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यहा भी नुलोचना ने आगे नहीं बोलने दिया और कदम प्रागे बढा दिया। इस प्रकार भनेक राजकुमारो के पास से परिचय कराती हुई परिचायिका सुलोचना को साथ लिए आगे बटनी जा रही थी । पराजित राजकुमारो के चेहरो पर हवाइया उड रही थी। इधर माता पिता व्याकुल थे कि अभी तक भी नुलोचना नै कित्ती को पसन्द नहीं किया।
एक राजकुमार के पान परिचारिका की और बोली .
'इघर निहारिए राजकुमारी जी । आप है श्रीमान जयकुमार जी। आप अपने कुल के दीपक है हस्तिनापुर के महाराज सोमप्रभ के पुत्र हैं, और आपके अनेक लघु भ्राता भी है। ग्राप भरत चक्रवर्ती जी के महान और विजेता नेनापति भी हैं। आप ही ने भरत चक्रवर्ती की विजय मे अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय देकर योगदान दिया था। त्प में, गुण मे और गौर्य में आप अद्वितीय हैं। आप धर्म अर्थ, काम और मोस पुरुषार्य को भली प्रकार ममझ कर प्राप्त करने वाले है ..' ___घर परिचायिका परिचय दे रही थी, उवर राजकुमारी की पलकें उठी और जय कुमार की पलको मे जा समाई। दोनो एक दूसरे को निज-निरख कर अपने ही आपने सो रहे थे। परिचायिका क्या-क्या यह ही है - इसका दोगो को ही भान नही रहा था।
परिचायिका रहती जा नही थी पर उनका प्रतिकार कुछ भी नहीं पा रही की। तनी उमने सुतोवना को भकाभोर पर रहा .. शाप नुन न्ही है ना राजमागे जी?' ___ "}} रानगुमारी चौक भी गई, और अपने माप में सिमट गई। रित्तो गई यह जयनारसी पनको में।