीं प्रभो । यह तो सब कुछ नही हुआ था "
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'तो फिर क्या बात हुई ? व्यो उन्होंने घर-दार छोडा ? क्यो उन्होने जंगल में निवास लिया ? बोलो बोलो '
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'प्रभो। कहते हैं कि उन्हें वैरान हो गया है।' 'क्या ? ? ?" भरत जी चौक उठे ।