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"क्या आपको ज्ञात नहीं, कि प्रात होते ही भरत महाराज अपनी चतुरगिणी सेना के साथ दिग्विजय को प्रयाण कर रहे हैं।"
"अरे। हमे तो ज्ञात ही नहीं।" "वस यही बात है । चलो सो जाओ अब !"
पर नीद किसे आये । जयनाद की गूज तो कानो मे समायी जा रही थी। हृदय मे एक वीरता की उमग लहलहा रही थी ।
इघर प्रात की बेला ने गगन के अन्धकार की छाती चीर कर पृथ्वी पर कदम रखा। उधर रणभेरी बज उठी। विगुल बज उठा। सैनिक सज उठा । घोडे हिनहिनाने लगे । हाथी चिंघाडने लगे। रस की ध्वजा फहराने लगी । अस्त्र-शस्त्र चमचमाने लगे।
तभी चक्ररत्न को साथ लिये भरत महाराज का आगमन हुआ। मेना ने अभिवादन किया। चक्र को सेना के आगे किया गया । एक विशाल और समी अस्त्र-शस्त्रो से सुसज्जित न्य ने महाराज भरत विराजमान हुए।
त्य में विराजते ही दिगुत बज उठा। सेना ने पुन 'जय भरत" का शब्द गूजायमान किया। सभी नैनिको ने अपने-पपने वाहन लिये और उन पर सवार हए ।
विशाल भेना ने पूर्व दिशा की ओर प्रयाण किया।
पैदल, अश्व, गज, और रख-मैना पृथ्वी को गेदती हुई माओ वही । गगन मण्डल धूल से प्राच्छादिन हो गया । घोडो की टापो, हाधियो की घन्टियों और रयो की भालरी ने वातावरण एव नदभुन प्रयापी जन उत्पन्न कर रहा था।
पहाट, वन, नदिया प्रादि दो पार गस्ती हमेना गा के मिनार का पची। जि ने भी मुना नि महाराज भरन निस्निगर पे निाये -जमी ने न प्राधिन बीगर गर रिया | उनी नै भन न माने लो। और यही भागो मेना के 7. भरतीमा माप हो गया।