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( १५१ ) "क्या मैं अन्दर आ सकती हूँ ?" ' "माँ 11. "प्रोह" प्रानो आनो सुप्रमा।" ___ "क्यो, क्या बात है ? नाज तो कुछ व्याकुल से नजर आ रहे
हो।"
"अब तुझे क्या बताऊँ प्रिये । • तूने देखा है कभी सुलोचना को नजदीक से ?"
"मैं तो सदैव ही देखती है?"
"सदैव ही देखती है ? तो फिर बता तूने क्या-क्या देखा उसमे "
"मैंने वह सब कुछ देखा है-जिसे देखकर आज अाप व्याकुल और चिन्तित हो उठे हैं।"
"मोह। तो फिर तुमने मुझे अब तक बताया क्यो नहीं था " ___ "प्रापको अवकाश ही कहा मिलता है मेरी बाते सुनने का । जब अपने राज्य कार्य से निर्वृत्त होकर यहा पघारते हैं तो सिवा प्रेमालाप के और कुछ करने का, कहने का अवसर ही कहा दिया हे मुझे ? जब कभी कहना भी चाहा तो नापने उसमे चित्त ही कब दिया है ?"
"कुछ भी हो सुप्रभे । अब मुझे अहसास हो गया है कि सुलोचना कवारी रहने लायक नहीं है। इसका विवाह शीघ्र कर . देना ही उचित है ?"
"शीघ्र तो कर देना उचित है--पर शीघ्र हो इस योग्य लडका मिल जायेगा क्या ऐत्ता सम्भव है ?" ___ "हा | यह भी शोचनीय तथ्य है। तब किया क्या जाय?. .."
भारत को धर्मप्राण विशाल नगरी (नाशी देश की) वाराणसी के ठीक मध्य में एक विशाल, रमणीक और भव्य मनोहर भवन